इतिहास / History

मौर्यों की उत्पत्ति | चन्द्रगुप्त मौर्य का संक्षिप्त जीवनवृत्त | मौर्यों की उत्पत्ति पर प्रकाश डालें?

मौर्यों की उत्पत्ति | चन्द्रगुप्त मौर्य का संक्षिप्त जीवनवृत्त | मौर्यों की उत्पत्ति पर प्रकाश डालें?

मौर्यों की उत्पत्ति (Originof Mouryan)

भूमिका- ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में मगध साम्राज्य की बागडोर नन्दवंश के हाथों में चली गयी। नन्दवंश के अन्तिम शासक धननन्द के समय भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर सिकन्दर का आक्रमण हुआ और सिकन्दर की विजय के परिणामस्वरूप उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त के अनेक गणराज्यों का अन्त हो गया और वहाँ यूनानी शासन व्यवस्था लागू हो गयी। परन्तु 323 ई० पूर्व में सिकन्दर की अचानक मृत्यु हो जाने से यह समस्त व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी और यूनानी शासक के विरुद्ध चारों ओर विद्रोह की अग्नि भड़क उठी तथा भारत ने यूनानी परतंत्रता का जुआ उतार फेंका। इस विद्रोह या क्रान्ति का नेतृत्त्व चन्द्रगुप्त मौर्य ने किया और मगध में मौर्य वंश की स्थापना की।

मौर्य कौन थे?

चन्द्रगुप्त मौर्य की जाति एवं वंश के बारे में विद्वानों में मतभेद है, जो कि अभी तक दूर नहीं हो पाये हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य की जाति एवं वंश के बारे में प्रमुख रूप से चार मत हैं-

पहले मत के अनुसार, चन्द्रगुप्त मौर्य नन्दवंश के राजा महापदानन्द की ‘मुरा’ नामक दासी का पुत्र था। इसलिए चन्द्रगुप्त एवं उसके वंशज मौर्य कहलाये। इस प्रकार मौर्य लोग शूद्र कुल के ठहरते हैं, परन्तु यह मत ठीक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि यदि चन्द्रगुप्त शूद्र कुल का होता तो चाणक्य जैसा कट्टर ब्राह्मण कभी उसका साथ न देता और न ही उसको राजा बनने देता।

दूसरे मत के अनुसार, जिसमें बौद्ध ग्रन्थ आते हैं मौर्य शब्द प्राकृत भाषा के ‘मोरिय’ शब्द का रूपान्तर है। ‘मोरिय’ क्षत्रिय थे, जो नेपाल की तराई में ‘पिप्पलिबन’ नामक राज्य पर शासन करते थे। इस प्रदेश में मोर पक्षियों की बहुलता थी। अतः यहाँ के निवासी तथा उनके वंशज ‘मोरिय’ कहलाये। महावंश की टीका से ज्ञात होता है कि ‘मोरिय’ शाक्यों की ही एक शाखा थी जो कोशल नरेश विड्डभ के संहार से बचने के लिए पिप्पलिवन चले गए थे। महापरिनिर्वाण तथा दिव्यावदान बोद्ध-ग्रन्थों में भी चन्द्रगुप्त मौर्य को क्षत्रिय माना गया है।

तीसरा मत कुछ जैन ग्रन्थों के आधार पर है। ‘परिशिष्टपर्वन’ के अनुसार, चन्द्रगुप्त मौर्य मयूर पालकों के सरदार की एक कन्या का पुत्र था, जो क्षत्रिय वंश का था। आवश्यक सूत्र की मयूर पालकों के सरदार की एक कन्या का पुत्र था, जो क्षत्रिय वंश का था। आवश्यक सूत्र की हरिभद्रीयो टीका भी इस कथन की पुष्टि करती है।

मतानुसार, सांची के पूर्वी फाटकों पर मोरों के चित्र बने हुए हैं। मार्शल महोदय ने इससे निष्कर्ष निकाला कि सम्भवतः मोर पक्षी मौर्य वंश का राजचिन्ह था, इस राजचिन्ह के कारण इस वंश का नाम मौर्य पड़ा।

अधिकांश इतिहासकार अब इस बात को स्वीकार करते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय राजकुमार था। उसने जिस राजवंश की स्थापना की वह मौर्य वंश कहलाया तथा जिस काल में उसके वंशजों ने शासन किया, वह मौर्यकाल कहलाया।

जस्टिन, विष्णु-पुराण टीकायें, वृहत्कथा तथा मुद्राराक्षस ही चन्द्रगुप्त को तुच्छ कुल का बतलाते हैं। डॉ० राजबली पाण्डेय, डॉ. विमलचन्द्र पाण्डेय, डॉ० हेमचन्द्र राय चौधरी जैसे प्रसिद्ध इतिहासकारों ने भी मौर्यों को क्षत्रिय माना है। डॉ० जी० एस० पी० मिश्रा लिखते हैं, “मौर्यो की जातीयता के सम्बन्ध में यह विवाद केवल इस कारण उत्पन्न हुआ कि बाद के कुछ ब्राह्मण ग्रन्थों में चन्द्रगुप्त को शूद्र बतलाया गया है। वास्तव में मौर्य शासक ब्राह्मण धर्म तथा व्यवस्था को नहीं मानते थे। स्वयं चन्द्रगुप्त जैन धर्म का अनुयायी हो गया था और अशोक बौद्ध धर्म को मानने वाला था। दूसरे चन्द्रगुप्त ने यवन सैल्यूकस की लड़की के साथ विवाह किया था। इसी कारण बाद के परम्परावादी ब्राह्मण लेखकों ने मौर्यों को व्रात्य, वृषल अथवा शूद्र कहा। ऐसा केवल उनकी मौर्यों के प्रति कटुता की भावना के कारण है। बौद्ध साक्ष्यों तथा पुराणों के साक्ष्यों को देखते हुए इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता कि मौर्य क्षत्रिय थे।’ चौधरी ने सिद्ध करने का प्रयास किया है कि चन्द्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय था और यही मत सही प्रतीत होता है।

चन्द्रगुप्त मौर्य का संक्षिप्त जीवनवृत्त

चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवनवृत्त का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत दिया गया है-

(1) चंद्रगुप्त मौर्य का प्रारम्भिक जीवन- चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म लगभग 345 ई० पूर्व में हुआ था। इसके पिता सम्भवतः अपने राज्य से शत्रुओं द्वारा भगाये जाने पर पाटलिपुत्र के समीप आकर रहने लगे थे। चन्द्रगुप्त के पिता ने नन्द राजा की सेवा में नौकरी कर ली। परन्तु नन्द राजा और चन्द्रगुप्त के पिता में अनबन होने पर नन्द राजा ने चन्द्रगुप्त के पिता को मरवा डाला। उस समय चन्द्रगुप्त माँ के गर्भ में था। चन्द्रगुप्त की मां छिपकर पाटलिपुत्र में ही बनी रही। जब चन्द्रगुप्त कुछ बड़ा हुआ तो उसने नन्द राजा की सेना में नौकरी कर ली। अपनी योग्यता एवं साहस से वह सेना का उच्च अधिकारी बन गया। वह जनता में लोकप्रिय हो गया जो कि नन्द शासक को अच्छा नहीं लगा और उसने चन्द्रगुप्त की हत्या करवाने की सोची। चन्द्रगुप्त को इस बात का पता लग गया और वह पाटलिपुत्र से भाग निकला। इस घटना ने चन्द्रगुप्त मौर्य के मस्तिष्क में नन्दवंश को समाप्त करने का दृढ़ निश्चय उत्पन्न कर दिया।

(2) चाणक्य से मित्रता- इसी समय चन्द्रगुप्त की मित्रता चाणक्य नामक एक विद्वान ब्राह्मण से हुई। चाणक्य का भी नन्द राजा के हाथों घोर अपमान हो चुका था। इस पर चाणक्य ने भी नन्दवंश का अन्त करने की प्रतिज्ञा कर रखी थी। चन्द्रगुप्त मौर्य को उसकी योजना में उसको सहयोग देने वाला साथी मिल गया।

(3) नन्दवंश के विरूद्ध विद्रोह-अग्नि भड़काना- चन्द्रगुप्त एवं चाणक्य ने नन्द राजा के विरुद्ध विद्रोह भड़काना तथा नन्द राजा को पराजित करने के साधन जुटाना प्रारम्भ कर दिया। तैयारियां पूरी करने के बाद उन्होंने मगध पर आक्रमण कर दिया, जिसको नन्द राजा ने पूरी तरह विफल कर दिया। चन्द्रगुप्त और चाणक्य मगध राज्य से भाग गये। वे मगध पर आक्रमण करने की योजना बनाने लगे। चाणक्य तो बहुत बड़ा विद्वान तथा राजनीति का प्रकाण्ड पण्डित था। चाणक्य पश्चिमोत्तर सीमा प्रदेशों की कमजोरियों को खूब जानता था। उसे आशंका लगी रहती थी कि यह प्रदेश कभी भी विदेशी आक्रमणकारी के हाथों पड़ सकता है। अतएव इस प्रदेश के छोटे-छोटे राज्यों को समाप्त कर वह एक शक्तिशाली राज्य स्थापित करना चाहता था।

(4) सिकन्दर की सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न- नन्द राजाओं पर आक्रमण करने के लिए चन्द्रगुप्त मौर्य सिकन्दर के पास गया। परन्तु चन्द्रगुप्त के स्वतन्त्र विचारों के कारण सिकन्दर उससे अप्रसन्न हो गया और उसे मरवाने की आज्ञा दे दी, परन्तु चन्द्रगुप्त किसी प्रकार वहाँ से बच निकला। अब तो उसने नन्द राजाओं के साथ-साथ यूनानियों को भी भारत से खदेड़ने का निश्चय कर लिया।

(5) चन्द्रगुप्त मौर्य एक विजेता के रूप में-पंजाब पर अधिकार- अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए अब चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने पश्चिमोत्तर प्रदेश की जनता को विदेशियों के विरुद्ध भड़कान आम्भ किया। सिकन्दर के भारत से चले जाने के पश्चात् भारतीयों ने यूनानियों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। चन्द्रगुप्त ने इन विद्रोहियों का नेतृत्व किया और यूनानियों को पंजाब से भगाना प्रारंभ किया। यूनानी सैनिक भारत छोड़कर भाग गये और जो यहाँ रह गये उनको मरवा दिया गया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने सम्पूर्ण पंजाब पर अपना आधिपत्य कर लिया डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार का कहना है कि “इस प्रकार चाणक्य और चन्द्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में भारतीय विद्रोह को सफलता प्राप्त हुई और पंजाब तथा सीमा प्रान्त चन्द्रगुप्त के अधिकार में आ गए।” 321 ई० पूर्व तक या इसी वर्ष में झेलम से लेकर सिन्धु तक का प्रदेश  भी यूनानियों से छीन लिया गया। इसकी पुष्टि 321 ई० पूर्व में यूनानी सेनानायकों के मध्य सम्पन्न ट्रिपैरेडिसस की सन्धि से भी होती है। इसके कारण इसी वर्ष सिन्धु में नियुक्त क्षत्रप पैथान को भी हटा लिया गया। इस प्रकार सिन्धु और पंजाब पर चन्द्रगुप्त का अधिकार हो गया।

(6) मगध राज्य पर आक्रमण- पंजाब को अपने अधिकार में करने के पश्चात् उसने मगध राज्य पर आक्रमण कर दिया और उसकी सेना आगे बढ़ती हुई पाटलिपुत्र के निकट पहुँच गई। नन्द राजा धननन्द की पराजय हुई और वह युद्ध में मारा गया। अब 321 ई० पूर्व में चन्द्रगुप्त मगध के सिंहासन पर बैठ गया और चाणक्य ने उसका राज्याभिषेक कर दिया। डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि 323 ई० पूर्व की जून में सिकन्दर की अकाल मृत्यु हो जाने के बाद ‘यवन शक्ति का विध्वंस और नंदों की पराजय सिकन्दर की मृत्यु के दो तीन वर्षों के भीतर ही सम्पादित हो चुकी होगी। अतः चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण की तिथि हम 321 ई०पू० रख सकते हैं।”

(7) पश्चिम भारत के प्रदेशों पर विजय- चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्चिमी भारत में सौराष्ट्र तक के सभी प्रदेशों पर भी विजय प्राप्त की थी। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि सौराष्ट्र का प्रदेश चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य में शामिल था। यहाँ उसने पुष्यगुप्त को अपना गवर्नर नियुक्त किया था और पुष्यगुप्त ने ही सुदर्शन नाम की झील बनवाई थी।

(8) दक्षिण भारत पर विजय- अधिकांश विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिणी भारत पर भी अधिकार किया था। अशोक का साम्राज्य मैसूर तक फैला हुआ था। चूंकि अशोक ने कलिंग के अतिरिक्त अन्य किसी प्रदेश पर विजय प्राप्त नहीं की, इसलिए दक्षिणी भारत की विजय का श्रेय चन्द्रगुप्त को दिया जा सकता है।

(9) सेल्यूकस से संघर्ष- भारत के विभिन्न प्रदेश जीतने के पश्चात् चन्द्रगुप्त का युद्ध सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस निकेटर से हुआ। 305 ई० पूर्व में सिन्धु नदी के तट पर चन्द्रगुप्त मौर्य तथा सेल्यूकस की सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ जिसमें सेल्यूकस की पराजय हुई और विवश होकर उसको चन्द्रगुप्त से सन्धि करनी पड़ी। सेल्यूकस ने अनपी पुत्री हेलेना का विवाह भी चन्द्रगुप्त से कर दिया । सेल्यूकस ने वर्तमान अफगानिस्तान और बिलोचिस्तान का सम्पूर्ण प्रदेश चन्द्रगुप्त को दे दिया। उसने चन्द्रगुप्त के दरबार में मैगस्थनीज नामक अपना राजदूत भी रख दिया। चन्द्रगुप्त ने उपहारस्वरूप 500 हाथी सेल्यूकस को दिये।

(10) चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य विस्तार- अनेक विजय प्राप्त करके चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने साम्राज्य की सीमायें उत्तर-पश्चिम में हिन्दूकुश से लेकर पूरब में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में तिनावली तक फैला दीं। इतना विशाल एकछत्र साम्राज्य भारत में पहले कभी स्थापित नहीं हुआ था। डॉ० विमलचन्द्र पाण्डेय का कथन है कि ‘चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य हिन्दूकुश से लेकर बंगाल तक और हिमालय से लेकर मैसूर तक विस्तृत था। इसके अन्तर्गत अफगानिस्तान और बिलोचिस्तान के प्रदेश पंजाब, सिन्धु, कश्मीर, नेपाल, गंगा, यमुना का दोआब, मगध, बंगाल, कलिंग, सौराष्ट्र, मालवा तथा दक्षिणी भारत का मैसूर तक का प्रदेश सम्मिलित था।”

(11) मृत्यु- चन्द्रगुप्त मौर्य ने लगभग 24 वर्ष शासन किया। प्रारंभ में वह ब्राह्मण धर्मावलम्बी था, पर अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में उसने जैन धर्म अपना लिया, फिर भी अन्य धर्मों के प्रति वह उदार और सहिष्णु था। अन्न में, उसने जैन साधु की भाँति उपवास और तप करके देह त्याग दी।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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