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गीति काव्य का स्वरूप | गीति काव्य की विशेषताएँ | गीतिकाव्य परम्परा में मीरा के स्थान का निरूपण | मीरा के गीति काव्य परम्परा की विशेषताएँ

गीति काव्य का स्वरूप | गीति काव्य की विशेषताएँ | गीतिकाव्य परम्परा में मीरा के स्थान का निरूपण | मीरा के गीति काव्य परम्परा की विशेषताएँ

गीति काव्य का स्वरूप और विशेषताएँ-

गीति-काव्य कवि के अन्तग्रत की वह स्वतः प्रेरित तीव्रतम भावाभिव्यक्ति है, जिसमें विशिष्ट पदावली का सौन्दर्य अनुभूति की एकता एवं संगीतात्मकता के योग से द्विगुणित हो जाता है।

उपर्युक्त परिभाषा का विश्लेषण करने पर गीति-काव्य के निम्न तत्व स्पष्ट होते हैं-

(1) आत्माभिव्यंजना- कवि अपने एक अनुभक्ति भागों को ही प्रमुख रूप से अभिव्यक्त करता है।

(2) संगीतात्मकता- संगीतात्मकता गीति-काव्य का प्रमुख तत्व है। आत्माभिव्यंजित स्वसुर भी संगीत की स्वर-लहरी पर खरी उतरनी चाहिए।

(3) अनुभूति की पूर्णता अथवा भाव-प्रवणता- गीति-काव्य में प्रत्येक पद भाव- प्रवणता में पूर्ण होता है और पद-भाव बिखेरकर अपना समग्र प्रभाव डालता है।

(4) भावों की एकता- गीति-काव्य में भावों का केन्द्रीकरण आवश्यक है।

मीरा के पदो में गीति-काव्य के उपयुक्त सभी तत्व हैं। उनका सारा काव्य प्रेम-पीर की मार्मिक अभिव्यक्ति है। गीत की प्रत्येक पंक्ति संगीत के उतार-चढ़ाव पर खरी उतरती हैं अनुभूति और भाव-प्रवणता में प्रत्येक पद स्वयं में पूर्ण है, इससे उनका प्रत्येक भावों का एकीकरण करता हुआ अनुभूति का समग्र चित्र प्रस्तुत करता है।

(5) आत्माविभव्यंजना- गीति-काव्य कवि के आन्तरिक भावों का प्रत्यक्ष रूप बाह्यभिव्यंजना हैं गीतिकार काव्य में ऐसी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति करता है, जो सार्वकालिक और सार्वमौलिक होती है। मीरा के गीत इस दृष्टि से विशेष सफल हैं उनकी गीतों में अपने ही जीवन की परिस्थितियाँ मुखरित हो उठी हैं। उनकी सारी अनुभूतियाँ अनुराग और विराग के ताने-बाने से बनी हुई हैं उनका कृष्ण के प्रति अटूट और अपार अनुराग था, वे अपने प्रियतम के प्रेम में मग्न होकर हँसते-हँसते विष का प्याला पी गईं, और भुजंग को गले में माला की तरह धारण कर लिया। मीरा ने स्पष्ट घोषणा की कि उनका पति वही हैं, जिसके सिर पर मोर-मुकुट है। मीरा अपने हृदय में विषाद और अनुराग को सरलतम भाषा में अभिव्यक्ति कर देती है। निम्न उदारहण में देखिए-

आली री म्होर नैणाँ बाण पड़ी,

चित्त बढ़ी म्हारे माधुरि कूरति हिवड़ा अणी गड़ी।

कबकी ठाड़ी पथ निहाराँ अपने भवण खड़ी।

अटक्याँ प्राण साँवरों प्यारों जीवन मूरि जड़ी।

मीराँ गिरधर हाथ बिकानी लोग कहा बिगड़ी।।             

मीरा का हृदय विषाद और अनुराग से भरा हुआ हैं वे अपने प्रियतम कृष्ण की प्रतीक्षा कर रही हैं। उनके जीवन की विवशता बड़ी सरलता से अभिव्यक्त हो गई है। विरह के पदों में विरहिणी की आत्मक चीत्कार कर उठी है। निम्न उदाहरण में देखिये-

डोरि गयो मनमोहन पासी।

आँबा की डाल कोइल एक बोले, मेरो मरण अरु जग केरी हाँसी॥

विरह की मारी मैं बन-बन डोलूँ, प्राण तजूं करबत लउं कासी।

मीराँ के प्रभु हरि अविनासी, तुम मेरे ठाकुर मैं तेरी दासी।

मीरा के पदों में सहानुभूति की अभिव्यक्ति अवश्य है, किन्तु वह सहानुभूति व्यक्ति-विशेष या काल-विशेष की न होकर काल और देश की सीमा से परे है। वह सर्वदेशीय और सर्वकालीन है। इसलिए प्रत्येक पाठक उसके साथ अपने हृदय का तादात्म्य स्थापित कर लेता है।

संगीतात्मकता-

संगीतात्मकता गीति-काव्य की अन्यतम कसौटी हैं मीरा के गीतों में संगीतात्मकता का पूर्ण रूप से समावेश हैं संगीत-योजना रागों के ही अनुरूप है। प्रत्येक पद किसी न किसी राग से सम्बद्ध है। ‘राग हम्मीर’ का निम्न उदाहरण देखिए-

बस्याँ म्हारे नैनण माँ नंदलाल।

मोर मुकुट मकराकृत कुंडल अरुण तिलक सोहाँ भाल।

मोहन मूरति साँवरि सूरित नैना बण्याँ बिसाल।

अधर सुधारस मुरली बाजत उर बैजन्ती माल।

मीरा के प्रभु सन्तन सुखदायी भक्त-बछल गोपाल।

राग गूजरी म्हा मोहण रो रूप लुभानी।

सुन्दर बदल कमल दल लोचन बाकी चितवण नैन समाणी।

जमुना किनारे कान्हों धेनू चरावै बंशी बजावाँ मीठा बाणी।

तन-मन धन गिरधर पर वाराँ चरण कँवल मीराँ लपटाणी।

मीरा के पद में त्रिवेनी, राग-कमोद, राग-लीलाम्बरी, रागु-मुल्तानी, रागमालकोस, राग- झिसौंटी, राग पट मंजूरी, राग-गुल्कनी, राग-घोघी, राग-पीलू, बरवा राग-खम्भात, राग-पहाड़ी आदि अनेक रागों के उदाहरणों में मिलते हैं पीरों अपने युग की सर्वश्रेष्ठ गायिका थी। उनके गीतों में संगीतात्मकता का पूर्ण रूप से समावेश हैं

अनुभूति की पूर्णता-

गीत-काव्य में अनुभूति घनीभूत होकर झलक पड़ती हैं वह किसी न किसी प्रकारकी अनुभूति का समग्र चित्र, नेत्रों के समक्ष प्रस्तुत करती है। मीरा का काव्य अनुभूति से सराबोर है। वे कृष्ण के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर चुकी थीं। भावावेश में उनके पदों की प्रत्येक पंक्ति रस-सिक्त हो उठती है-

जोगी मत जा, मत जा, मत जा, पाँइ परूमैं तेरी चेरी हूँ।

इस पंक्ति में विवशता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति हुई है। अनुभूति की अधिकता पाठक के हृदय पर कितना प्रभाव डालती है। निम्न उदाहरण में देखिये-

माई म्हाँ गोविन्द गुण गाणा।।

राजा रूठ्या नगरी त्यागा, हरि रूठ्या कहं जाणा।

राणा भेज्य विषरों प्याला, चरणामृत पी जाणा।

कालो नाग पिटारियाँ भेजा सालिराम पिछाणाँ।

मीराँ तो अब प्रेम दिवाणी साँवलिया वर पाणाँ।

भावों की एकता-

गीति-काव्य की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि उसमें भावों की एकता और अन्विति हो। मीरा के प्रत्येक पद में भावों की एकता अन्विति और केन्द्रीयकरण’ है। कहीं-कहीं पर एक ही भाव अनेक प्रकार से पुष्ट होकर गीत की प्रभावत्मकता बड़ा देता है। उदाहरण के लिए निम्न पद लिजिए-

हरि तैं हर यो जग की पीर।

द्रौपदी की लाज राखी थैं बढ़ाया चीर।

भगत कारण रूप नरहरि धार्यां आप सरीर।।

बूड़ता गजराज राख्याँ, कढ़याँ कुंजर चीर।

दासी मीराँ लाल गिरिधर हरां म्हारी पीर।।

इस पद में अनेक कथाओं के द्वारा कृष्ण की भक्त आत्माविभव्यंजना का जो उत्कर्ष मीरा के पदों में मिलता है वह विद्यार्थी, कबीर, सूर और तुलसी के पदों में नहीं। मीरा के पद भावात्मकता में इन सबसे आगे भी निकल गये हैं। कबीर के पदों में आध्यात्मिक भावना है। विद्यापति के गीतों में प्रेम-अनुभूति, की व्यंजना है। सूर के पदों में भाव और संगीत का सुन्दर समन्वय है। तुलसी के पदों में विचारात्मकता के साथ व्यक्तित्व की छाप है, परन्तु मीरा के पदों में विद्यापति, कबीर, सूर और तुलसी की विशेषताओं का सफल समन्वय है। उनमें अध्यात्मिकता, विचार, अनुभूति, तीव्र अभिव्यंजना, संगीतात्मकता और व्यक्तित्व की छाप आदि सभी कुछ है। उनके पदों में काव्य और संगीत एक-दूसरे में समाहित होकर चरमोत्कर्ष पर पहुंच गये है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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