गुल्ली-डंडा | प्रेमचन्द – गुल्ली डंडा | कहानी कला की दृष्टि से गुल्ली डंडा का मूल्यांकन
गुल्ली-डंडा | प्रेमचन्द – गुल्ली डंडा | कहानी कला की दृष्टि से गुल्ली डंडा का मूल्यांकन
गुल्ली-डंडा
‘गुल्ली डंडा’ एक ऐसी कहानी है। इस कहानी में लेखक ने न केवल गुल्ली डंडा की विशेषताओं का बखान किया है बल्कि इस खेल की बारीकियाँ भी बताई हैं, गोया किसी को गुल्ली डंडा खेलना सिखा रहे हों। कहानी के आरंभ में ही वे गुल्ली डंडा को खेलों का राजा घोषित कर देते हैं और अंग्रेजी खेलों के मुकाबले उसके फायदे बताते हैं। वे यह बताना नहीं भूलते कि अंग्रेजी खेल उनके लिए है, जिनके पास पैसा है। ये अमीरों के चोंचले हैं। गुल्ली डंडा तो गरीबों का खेल है। यह ठेठ भारतीय खेल हैं जिसमें हरे लगे न फिटकरी रंग चोखा होता है। गुल्ली डंडा कहानीकार के बचपन की स्मृतियों में इस कदर शुमार हो गया है कि जब भी वे उसकी यादों में खोते हैं उन्हें गुदगुदी होने लगी है। जब भी लड़कों को गुल्ली डंडा खेलते देखते तो वे लोटपोट हो जाते हैं। इस कहानी का पात्र, जो अपनी कहानी सुना रहा है, एक थानेदार का बेटा है। अब वह इंजीनियर बन गया है। वह अपने बचपन को याद कर रहा है। उसे बचपन के दिन याद आते हैं, जब वह गांव में अपने दोस्तों के साथ गुल्ली डंडा खेला करता था। यह सुनहरी याद अभी भी उसके मन में ताजा है। बड़ा होने पर आदमी अपने बचपन की स्मृतियों में बार-बार डुबकी लगाता है और यदि स्मृति सुखद हो तो उसमें उसे अलौकिक सुख की अनुभूति होती है। इंजीनियर साहब (जो और कोई नहीं प्रेमचंद ही हैं) जिस प्रेम से गुल्ली डंडे को याद करते हैं, वह अद्भुत हैं।
गुल्ली डंडा में सामाजिक भेदभाव, छूत-अछूत, अमीरी-गरीबी का कोई स्थान नहीं होता। इसमें अमीराना चोंचेलों, प्रदर्शन और अभियान की गुंजाइश नहीं होती। इस प्रकार के भेद आते ही गुल्ली-डंडा की आत्मा मर जाती है। उसकी हत्या हो जाती है। अपने बचपन और गुल्ली-डंडा को याद करते हुए प्रेमचंद ने इसी सामाजिक असमानता और भेदभाव की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया है। यह प्रेमचंद का संस्मरण नहीं है बरिक संस्मरण की कहानी कहने का जरिया बनाया गया है। प्रेमचंद बचपन को याद करने के बाद कहानी का बहाव जिस ओर मोड़ देते हैं, उससे यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है। प्रेमचंद की यह खासियत है कि उनकी हर कहानी एक विडंबना को उजागर करती है।
इंजीनियर साहब अपने बचपन को याद करते हैं तो उन्हें गया नाम के लड़के की याद आती है। वे उसका बखान इस तरह करते हैं मानो वह सचिन तेंदुलकर
हों :
मेरे हमजोलियों में एक लड़का गया नाम का था। मुझसे दो-तीन साल बड़ा होगा। दुबला, लम्बा, बन्दरों की सी लम्बी-लम्बी पत्ली-पतली उँगलियाँ, बन्दरों की सी-ही चपलता, वही झल्लाहट। गुल्ली कैसी ही हो, उस पर इस तरह लपकता था, जैसे छिपकली कीड़ों पर लपकती है। मालूम नहीं उसके माँ-बाप थे या नहीं, कहाँ रहता था, क्या खाता था, पर था हमारे गुल्ली-क्लब का चैम्पियन। जिसकी तरफ वह आ जाए, उसकी जीत निश्चित थी। हम सब उसे दूर से आते देख, उसका दौड़कर स्वागत करते थे और उसे अपना गोइयां बना लेते थे।
वे बचपन के साथ बिताए गए एक दिन को याद करते हैं, जिसमें “वह पदा रहा था, मैं पद रहा था।” पदते-पदते जब हम थक जाते हैं तो धांधली शुरू कर देते हैं। पहले बहस होती है, फिर गाली-गलौज, फिर मारपीट की नौबत आ जाती है। “मैं थानेदार का लड़का एक नीच जाति के लौंडे के हाथों पिट गया, यह मुझे उस समय भी अपमानजनक मालूम हुआ, लेकिन घर में किसी से शिकायत न की।” पिता का तबादला हो जाता है। गया का संग छूट जाता है। बीस साल बादक्षछोटा बच्चा इंजीनियर बन जाता है। संयोग ऐसा कि इंजीनियर साहब उसी जिले का दौरा करते हुए उसी कस्बे में पहुंचते हैं और डाक बंगले में ठहरते हैं। स्वाभाविक रूप से उन्हें सहसा बचपन के दिन याद आ जाते हैं। पर वहाँ पहले जैसा कुछ नहीं था। स्मृतियाँ आदमी के व्यक्तित्व का अंग बन जाती हैं। लेकिन स्मृति का टकराव जब यथार्थ से होता है तो वह शीशे की तरह चकनाचूर हो जाती है। यहीं हाल इंजीनियर साहब का भी होता है। अचानक कुछ दूर पर दो तीन लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देख इंजीनियर साहब चहक उठते हैं।
“एक क्षण के लिए मैं अपने को भूल गया। भूल गया कि मैं ऊंचा अफसर हूँ, साहबी ठाट में, रोब और अधिकार के आवरण में।” इसलिए जब वे उन बच्चों से गया के बारे में पूछते हैं तो एक बच्चा सहमते हुए जवाब देता है- ‘कौन गया?- गया चमार ?” वह दौड़कर गया को बुला लाता है। इंजीनियर साहब उसे दूर से पहचान लेते हैं। इंजीनियर साहब का मन करता है कि दौड़कर गया के गले लग जाएं। पर वे ऐसा कर नहीं पाते। वे गया को गुल्ली-डंडा खेलने का निमंत्रण देते है। गया सिर झुकाकर उसे स्वीकार कर लेता है। वे दोनों खेलते हैं। इंजीनियर साहब गया को खूब पदाते हैं। इंजीनियर साहब जीतते जाते हैं, गया हारता जाता है, इंजीनियर साहब धांधली करते हैं, गया कुछ नहीं बोलता। इंजीनियर साहब को बड़ा आश्चर्य होता है कि गया सब कुछ भूल कैसे गया। वे मन-ही-मन अपनी जीत पर खुश होते हैं, थोड़ा घमंड भी उन्हें होता है। उनके मन में कहीं बचपन में गया से हार का बदला लेने का भी सुख तैर रहा है। लेकिन गया उनके भ्रम को चौबीस घंटों के भीतर धराशाई कर देता है।
वह इंजीनियर साहब को गुल्ली-डंडे के मैच में बतौर दर्शक और अतिथि आमंत्रित करता है। इंजीनियर साहब गया की चपलता, चुस्ती और फुर्ती देखकर दंग रह जाते हैं। बचपन के गया और आज के गया के खेल नैपुण्य में रत्तीभर फर्क नहीं पड़ा है। कल की झिझक, हिचकिचाहट, बेदिली आज नहीं है। इस बीच पदने वाला एक खिलाड़ी धांधली करता है। गया अपने उसी पुराने मिजाज में आ जाता है। इंजीनियर साहब को बचपन का वह दिन याद आ जाता है जब गया ने उन्हें पीट दिया था।
गुल्ली डंडा देसी खेल है, गंवारों का खेल है, ठेठ भारतीय खेल है। औपचारिकता और बनावटीपन का इसमें नामोनिशान नहीं है। लेकिन इसे साहब और नौकर साथ-साथ नहीं खेल सकते। इसमें पदना और पदाना दोनों शामिल होता है। नौकर जब-तक पदता रहे तब-तक तो ठीक है लेकिन नौकर मालिक को कैसे पदाए, कैसे हराए। इसीलिए इंजीनियर साहब और गया में गुल्ली-डंडा का खेल हो-ही नहीं पाया। वह एक साहब के साथ खेल नहीं रहा था, उन्हें खेला रहा था। अब इंजीनियर साहब और गया बचपन के मित्र नहीं रह गए थे। अफसरी दीवार बनकर खड़ी थी। इंजीनियर साहब को लगता है कि गया व्यवहार कुशल हो गया है। उसे ऊंच-नीच की पहचान हो गई है। वह उनका लिहाज तो कर सकता है, अदब तो कर सकता है, साहचर्य नहीं दे सकता। यह जीवन की सच्चाई है। बचपन में अमीरी-गरीबी, जात-पात, छुआछूत का ज्यादा भेदभाव नहीं होता। पर बड़े होने पर यह सब मित्रता के आड़े आने लगती हैं। इस लिहाज से भी बचपन सुहावना होता है और इसीलिए प्रेमचंद बचपन को बचपन की तरह बिताने के पक्षधर हैं।
कुल मिलाकर ‘गुल्ली-डंडा’ बचपन की स्मृतियों में खोई ऐसी लुभावनी कहानी है जो जीवन के कई मार्मिक प्रसंगों को स्पर्श करती है। बचपन की आजादी, स्वच्छन्दता, सैन-सपाटे और मौज-मस्ती इस कहानी की चाशनी है। सामाजिक भेद-भाव, प्रतिष्ठा और सम्मान के मानदंड का खुलासा ऐसी कड़वी दवा के समान है जिसे कहानीकार चाशनी में डुबोकर पेश करता है। मौज- मस्ती के बीच जीवन की सच्चाई को इस कदर रख देता है कि वहीं कहानी का क्लाइमेक्स बन जाता है। पता चल जाता है कि कहानीकार ने यह कहानी क्यों लिखी है? गुल्ली-डंडा की कहानी सुनाने मात्र से वे जीवन के एक यथार्थ- (सामाजिक भेदभाव मनुष्य जीवन के बीच खाई उत्पन्न करता है- से सबको परिचित कराते हैं। प्रेमचंद की महानता इसी में है कि बड़ी सी-बड़ी बात भी वे सहजता से कह जाते हैं। गुल्ली-डंडा खेलते-खेलते जीवन के एक बड़े सत्य को उद्घाटित कर देते हैं। यह कहानी गुल्ली-डंडा की कहानी न रहकर सामाजिक भेदभाव की कहानी बन जाती है।
गुल्ली-डंडा में एक गरीब आदमी की मन: स्थिति का स्वाभाविक चित्रण किया गया है। गरीबी और सामाजिक असमानता, गरीब व्यक्ति की मानसिक स्वच्छंदता को कुचल डालती है। वह अपने समाज में तो सहज रहता है, पर उस दायरे से निकलते ही असहज हो जाता है। बचपन इस सामाजिक भेदभाव से बिलकुल अनजान और बेखबर होता है। इसीलिए ‘नरेटर’ द्वारा गुल्ली डंडा में धांधली करने पर गया (जो जाति का चमार है) उसे पीट देता है। बड़ा होकर गया समझदार हो जाता है। सामाजिक और जातिगत भेदभाव को वह समझने लगता है। इसीलिए जब इंजीनियर साहब के साथ वह गुल्ली डंडा खेलता है तो बचपन वाली सहजता नहीं रह जाती है। उसकी सहजता औपचारिकता में बदल जाती है।
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