इतिहास / History

इतिहास की प्रवृत्ति | इतिहास का क्षेत्र विस्तार | इतिहास अपने आपको दोहराता है

इतिहास की प्रवृत्ति | इतिहास का क्षेत्र विस्तार | इतिहास अपने आपको दोहराता है

इतिहास की प्रवृत्ति

सामान्यतः प्रकृति और प्रवृत्ति में कोई अन्तर नहीं है। वर्ण्य विषयों के आधार पर भी यदि हम विवेचना करें तो इतिहास की प्रवृत्ति के विषय में यह कह सकते हैं कि उसकी प्रवृत्ति अथवा एक विज्ञान की है, एक कला की है और एक दर्शन की है, तो ऐसा कहना कोई हास्यास्पद नहीं होगा। फिर भी शाब्दिक आधार पर कुछ विद्वान् प्रकृति और प्रवृत्ति में अन्तर करके देखते हैं। अतीत की घटनाओं का अध्ययन-विषय होने के कारण कुछ विद्वान् यह कहते हैं कि इतिहास की घटनाओं की पुनरावृत्ति होती है। अन्य शब्दों में, इतिहास अपने को दुहराता है। ऐसे लोग अपने कथन की पुष्टि में युद्ध और क्रान्तियों का उदाहरण देते हैं और यह कहते हैं कि युद्ध भूतकाल में हुए थे, युद्ध वर्तमान में और भविष्य में भी हो सकते हैं। इसी प्रकार क्रान्तियाँ हुई थीं, होती हैं और होंगी भी। वास्तव में यदि शाब्दिक भावनाओं पर ध्यान दिया जाय तो ऐसा लगेगा कि इतिहास की पुनरावृत्ति अवश्य होती है, किन्तु यह सच नहीं है। यदि उन्हीं उदाहरणों को लें तो हम पायेंगे कि भूतकाल की तरह वर्तमान अथवा भविष्य में युद्ध हो सकते हैं, किन्तु उनके कारण और स्वरूप दोनों पहले से भिन्न हो सकते हैं और उसका परिणाम भी पूर्व जैसा नहीं हो सकता। इसी तरह यदि हम क्रान्ति को लें तो पहले की क्रान्ति का कारण और उसका परिणाम आवश्यक नहीं कि बाद की क्रान्ति जैसा ही हो। फ्रांस, रूस आदि देशों में हुई क्रान्तियाँ इसके लिए सशक्त उदाहरण हैं। अतः ये निराधार एवं निर्मूल (बेसिर-पैर की) बातें हैं कि इतिहास अपने को दुहराता है, अपितु सच यह है कि इतिहास में पुनरावृत्ति नहीं होती।

आधुनिक इतिहास की प्रवृत्ति यह है कि उसमें प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृतियों का दर्शन होता है। यह एक अत्यन्त रुचिकर विषय है। यह अतीत के आलोक में वर्तमान व्यवस्था को समझने और भविष्य की दिशाओं का निर्देश करने की प्रवृत्ति रखती है। धर्म, राजनीति, समाज, संस्कृति, अर्थव्यवस्था आदि सभी इसके ऐतिहासिक दर्शन में अभिरंजित हुए हैं। इसकी गवेषणा तथ्यात्मक एवं व्याख्यात्मक दोनों ही विधियों से की जा सकती है। तथ्य बदलते रहते हैं, व्याख्या बदलती रहती है और उसी के साथ-साथ इतिहास का स्वरूप भी बदलता रहता है। यह इतिहास की अपनी प्रवृत्ति है।

इसकी प्रवृत्ति की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह संसार के आध्यात्मिक और भौतिक प्रगति एवं विकास को स्पष्ट रूप से व्यक्त करती है और उस अभिव्यक्ति के माध्यम से एक अप्रत्यक्ष सन्देश भी देती है। उदाहरणार्थ इतिहास हमें बतलाता है कि कुछ समय पूर्व हमें स्वयं तक का ज्ञान नहीं था, हम नग्नावस्था में वन्य जीवन व्यतीत करते थे। हम सभ्य हुए, सुसंस्कृत हुए, हमारी बुद्धि का विकास हुआ, हमने अपनी आवश्यकता की वस्तुओं का अन्वेषण किया, हमारा चिन्तन विकसित हुआ और हमने ईश्वर की कल्पना की, उसके निराकार स्वरूप को साकार बनाया, भौतिक ज्ञान-बुद्धि के बल पर अपने ही समान अनेक द्वीपों की खोज की, सामुद्रिक यात्राएँ की, एवरेस्ट शिखर पर चढ़े चन्द्रमा तक हो आये, तलवारों को रख दिया और राकेट दागे इत्यादि। स्पष्ट है कि आगे भी हम जो करेंगे, वह सब भी इतिहास बन जायगा। अतः यह भी इतिहास की एक प्रवृत्ति ही है कि वह हमारे कर्मों का प्रतिफल है।

समय की शिला पर भी कुछ लोग इतिहास की प्रवृत्ति को अनावश्यक रूप से चित्रित करने का प्रयास करते हैं। उनके अनुसार इतिहास की प्राचीन प्रवृत्ति, मध्यकालीन प्रवृत्ति, आधुनिक प्रवृत्ति और शताब्दी के आधार पर 16वीं सदी की ऐतिहासिक प्रवृत्ति, 17वीं सदी की प्रवृत्ति आदि भी होती हैं। इसी तरह यदि इतिहास की प्रवृत्ति का निर्धारण किया जाय तो हमें हेगलयुगीन ऐतिहासिक प्रवृत्ति, स्पेंसरयुगीन प्रवृत्ति, ट्वायनवीकालीन प्रवृत्ति आदि का भी रूप प्राप्त होगा जो वास्तव में अनावश्यक वर्णन ही कहा जायगा। इसी तरह हम यह भी कह सकते हैं कि इतिहास की प्रवृत्ति ऐसी रही है अथवा है कि उसके बारे में भिन्न-भिन्न युगों में लोगों की भिन्न-भिन्न अवधारणाएँ एवं चिन्तन रहे हैं। उसके अध्यय की कतिपय पद्धतियाँ हैं, उसके सम्बन्ध अनेक विषयों से हैं, उनके अनेक भेद भी हो सकते हैं, उसकी विषय-वस्तु और क्षेत्र बहुत विस्तृत हैं, उसके महत्त्वपूर्ण अंगों में समय, व्यक्ति, स्थान और घटनाएँ रखी गयी हैं, उसका अध्ययन अनुपयोगी और उपयोगी। दोनों प्रकार का गया है, इत्यादि। अतएव यही कहना उचित होगा कि इतिहास की जो प्रकृति है वही उसकी प्रवृत्ति है और जो उसकी प्रवृत्ति है वही प्रकृति है।

इतिहास का क्षेत्र-विस्तार

किसी भी विषय के क्षेत्र-विस्तार से हमारा आशय यह होता है कि वह विषय अन्य कितने विषयों (ज्ञान) तक फैला होकर उनसे सम्बद्ध है। अपनी विषय-सामग्री के आधार पर भी वह विषय विस्तृत क्षेत्रवाला कहा जाता है। देश-काल और परिस्थिति के अनुसार उस विषय का महत्त्व जितना ही अधिक दूर तक का होगा; वह उतने ही विस्तृत क्षेत्रवाला होगा। विषयों का क्षेत्र विस्तार होने से तथा उनके स्वरूप में संशोधन-परिवर्द्धन आदि होने से भी किसी विषय का क्षेत्र विस्तृत और संकुचित होता रहता है। कोई एक विषय किसी एक समय में किसी अन्य विषय के अन्तर्गत होता है, किन्तु कालान्तर में वह एक स्वतन्त्र विषय बन जाया करता है। इतिहास-विषय की भी यही कहानी है। वह सामाजिक विज्ञानों की श्रेणी में आता है। किसी समय वह दर्शनशास्त्र का अङ्ग था तो कभी राजशास्त्र का। आज वह एक स्वतन्त्र विषय है और अपने आविर्भाव काल से लेकर अब तक उसका क्षेत्र बहुत अधिक परिवर्तित और परिवर्धित भी हो गया है। उसके क्षेत्र का स्वरूप निरन्तर परिवर्तनशील रहा है। यह परिवर्तन कहाँ तक चलेगा। निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, किन्तु इतना तो स्वीकार करना ही होगा कि इसमें जितना ही परिवर्तन और परिवर्द्धन होगा, इसका क्षेत्र उतना ही विस्तृत होता जायगा।

क्षेत्र-विस्तार सम्बन्धी कथन-

इतिहास का क्षेत्र विस्तार अनेक विद्वानों द्वारा कई दृष्टियों से विवेचित हुआ है। कुछ इतिहासकार उसका क्षेत्र इसलिए विस्तृत मानते हैं कि उसका स्वरूप भी पर्याप्त विकसित, परिवर्तित और विस्तृत है। उसके स्वरूप को विकसित बतलाने वालों का कहना है, कि इतिहास के विकसित स्वरूप का एकमात्र आधार विभिन्न युगों के सामाजिक मूल्य तथा उसकी सामाजिक आवश्यकताएँ रहती हैं। अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि इतिहास का स्वरूप सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार सदैव विकसित होता रहा है। आज उसके छोटे-छोटे विषय पर शोधकार्य करके इस क्षेत्र को और भी विस्तृत किया जा रहा है।

ज्ञान के आधार पर कुछ विद्वानों का कथन है कि प्रारम्भ में लोग इतिहास का अध्ययन वस्तुतः ज्ञान की प्रगति अथवा अपनी जिज्ञासा की शान्ति के लिए ही किया करते थे, किन्तु कालान्तर में (हेरोडोटस आदि ने) वर्तमान एवं भविष्य के लिए अतीतकालीन मानवीय कार्यों को सुरक्षित रखने के लिए ही इसका विस्तार हुआ। धर्म-नियमों के बोध हेतु और बाद में एक विज्ञान के रूप में इस विषय को कलात्मक शैली में प्रस्तुत करके इसके क्षेत्र को और भी विस्तृत किया गया। इसी तरह से मानव विकास के साथ-साथ इतिहास का क्षेत्र भी बढ़ता गया है, और अभी भी बढ़ता ही जा रहा है। इसमें अब प्रकृति, विज्ञान, कला, सामाजिक विज्ञान के विविध विषयों आदि का भी अध्ययन होने लगा है। इसीलिए यह कहा जाने लगा है…’इतिहास क्षेत्र के अन्तर्गत मनुष्य के एक साधारण कार्य से लेकर उसकी विविध उपलब्धियों का वर्णन होता है।

जॉन डीवी ने इतिहास का क्षेत्र निर्धारित करके हुए उसका वर्गीकरण भी अपने ढंग से किया है। वे मानते हैं कि इतिहास-क्षेत्र का स्वरूप निरन्तर परिवर्तनशील तथा सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार सदैव विकसित होता रहा है। जब समाज का क्षेत्र विस्तृत रहता है तब उसी के अनुरूप अनेकानेक सामाजिक आवश्यकताएँ हुआ करती हैं और जब उन सबका उल्लेख होना कठिन-सा हो जाता है तब इतिहास-क्षेत्र का वर्गीकरण किया जाता है, ताकि छोटे- छोटे से प्रकरण पर भी विस्तार से विचार-विमर्श किया जा सके। मार्क्स ने इसके क्षेत्र को लोकतांत्रिक समाजवाद तक पहुँचाया है, जबकि ओसवाल्ड स्पेंगलर ने संस्कृत अथवा संस्कृतियों तक, ट्वायनवी ने सभ्यता को इसके साथ मिलाकर देखा है। उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने इतिहास को अन्तर्राष्ट्रीय सीमा के अन्दर डालकर बहुत व्यापक क्षेत्रवाला बनाने का असफल प्रयास किया है।

प्रो० कार ने अतीत और वर्तमान के मध्य अनवरत परिसंवाद के रूप में कह कर इतिहास के क्षेत्र को व्यापक बनाने का प्रयास किया है। वे कहते हैं कि इतिहास का क्षेत्र विज्ञान की तरह ही विस्तृत हैं जिसमें तथ्यों की वैज्ञानिक व्याख्या होती है।

डॉ० काशीप्रसाद जायसवाल ने प्राचीन संस्कृत-ग्रन्थों में भी इतिहास ढूँढ़ने का सफल प्रयास करके उसके क्षेत्र को बहुत पीछे से विस्तृत करने का सबल प्रयत्न किया है।

डॉ० रमेशचन्द्र मजूमदार ने इतिहास के अध्ययन-क्षेत्र को सत्यान्वेषण तक ही सीमित करने का जो प्रयास किया है उसके पीछे मुख्यतः उनकी यही मनीषा है कि इतिहास-लेखन में अनावश्यक बातें न आने पायें और किसी अतिशयोक्ति का वर्णन न होने पाये।

पंडित जवाहरलाल नेहरू का ‘विश्व-इतिहास’ और डॉ० राममनोहर लोहिया का ‘समाजवादी इतिहास-चक्र’ भी इतिहास के क्षेत्र को कभी संकुचित अर्थों में प्रकट नहीं करता।

उपर्युक्त कथनों के आधार पर हमें इतिहास का क्षेत्र पर्याप्त विस्तृत किन्तु विविध प्रकार का प्राप्त होता है जिसका निर्धारण कई एक आधारों पर किया गया है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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