अर्थशास्त्र / Economics

द्वैतीय समाज की प्रमुख विशेषतायें | पश्चिमी आर्थिक सिद्धान्त की द्वैतीय समाज में अप्रयोज्यता

द्वैतीय समाज की प्रमुख विशेषतायें | पश्चिमी आर्थिक सिद्धान्त की द्वैतीय समाज में अप्रयोज्यता | Main features of dual society in Hindi | Applicability of western economic theory to a secondary society in Hindi

द्वैतीय समाज की प्रमुख विशेषतायें

द्वैतीय समाज की प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित हैं-

  1. दो विरोधी सामाजिक प्रणालियों की आर्थिक सिद्धान्त अन्तःक्रियाओं के वर्णन तथा स्पष्टीकरण के लिये प्रो. बुके ने “द्वैतीय समाज” के आर्थिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, जिसे वह “पूर्वीय अर्थशास्त्र” अथवा “द्वैतीय अर्थशास्त्र” का नाम देते हैं प्रो. बूके का सिद्धान्त अधिकाशतः इण्डोनेशियाई अनुभव पर आधारित है।
  2. द्वैतीय अर्थव्यवस्था के पूर्वीय क्षेत्र की कुछ विशेषतायें हैं, जो उसे पश्चिमी समाज से अलग करती है।
  3. पूर्वीय समाज की आवश्यकतायें सीमित होती हैं। यदि व्यक्तियों की तत्कालीन आवश्यकतायें पूर्ण हो जाये तो उनकी सन्तुष्टि भी हो जाती है। “जब नारियल की कीमत अधिक हो जाती है, तो सम्भावनायें ये हैं कि थोड़ी वस्तुयें विक्रय के लिये आयेंगी, जब मजदूरी बढ़ायी जाती है तो सम्पदा का प्रबन्धकर्त्ता यह जोखिम मोल लेता है कि पहले से थोड़ा काम होगा। यदि किसी कृषक के परिवार की आवश्यकताओं के लिये तीन एकड़ काफी हैं, तो वह छः की काश्त नहीं करेगा; जब रबड़ की कीमतें गिरती हैं तो वाटिका का मानिक वर्गों को अधिक गहनता से उपयोग का निर्णय करता है, जबकि ऊँची कीमतों का मतलब है कि उपयोगिता वृक्षों के थोड़े बहुत भाग को बिना उपयोग के छोड़ देता है।” इसका कारण यह है कि व्यक्ति आर्थिक की तुलना में सामाजिक आवश्यकताओं द्वारा अधिक प्रभावित होते हैं।
  4. वस्तुओं का मूल्यांकन प्रयोग-मूल्य की तुलना में प्रतिष्ठा-मूल्य के अनुसार होता है।
  5. स्वदेशी उद्योग लगभग संगठन रहित, पूँजीहीन, तकनीक के दृष्टिकोण से विवश तथा बाजार से अनभिज्ञ होता है।
  6. श्रम “आकस्मिक, शान्त, अकुशल, निष्क्रिय तथा असंगठित होता है।”
  7. आप्रवासन तथा देश के अन्दर एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में राज्य हस्तक्षेप के माध्यम द्वारा ही जाया जा सकता है।
  8. पूर्वीय समाज में विदेशी व्यापार का मुख्य लक्ष्य निर्यात है जो पश्चिमी समाज के लक्ष्य से एकदम अलग है, जहाँ वह आयात को सम्म बनाने वाला साधन मात्र है।

पश्चिमी आर्थिक सिद्धान्त की द्वैतीय समाज में अप्रयोज्यता

(In Applicability of Western Economic Theory to Dualistic Society)

पूर्वीय समाज की ये महत्वपूर्ण विशेषतायें पश्चिमी आर्थिक सिद्धान्त को विकासशील देशों के लिये पूर्णतया अव्यवहार्य बना देती है। प्रो. बूके कहते हैं कि “पश्चिमी आर्थिक सिद्धान्त पूँजीवादी समाज की व्याख्या के लिये है, जबकि पूर्वीय समाज पूर्व-पूँजीवादी है।” प्रथम, अलग- अलग प्रकार के सहकारी संगठनों, मौद्रिक अर्थव्यवस्था तथा असीमित आवश्यकताओं पर आधारित हैं। तत्पश्चात् विकासशील अर्थव्यस्था के अन्तर्गत साधनों की अगतिशीलता के कारण, साधनों के विभाजन या आय के वितरण की व्याख्या के लिये वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त को लागू करना ठीक नहीं है। इसलिये प्रो. बूके ये कहते हैं कि “अच्छा है कि हम पश्चिमी सिद्धान्त के कोमल, कमजोर, काँच-ग्रह के पौधों को ऊष्णदेशीय धरती में प्रतिरोपित करने का प्रयत्न न करे, जहाँ कि शीघ्र मृत्यु उनकी प्रतिज्ञा करती है।” अतः समस्त अर्थव्यवस्था पर एक ही नीति लागू नहीं की जा सकती। इसका कारण यह है कि जो एक समाज के लिये हितकर हैं, वह दूसरे के लिये हितकर हो, ऐसा जरूरी नहीं है।

पूर्वीय अर्थव्यवस्थाओं की प्रकृति द्वैतीय होने के कारण पश्चिमी तरीके से उनकी पूर्व- पूँजीवादी कृषि के विकास का प्रयत्न निष्फल होने के साथ-साथ ह्रास भी ला सकता है। आधुनिक कृषि तकनीकों का प्रचलन करने के लिये लोगों की मानसिक वृत्तियों में बदलाव जरूरी हैं अन्यथा परिणामस्वरूप होने वाली धन में वृद्धि, जनसंख्या को और अधिक बढ़ायेगी। यदि पश्चिमी प्रौद्योगिकी सफल न हो पाये तो ऋणग्रस्तता में वृद्धि हो जायेगी। अतः उनकी वर्तमान कृषि- व्यवस्था में कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये क्योंकि उसमें सुधार कर पाना काफी कठिन है।

औद्योगिक क्षेत्र में, पूर्वीय उत्पादक अपने को प्रौद्योगिकीय, आर्थिक अथवा सामाजिक रूप से अपने पश्चिमी प्रारूप के अनुकूल नहीं ढाल सकता। यदि पूर्वीय उत्पादक पश्चिम की नकल करता है तो उसे हानि हो सकती है। प्रो. बूके अपनी इसे तर्क की पुष्टि करने के लिये इण्डोनेशिया का उदाहरण देते हैं, जहाँ इण्डोनेशियाई अर्थव्यवस्था का औद्योगिकरण करने के लिये पश्चिमी प्रौद्योगिकी के अपनाने से आत्मनिर्भरता की मंजिल को और भी दूर कर दिया है तथा उसके छोटे उद्योग का नाश किया है।”

प्रो. बूके ने विकासशील देशों में पाँच प्रकार की बेरोजगारी का संकेत दिया है, सामाजिक (ऋतुकालिक), आकस्मिक, नियमित श्रमिकों की बेरोजगारी, बाबू लोगों की बेरोजगारी तथा यूरेशियाइयों की बेरोजगारी। वह यह समझते हैं कि उन्हें दूर करना सरकार के बस की बात नहीं है, क्योंकि इससे जो वित्तीय भार पड़ेगा, वह सरकार के साधनों से अधिक होगा।”

विकासशील देशों में सीमित आवश्यकतायें तथा सीमित क्रय-शक्ति सम्पूर्ण आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न करती हैं। खाद्य-पूर्ति अथवा उद्योग-वस्तुओं की वृद्धि बाजार में पदार्थों की मात्रा अधिक कर देगी, जिससे बाद में कीमतें कम हो जायेगी और मन्दी आयेगी, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं लगाना चाहिये कि प्रो. बूके सम्पूर्ण औद्योगीकरण तथा कृषि सुधारों से सहमत नहीं हैं, बल्कि यह औद्योगीकरण तथा छोटे पैमाने पर कृषि विकास की धीमी प्रक्रिया का समर्थन करते हैं, जिसे पूर्वीय समाज के द्वैतीय ढाँचे के अनुकूल ढाला गया हो।

समीक्षात्मक मूल्यांकन

(Critical Appraisal)

प्रो. बेन्जमिन हिर्गिन्ज ने डॉ. बूके के द्वैतीय विकास के सिद्धान्त की तीव्र आलोचना की है, जो कि निम्नलिखित हैं-

  1. प्रो. बूके का द्वैतवाद आर्थिक की तुलना में सामाजिक सांस्कृतिक पक्षों पर अधिक केन्द्रित है। वह यह मानते हैं कि विभिन्न प्रकार की बेरोजगारी सरकार के बस की बात नहीं है। उन्होंने अल्प-रोजगार पर कोई ध्यान नहीं दिया, जो कि घनी आबादी वाली अर्थव्यवस्थाओं की मुख्य विशेषता है। प्रो. बूके के द्वैतवाद में यह एक बड़ी कमी है।
  2. प्रो. बूके विकासशील देशों के लिये विशिष्ट, आर्थिक तथा सामाजिक सिद्धान्त देने में सफल नहीं हुये हैं।
  3. प्रो. बूके अपने सामाजिक द्वैतवाद के सिद्धान्त को केवल पूर्वीय अर्थव्यवस्थाओं से सम्बद्ध करते हैं, लेकिन वह यह स्वयं भी स्वीकार करते हैं कि अफ्रीका तथा दक्षिण अमेरिका की अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं में भी सामाजिक द्वैतवाद पाया जाता है; किन्तु यह अल्पविकसित क्षेत्रों की ही विशेषता नहीं है। कैनेडा, इटली तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में भी यह विद्यमान है बल्कि प्रत्येक अर्थव्यवस्था “प्रौद्योगिकीय उन्नति की विभिन्न कोटियों के अनुसार अलग-अलग क्षेत्रों में विभाजित की जा सकती है।”
  4. स्वयं इण्डोमेशिया का अनुभव प्रो. बूके की इसे बात का समर्थन नहीं करता कि विकासशील देशों में लोगों की आवश्यकतायें सीमित होती है। वहाँ सीमान्त उपभोग और आयात प्रवृत्तियाँ दोनों ही ऊँची हैं। लोगों की आवश्यकतायें सीमान्त नहीं, बल्कि घरेलू और आयातित अर्द्ध-विलास वस्तुओं की काफी माँग है। भारत में यदि अच्छी फसल हो जाये तो रेडियो, ट्रांजिस्टरों तथा घड़ियों इत्यादि की माँग काफी बढ़ जाती है।
  5. मौद्रिक और राजकोषीय नीतियों के मूल में निहित पश्चिमी आर्थिक सिद्धान्त के कुछ औजार और भुगतान-शेष के असन्तुलन को दूर करने वाले साधन थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ पूर्वीय समाज पर भी लागू होते हैं। प्रो. हिग्गिन्ज यह मानते हैं कि “उपयुक्त संस्थानिक धारणाओं से परिभाषित मॉडल के भीतर आर्थिक तथा सामाजिक विश्लेषण के परिचित औजारों का व्यवहार करके” विकासशील देशों की समस्या का समाधन किया जा सकता है।
  6. पूर्वीय समाज की जिन प्रमुख विशेषताओं के विषय में प्रो. बूके ने बताया है, उनमें से बहुत-सी पश्चिमी समाजों पर भी लागू की जा सकती हैं पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं में जब भी कभी दीर्घकालिक स्फीति आती है अथवा आने लगती है, तो लोग दीर्घकालीन निवेशों की तुलना में सट्टा सम्बन्धी लाभों को अधिमान देते हैं। प्रो. हिग्गिन्ज के शब्दों में, “पश्चिमी अर्थशास्त्रियों ने ‘तरलता अधिमान’ तथा ‘सुरक्षा अधिमान’ से सम्बन्धित विश्लेषण के पूरे क्षेत्र का हाल ही में विकास किया है ताकि सारी दुनिया में निवेशकों के जोखिम या अतरलता उठाने की अनैच्छिकता और उनके पूँजी की सुरक्षित तथा तरल रूप से रखने के प्रवल अधिमान का हिसाब लगाया जा सके।”
  7. प्रो. बूके का यह कहना भी उचित नहीं है कि पूर्वीय अर्थव्यवस्थाओं में लोग अपने ग्राम-समुदाय नहीं छोड़ना चाहते। वास्तविकता यह है कि अपने सिनेमा, दुकानों, होटलों, खेल प्रतियोगिताओं इत्यादि के सभी आकर्षणों से युक्त शहरी जीवन ने सदैव देहाती क्षेत्रों से स्थानान्तरण कराया है। प्रो0 हिग्गिन्ज लिखते हैं कि “मुझे इसका कोई प्रमाण दिखाई नहीं देता कि पूर्वीय श्रम आन्तरिक रूप में पश्चिमी श्रम की अपेक्षा अधिक अगतिशील है।”

निष्कर्ष-

वास्तव में द्वैतीय अर्थव्यवस्थाओं की प्रमुख समस्या यह है कि वर्तमान तथा सम्भावित अल्प-विकसित श्रम-शक्ति को उचित रोजगार की सुविधायें प्रदान करनी चाहिये। इसलिये प्रो. हिग्गिन्ज ने प्रौद्योगिकी द्वैतवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, जो “दो क्षेत्रों में साधन सम्पन्नताओं तथा उत्पादन फलनों में भेदों को “प्रौद्योगिकीय द्वैतवाद’ का आधार मानता है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि उत्पादक रोजगार के लिये अपर्याप्त संख्या में मार्ग पाये जाते हैं।” यह प्रो. बूके की तुलना में अधिक यथार्थिक द्वैतीय सिद्धान्त है क्योंकि यह सिद्धान्त विकास के आदर्श पर द्वैतीय समाज के प्रभावों का विश्लेषण करता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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