लघु उद्योगों की मुख्य विशेषताएं | लघु उद्योगों की स्थापना हेतु क्षेत्र | लघु व कुटीर उद्योगों के उद्देश्य | लघु तथा कुटीर उद्योगों की समस्याएँ
लघु उद्योगों की मुख्य विशेषताएं | लघु उद्योगों की स्थापना हेतु क्षेत्र | लघु व कुटीर उद्योगों के उद्देश्य | लघु तथा कुटीर उद्योगों की समस्याएँ | Main Characteristics of Small-Scale Industries in Hindi | Scope for Setting up Small Industries in Hindi
लघु उद्योगों की मुख्य विशेषताएं
(Main Characteristics of Small-Scale Industries)
लघु उद्योगों की मुख्य विशेषतायें निम्न हैं-
(1) लघु उद्योग सामान्यता एक व्यक्ति का कार्य है, जहाँ छोटे-छोटे यूनिट साझेदारी व कम्पनी के रूप में चलते हैं। वहाँ भी इनकी गतिविधियाँ किसी एक साझेदार के द्वारा अथवा संचालक के द्वारा चलाई जाती है। व्यवहार में अन्य व्यक्ति निष्क्रिय साझेदार अथवा संचालक के रूप में कार्य करते हैं, तथा मुख्य रूप से उनके लिये कोष उपलब्ध करवाते हैं।
(2) लघु उद्योग में मालिक स्वयं प्रबन्धक का कार्य भी करता है। मुख्य रूप से ये इकाइयाँ व्यक्तिगत रूप से कार्य करती हैं। मालिक को व्यवसाय में क्या और कैसे करना है इसकी पूरी जानकारी होती है। वह समस्त व्यावसायिक निर्णयों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता है।
(3) बड़े उद्योगों की तुलना में लघु उद्योगों में श्रमिकों की प्रधानता व पूँजी का कम विनियोग रहता है। पी०सी०महालनोबिस के अनुसार, लघु उद्योगों में बहुत कम पूँजी की आवश्यकता होती है। रु.600-700 से एक कामगार परिवार कार्य प्रारम्भ कर लेता है। थोड़े से विनियोग से 10 और 15 एवं कभी-कभी 20 गुना अधिक बड़ा कार्य कारखाना पद्धति की तुलना में हो सकता है।
(4) लघु इकाइयों को उपलब्ध साधनों से कहीं भी जहाँ साधन जैसे-माल, श्रमिक इत्यादि उपलब्ध हो, प्रारम्भ किया जा सकता है।
(5) बड़े उद्योगों की तुलना में लघु उद्योगों में पूँजी का विनियोग करने के बाद कार्य प्रारम्भ किया जा सकता है।
(6) लघु उद्योग प्रायः स्थानीय (Local) व क्षेत्रीय मांग को ध्यान में रखकर कार्य करते हैं।
(7) अन्त में लघु उद्योग दीर्घ उद्योगों की तुलना में अधिक जल्दी परिवर्तन स्वीकार कर लेते हैं।
लघु उद्योगों की स्थापना हेतु क्षेत्र
(Scope for Setting up Small Industries)
वर्तमान सरकार की नीति भारत में लघु उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन देना है। इन कार्य के लिये सरकार ने बड़ी संख्या में उत्पादों के उत्पादन को लघु इकाइयों के लिये आरक्षित किया है। इन्हें हर प्रकार की सुविधायें दी जा रही हैं उदाहरण के लिये इन्हें पूंजी पर रियायत, ब्याज में छूट, विभिन्न प्रकार के अनुदान (Grants) व प्रोत्साहन (Incentives) दिये जा रहे हैं। इनको सरल शर्तों पर 1 करोड़ तक के ऋण की सुविधा दी जा रही है। वर्तमान में इनकी स्थापना के लिये निम्न कार्य क्षेत्र को उपयुक्त माना जा रहा है-
(1) निर्माणी उत्पादन क्षेत्र (Manufacturing/Production Sector) – वर्तमान में उपभोक्ताओं वस्तुओं के निर्माण/उत्पादन के लिये निम्न क्षेत्रों को अधिक उपयुक्त माना जा रहा है-
(i) बच्चों के सामान व खिलौने, खाद्य सामग्री, सिले हुये वस्त्र, धुलाई व नहाने का साबुन, सौन्दर्य प्रसाधन एवं बिजली का सामान;
(ii) बड़े उद्योगों के लिए कलपुर्जे व रसायन आदि;
(iii) सिलाई मशीन, इलेक्ट्रानिक मोटर, कूलर्स, पंखे आदि।
(2) थोक व्यापार (Wholesale Trade )- थोक व्यापार के अन्तर्गत निर्माताओं से माल खरीदकर उसे छोटे व्यापारियों को बेचना है। ऐसे अनेक उत्पाद हैं जिन्हें लघु व्यापारी इनसे खरीदकर उन्हें छोटे-छोटे फुटकर व्यापारी को बेचतें हैं, जैसे- साबुन, तेल,घी, मैदा, बिजली का सामान, गारमेन्ट्स इत्यादि।
(3) पुखर व्यापार (Real Trade )- इनका कार्य थोक व्यापारी से माल खरीदकर उसे उपभोक्ताओं को उनकी आवश्यकतानुसार छोटी-छोटी मात्रा में बेचना है।
(4) सेवा क्षेत्र (Service Sector )- सेवा क्षेत्र में डॉक्टर, वकील, लेखाकार, नाई, धोबी, दस्तकारी, स्कूटर-कार मरम्मत इत्यादि आते हैं।
(5) विविध क्रियायें (Sundry Activities) – जैसे- (i) कम ऊर्जा वाली क्रियायें (ii) श्रम प्रधान क्रियायें, एवं (iii) स्थानीय कच्चे माल पर निर्भर उत्पाद इत्यादि।
लघु व कुटीर उद्योगों (लघु व्यवसाय) के उद्देश्य–
प्रायः सभी प्रकार की अर्थव्यवस्था में लघु व कुटीर उद्योगों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अतः इस क्षेत्र के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार है।
- ऐसी सुनियोजित व स्वस्थ कार्य संस्कृति का निर्माण करना, जहाँ सुव्यवस्थित उद्यमीय कार्यों व उपकार्यों का निष्पादन सम्भव हो सके।
- उन विशिष्ट योग्यताओं, गुणवत्ता, कौशलता व कार्य क्षमता को प्रोत्साहित करना जो उद्यमशीलता को बढ़ावा दे सके।
- नवीनतम उद्यमशील प्रवृत्तियों व आचरणों को बढ़ावा देना।
- इन उद्योगों का उद्देश्य अधिसंख्य व्यक्तियों को रोजगार प्रदान करना ताकि आय अर्जन क्षमताओं का विस्तार हो सके।
- उन व्यावसायिक सुअवसरों की खोज करना जो उद्यमिता विकास में सहायक होती है।
- स्थानीय संसाधनों का विदोहन कर अधिकतम उपयोग करना।
- आदर्श, सृजनात्मक एवं सकारात्मक वैचारिकता को प्रोत्साहित करना ताकि सृजनशील वातावरण का निर्माण सम्भव हो सके।
- व्यवसाय, उद्योग व समाज के मध्य श्रेष्ठ एवं उपादेयी अन्तर्सम्बन्धों की स्थापना करना।
लघु तथा कुटीर उद्योगों की समस्याएँ-
लघु तथा कुटीर उद्योगों की मुख्य समस्यायें निम्न हैं-
- उत्पादन की प्राचीन परम्परागत एवं अवैज्ञानिक पद्धतियों का प्रयोग किया जाना।
- लघु उद्यमियों की सीमित साख व पहचान होने के कारण उनका कार्यक्षेत्र भी सीमित ही रहता है परिणामतः उन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
- वित्तीय स्रोतों की अपर्याप्तता एवं सीमितता के कारण वित्तीय समस्याओं का पाया जाना।
- लघु व्यवसायियों को समुचित, श्रेष्ठ पर्याप्त व गुणवत्ता पर आधारित कच्चा माल, अद्धनिर्मित माल व बिक्री योग्य तैयार माल की उपलब्धता व आपूर्ति का न मिल पाना।
- लघु व्यवसायियों में जोखिम वहन करने की क्षमता का भी अभाव पाया जाता है।
- उत्पादन कार्य में श्रम, समय और धन का अपव्यय होना।
- सामाजिक व पारिवारिक परिवेश में नये उद्यमियों के प्रति उदासीनता, असहयोग एवं असामंजस्यता की प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं जो उनके समुचित विकास में बाधक होती हैं।
- लघु व्यवसायियों व कारीगरों में शिक्षा, ज्ञान, तकनीकी कुशलता एवं व्यावहारिक पहलुओं का अभाव पाया जाता है।
- उन्हें कच्चे माल, अद्धनिर्मित माल व तैयार माल के रखरखाव व सुरक्षा के लिये समुचित भण्डार व्यवस्था नहीं प्राप्त होती है।
- लघु व कुटीर उद्योगों को नियोजित, पूर्व निर्धारित एवं संगठित शोध, सर्वेक्षण एवं अनुसंधान सेवाएँ शीघ्र व सुलभ रूप में नहीं प्राप्त हो पाती हैं।
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