संगठनात्मक व्यवहार / Organisational Behaviour

मैस्लो का आवश्यकता क्रमबद्धता सिद्धान्त | मैस्लो सिद्धान्त का मूल्यांकन

मैस्लो का आवश्यकता क्रमबद्धता सिद्धान्त | मैस्लो सिद्धान्त का मूल्यांकन | Maslow’s Hierarchy of Needs Theory in Hindi | Evaluation of Maslow’s Theory in Hindi

मैस्लो का आवश्यकता क्रमबद्धता सिद्धान्त

(Maslow’s Need Hierarchy Theory)

प्रसिद्ध समाजशास्त्री एब्राहम मैसलो ने अभिप्रेरण का आवश्यकता क्रमबद्धता सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी एक समय विशेष पर व्यक्तियों का व्यवहार उनकी सर्वाधिक प्रबल आवश्यकता से प्रभावित होता है। मैस्लो के अनुसार व्यक्तियों की आवश्यकतायें अनन्त होती हैं तथा उन आवश्यकताओं में क्रमबद्धता होती है। किसी व्यक्ति में कार्य करने के प्रति रुचि एवं शक्ति उत्पन्न करने हेतु उसकी एक के बाद दूसरी आवश्यकता को क्रमबद्धता के रूप में सन्तुष्ट करना आवश्यक होता मैस्लों के अनुसार, व्यक्तियों को विभिन्न आवश्यकताओं को पाँच वर्गों में विभाजित किया जा सकता है और उन्हें क्रमबद्धता में रखा जा सकता है।

(1) जीवन निर्वाह आवश्यकतायें (Physiogical Needs)-

मैस्लो द्वारा प्रतिपादित आवश्यकताओं  की क्रमबद्धता का सबसे पहला स्तर जीवन निर्वाह सम्बन्धी आवश्यकतायें हैं। जीवन में  आवश्यकताओं के अन्तर्गत भोजन, पानी आवास इत्यादि से सम्बन्धित आवश्यकतायें सम्मिलित हैं। इन आवश्यकताओं के उत्पन्न होने पर व्यक्ति इनकी सन्तुष्टि का प्रयास करता है। इन आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के पश्चात् ही अन्य आवश्यकताओं की सन्तुष्टि पर ध्यान दिया जाता है। इन आवश्यकताओं की एक विशेषता यह होती है कि इनकी अनुभूति बार-बार होती है। संगठन के सन्दर्भ में इन आवश्यकताओं की सन्तुष्टि वित्तीय प्रेरणओं द्वारा हो सकती है।

(2) सुरक्षा आवश्यकताये (Safety Needs)-

जीवन-निर्वाह आवश्यकताओं की उचित मात्रा में सन्तुष्टि के पश्चात् व्यक्ति की क्रमबद्धता की अन्य आवश्यकताओं की सन्तुष्टि पर ध्यान केन्द्रित करता है। इस क्रमबद्धता में जीवन निर्वाह आवश्यकताओं के पश्चात् सुरक्षा सम्बन्धी आवश्यकतायें आती हैं। सभी व्यक्ति अपनी सुरक्षा के प्रति आतुर होते हैं। संगठन के संन्दर्भ में व्यक्तियों के लिये सुरक्षा आवश्कताओं का बहुत महत्व है। क्योंकि वे नियोक्तओं पर आश्रित होते हैं। इस सम्बन्ध में मैकग्रेगर का कहना है कि उन स्थितियों में सुरक्षा आवश्यकतायें महत्वपूर्ण अभिप्रेरणा का कार्य करती हैं जहाँ पर बेरोजगारी का स्तर अधिक होता है और कर्मचारियों को संगठन से बाहर निकाले जाने के विषय में अनिश्चितता होती है। ऐसी स्थिति में प्रायः व्यक्ति अपने रोजगार का चयन करते समय रोजगार की सुरक्षा पर अधिक ध्यान देते हैं। संगठन अपने कर्मचारियों की सुरक्षा आवश्यकताओं की सन्तुष्टि में सकारात्मक अथवा नकारात्मक दृष्टिकोण अपना सकते हैं- सकारात्मक दृष्टिकोण के अन्तर्गत कर्मचारियों के सेवा की सुरक्षा, उनके लिये पेन्शन और बीमा इत्यादि को सम्मिलित किया जाता है, नकारात्मक दृष्टिकोण के अन्तर्गत सेवा से निवृत्ति करना, पद अवनति करना या करने की धमकी देना सम्मिलित है।

(3) सामाजिक आवश्यकतायें (Social Needs)-

आवश्यकता क्रमबद्धता की प्रथम दो आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के पश्चात व्यक्तियों के लिये सामाजिक आवश्यकतायें महत्वपूर्ण हो जाती हैं। चूँकि व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी अतः वह समाज से अपना सम्बन्ध रखना चाहता है और समाज से वह स्वीकृति प्राप्त करना चाहता है। जब किसी व्यक्ति में सामाजिक आवश्यकतायें प्रबल हो जाती है तो यह अन्य व्यक्तियों से सम्बन्ध स्थापित करता है। यदि व्यक्ति को अन्य व्यक्तियों से सम्पर्क स्थापित करने के अवसर में किसी प्रकार का अवरोध उत्पन्न होता है तो वह इस अवरोध के विरुद्ध कार्य करता है। संगठन के सन्दर्भ के कर्मचारियों द्वारा अनौपचारिक समूहों की स्थापना सामाजिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिये की जाती है। जब संगठन में कर्मचारी नैतिक कार्यों में संलग्न होते है और उन्हें नियन्त्रित पर्यवेक्षण में कार्य करना होता है तो उनकी सामाजिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि नहीं होती है। परिणामस्वरून, इन आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिये वे अनौपचारिक समूहों पर निर्भर होते हैं।

(4) सम्मान आवश्यकतायें (Esteem Needs)

व्यक्ति अपनी सामाजिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के पश्चात् सम्मान आवश्यकताओं की सन्तुष्टि पर ध्यान केन्द्रित करता है। सम्मान आवश्यकतायें स्वाभिमान, आत्म-विश्वास, महत्वपूर्ण होने की अनुभूति, दूसरों द्वारा मान्यता प्राप्त होने की अनुभूति के रूप में होती है। इन आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के कारण व्यक्ति में आत्म-

विश्वास, शक्ति और नियंत्रण की भावना उत्पन्न होती है। इस प्रकार की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि सदैव परिपक्व एवं तर्कपूर्ण व्यवहारों से नहीं होती है, बल्कि व्यक्ति प्रतिरोध स्वरूप तर्कसंगत व्यवहारों के द्वारा भी इस प्रकार की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि का प्रयास करता है। बहुत-सी सामाजिक समस्यायें व्यक्तियों के सम्मान आवश्यकताओं की असन्तुष्टि के द्वारा उत्पन्न नैराश्य के कारण जन्म लेती हैं। संगठन के संदर्भ में सम्मान आवश्यकताओं की सन्तुष्टि व्यक्ति को उचित पदोत्रति, पद के अनुरूप उचित भौतिक साधन की उपलब्धिं और व्यक्ति द्वारा निष्पादन कार्यों को महत्व देकर की जा सकती है।

(5) आत्म-विकास आवश्यकतायें (Self Actualization Needs)-

मैसलों द्वारा प्रतिपादित आवश्यकताओं के क्रमबद्धता के  अन्तिम स्तर पर आत्म-विकास आवश्यकतायें आती हैं। आत्म-विकास आवश्यकतायें किसी व्यक्ति के भविष्यता के पूर्णरूपेण उपयोग में निहित होती है। प्रत्येक व्यक्ति की यह इच्छा होती है कि जो कुछ उसमें बनने की योग्यता है वह उसके योग्य बन जाये। मैस्लो के अनुसार, “एक संगीतकार को संगीत बनाना चाहिये, एक कलाकार को रंग करना चाहिये, एक कवि को लिखना चाहिये- यदि वह अन्ततोगत्वा प्रसन्न होना चाहता है। एक व्यक्ति जो हो सकता है, उसे वह होना चाहिये। इन आवश्यकताओं को हम आत्म-विकास कह सकते हैं। ” आत्म-विकास आवश्यकताओं के अन्तर्गत व्यक्ति अपनी सम्प्राप्ति पर अधिक ध्यान देता है और यह सम्प्राप्ति ही उसके के लिये अभिप्रेरक का कार्य करती है। संगठन के सन्दर्भ में इन आवश्यकताओं की सन्तुष्टि व्यक्तियों को कार्य की स्वायतता, नवप्रवर्तन के लिय अवसर प्रदान करना, इत्यादि के द्वारा हो सकती है।

मैस्लो ने यह सुझाव दिया है कि विभिन्न स्तरों की आवश्यकतायें परस्पर निर्भर होती हैं। अतः एक निचले स्तर की आवश्यकताओं की बिना पूर्ण सन्तुष्टि के ही उच्चतर स्तर की आवश्यकतायें उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार कई प्रकार की आवश्यकतायें व्यक्तियों में एक साथ उत्पन्न हो सकती हैं और उसमें से कुछ आवश्यकताओं की सन्तुष्टि पूर्ण रूप से नहीं हो सकती। जब किसी आवश्यकता का शीर्ष स्तर गुजर जाता है तो यह व्यक्तियों को अभिप्रेरित करने का कार्य नहीं कर पाती है और अगले स्तर की आवश्यकता प्रबल हो जाती है।

मैस्लो सिद्धान्त का मूल्यांकन

(Evaluation of Maslow’s Theory)

मैस्लो द्वारा प्रतिपादित अभिप्रेरणा के सिद्धान्त को कुछ सीमा तक सही पाया गया है, किन्तु इसी के साथ-साथ यह भी पाया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति मैस्लो द्वारा सुझाये गये आवश्यकताओं की क्रमबद्धता के अनुसार ही अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि नहीं करता है। इस प्रकार मैस्लो के सिद्धान्त के पक्ष-विपक्ष में तर्क दिये जा सकते हैं।

(I) पक्ष में तर्क (Arguments in Favour)- मैस्लो के सिद्धान्त और उसके उपयोग के पक्ष में अप्रलिखित तर्क दिये जा सकते हैं-

(1) प्रत्येक व्यक्ति की विभिन्न प्रकार की आवश्यकतायें होती हैं और वह सभी आवश्यकताओं को क्रमबद्ध रूप में रखता है यद्यपि यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं की क्रमबद्धता उसी व्यवस्था में हो जिस प्रकार मैस्लो ने प्रतिपादित किया है।

(2) इस सिद्धान्त में आवश्यकताओं की प्रकृति तथा प्राथमिकताओं को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है जिससे मानवीय व्यवहार को समझने और उसका विश्लेषण तथा नियंत्रण करने में सुविधा होती है।

(3) चूँकि यह सिद्धान्त व्यक्तियों की क्रमानुसार आवश्यकताओं का बोध कराता है, अतः संगठन में अभिप्रेरण की समस्या को समझने और उनके समाधान में सरलता होती है।

(4) कुछ शोधों के आधार पर भी यह संकेत मिलता है कि कुछ विशिष्ट प्रकार के संगठनों में आवश्यकताओं की क्रमबद्धता उपयोगी होती है यद्धपि सभी प्रकार के संगठनों में आवश्यकताओं की यह क्रमबद्धता लागू नहीं होती है।

(II) विपक्ष में तर्क (Arguments in Against )- कुछ विचारकों के अनुसार, मैस्लो का सिद्धान्त अभिप्रेरण की समस्या का समाधान बहुत ही साधारण ढंग से प्रस्तुत करता है और यह इंगित करता है कि प्रबन्धक अपने कर्मचारियों की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि एक क्रमबद्धता के अनुसार कर सकते हैं जो क्रम मैस्लो द्वारा सुझाया गया है। अतः इस सिद्धान्त के उपयोग में निम्नलिखित समस्यायें उत्पन्न होती हैं।

(1) व्यवहार में यह पाया गया है कि व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि इसी क्रम में नहीं करते हैं जो मैस्लों द्वारा प्रतिपादित किया गया है। बहुत से शोधों द्वारा यह भी निष्कर्ष निकाला गया है कि व्यक्तियों की आवश्यकताओं की क्रमबद्धता के सम्बन्ध में निम्नलिखित नियम कार्यशील होते हैं-

(i) बहुत से व्यक्ति अपने निचले स्तर की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि पर ध्यान नहीं देतें हैं, बल्कि अपने उच्च स्तर की आवश्यकताओं जैसे सम्मान और आत्म-विकास की सन्तुष्टि पर श्रम अधिक ध्यान देते हैं। इस सम्बन्ध में महात्मा गाँधी का उदाहरण महत्वपूर्ण है जिनकी आवश्यकताओं की क्रम शृंखला मैस्लो से एकदम विपरीत है।

(ii) बहुत से व्यक्तियों के लिये सामाजिक आवश्यकताओं की तुलना में सम्मान की आवश्यकतायें बहुत अधिक होती हैं। ऐसे व्यक्ति सम्मान की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि को सामाजिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि का माध्यम बनाते हैं।

(iii) संगठन के सन्दर्भ में मैसलो द्वारा प्रतिपादित आवश्यकताओं की क्रमबद्धता में बहुत अधिक उलट फेर पाया जाता है। उधारणता, बहुत से कर्मचारी सुरक्षा आवश्यकता पर अधिक ध्यान नहीं देते हैं, बल्कि सामाजिक आवश्यकता पर अधिक ध्यान देते है। इसी प्रकार से व्यक्ति सामाजिक अवश्यकताओं पर ध्यान न देकर सम्मान आवश्यकताओं पर ध्यान देत हैं।

(2) मैस्लो के सिद्धान्त के उपयोग में एक समस्या यह आती है कि आवश्यकता और व्यवहार में प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं पाया जाता है। इस प्रकार एक-सम्मान आवश्यकता के कारण विभिन्न व्यक्तियों का व्यवहार अलग-अलग हो सकता है। इसी प्रकार का एक विशिष्ट व्यवहार अलग-अलग आवश्यकताओं के कारण हो सकता है। उदाहरणार्थ, यदि एक व्यक्ति प्यासा है तो अपनी प्यास सम्बन्धी आवश्यकता की सन्तुष्टि के लिये जल, शीतल पेय या फलों का रस पी सकता है। इसी प्रकार व्यक्ति अपनी आय अधिक से अधिक बढ़ाना चाहता है जिससे वह अपनी विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि कर सकता है जिसमें जीवन-निर्वाह और सम्मान जैसी आवश्यकतायें भी सम्मिलित हो सकती हैं। इस प्रकार आवश्यकताओं की क्रमबद्धता उतनी सरल नहीं है जितनी प्रतीत होती है।

(3) मैस्लो के सिद्धान्त को व्यवहार में लाने में एक समस्या और होती है। मैस्लो के अनुसार, व्यक्ति उच्च स्तर की आवश्यकता के लिये तभी प्रयास करता है जब उसकी निम्न स्तर की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि उचित मात्रा में होती है। आवश्यकता सन्तुष्टि की यह उचित मात्रा उद्देश्यपरक न होकर व्यक्तिपरक होती है। अतः विभिन्न व्यक्तियों में आवश्यकता सन्तुष्टि मात्रा में एक-समान होने पर भी अलग-अलग हो सकती है। इस प्रकार प्रबन्धकों के सामने यह समस्या होती है कि वे कैसे ज्ञात करें कि उनके कर्मचारियों में किसी एक आवश्यकता की सन्तुष्टि उचित मात्रा में हुयी है या नहीं।

(4) मैस्लो ने आवश्यकताओं की क्रमबद्धता के निर्धारण में मानव की समस्त आवश्यकताओं को ध्यान में नहीं लिया है। इस तत्य को मैस्लो ने भी स्वीकार किया है। इसीलिये आवश्यकताओं की क्रम शृंखला को प्रतिपादित करने के बाद उन्होंने यह सुझाया कि व्यक्तियों में दो प्रकार की और आवश्यकतायें होती हैं- एकीकरण की आवश्यकता और आध्यत्मिक आवश्यकता।

मैस्लो के सिद्धान्त के पक्ष और विपक्ष में दिये गये तर्कों के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि एक ओर जहाँ अभिप्रेरण प्रणाली विकसित करने में इससे कुछ सहयोग प्राप्त होता है तो दूसरी तरफ यह भी संकेत मिलता है कि अभिप्रेरण प्रणाली अपनाने से उन घटकों को ध्यान में रखना आवश्यक है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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