संगठनात्मक व्यवहार / Organisational Behaviour

समूह के आकार | समूह के विभिन्न प्रकार | समूह निर्माण की विचारधाराये | समूह निर्माण के विभिन्न सिद्धान्त

समूह के आकार | समूह के विभिन्न प्रकार | समूह निर्माण की विचारधाराये | समूह निर्माण के विभिन्न सिद्धान्त | Types of Group in Hindi | Different Types of Groups in Hindi | Ideologies of group formation in Hindi | Different Theories of Group Formation in Hindi

समूह के आकार (Types of Group)

समूहों का वर्गीकरण विभिन्न आधारों पर किया जा सकता है। संगठन, उद्देश्य, आयु, शिक्षा आदि के आधार पर समूह को विभाजित किया जा सकता है। संगठन के आधार पर समूहों को औपचारिक तथा अनौपचारिक समूहों में विभक्त किया जा सकता है।

(1) औपचारिक समूह (Formal Group)- औपचारिक समूह वे समूह हैं जो संगठन में निर्धारित नियमों के अनुसार बनाये जाते हैं तथा इन्हीं समूहों के आधार पर संगठन के लक्ष्य प्राप्त किये जाते हैं। प्रायः ये समूह मनोरंजन से सम्बन्धित नहीं होते हैं, अपितु कार्य तथा संस्था के औपचारिक लक्ष्यों से सम्बन्धित होते हैं।

औपचारिक समूह निम्न दो रूपों में हो सकते हैं- आदेश समूह तथा कार्य समूह। आदेश समूह (Common Group) के अन्तर्गत उच्चाधिकारी एवं उसके तत्काल नीचे के अधीनस्थ व्यक्ति सम्मिलित होते हैं। इस प्रकार के समूहों की सदस्यता एवं संरचना का निर्धारण औपचारिक रूप से होता है तथा उनका प्रतिनिधित्व संगठनात्मक चार्ट के ऊपर होता है। कार्य समूह (Work Group) का गठन किसी विशेष योजना की पूर्ति हेतु किया जाता है। किसी विशेष कार्य को पूरा करने के लिये इसकी अन्तर्क्रिया और संरचना का औपचारिक रूप से निर्माण किया जाता है।

औपचारिक समूह संस्था में निरीक्षण तथा नियन्त्रण क्षेत्र निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

(2) अनौपचारिक समूह (Informal Group)- ये वे समूह हैं जो संस्था में स्वतः विकसित होते हैं तथा जो कार्य स्थल या कार्य स्थान से बाहर भी निर्मित किये जा सकते हैं। ऐसे समूह प्रायः समान विचारधारा या साथ-साथ कार्य करने वाले व्यक्तियों द्वारा चाय या मनोरंजन के समय निर्मित किये जाते हैं। यदि संस्था में कार्य समय, कार्य स्थल या व्यक्तियों में परिवर्तन होता है, तो अनौपचारिक समूह में भी स्वतः परिवर्तन हो जाता है।

समूहों को प्राथमिक तथा गौण समूहों के रूप में भी वर्गीकृत किया जा सकता है।

(3) प्राथमिक समूह (Primary Group)- प्राथमिक समूह से आशय ऐसे समूह से है जिनके सदस्यों में आमने-सामने के सम्बन्ध (Face to Face) पाये जाते हैं। अन्य शब्दों में, ऐसे समूह में सदस्यों का सम्पर्क प्रत्यक्ष अनौपचारिक एवं प्राथमिक होता है। समाजशास्त्री कूले का मत है कि, “प्राथमिक समूहों से आशय उन समूहों से है जिनकी विशेषतायें हैं-घनिष्ठ प्रत्यक्ष सम्बन्ध तथा सहयोग। “ ये अनेक दृष्टिकोणों से प्राथमिक है, लेकिन इनमें मुख्य विशेषता यह होती  है कि ये व्यक्ति की सामाजिक प्रकृति तथा आदर्शों के निर्माण में आधारभूत समूह सिद्ध होते हैं।

(4) गौण समूह (Secondary Group)- चार्ल्स कूले के अनुसार, “गौण समूह वे समूह हैं जिनमें घनिष्ठता, प्राथमिकता तथा अर्द्ध प्राथमिकताओं का पूर्ण अभाव पाया जाता है।” इस प्रकार गौण समूहों में अप्रत्यक्ष, अवैयक्तिक तथा अनौपचारिक सम्बन्ध पाये जाते हैं। ये समूह इतने विस्तृत क्षेत्र में फैले होते हैं, कि इनके सदस्यों को निकटता में रहने की आवश्यकता नहीं होती है।

(5) अन्य समूह (Other Group)- समूहों के कुछ अन्य रूप निम्नलिखित हैं-

(अ) अर्द्ध-समूह (Quasi Group)- बॉटामोर के अनुसार, “अर्द्ध-समूह व्यक्तियों का ऐसा योग है जिसमें संरचना या संगठन का अभाव होता है और जिसके सदस्य समूह के अस्तित्व के प्रति अनभिज्ञ या कम जागरूक होते हैं।” प्रायः ऐसे समूह धीरे-धीरे संगठित समूहों में परिवर्तित हो जाते हैं। अर्द्ध-समूह की निम्न विशेषतायें होती हैं-

(1) ऐसे समूह का जन्म समानता और सजातीयता के आधार पर होता है।

(2) अर्द्ध-समूह का निर्माण बिना किसी पूर्व योजना के किसी समानता के आधार पर किसी भी समय हो सकता है।

(3) इन अर्द्ध-समूह की अवधि प्रायः बहुत कम होती है और उनके उद्देश्य केवल प्रतीकात्मक होते हैं।

(4) ऐसे समूह में सदस्य को भी यह पता नहीं होता है कि वह कब उसका सदस्य वन गया।

(5) एक बार बन जाने के बाद ये समूह स्थायी समूहों में परिवर्तित हो सकते हैं।

(ब) श्रोता-समूह (Audiance Group) – श्रोता समूह एक प्रकार की व्यवस्थित भीड़ होता है। ऐसा समूह कुछ सांस्कृतिक नियमों, व्यवहारों तथा परम्पराओं पर आधारित होता है। एसे समूह के सदस्य किसी निश्चित उद्देश्य को लेकर पूर्व व निश्चित स्थान पर एकत्रित होते हैं।

(स) सन्दर्भ समूह (Refernce Group) – सन्दर्भ समूह से आशय ऐसे समूह से है जिनसे व्यक्ति अपने को समूह के एक अंग के रूप में जोड़ता है या जिनसे व्यक्ति मनोवैज्ञानिक रूप से सम्बन्धित होने की इच्छा प्रकट करता है शेरिफ के अनुसार, “सन्दर्भ समूह वे समूह हैं, जिसके साथ व्यक्ति अपना एकाकार या पहचान करता है या एकाकार करने की आकांक्षा करता है।” सन्दर्भ समूह के आवश्यक तत्व निम्नलिखित हैं-

(1) सन्दर्भ समूह एक नहीं, अनेक हो सकते हैं।

(2) सन्दर्भ समूह का महत्व सदा किसी व्यक्ति या समूह की निहित आकांक्षाओं से होता है।

(3) सन्दर्भ समूह किसी व्यक्ति के लिये वही हो सकता है जिसका वह सदस्य है या कोई बाह्य समूह उसके लिये सन्दर्भ समूह बना।

(4) सन्दर्भ समूह स्थायी नहीं होते हैं, अपितु ये सदा बदलते रहते हैं।

(5) ऐसे समूह प्रायः उच्च प्रस्थिति (Higher Status) वाले समूह होते हैं।

समूह निर्माण की विचारधाराये

(Theories of Group Formation)

व्यक्तियों द्वारा समूह का निर्माण क्यों किया जाता है, इसके सम्बन्ध में प्रचलित विभिन्न विचारधाराओं का विवेचन निम्न प्रकार है-

(1) सामीप्य विचारधारा (Propinquity Theory)- इस विचारधारा के अनुसार स्थानिक दृष्टि से एक-दूसरे के समीप रहने वाले व्यक्तियों में स्वाभाविक रूप से लगाव, घनिष्ठाता और आत्मीयता विकसित हो जाती है जो उन्हें समूह निर्माण के लिये प्रेरित करती है। उदाहरण के लिये, एक ही विभाग में काम करने वाले कर्मचारियों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध विकसित हो जाते हैं तथा वे अनौपचारिक रूप से एक समूह में परिवर्तित हो जाते हैं। यद्यपि यह विचार कुछ सीमा तक सही है किन्तु इसके निष्कर्षों की शोध अध्ययनों द्वारा पुष्टि नहीं हुयी है। यह विचारधारा विश्लेषणात्मक नहीं है। ये समूह निर्माण के कुछ जटिल कारणों की व्याख्या करने में असमर्थ है।

(2) क्रिया, अन्तर्किया और मनोभाव विचारधारा (Activitiy, Interaction and Sentiment Theory)- यह विचारधारा सामीप्पय विचारधारा से अधिक व्यापक है। इसका निर्माण होमेन्स ने किया है। विचाराधारा के अनुसार समूह निर्माण के लिये तीन तत्व आवश्यक होते हैं- क्रिया, अन्तर्क्रिया और मनोभाव। ये तीनों तत्व एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। होमेन्स का मत है कि व्यक्तियों द्वारा मिलजुलकर जितनी अधिक क्रियायें की जायेंगी, उनके बीच उतनी ही अन्तर्क्रिया में वृद्धि होगी और उनके पारस्परिक मनोभाव में दृढ़ता आयेगी। ‘मनोभाव’ से तात्पर्य यह है कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को कितना पसन्द या नापसन्द करता है। जब व्यक्तियों के बीच अन्तर्क्रियायें बढ़ती हैं तथा सम्मिलित क्रियाओं तथा समान प्रकार के मनोभावों में भी वृद्धि होती है। इस प्रकार एक-दूसरे के प्रति समान मनोभावों के विकसित होने पर सम्मिलित क्रियाओं और अन्तर्क्रियाओं में भी वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार व्यक्तियों के बीच अन्तक्रियायें बढ़ने तथा मनोभाव सुदृढ़ होने से व्यक्ति मानसिक रूप से एक-दूसरे से अधिक निकट आ जाते हैं। यह समीपता घनिष्ठता व मित्रता में परिवर्तित होकर समूह निर्माण के लिये प्रेरित करती है।

उक्त विवचेन से स्पष्ट है कि इस विचारधारा का मुख्य केन्द्र बिन्दु ‘अन्तर्क्रिया’ है। केवल समीपता व्यक्तियों के पास-पास आने का अवसर प्रदान कर सकती है, किन्तु उसके कारण उनके बीच घनिष्ठ सम्बन्ध बन जाये, यह आवश्यक नहीं है। उदाहरण के लिये, पड़ौसियों में सदैव घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं होते। ‘अन्तर्क्रिया’ के माध्यम से ही वे एक-दूसरे के निकट आकर जुड़ जाते हैं। अन्तर्क्रियाओं के माध्यम से समूह अपनी समस्याओं के समाधान खोजते हैं तथा अपने लक्ष्यों को पूरा करते हैं। अतः क्रियाओं, अन्तर्क्रियाओं एवं मनोभावों में वृद्धि ही समूह निर्माण का आधार है।

(3) सन्तुलन विचारधारा (Balance Theory)- इस विचारधारा का प्रतिपादन थियोडोर न्यूकॉम्ब ने किया है। इनकी मान्यता है कि व्यक्ति समान मनोवृत्तियों व मूल्यों के आधार पर एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। इस विचारधारा के अनुसार, व्यक्ति समान उद्देश्यों व लक्ष्यों के कारण एक- दूसरे के प्रति समान मनोभाव रखने के लिये आकर्षित होते हैं। उनके बीच सम्बन्ध स्थापित हो जाने पर वे अपनी समान मनोवृत्तियों के बीच ‘प्रतिसम सन्तुलन’ (Symmetrical Balance) बनाये रखने का प्रयास करते हैं। समान मनोवृत्तियाँ एवं मूल्य सम्प्रदाय, राजनीति, सत्ता, अजीविका, व्यवसाय, विवाह अथवा जीवन शैली से सम्बन्धित हो सकते हैं। व्यक्तियों की समान मनोवृत्तियों के बीच यदि किसी कारणवश असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, तो वे पुनः सन्तुलन कायम करने का प्रयास करते हैं। यदि पुनः सन्तुलन स्थापित नहीं हो पाता है तो सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं। व्यक्तियों द्वारा इस सन्तुलन को बनाने में समीपता एवं अन्तर्क्रियाओं की महत्वपूर्ण भूमिका बनी रहती है। अतः यह विचारधारा समूह निर्माण के बारे में एक नयी दिशा देती है।

(4) विनिमय विचारधारा (Exchange Theory)- इस विचारधारा का प्रतिपादन जॉन थाइबॉट एवं हेरोल्ड केली ने किया है। इसके अनुसार समूह निर्माण का कार्य अन्तर्क्रियाओं से जनित प्रतिफल तथा परिव्यय पर आधारित है। व्यक्तियों की अन्तर्क्रियाओं से जो व्यक्तिगत एवं सामाजिक सन्तुष्टि प्राप्त होती है, वह उनके लिये प्रतिफल होता है तथा अन्तर्क्रिया के फलस्वरूप जो चिन्ता, नैराश्य, परेशानी, थकान, विवाद एवं कटुता का जो अनुभव होत है वह परिव्यय (लागत) ज्ञानहै। इस विचारधारा के अनुसार व्यक्तियों के बीच आकर्षण, जुड़ाव एवं सम्बन्ध के लिये कुछ सकारात्मक परिणामों का होना आवश्यक है। अर्थात् दूसरे के साथ व्यक्ति सम्बन्ध तभी बनाता है जबकि उसे इस सम्बन्ध से लागत की तुलना में अधिक पुरस्कार प्राप्त हो। दूसरे शब्दों में, कोई भी व्यक्ति समूह का सदस्य बनने के पूर्व समूह से प्राप्त लाभों व सन्तुष्टि की उसकी लागतों व असन्तुष्टि से तुलना करता है। इस प्रकार पुरस्कार एवं परिव्ययों की तुलना करके ही व्यक्ति समूह की सदस्यता ग्रहण करते हैं। इस विनिमय विचारधारा में सामीप्य, अन्तर्क्रियाओं, समान मनोवृत्तियों, सन्तुष्टि व मानसिक लागतों आदि सभी घटकों की कुछ-न-कुछ भूमिका अवश्य रहती है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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