संगठनात्मक व्यवहार / Organisational Behaviour

सांयोगिक प्रबन्ध का सिद्धान्त | आकस्मिकता प्रबन्ध के सिद्धान्त | सांयोगिक स्कूल का अर्थ | आकस्मिकता स्कूल की प्रमुख मान्यताएँ

सांयोगिक प्रबन्ध का सिद्धान्त | आकस्मिकता प्रबन्ध के सिद्धान्त | सांयोगिक स्कूल का अर्थ | आकस्मिकता स्कूल की प्रमुख मान्यताएँ | Principle of Contingency Management in Hindi | Meaning of Contingency School in Hindi | Key Beliefs of the Contingency School in Hindi

सांयोगिक अथवा आकस्मिकता (आनुषंकित) प्रबन्ध का सिद्धान्त या स्कूल

(Contingency Theory of Management or School)

सांयोगिक स्कूल का अर्थ (Meaning of Contingency School)-

सांयोगिक स्कूल का मूलभूत आधार यह है कि प्रबन्धक का कार्य परिस्थितियों पर निर्भर करता है (कब, कैसी एवं कौन-सी समस्या उत्पन्न हो जायेगी, इसका पूर्वानुमान लगाना कठिन है)। अतः प्रबन्धक का कार्य यह पता लगाना है कि प्रबन्ध की कौन-सी तकनीक, विधि, प्रक्रिया अथवा सिद्धान्त किस परिस्थिति, पर्यावरण दशा और समय विशेष में निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति में योगदान करेगी। यदि देखा जाये तो समस्त प्रकार के संगठन एवं समस्त प्रकार के नेतृत्व केवल कुछ निश्चित परिस्थितियों में ही कार्य करते हैं। अतः परिस्थितियात्मक (situational) घटक उचित संगठन संरचना एवं उपयुक्त प्रबन्ध शैली के निर्धारण में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कोई भी प्रबन्ध तकनीक, प्रक्रिया, सिद्धान्त अथवा संगठन संरचना समस्त परिस्थितियों की भिन्नता है। किसी भी परिस्थिति का सामना करने के लिये हमें सबसे पहले परिस्थिति का व्यापक रूप में अध्ययन करना होगा और तदनुसार हमें प्रबन्धकीय कदम उठाना होगा। इस प्रकार तकनीकी, आर्थिक तथा सामाजिक दशाएँ, मानवीय संसाधन आदि सभी महत्वपूर्ण घटक एक सांयोगिक संगठन संरचना को विकसित करने में ध्यान में रखे जाते हैं। ध्यान रहे कि प्रवन्ध का सांयोगिक स्कूल प्रबन्ध सिद्धान्तों तथा तकनीकों की सार्वभौमिकता को नकारता नहीं है। वरन् उनकी व्यवाहारिक उपयोगिता की परख करने का परामर्श देता है।

सांयोगिक स्कूल इस बात पर बल देता है कि प्रबन्धकीय क्रियाएँ तथा संगठनात्मक आकार दोनों विद्यमान परिस्थितियों के अनुरूप होने चाहिए। इस दृष्टि से एक विशिष्ट प्रबन्धकीय क्रिया एक विशिष्ट स्थित में ही वैध है। प्रबन्ध में कोई एक स्कूल सर्वोत्तम नहीं है क्योंकि सभी कुछ परिस्थितियों पर निर्भर करता है। प्रबन्धक क्या करता है–यह दी हुई परिस्थिति पर निर्भर करेगा। परिस्थितियों चरों तथा प्रबन्धकीय क्रियाओं के मध्य सक्रिय आन्तरिक सम्बन्ध विद्यमान हैं। संयोगिक स्कूल इन आन्तरिक सम्बन्धों का विश्लेषण करने एवं उन्हें समझने का प्रयास करता है, ताकि विशिष्ट प्रबन्धकीय कदम उठाया जा सके। हरर्बट जी. हिक्स के अनुसार, “सायोगिक स्कूल विद्यमान प्रश्नों (समस्याओं) का व्यावहारिक उत्तर विकसित करने के उद्देश्य से विश्लेषणात्मक तथा परिस्थितियात्मक है।”

मान्यताएँ एवं विशेषताएँ (Assumptions and characteristics)-

सामाजिक अथवा आकस्मिकता स्कूल की प्रमुख मान्यताएँ एवं विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. इस स्कूल की मान्यता के अनुसार ऐसा कोई भी सर्वश्रेष्ठ मार्ग, तकनीक अथवा विधि नहीं है जिसके द्वारा सभी समस्याओं का समाधान किया जा सके।
  2. यह स्कूल प्रबन्ध कार्य को परिस्थितिजन्य अथवा सांयोगिक मानता है अर्थात् प्रबन्धकों को प्रत्येक निर्णय लेते समय विद्यमान परिस्थितियों पर निर्भर करना पड़ता है।
  3. यह स्कूल निर्णयों के लेने अथवा कार्यों को करने से पूर्व उनके प्रभावों से उत्पन्न होने वाले परिणामों पर भी ध्यान देता है।
  4. इस स्कूल के अनुसार प्रबन्धक वहीं व्यवहार करते हैं जो परिस्थितियों की माँग के अनुकूल होते हों।
  5. यह स्कूल प्रबन्ध विधि एवं निर्णयों को पर्यावरण से जोड़ने पर बल देता है।
  6. विशिष्ट संगठन-पर्यावरण सम्बन्धों के कारण कोई क्रिया ऐसी नहीं है जोकि सार्वभौमिक हो।
  7. यह स्कूल प्रबन्धकीय निर्णयों एवं तकनीकों को परिस्थितियों के सन्दर्भ में समायोजित करने पर बल देता है।
  8. संगठन संरचना ऐसी होनी चाहिए, ताकि वह संगठन को बाहरी पर्यावरण के साथ. स्वस्थ अन्तर्सम्बन्धों की स्थापना में सहायता प्रदान कर सके।

सांयोगिक स्कूल का उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण (Explanation of Contingency School by Means of an Illustration) –

मान लीजिए कि एक व्यावसायिक उपक्रम में उत्पादन में वृद्धि करने के लिए वहाँ पर कर्मचारियों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। ऐसी स्थिति में प्रतिष्ठा प्रबन्धक विचारक कार्य-सरलीकरण योजना लागू करने का सुझाव देंगे। व्यवहारवादी प्रबन्ध विचारक कार्य के वातावरण को कार्य एनरिचमेण्ट योजना द्वारा मनोवैज्ञानिक रूप से अभिप्रेरित करने का सुझाव देंगे। इसके विपरीत, सांयोगिक स्कूल को अपने वाले प्रबन्धक पहले तो विद्यमान परिस्थिति एवं पर्यावरण का विस्तृत रूप में अध्ययन करेंगे। तत्पश्चात वह पता लगने की पेश करेंगे की विद्यमान परिस्थितियों में कौन-सी सर्वोत्तम प्रबन्धक तकनीक, विधि अथवा सिद्धान्त कार्य करेगा। वे यह देखें कि यदि कर्मचारी अकुशल हैं और संसाधनों का अभाव है तो कार्य सरलीकरण की योजना अपनाना श्रेष्ठ होगा। इसके विपरीत, यदि कर्मचारी कुशल हैं और प्रबन्धक उनकी योग्यता में गर्व का अनुभव करता है तो वे कार्य एनरिचमेण्ट योजना को लागू करने का निर्णय लेंगे। इस उदाहरण से यह पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है कि सांयोगिक स्कूल विद्यमान परिस्थिति एवं पर्यावरण की आवश्यकता के अनुरूप प्रबन्ध करने पर बल देती है।

सांयोगिक स्कूल तथा नेतृत्व की शैली (Contingency School and Style of Leadership)-

सांयोगिक स्कूल इस बात पर बल देता है कि नेतृत्व की कोई भी एक शैली सभी परिस्थितियों में कदापि उपयुक्त नहीं हो सकती है नेतृत्व शैली की प्रभावशीलता परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग होगी। उदाहरण के लिए, भागिता नेतृत्व शैली ऐसे संगठन में सर्वाधिक प्रभावी होगी जहाँ पर तकनीकी दृष्टि से उच्च कुशल की प्रभावशीलता परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग होगी। उदाहरण के लिए, भागिता नेतृत्व शैली में कर्मचारी कार्य करते हैं एवं विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता विद्यमान है। इसके विपरीत, तानाशाही नेतृत्व शैली वहाँ पर सर्वाधिक प्रभावी होगी जहाँ पर अकुशल कर्मचारीगण सामान्य प्रकृति का कार्य करते हैं तथा सत्ता के प्रति पूर्ण भक्ति विद्यमान है। कोई भी व्यक्ति आदेशों के उल्लंघन करने की हिम्मत नहीं कर सकता।

प्रणाली स्कूल बनाम सांयोगिक स्कूल (System School Vs. Contingency School) –

प्रणाली स्कूल के विकसित एवं लोकप्रिय होने के पश्चात् ही सांयोगिक स्कूल का उद्गम एवं विकास हुआ। इस दृष्टि से सांयोगिक स्कूल एक प्रकार से प्रणाली स्कूल में सुधार है। प्रणालीबद्ध स्कूल संगठन के विभिन्न भागों के मध्य अन्तर्सम्बन्धों पर बल देती है, जबकि सांयोगिक स्कूल उन अन्तर्सम्बन्धों की प्रकृति पर ध्यान केन्द्रित करती है। प्रणालीबद्ध स्कूल संगठनात्मक चरों का व्यापक रूप धारण करती है तथा मानव का विस्तृत मॉडल प्रयुक्त करती है। यह सभी मानवीय आवश्यकताओं एवं प्रेरणाओं को ध्यान में रखती है। इसके विपरीत सोयोगिक स्कूल मुख्य रूप से संगठन-ढाँचा के अनुकूल एवं कार्य पर्यावरण से सम्बन्धित है लेकिन इन दोनों स्कूलों को एक-दूसरे से बिल्कुल अलग करना सम्भव नहीं है। इन्हें एक-दूसरे का सहायक समझा जाना चाहिए। अतः प्रबन्धक को सांयोगिक स्कूल के ढाँचे के अन्तर्गत ही प्रणालीबद्ध तथा अन्य सम्बन्धित स्कूलों का उपयोग करना चाहिए।

सांयोगिक स्कूल की उपयोगिता अथवा महत्व (Utility or Importance of Contingency School)-

प्रबन्ध के सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक भावी विकास के क्षेत्र में निश्चात्मक रूप में सांयोगिक स्कूल की महत्वपूर्ण भूमिका विद्यमान है। प्रबन्ध की अन्य सभी स्कूलों का समामेलन सांयोगिक ढाँचे के अन्तर्गत किया जा सकता है। इस स्कूल का उपयोग मोर्चाबन्दी करने, प्रभावी संगठन की संरचना करने, सूचना पद्धति का नियोजन करने, सन्देशवाहन एवं नियन्त्रण पद्धतियों की स्थापना करने, अभिप्रेरण तथा नेतृत्व स्कूलों का प्रारूप निर्धारित करने, मतभेदों का निपटारा करने तथा प्रबन्ध के क्षेत्र में परिवर्तन आदि करने में किया जा सकता है। यह स्कूल संगठनों की विविधात्मक पद्धतियों को उजागर करती है तथा यह समझती है कि संगठन विभिन्न परिस्थितयों में किस प्रकार कार्य करते हैं। इसकी सहायता से प्रबन्धक ऐसी क्रियाएँ तैयार कर सकते हैं जोकि सम्बन्धित परिस्थितियों में सर्वाधिक उपयुक्त हों।

सांयोगिक स्कूल के दोष अथवा सीमाएँ (Demerits or Limitations of Contingency School) –

सांयोगिक स्कूल विभिन्न उपयोगिताओं के होते तथा उज्ज्वल भविष्य के होते हुए भी इसमें निम्न दो महत्वपूर्ण कमियाँ अथवा सीमाएँ दृष्टिगोचर होती हैं- (1) सांयोगिक केस्कूल पर उपलब्ध वर्तमान साहित्य सर्वथा अपर्याप्त है। (2) यह स्कूल पर्यावरण पर प्रबन्ध अवधारणाओं एवं तकनीकों के प्रभाव को मान्यता प्रदान नहीं करती है।

निष्कर्ष (Conclusion)-

उपरोक्त विवेचन के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सांयोगिक स्कूल प्रबन्ध के क्षेत्र में आधुनिक विचारधारा है एवं इसका भविष्य निचयात्मक रूप में उज्ज्वल है। हाँ, आवश्यकता इस बात की है कि खोज एवं अनुसन्धान करके इस पर अधिकाधिक साहित्य का सृजन किया जाये।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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