मुगलकला की विशेषताएँ | मुगलकला की शैली | मुगलकालीन वास्तुकला की रूपरेखा

मुगलकला की विशेषताएँ | मुगलकला की शैली | मुगलकालीन वास्तुकला की रूपरेखा

मुगलकला की विशेषताएँ एवं शैली

भारतीय स्थापत्य कला का पूर्ण विकास हमें मुगल साम्राज्य में विशेष रूप से मिलता है। क्योंकि मुगल शासकों ने इस कला को तथा कलाकारों को प्रोत्साहन एवं संरक्षण देकर अपनी अभिरुचि का स्वतन्त्र रूप में प्रदर्शन किया। मुगल सम्राटों द्वारा निर्मित कराये गये भवनों से धार्मिकता, सजीवता, सौन्दर्य एवं स्वाभाविकता सहज रूप से दृष्टिगत होती है जो अन्यत्र नहीं मिलती है।

मुगल स्थापत्य कला की विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

देशी और विदेशी शैलियों का सम्मिश्रण- मुगल युग के निर्मित भवनों में भारतीय और विदेशी अर्थात् अरबी, फारसी और तुर्की शैलियों का मिश्रण है। फर्ग्युसन महोदय का कहना है कि इस पर विदेशी प्रभाव अधिक है। किन्तु हैवेल का कहना है कि भारत में विदेशी शिल्पी थे ही नहीं, यदि थे तो बहुत अल्प संख्या में थे। अत: मुगल स्थापत्य पूरी तरह भारतीय है। डॉ० ईश्वरी प्रसाद का कथन है कि फारसी शैली का प्रभाव मुगल इमारतों को सजावट, उच्चकोटि को नक्काशी और सुन्दर बेलबूटों के काम में स्पष्ट झलकता है। मुगल भवनों के निकट बगीचों की स्थापना से उसको सुन्दर बनाने की चेष्टा करना भी फारसी शैली से ली गई एक अनुशैली है। हिन्दू बौद्धिक शैली का प्रभाव मुगल भवनों की दृढ़ता और भव्यता से स्पष्ट परिलक्षित होता है। हुमायूँ के मकबरे और ताजमहज में उन दानों शैलियों का मिश्रण स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है।

गुम्बद और मीनारें- मुगल वास्तुशिल्प की एक और विशेषता है कि मुगलकालीन भवनों मैं गुंबद और मीनारों की योजना है। मुगलो से पहले के भवनों में गुंबद का वह भव्य और मनोहर रूप नहीं गित होता है, जो हमें मुगलकालीन निर्मित भवनों में दृष्टिगत होता है। गयासुद्दीन तुगलक के मकचरे और हुमा के मकबरे को देखकर यह अन्तर स्पष्ट हो जाता है।

गोल मेहराब- मुगलकाल से पूर्व को मेहराचे नुकोली नहीं होती थीं। मुगलकाल के भवनों में एक विशेषता यह दिखाई देती है कि इन नुकीली मेहराबों से ही बीच में नौ गोल छोटी-छोरी मेहराबें और डाल दी गई हैं।

अलंकरण (सजावट)- मुगलकालीन निर्मित भवनों में अलंकरण का काम बहुत सुन्दर हुआ है, विशेषतः जाली काटने का काम बहुत ही सुन्दर हंग का है। फतेहपुर सीकरी में सलीम चिश्ती का मकबरा, दिल्ली के लाल किले में दोबाने-आम और दीवाने-खास, आगरा में ताजमहल और मोती मस्जिद इसके उत्कृष्ट उपकरण है।

बुरे पत्थर के स्थान पर संगमरमर का प्रयोगमुगलकाल से पहले की इमारतों में अधिकतर भूरा पत्थर लगाया गया है, जो खुरदरा है। देखने में उसका प्रभा रूक्षता लिए हुए है। मुगलों ने उसके स्थान पर संगमरमर का अधिकाधिक प्रयोग किया, जिससे लालित्य में वृद्धि हुई। ताजमहल तो सब काले और सफेद संगमरमर का बना हुआ है, इसिलिए वह अत्यधिक सुकुमार प्रतीत होता है।

रंगों की योजना पर विशेष ध्यान- मुगलकालीन भवनों में रंगों के चयन पर विशेष ध्यान दिया गया है। जहां जो रंग अधिकतम उपयुक्त हो वहाँ उसी का प्रयोग किया गया है। इससे भवनों की सुन्दरता अद्वितीय हो गई है।

विशालता के साथ सुकुमारता और सौदर्य- मुगलकालीन भवन अपने से पहले के काल की अपेक्षा विशाल भी अधिक है और अधिक सुन्दर भी है। मुगलों का ध्यान एक ओर तो विशालता की वृद्धि की ओर रहा पर साथ ही उन्होने सुकुमारता और सौन्दर्य की ओर भी अधिक ध्यान दिया। इस प्रकार फतेहपुर सीकरी का बुलन्द दरवाजा अत्यधिक विशाल होते हुए भी सुन्दर है ।आगरा की मोती मस्जिद, दिल्ली की जामा मस्जिद और ताजमहल इन सबसे विशालता के साथ सुन्दरता का मिश्रण बहुत आकर्षण बन गया है।

इमारतों का सुन्दर परिवेश- केवल विशाल और सुन्दर इमारतें बना कर ही मुगलों को सन्तोष नहीं हुआ। उन्होंने प्रायः सभी जगह इन इमारतों के चारों ओर सुन्दर उद्यान बनाये, जिनमें नहरों और फव्वारों का प्रबन्ध था। इनके कारण इन भवनों की शोभा चौगुनी हो गई।

हिन्दू प्रभाव- मुगल इमारतों पर हिन्दू प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। इसके कई कारण हैं-(1)कई जगह तो हिन्दू या जैन मन्दिरों को आधा तोड़कर ही उनको मस्जिद का रूप दे दिया गया है। ऐसी सथिति में उनमें हिन्दू प्रभाव क्या, हिन्दू रूप ही सष्ट दिखाई पड़ता है। मथुरा में मन्दिर को तोड़कर बनाई गई मस्जिद बनारस (वाराणसी) में विश्वनाथ मन्दिर के स्थान पर बनी मस्जिदों में यह विशेषता दिखाई पड़ती है। (2)मुगल सम्राट में अधिकांश शिल्पी भारतीय होते थे, जो वंश परम्परा से हिन्दु शैली के भवन बनाने में अभ्यसत थे। अत: न चाहते हुए भी उनके भवनों में हिन्दू प्रभाव आ ही जाता था। डॉ० आशीर्वादी लाल ने लिखा है कि जहाँगीरी महल हिन्दू डिजाइन का है और इसमें सजावट भी हिन्दू ढंग की है।”

इन कारणों से यह किसी हिन्दू का राजा का महल आसानी से समझा जा सकता है। इसी प्रकार लाहौर के किले में घोड़ों, हाथियों और संहों की मूर्तियां बनीं और छत के नीचे कार्निस में गोरों के चित्र खुदे हैं। इससे पता चलता है कि शिल्पकार हिन्दू और उनके मुसलमान निरीक्षक भी सहिष्णु थे, अन्यथा औरंगजेब जैसा कोई कट्टर व्यक्ति तो इस प्रकार की मूर्तियाँ बनने ही न देता।

स्थापत्य कला के विकास का कारण इस युग में धन की अधिकता और शासकों द्वारा संरक्षण और पर्यात सहायता भी थी।

मुगल-शैली- फर्ग्युसन जैसे इतिहासकार का यह विश्वास है कि मुगलों की भवन निर्माण-शैली विदेशी है। हाबेल ने फर्ग्युसन की आलोचना करते हुए लिखा है कि “मुगलकला देशी व विदेशी शैलियों का उत्तम सम्मिश्रण है। अपने में विदेशी तत्वों को सम्मिलित करने की अपूर्व शक्ति भारत में रही है” सत्यता यह अवश्य है कि विदेशियों की कला ने भारत की कला को प्रभावित किया, पर यह कहना कि भारतीयों को समस्त प्रेरणा विदेश से ही प्राप्त हुई है, असंगत-सा है। सर जान मार्शल का कहना है कि भारत जैसे विशाल असामान्यता और विभिन्नता वाले देश में यह नहीं कहा जा सकता है कि भवन निर्माण-कला किसी एक ही विशिष्ट देशव्यापी शैली को लेकर स्थिर रही। भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न शैलियों का प्रयोग किया गया। डॉ० ईश्वरी प्रसाद का कथन है कि अपनी विशालता के कारण वास्तव में कोई एक शैली विशेष रूप से नहीं अपनाई गई। विभिन्न स्थानों पर विभिन्न शैलियों का प्रयोग हुआ।

मुगलों ने विशाल भवनों का निर्माण कराया था। मध्य एशिया की कला विशेषता गुम्बद, ऊंची-ऊंची मीनारें, मेहराब तथा डाटों में थीं और भारतीय हिन्दू शिल्प-कला की विशेषता चौरस छत, लघु आकार के स्तम्भ, नुकीली मेहराबों तथा तोंड़ो में थी। “यह इस्लामी सथापत्य कला मुसलिम आक्रमणकारियों के साथ देश में आई थी और बाबर के समय तक विद्यमान रही। किन्तु यह कला भारतीय स्थापत्य कला को विशेषतः प्रभावित करने में सफल न रही। इसका कारण यह था कि तुर्की विजेताओं को भारतीय कलाविदों को भवन निर्माण कार्यों में रखना पड़ा। इन तुर्की विजेताओं को भारत के मानव-निर्माण -कला के रूप का ज्ञान न था। अतः उन्होंने अपने भवनों में भारतीय अलंकृत शिल्पकला शैली का समावेश किया। सभी प्रारम्भिक विजेताओं ने धर्मान्धता के कारण हिन्दू और जैनियों के जिन मन्दिरों को नष्ट कराया था उनको ही सामग्रियों से उन्होंने मस्जिद, महल और गुम्बजों का निर्माण कराया। इसका परिणाम यह हुआ कि उनके द्वारा अपने भवनों के विचार किए हुए नमूनों (आकारों) में अधिक परिवर्तन हो गया। हिन्दू और मुस्लिम भवनों में अधिक भिन्नता होती है, परन्तु फिर भी वे एक-दूसरे से मिलती हैं। अतः तुर्की शासकों ने कभी-कभी हिन्दू और जैन मन्दिरों की छतों को गिरवाकर उनके स्थान पर गुम्बद तथा मीनारें बनावाकर उन्हें मन्दिर से मसजिद में परिवर्तित कर दिया था। इन परिस्थितियों के कारण भारतीय कला मुस्लिम शिल्पकला पर अपना प्रभाव डालती रही और यह प्रभाव मुगल-शासकों के काल तक बना रहा।”

बाबर-

बाबर एक उच्चकोटि का विद्वान् त्या कलाप्रेमी सम्राट था। उसको दिल्ली के सुल्तानों द्वारा बनवाये हुए भवन सुन्दर प्रतीत न हुए। परन्तु बाबर ग्वालियर को स्थापत्य कला से बहुत प्रभावित हुआ था। बाबर का कलाके प्रति प्रेम का विवरण उसकी आत्मकथा तुजुक-ए-बाबरी (बाबरनामा) में मिलता है। उसने लिखा है कि “मैंने आगरा, घौलपुर, बयाना, सीकरी, कोल तथा ग्वालियर आदि स्थानों पर भवन-निर्माण में 1491मजदूरों को लगाया था।”

बाबर तारा बनवाये हुए दो भवन शेष हैं-एक तो पानीपत को काबुली बाग को मसजिद तथा दूसरी रुहेलखण्ड में सम्मल की जामा मस्जिद। इन मस्जिद का निर्माण 1528-29ई० में सैनिकों के नमाज पढ़ने के लिए किया गया था। डॉ० ईश्वरी प्रसाद कथनानुसार “बाबर के द्वारा बनवायी हुई तीन मस्जिदें केवल अब शेष रह गई हैं-पानीपत के काबुल बाग की मस्जिद, अयोध्या की मस्जिद और सम्भलगढ़ को जामा मस्जिद । दिल्ली के पुराने किले की मस्जिद को भी कदाचित् इसी ने बनवाया था।” इमारतों की शैली पूर्णतः भारतीय है।

हुमायू-

बाबर की भाँती हुमायूँ भी कला-प्रेमी था। यद्यपि उसके पास स्थापत्य कला के विकास के लिए समय अधिक न मिला, क्योंकि उसका संपूर्ण जीवन कष्टों में ही व्यतीत हुआ । फर्ग्युसन ने लिखा है कि हुमायूँ के विपत्तिपूर्ण शासन से ज्ञात होता है कि भवन निर्माण की स्थायी योजना के प्रति हुमायूँ का ध्यान आकर्षित न हो सका। किन्तु जो भी समय उसे मिला एसमें उसने कुछ भवनों का निर्माण कराया। दिल्ली में उसनें ‘दीन-पनाह’नामक एक भवन का निर्माण कराया पर इसमें सौन्दर्य एवं सुदृढ़ता का अभाव है। क्योंकि इसका निर्माण शीघ्रता से सम्पन्न हुआ था।

हुमायूँ ने आगरा तथा फतेहपुर में मस्जिदों का निर्माण कराया जिसे फारसी आकार में अलंकृत कराया गया था। इसका अलंकार फारसी शैली के आधार पर किया गया है”-दिल्ली स्थित हुमायूँ का मकबरा भव्य-भवनों में वास्तुकला का उपकरण है जिसका निर्माण हुमायूं की पत्नी हाजी बेगम ने अपने निरीक्षण में कराया था इसमें सुदृढ़सुडौल तथा सुन्दर गुम्बद की योजना है।

पर्सी ब्राउन ने लिखा है- “हुमायूँ के मकबरे का निर्माण स्थापत्य कला के इतिहास में एक नया युग प्रारम्भ करता है। इसके कुछ माग गुम्बदों के आधार में तैमूराइट तथा फारसी भवन के अनुकरण पर बने हैं।”

अकबर-

सम्राट अकबर की शिल्पकला में अभियचि होने के कारण तथा उसका संरक्षण करने के कारण भव्य भवनों को निर्माण हो सका । जैसा कि अबुल- फजल ने लिखा है- सम्राट सुन्दर भवनों की योजना बनाया करते हैं और अपने हृदय तथा मस्तिष्क के विचारों को पत्थर और चूने का रूप दे देते हैं।”

अकबर का शासन-काल प्रत्येक क्षेत्र में सम्मिश्रण तथा समन्वय का युग था। अकबर ने देशी तथा विदेशी शैलियों के मध्य बड़ा सुन्दर सामंजस्य स्थापित किया फर्ग्युसन के कथनानुसार वह हिन्दुओं की कलाओं को उतना ही चाहता था, जितना अपनी मुस्लिम कला को। परिणामस्वरूप उसकी स्थापत्य कृतियों में दोनों ही शैलियों का समन्वय हुआ।”

अकबर ने अपने भवनों में अधिकतर लाल पत्थरों का ही प्रयोग किया है क्योंकि लाल पत्थर अधिकता से उपलब्ध थे। कुछ भवना में संगमरमर का भी प्रयोग हुआ है। अकबर के भवनों में फारसी तथा हिन्दू शैलियों का सम्मिश्रण मिलता है। सर्वप्रथम अकबर के भवन निर्माण योजना में दुर्गों का उल्लेख आता है। अकबर ने तीन महत्वपूर्ण दुर्गों का निर्माण कराया जो विभिन्न स्थलों में बने हैं इनमें सर्वप्रथम आगरा का दुर्ग है।

आगरा के दुर्ग का निर्माण 1565 ई० में कासिम खाँ के नेतृत्व में प्रारम्भ हुआ था। इस दुर्ग में लाल पत्थर का प्रयोग किया गया है। इनमें दो प्रवेश-द्वार हैं। इसका घेरा डेढ़ मील लम्बा है तथा इसकी दीवारें 70 फीट ऊंची हैं। किले के अन्दर अकबर ने लगभग 500 से अधिक भवनों का निर्माण कराया था जिनको शाहजहाँ ने तुड़वाकर उनके स्थान पर संगमरमर के भवन बनवाये।

लाहौर का दुर्ग- इस दुर्ग का निर्माण भी आगरे के दुर्ग के निर्माण के समय अकबर ने करवाया था। इसकी शैली भी आगरे के दुर्ग के समान ही है। इस दुर्ग की भीतरी योजना क्रमानुसार है। इनमें शिल्पकारी का सुन्दर कार्य किया गया है। इस दुर्ग में भी लाल पत्थरों का प्रयोग हुआ है तथा इसमें भी अनेक भवनों का निर्माण हुआ था। इन भवनों में कोष्ठकों का भी प्रयोग किया जाता था। उन पर पशु-पक्षियों की आकृतियों बनाई गई थी।

इलाहाबाद का दुर्ग- अकबर ने 1553 ई० में इलाहाबाद के दुर्ग का निर्माण करवाया था। इसकी योजना अधिक विस्तृत है। इनमें कोष्ठकों का प्रयोग हुआ है। दुर्ग के अन्तर्गत शेष भवनों में जनाना महल नामक एक सुन्दर मण्डप अभी भी सुरक्षित स्थिति में है। यह दुर्ग गंगा-यमुना दो नदियों के संगम पर स्थित है।

अकबर ने सीमा सुरक्षा के लिए अजमेर (1570 ई०) तथा अटक (1581 ई.) में दुगों की स्थापना की थी।

फतेहपुर सीकरी- आगरा से तेईस मील की दूरी पर सीकरी नामक एक गांव स्थित था। यहाँ पर ही प्रसिद्ध सूफी सन्त शेख सलीम चिश्ती रहते थे जिनके आशीर्वाद से अकबर के पुत्र का जन्म हुआ था जिसका नाम शेख सलीम चिश्ती के नाम पर सलीम रखा गया था। इस भाँति सीकरी अकबर के लिए एक सौभाग्यशाली स्थल सिद्द हुआ और अकबर ने इस स्थान का नगर का रूप देने का निश्चय किया।”अकबर ने गुजरात विजय के बाद अपनी इस नयी राजधानी का नाम फतेहपुर रखा था” डॉ० ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है कि “1569 ई० में बादशाह ने सीकरी के निकट एक पहाड़ी पर शेख सलीम चिश्ती की स्मृति में फतेहपुर सीकरी नगर की नींव डाली” हावेल के मतानुसार इस नगर की नींव डालने में उन सिद्धान्तों को अपनाया है जिनका शिल्पशास्त्र में वर्णन है।

अकबर के आदेशानुसार महलों, मस्जिदों, मठों, स्नानागारों तथा अन्य भवनों का निर्माण किया गया। 1569 ई० से 1571ई० तक नये नगर में भव्य इमारतें बनाई गई।

दीवान-ए-आम- इसमें अकबर अपना दरबार किया करता था। इसका निर्माण एक उंची कुर्सी पर किया गया है। यह भवन आयताकार दृष्टिगत होता है। इसमें पतथर की सुन्दर जालियाँ बनाई गई हैं। इसमें लाल पत्थरों का प्रयोग किया गया है।

दीवान-ए-खास- यह भी लाल पत्थरों का बना हुआ है। यह लघु आकार की इमारत है और यह 43फीट का वर्गाकार भवन है। इसकी आंतरिक योजना अधिक सुन्दर तथा कलापूर्ण है।

कोषागार- इसमें कई कमरे हैं और यह दीवान-ए-खास के उत्तर में स्थित है। इसकी छत ऊपर से फटी हुई है। इसे बहुमूल्य जवाहरात आदि रखने के लिए बनाया गया था।

ज्योतिषी की बैठक- यह कोषागार के पश्चिम में स्थित है। इसमें कोष्ठकों का प्रयोग किया गया है।

जोधाबाई का महल- यह एक आयताकार भवन है। इसकी लम्बाई 320 फीट चौड़ाई, 215 फीट है तथा दीवारों की ऊँचाई 32 फीट है। सीकरी के भवानों में यह सबसे विशाल भवन है। इसमें कमरों का ऋतुओं के साथ (अनुसार) ठंडा और गरम रखने की भी व्यवस्था है। इसमें कोष्ठ को का प्रयोग किया गया है। पर्सी ब्राउन के कथनानुसार इसके निर्माण का कार्य गुजरात के कारीगरों को सौपा गया था।

हवामहल- यह दो मंजिलों की इमारत है। इसमें हवा जाने के लिए सुन्दर जालियों की योजना है। यह जोधाबाई के महल के उत्तर में स्थित है।

मरियम की कोठी- यह दो मंजिलों की छोटी इमारत है तथा जोधाबाई के महल के निकट ही स्थित है। इसके चारों ओर स्तम्भों पर बरामदे स्थित हैं। इन स्तम्भों पर हाथी आदि पशुओं की आकृतियाँ अंकित की गई हैं।

बीरबल की कोठी- इसका निर्माण मरियम की कोठी की शैली पर हुआ है। यह दो मंजिलों की इमारत है। अलंकृत करने के लिए सुन्दर खुदाई का कार्य किया गया है। इसके छज्जों को कोष्ठकों पर आधारित किया है। पर्सी बाउन लिखते हैं कि “सीकरी के किसी दूसरे भवने में रचना तथा सजावट सम्बन्धी तत्व इतनी अधिक कुशलतापूर्वक निर्मित नहीं मिलते जितना कि इस लघु आकार, किन्तु वैभवपूर्ण मन्त्री-आवासगृह में मिलते हैं। मरियम सुल्ताना और बीरबल के निवास स्थान उस समय के आदर्श स-स्थानों के नमूने हैं।”

पंच-महल- यह पाँच मंजिलों को इमारत है, जिसको स्तम्भों पर निर्मित किया गया है। इस भवन का निचला भाग ऊपर की अन्य मंजिलों से बड़ा है, इसकी प्रत्येक मंजिल आकार में अपने नीचे की प्रत्येक मंजिल से क्रमश: छोटी होती गई है। एक मंजिल से दूसरे मंजिल में जाने के लिए सुन्दर सीढ़ियों की योजना है। इस भवन में स्तम्भों का प्रयोग स्वतन्त्रतापूर्वक किया गया है।

तुर्की सुल्ताना की कोठी- यह सुन्दर लघु आकार की इमारत है। इसमें एक ही मंजिल है तथा स्तम्भों पर आधारित बरामदे की भी योजना है। इसके भीतरी दीवार को पेड़-पौधों तथा पशु-पक्षियों की आकृतियों से अलंकृत किया गया है।

खास महल- यह दो मंजिलों का भवन है तथा सम्राट अकबर का निवासगृह था। इस भवन के निर्माण में लाल पत्थरों के साथ संगमरमर का भी प्रयोग किया गया है। इसकी दीवारों में जालियों की भी योजना थी। इस भवन के दक्षिण में सम्राट का शयनागार स्थित है। इस महल के ऊपरी मंजिल के एक किनारे पर ‘झरोखा-ए-दर्शन’ स्थित है, जहाँ से सम्राट प्रतिदिन प्रातः काल उपनी प्रजा को दर्शन देने के लिए उपस्थित होता था।

जामा मस्जिद- अकबर इस मस्जिद को सबसे सुन्दर मस्जिद बनान चाहता था। इसका निर्माण 1571 ई० में हुआ। यह आयताकार इमारत है जिसको लम्बाई 542 फीत तथा चौड़ाई 438 फीट है। मस्जिद में एक चौड़ा सहन है जो तीन तरफ स्तम्भों से घिरा हुआ है तथा इसमें पश्चिम में पूजा गृह है। यद्यपि इसकी योजना इस्लामी है, परन्तु इसमें भारतीय स्थापत्य कला के तत्वों को भी अपनाया गया है। यह मस्जिद सीकरी के सबसे महत्वपूर्ण भवनों में है।

बुलन्द दरवाजा- इसका निर्माण अकबर ने 1574 ई० में करया था। अकबर का यह विजय द्वार उसकी शक्ति एवं महानता तथा निर्माणकता की सौन्दर्यप्रियता का प्रतीक है। श्री एच० जी० रॉबिन्सन लिखते है। कि “बुलन्द दरवाजा सम्पूर्ण भारत की स्थापत्य सफलता का परिचायक है।”यह भारत का सबसे ऊँचा तथा वैभवशाली प्रवेश द्वार है। यह प्रवेश द्वार पृथ्वी की सतह से 176 फीट ऊँचा है। इसमें कई छोट-बड़े कमरों की योजना है, जिनके द्वारा जामा मस्जिद के भीतरी सहन पर पहुंचा जा सकता है। श्री स्मिथ तथा ब्लाकमैन आदि विद्वानों के विचारों में खानदेश की विजय स्मृति को प्रस्तुत करने के उद्देश्य से इसका निर्माण कराया गया था।

शेख सलीम चिश्ती का मकबरा-इस मकबरे की योजना वर्गाकार है। इसको अलंकृत करने के लिए सुन्दर स्तम्भों तथा छज्जों का निर्माण किया गया है। स्मिथ के कथनानुसार, “शेख सलीम चिश्ती का मकबरा सीकरी की स्थापत्य कला का एक सुन्दर उदाहरण है।” पर्सी ब्राउन के मतानुसार फतेहपुर सीकरी की अनेक इमारतों की भाँती इसमें भी लाल पत्थरों का प्रयोग किया गया है जिसे जहाँगीर अथवा शाहजहाँ के समय में संगमरमर के भवन के रूप में परिवर्तित कर दिया गया।

पर्सी बाउन- के अभिमत में, “फतेहपुर सीकरी के ये वैभवशाली भवन ताजमहल के पश्चात् मुगलों को सर्वश्रेष्ठ कलाकृतियाँ हैं।”

री स्मिथ ने लिखा है कि “फतेहपुर सीकरी जैसा निर्माण कार्य न पहले कभी हुआ था और न फिर कभी होगा। यह प्रणय का ऐसा प्रतिरूप है, जिसमें अकबर की अद्भुत प्रवृत्ति के सभी मनोभाव जुड़ गये हों।”

डॉ० ईश्वरी प्रसाद लिखते है कि “वास्तव में फतेहपुर सीकरी एक स्वप्न है। इसको देखकर मानवीय आकांक्षाओं की नश्वरता का पूर्ण आभास होता है।”

जहाँगीर-

जहाँगीर को स्थापत्य कला से उतना प्रेम न था जितना चित्रकला से । अतः जहाँगीर ने स्थापत्य कला की ओर विशेष ध्यान न दिया । परन्तु जिन भवनों का उसने निर्माण कराया उनमें अकबर के युग की वास्तुकला का उत्कृष्ट स्वरूप दृष्टिगत होता है।

अकबर का मकबरा- यह मकबरा सिकन्दरा नामक गाँव में स्थित है। यह मकबरा उस युग की सबसे तथा वैभवशाली इमारत है इसके विषय में कहा जाता है कि इसकी योजना अकबर ने स्वयं अपने जीवन काल में बनाई थी।’

इस मकबरे में पाँच मंजिलें हैं। इसकी प्रत्येक पर की मंजिल नीचे की मंजिलों से आकार में छोटी होती गई है। इस मकबरे को सुन्दर जालियों के द्वारा अलंकृत करने का प्रयास किया गया है। इसकी छतें भी सुन्दर पच्चीकारी से युक्त हैं। फर्ग्युसन ने लिखा है कि “यदि इसका केन्द्रीय गुम्बद 30-40 फीट और ऊंचा होता तो इसे भारत के मकबरों में ताज के बाद दूसरा स्थान दिया जाता।”

हावेल के मत में ,”अकबर का मकबरा एक महान् भारतीय शासन का पवित्र स्मारक है।”

एत-माद्-उद्दौला का मकबरा-जहाँगीर के युग की दूसरी महत्वपूर्ण इमारत एत-माद्-उद्दौला का मकबरा है। यह आगरे में स्थित है । एत-माद-उद्दौला नूरजहाँ का पिता तथा जहाँगीर का ससुर था। इस मकबरे में लाल पत्थर तथा संगमरमर दोनों का प्रयोग हुआ है। इसे नूरजहाँ ने ईरानी शेली के आधार पर 1626 ई. में निमर्कत कराया था। यह सुन्दर बगीचे के मध्य में लाल पत्थरों से घिरे हुए अहाते में स्थित है। इसमें सुन्दरता और कोमलता की भावना प्रधान है। पच्चीकारी बहुत ही उच्चकोटि की है।

जहाँगीर का मकबरा- यह लाहौर में शाहदरा में स्थित है। इसका निर्माण लगभग सिकन्दरा में बने अकबर के मकबरे की भाँति ही हुआ है। इसका निर्माण नूरजहाँ की देख-रेख में हुआ था। यह मकबरा वर्गाकार है, जिसको जड़ाऊ संगमरमर, रंगीन टाइल्स तथा विभिन्न रंगों से अलंकृत किया गया है। श्री सैयद मुहम्मद लतीफ अपनी पुस्तक ‘लाहौर में लिखते हैं कि “यह सर्व सुन्दर समाधि लाहौर का उत्कृष्ट अलंकरण है और भारत में ‘ताज’तथा कुतुबमीनार के बाद सर्वश्रेष्ठ भवनों में है।”

फर्ग्युसन ने जहाँगीर के राज्यकाल की निर्मित इमारतों को इण्डो-पर्शियन शैली का बताया है। पर हावेल का मत है कि यह सब पूर्णतया भारतीय कला के अनुसार बनाई गई भारतीय इमारतें हैं। जहाँगीर के समय की बनी मुख्य इमारतें है-सराय नूर महल का दरवाजा (1620), शालीमार बाग और श्रीनगर की निकटवर्ती भवन (1624),अनारकली का मकबरा और लाहौर के किले ख्वाबगाह और संगमरमर की मोती-मस्जिद।

शाहजहाँ-

मुगलकाल का सबसे महान् भवन-निर्माता शाहजहाँ था। उसका राज्य-काल भारतीय स्थापत्य कला के इतिहास में स्वर्ण-युग के नाम से प्रसिद्ध है। भारतीय वैभव और कला का पूर्ण विकास इस सम्राट द्वारा निर्मित कराये गये भव्य भवनों तथा मकबरों में दृष्टिगत होता है। “इमारतों की विशालता और साथ ही साथ उनकी सुकुमारता और सौन्दर्य भारतीय कला और कारीगरी की ऐसी विशेषताएँ है जो दूसरे देशों की इमारतों में कदाचित् ही देखने को मिलेंगी।”

डॉ० ईश्वरी प्रसाद शाहजहाँ के काल में निस्सन्देह स्थापत्य कला अपने विकास की चरम सीमा पर पहुंच गई थी । शाहजहाँ की स्थापत्य कला के प्रति विशेष अभिरुचि थी । वह इतिहास में अपना नाम अमर करने के पक्ष में था। अतः इस उद्देश्य की पूर्ति के निमित्त उसने भव्य एवं वैभवशाली भवनों को निर्मित करवाने का निश्चय किया। वह जहाँ भी गया वहाँ उसने सुन्दर भवनों का निर्माण कराया । बागरा तथा दिल्ली में उसने भव्य भवन बनवाये।

आगरा के भवन- आगरा में अधिकांश भवन आगरा में प्रसिद्ध दुर्ग में निर्मित हुए हैं। आगरा का दुर्ग विभिन्न प्रकार का पिंड है’।

दीवाने-आम- शाहजहाँ ने दुर्ग में बने हुए दीवाने-आम को तुड़वाकर फिर से 1627 ई० में बनवाया । इसमें संगमरमर का प्रयोग किया गया है। यह विशाल भवन है और तीन तरफ से खुला हुआ है। इसकी छत ऊँचे-ऊँचे स्तम्भों पर आधारित है। इसमें सम्राट के बैठने के लिए ऊंचाई पर एक मंडप की व्यवस्था थी, जहाँ-तख्त-ए-ताऊस (मयूर सिंहासन) पर सम्राट बैठता था। यह मयूर सिंहासन 3 1/2 गज लम्बा,2 1/2 गज चौड़ा तथा 5 गज ऊंचा राजसिंहासन था।

दीवाने-खास (Diwane-Khas)- इसका निर्माण शाहजहाँ ने 1637 ई० में कराया था। संगमरमर का आयताकार भवन है। इसकी दीवान 22 फीट ऊँची है। इसमें स्तम्भों तथा मेहराबों पर सुन्दर पच्चीकारी का काम किया गया है।

“दीवाने-खास की दीवारों को फूल-पत्तियों से भी अलंकृत किया गया है। दीवाने-आम और दीवाने-खास के चमकीले संगमरमर के फर्श, उनकी दीवारों पर फूल-पत्तियों की सुन्दर नक्काशी और मेहराबों का सुनहला रंग अत्यन्त आकर्षक है। वे उस कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।”

मच्छी भवन- यह मच्छी भवन दीवाने-आम के पीछे स्थित लाल आयताकार भवन है। इसमें 60 गज लम्बा और 55 गज चौड़ा सहन है, जिसके चारों कोनों पर पत्थर का सुन्दर काम की हुई मीनारें हैं। इस भवन के आँगन में बहुत से सरोवर थे जिनमें यमुना नदी का जल भरा रहता था, और राजकीय परिवार के लोग यहाँ मछली का शिकार खेलने आते थे।

शीश महल- दीवाने-खास के नीचे शीश महल स्थित है। इसके दरवाजे तथा दीवारें शीशे, सोने तथा रंगीन पत्थर के काम से सुसज्जित हैं। शीश महल एक कक्ष है जिसमें दो हौज हैं।

खास महल- दीवाने खास से सटा हुआ खास महल है। यह सम्राट तथा बेगम के निवास के लिए बनाया गया था। इस महल के नीचे के भाग लाल पत्थर के बने हैं। इस महल का ऊपरी भाग, वरामदे, कमरे तथा मंडप सभी सफेद संगमरमर के बने हैं।

मुसम्मन बुर्ज- इसे शाहबुर्ज भी कहते थे। इसे सम्राट ने सफेद संगमरमर से बनवाया था। यह 6 मंजिलों का भवन है। यह वही स्थान है, जहाँ शाहजहाँ ने उपनी प्रेयसी मुमताज महल के स्मारक ताज को देखते हुए प्राण त्याग किये थे।

नगीना मस्जिद- मच्छी भवन के उत्तरी पश्चिमी सिरे पर नगीना मस्जिद स्थित है। यह छोटी पर सुन्दर मस्जिद है। सफेद संगमरमर से निर्मित हुई है।

मोती मस्जिद- आगरा दुर्ग की सबसे सुन्दर इमारतों में मोती मस्जिद है। इसका निर्माण 1654 ई० में पूरा हुआ था। डॉ. बनारसी प्रसाद सक्सेना के कथनानुसार “शाहजहाँ ने इसके निर्माण में तीन लाख रुपया खर्च किया था।”मस्जिद के भीतरी भाग को सुन्दर एवं अलंकृत करने के लिए संगमरमर का प्रयोग किया है। पर्सी ब्राउन ने लिखा है कि “इसमें मेहराबों तथा छतरियों की सुन्दर योजना है तथा केन्द्रीय गुम्बद का कुशलतापूर्वक निर्माण किया गया है। यह सादगी से संयुक्त कला की पूर्णता का श्रेष्ठ उदाहरण है।”

हावेल के शब्दो में, “आगरा की मोती मस्जिद कोमल तथा समस्त ललित विशिष्ट गुण सम्पन्न है।”

जामा मस्जिद- यह मस्जिद आगरे के दुर्ग के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। इसका निर्माण शाहजहाँ की पुत्री जहाँआरा बेगम ने कराया था। डॉ० बी० पी० सक्सेना ने लिखा है कि “इसका निर्माण पाँच वर्ष में (1658 ई. में) पूर्ण हुआ था औरा इसके निर्माण में पाँच लाख रुपये व्यय हुआ था। इसका आकार 130 फीट तथा 100 फीट है। मस्जिद के छत के प्रत्येक कोने पर एक-एक अठपहला गुम्बददार छतरी की योजना है। बर्नियर ने इसके निर्माण के विषय में अधिक प्रशंसा की है। उसका कहना है कि मस्जिद का प्रत्येक भाग समुचित ढंग से निर्मित, प्रतिबन्धित तथा समथल युक्त लगता है।”

ताजमहल- यह विश्व के अति सुन्दर भवनों में से एक है। इसका निर्माण शाहजहाँ ने अपनी प्रिय पत्नी मुमताज महल की पावन स्मृति में कराया था। “शाहजहाँ को सर्वश्रेष्ठ इमारत ताजमहल है। इसे उसने अपनी पली अर्जुमन्दबानू बेगम की स्मति में बनवाया था। बेगम की मृत्यु 1630 ई० में हुई और उसी के दूसरे वर्ष इसका बनाना प्रारम्भ हुआ। इसके निर्माण के लिए फारस, अरब, टर्की तथा अन्य विदेशों से कारीगर बुलाये गये। ताजमहल में मुगल स्थापत्य कला अपने चरम सीमा को पहुंच गई है।”

डॉ० ईश्वरी प्रसाद यह ताज आगरे में यमुना नदी के तट पर स्थित है। इसके शिल्पकारों के विषय में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान इसे भारतीय कलाविदों की कृति स्वीकार करते हैं, पर कुछ विद्वान इसे भारतीय कलाकारों द्वारा निर्मित किया हुआ नहीं मानते हैं।” यूरोपियन लेखकों का विचार है कि भारतीय अनुत्पादक थे और यह विदेशी श्रम के दद्वार हुआ है। स्पेनिश यात्री फादर मनरिक का कथन है कि “ताज का मुख्य आकार निर्माता वेरोनिओ (Geronimo Veroneo) था।”स्मिथ ने भी इस मत की सम्पुष्टि करते हुए इस ताज को यूरोपिय कृत माना है।

श्री हावेल तथा पर्सी बाउन कला विशेषज्ञ ताज को यूरोपीय उत्पत्ति की वस्तु नहीं मानते हैं।

उनके अनुसार ताजमहल की पूर्ण भारतीय शैली का स्वाभाविक विकसित रूप है, और पाश्चात्य प्रभाव से सर्वथा मुक्त है।”पर्सी ब्राउन का कहना है कि इसका निर्माण दिल्ली में निर्मित हुमायूँ के मकबरे तथा खानखाना के मकबरे की शैली के आदर्श पर हुआ था। सर स्लीमैन का अनुमान है कि ताज की रूपरेखा तैयार करने वाला एक फ्रांसीसी बोर्डियो आस्टिन-डी-व्यूराडियक्स था। परन्तु बोर्डियो एक प्रतिष्ठित स्वर्णकार था और मयूर-सिंहासन के निर्माण में उसने महत्वपूर्ण योग दिया था किन्तु वह कुशल स्थापत्य भी था, इसका कहीं उल्लेख नहीं मिलता है।”

फारसी ग्रन्थ के आधार पर ताजमहल का प्रमुख शिल्पी उस्ताद ईशा था। डॉ० बनारसी प्रसाद सक्सेना ने उस्ताद ईशां खाँ को ही फारसी अन्य के आधार पर ताज का प्रमुख सथापत्य स्वीकार किया है। यद्यपि उन्होंने यूरोपियन कलाकारों का भी उल्लेख किया है। डॉ. मजूमदार एवं दाता आदि विद्वानों ने भी ताज के डिजाइन बनाने का श्रेय उस्ताद ईशा को ही बताया है।

विदेशी यात्री पीटर मुण्डी, ट्रैवर्नियर आदि किसी ने भी इसका उल्लेख नहीं किया है। इसके निर्णय में किसी यूरोपीय स्थापत्य का हाथ था। अतः हम उसताद ईशा खाँ को ताज का प्रमुख आकार-निर्माता स्वीकार कर सकते है। शाहजहाँ के दरबारी इतिहासकार लाहौर ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘बादशाहनामा’ में लिखा है कि ताज का निर्माण मुगल-माम्राज्य के विभिन्न भागों से आये हुए कलाकारों के द्वारा हुआ है। वह लिखता है कि मकरमत खाँ तथा मीर अब्दुल करीम खाँ के निरीक्षण में ताज का निर्माण हुआ था।

इसके सर्वप्रमुख कलाकार उस्ताद ईशा खाँ थे तथा मोहम्मद हनीफ, अमानत खाँ मोहम्मद शरीफ, इस्माल खाँ मोहम्मद काजिम, उस्ताद पीरा, बनुहर जाटमल, जोरावर, मोहनलाल आदि सहायक कलाकार थे जो स्थापत्य कला के विभिन्न क्षेत्रों में कुशल थे।

ताजमहल की वास्तुकला सम्बन्धी विशेषता चबूतरे पर हुए सफेद संगमरमर के मकबरे में है। सम्पूर्ण इमारत उत्तर से दक्षिण की ओर फैली हुई है। इसकी योजना आयताकार है और उस आयत को लम्बाई 1900 फीट और चौड़ाई 100 फीट है। यह ऊंची चहारदीवारी से घिरा हुआ है और इसके प्रत्येक कोनों पर चार मेहराबदार सुन्दर मण्डप हैं। अहाते के अन्दर एक सुन्दर उद्यान है जो भवन की सुन्दरता को बढ़ाता है। चबूतरे के ऊपर 22 फीट ऊंची कुर्सी पर मुमताजमहल के सफेद संगमरमर की छतरियाँ हैं और मध्य में अधिक सुन्दर आनुपातिक बल्ब जैसा गुम्बद है जो 180 फीट ऊँचा है। सम्पूर्ण इमारत की विशेषता इसके गुम्बद में ही है।

इसके निर्माण में 22 वर्ष लगे और 20,000 व्यक्ति इसके निर्माण कार्य में लगे थे। डॉ. आशीर्वादी लाल के कथनानुसार इसके निर्माण में 4 1/2 करोड़ रुपये खर्च हुआ था। इस विश्वविख्यात मकबरे में बनवाने में 22 वर्ष लगे और करीब 9 अरब रुपये खर्च हुआ। लाहौर ने लिखा है कि इसके निर्माण में 50 लाख रूपये खर्च किया गया था।

ताजमहल की सुन्दरता की प्रशंसा लोगों ने विभिन्न प्रकार से की है। डॉ० ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है कि “ताज प्रातःकाल के समय एक स्वप्न की आभा से परिपरित जान पड़ता है। एक धूमिल संध्या में ताज दिनकर की स्वर्ण-रुश्मियों से अलंकृत हो स्वर्णमयी आभा से व्याप्त हो उठता है और उस शाही दाम्पत्य की गौरव गाथा का गान करता प्रतीत होता है। यमुना नदी के तट पर बसा मकबरा उसकी लहरों से खेलता हुआ वास्तव में दो प्रेमियों के सच्चे अनुराग का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक है।”पर्सी बाउन ने लिखा है कि “दिन के प्रत्येक क्षण तथा प्रत्येक आकाशीय परिवर्तन के लिए ताज के अपने अलग-अलग रंग हैं। प्रातः काल ऊषा की बेला का रंगदोपहर को चकाचौध कर देने वाली सफेदी तथा चाँदनी में शीतल सौन्दर्य, जब इसका गुम्बद वायु की भाँति हल्के वस्तु की भाँति तारों के मध्य एक बड़े मोती की तरह लटकता रहता है। जिस पर भी यह कोई रंग भारतीय गोधूलि बेला के उन उड़ते हुए कुछ क्षणों के रंगों को नहीं पाते, जब इसकी आभा हल्का पीली तथा सुन्दर गुलाबी हो उठती है।”

‘ताज नेत्रों को सन्तुष्ट तथा ह्दय को आनन्दित करती है।”

लेनपूल के शब्दों में, “ताज श्रेष्ठ प्रेम के लिए समर्पित श्रेष्ठ प्रधान कृत्य था। इसे संगमरमर का स्व कहा जाता है। “ट्रेवर्नियर लिखता है कि “आगरा के जो समस्त स्मारक दृष्टिगत होते हैं उनमें शाहजहाँ को बेगम का स्मारक सर्वश्रेष्ठ तथा सुन्दर है।”

भारतीय स्थापत्य कला के इतिहास में ताज का विशिष्ट स्थान है। मकबरे के स्वच्छ और संगमरमर एवं स्थान की पवित्रता मानव को शान्ति का संदेश देती है।

दिल्ली के भवन- शाहजहाँ ने दिल्ली में अपने नाम पर शाहजहांनाबाद नामक एक नगर की स्थापना की। यहां प्रमुख भवनों में लाल किला है। इसकी लम्बाई 3100 फीट तथा चौड़ाई 1650 फीट है। इसका प्रमुख प्रवेशद्वार पश्चिम की ओर स्थित है तथा इसके सामने चाँदनी चौक एक प्रभावशाली चौड़े मार्ग की व्यवस्था है। स्थापत्य कला की दृष्टि से इसका मुख्य प्रवेश द्वार (लाहौरी गेट) विशेष महत्वपूर्ण है।

दूसरा भवन ‘नौबतखाना है जिसके सामने ‘दीवाने-आम स्थित है। दुर्ग के उत्तरी भाग में प्रसिद्ध दीवाने-खास स्थित है। यह भवन शाहजहाँ के अन्य भवनों से अधिक सुसज्जित है।

जामा मस्जिद- दिल्ली के लाल किले के बाहर एक ऊंचे चबूतरे पर जामा मस्जिद स्थित है। इसमें तीन प्रवेश-द्वार है। प्रवेश-द्वार तक पहुंचने के लिए सीढियों की व्यवस्था है। इसके ऊपरी भाग पर गुम्बद स्थित है, जिनमें बीच का गुम्बद किनारे के अन्य दो गुम्बदों से बड़ा है। निस्सन्देह वास्तुकला का यह एक सुन्दर उपकरण है। यह मस्जिद भारत के विशाल मस्जिदों में से एक है। इसमें लाल पत्थर का प्रयोग हुआ है, जिसके कारण यह आगरा की जामा मस्जिद की भाँती अधिक सुन्दर नहीं है।

शाहजहाँ ने आगरे के दुर्ग की तरह लाहौर दुर्ग में भी परिवर्तन किये। इस दुर्ग के भवन जो लाल पत्थर से बने थे, उनके स्थान पर सफेद संगमरमर की इमारतें बनवाई गयीं जिनमें सबसे उल्लेखनीय चालीस स्तम्भों का हाल है जिसे दीवाने-आम कहते हैं। शीश महल मुस्समनबुर्ज, नौलखा तथा ख्वाबगाह आदि इमारतें दुर्ग के अन्दर पश्चिमी भाग में स्थित है। अन्य इमारतों में वजीर खाँ की मस्जिद है जिसका निर्माण 1624 ई० में हुआ था। इसका प्रत्येक आन्तरिक भाग रंग-बिरंगी योजनाओं द्वारा रंगों से अलंकृत है।

शाहजहाँ ने अजमेर तथा कश्मीर में भी कुछ भवनों का निर्माण कराया था।

औरंगजेब-

औरंगजेब स्थापत्य कला के प्रति विशेष अभिरुचि न रखता था। उसकी धार्मिकता तथा संकुचित दृश्टिकोण और घटनाओं की स्वाभाविक गति से वास्तुकला का पतन हो चला था।

दिल्ली की मोती मस्जिद-औरंगजेब ने दिल्ली दुर्ग के भीतर संगमरमर की एक मस्जिद का निर्माण कराया । यह मस्जिद शाहजहाँ की मोती मस्जिद के आकार की नहीं है। परन्तु औरंगजेब ने इसका निर्माण संगमरमर से ही कराया था। यह लघु आकार को है तथा 40 फीट लम्बी और 30 फीट चौड़ी है।

नगीना मस्जिद- औरंगजेब द्वारा निर्मित करायी दूसरी मस्जिद आगरा की नगीना मस्जिद है। औरंगजेब को एक पूजागृह की आवश्यकता थी जोकि मोती मस्जिद के ही सन्निकट हो और इस उद्देश्य के हेतु उसने नगीना मस्जिद का निर्माण कराया।

अन्य भवनों में तीन मस्जिदें उल्लेखनीय हैं जामी तथा ज्ञानवापी मस्जिद (बनारस), जामा मस्जिद (मथुरा ) और इन सबका निर्माण 1669-70 ई० में हुआ। बनारस की जामी मस्जिद का निर्माण पंचगगा घाट के कीर्ति बसेरा मंदिर के किनारे हुआ जो हिन्दुओं का सबसे पवित्र स्थल है। इसमें मन्दिर के वंसावशेष सामग्री का प्रयोग किया गया । ज्ञानवापी मस्जिद का भी निर्माण हिन्दू मन्दिर के स्थान पर हुआ है। तीसरी मस्जिद जो मथुरा में निर्मित हुई वह प्रसिद्ध केशव राम मन्दिर के स्थान पर बनी। डॉ. एस. के. बनर्जी ने अपने एक लेख ‘मानुमेन्ट्स आँव औरगजेब’ में लिखा है कि “सम्राट औरंगजेब ने अपने गवर्नर अब्दुर नवी खाँ को आज्ञा दी थी जिसने इस मन्दिर को गिरा कर वर्तमान जामा मस्जिद का निर्माण कराया।”

अन्य भवनों में उसो द्वारा निर्मित कराई हुई लाहौर में बादशाही मस्जिद तथा राबिया-उद्दौरानी का मकबरा है।

बादशाही मस्जिद- इसका निर्माण 1674 ई० में लाहौर में हुआ । इसके निर्माण- कार्य का निरीक्षण फिदाई खाँ को सौपा गया था। इसकी स्थापत्य कला शैली दिल्ली की जामा मस्जिद की तरह है, पर यह उतनी सुन्दर नहीं है।

राबिया उद्-दौरानी का मकबरा- औरंगजेब ने अपनी प्रिय पत्नी राबिया उद्-दौरानी के मकबरे का निर्माण 1678 ई० में करवाया। पर्सी ब्राउन लिखते हैं कि “इसकी स्थापत्य शैली सुप्रसिद्ध ताजमहल पर आधारित है।” परन्तु ताजमहल की तुलना में यह मुकबरा अधिक सुन्दर नहीं है। इस मकबरे का कुछ भाग तो अवश्य ही भव्य एवं अलंकृत है। “मकबरे में कब्र के चारों ओर संगमरमर के अठपहले पर्दे तथा उसमें कुशल शिल्पकारी उसको सुन्दरता में वृद्धि करते हैं।”

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