पर्यावरण जागरूकता हेतु विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में आयोजन

पर्यावरण जागरूकता हेतु विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में आयोजन

पर्यावरण जागरूकता हेतु विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में आयोजन

पर्यावरण जागरूकता हेतु विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में आयोजन –

पर्यावरण शिक्षा की अपनी निजी पाठ्यवस्तु है जिसकी रूपरेखा पिछले अध्याय में दी जा चुकी है। पाठ्यक्रम में निरन्तरता की प्रवृत्ति है। पर्यावरण शिक्षा के पाठ्यक्रम का आरम्भ प्राथमिक स्तर से ही किया जाता है और विश्वविद्यालय स्तर तथा प्रौढ़ शिक्षा तक चलता रहता है। इस प्रकार का विवरण यहाँ पर दिया गया है-

(1) प्राथमिक शिक्षा स्तर (Primary Stage)-

इस स्तर पर 75 प्रतिशत के लगभग पर्यावरण सचेतना का शिक्षण किया जाता है उसके बाद 20 प्रतिशत जीवन की परिस्थितियों से सम्बन्धित करते हैं और 5 प्रतिशत संरक्षण की जानकारी दी जाती है। इस स्तर पर बालकों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील करने का प्रयास किया जाता है। आस-पास के वातावरण, घर, विद्यालय से सम्बन्धित प्रकरणों का उपयोग किया जाता है। दृश्य-श्रव्य सामग्री तथा शैक्षिक पर्यटन को अधिक महत्व देते हैं। इस स्तर के बालक इनमें अधिक रुचि लेते हैं।

(2) माध्यमिक शिक्षा स्तर (Secondary Stage) –

इस स्तर पर संरक्षण को अधिक महत्व देते हैं। शिक्षण में परिपाक, ज्ञान तथा समस्याओं को पहिचाननना तथा कौशल विकास पर बल दिया जाता है। पाठ्यवस्तु विज्ञान के प्रकरणों पर आधारित होती है। क्रियाओं के लिए अवसर दिया जाता है। शिक्षण में प्रयोगात्मक तथा क्षेत्रीय कार्यों को प्राथमिकता दी जाती है।

भारत जैसे विकसित देश में साधनों का अभाव, वित्तीय सहायता की कमी, प्रशिक्षित अध्यापकों का अभाव है इसलिए इस स्तर पर पर्यावरण शिक्षा के अध्ययन की सुविधा उपलब्ध नहीं हो पा रही है।

(3) उच्चतर माध्यमिक शिक्षा स्तर (Higher Secondary Stage)-

इस स्तर पर पर्यावरण सम्बन्धी ज्ञान जीवन की परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं से सम्बन्ध स्थापित करके पढ़ाया जाता है। संरक्षण तथा स्रोतों के उपयोग को अपेक्षित विकास से जोड़ा जाता है। पर्यावरण समस्याओं की पहिचान करने पर भी बल दिया जाता है। सामान्य-विज्ञान विषयों में इन प्रकरणों को सम्मिलित करते हैं। व्यावहारिक तथा प्रयोगात्मक कार्यों को भी प्रोत्साहित करते हैं।

(4) उच्च शिक्षा स्तर (High Education Stage)-

इस स्तर पर संरक्षण का अनुभवों के आधार पर पढ़ाया जाता है और अपेक्षित विकास से जोड़ते हैं। प्राकृतिक स्रोतों के उपयोग को वास्तविक जीवन से जोड़ा जाता है। जिससे उनमें अभिवृत्तियों तथा मूल्यों का विकास किया जा सके। इन प्रकरणों का आधार वैज्ञानिक तथा तकनीक होना चाहिए। अध्यापक शिक्षा में पर्यावरण शिक्षा की मूल पाठ्यवस्तु का शिक्षण किया जाए तथा शिक्षण विषयों के प्रकरणों को सम्मिलित किया जाए। कुछ विश्वविद्यालयों में ‘पर्यावरण शिक्षा’ की व्यवस्था की गई है। पर्यावरण के शोध कार्यों को भी प्रोत्साहित किया गया इस स्तर पर तीन कार्य-शिक्षण, प्रसार तथा शोध कार्य किये जाते हैं। संचार माध्यमों का भी उपयोग करते हैं। विश्वविद्यालय तथा परास्नातक स्तर ‘पर्यावरण शिक्षा’ के चार मुख्य क्षेत्रों की पहिचान की गई है-

  1. पर्यावरण अभियान्त्रिकी (Environmental Engincering)
  2. संरक्षण एवं प्रबन्धन (Conservation and Management)
  3. पर्यावरण स्वास्थ्य तथा व्यवस्था (Environmental organization and Health) तथा
  4. सामाजिक पारिस्थितिकी (Social Ecology),

पर्यावरण विभाग की सहायता के लिए कुछ संस्थायें तथा केन्द्र स्थापित किये गये जहाँ औपचारिक शिक्षा तथा प्रशिक्षण प्रदान की जाती है। इसका उदाहरण ‘पर्यावरण शिक्षा केन्द्र अहमदाबाद में है। भारतीय वन प्रबंध संस्थान भोपाल में तथा ‘इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वन शिक्षा संस्थान’ देहरादून में स्थित है। इन संस्थाओं तथा उपरोक्त क्षेत्रों के मुख्य चार उद्देश्य है-

(1) पर्यावरण की गुणवत्ता का विकास करना,

(2) छात्रों में पर्यावरण सचेतना, समस्याओं तथा संरक्षण ज्ञान तथा बोध कराना,

(3) विद्यालयों तथा महाविद्यालयों में ऐसा वातावरण उत्पन्न करना, जिससे समस्या- समाधान हेतु निर्णय लेने तथा समाधान करने कम योग्यता का विकास करना तथा

(4) विभागीय कार्यकलापों की प्रभावशीलता के आकलन की क्षमताओं तथा योग्यता का विकास करना।

न्यूमैन (1981) ने ‘पर्यावरण शिक्षा’ के कार्यक्रमों तथा योजनाओं का विभाजन चार वर्गों में किया है-

(अ) पर्यावरण अध्ययन (Environmental Studies)- इसका सम्बन्ध पर्यावरण की विकृति तथा असन्तुलन से है और सामाजिक क्रियाओं तथा परिवर्तनों के प्रभाव से कितना कम किया गया है।

(ब) पर्यावरण विज्ञान (Environmental Science)- इनके अन्तर्गत वायु, जल, भूमि तथा जीवों की प्रक्रियाओं का अध्ययन करना जिससे पर्यावरण में प्रदूषण होता पर्यावरण प्रदूषण को वैज्ञानिक ढंग से किस प्रकार दूर या कम किया जा सकता है और मानवीय जीवन स्वस्थ तथा सुरक्षित किया जा सकता है।

(स) पर्यावरण अभियांत्रिकी (Environmental Engineering)- पर्यावरण प्रदूषण में किन अभियांत्रिकी क्रियाओं का उपयोग किया जाता है जिससे प्रदूषण को कम किया जा सकता है। इनके प्रमाप के मापन हेतु किस प्रकार तकनीकी प्रविधियों को प्रयुक्त कर सकते हैं।

(द) अध्यापक-शिक्षा के कार्यक्रम (Teacher Education Programme)- इसके कार्यक्रमों के सम्पादन से छात्रों में सचेतना, कौशलों, अभिवृत्तियों तथा मूल्यों का विकास किया जाता है। स्थानीय पर्यावरण समस्याओं के समाधान के लिए योजना बनाई जाती है। समस्याओं तथा प्रदूषण को दूर करके पर्यावरण में गुणवत्ता का विकास किया जाता है। अन्य पर्यावरण अध्ययन विषयों से अध्यापक-शिक्षा क्षेत्र एवं उद्देश्य भिन्न होते हैं। अन्य वैज्ञानिक तथा सामाजिक विषय पर्यावरण सचेतना (ज्ञान तथा बोध) तक ही सीमित रहते हैं।

भारत के पर्यावरण का क्षेत्र अधिक व्यापक है क्योंकि प्राकृतिक, जलवायु, सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक दृष्टि से भारी विषमता पाई जाती है। इसलिए पर्यावरण शिक्षा में स्थानीय तथा क्षेत्रीय समस्याओं को ही महत्व दिया जाता है। प्राथमिक स्तर पर लगभग 50 प्रतिशत छात्र अध्ययन करते हैं। इसलिए विद्यालयों में इनके स्वास्थ्य, परिवार योजना, भोजन की गुणवत्ता, ग्रामीण विकास तथा स्वच्छता के विकास पर ध्यान देना चाहिए। इस क्षेत्र में गैर सरकारी संस्थाओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। पर्यावरण विभाग की लगभग 200 संस्थायें कार्यरत हैं जिनमें विभिन्न प्रकार के कार्यों को पर्यावरण सचेतना के लिए किया जाता हैं बच्चों को पर्यावरण सम्बन्धी घटकों- पौधे, जानवर, पशु-पक्षी, जीव जन्तु तथा वन-जीवन, वायु तथा पानी की गुणवत्ता सम्बन्धी जानकारी दी जानी चाहिए। यह सभी घटक परोक्ष तथा अपरोक्ष रूप में मानव जीवन को प्रभावित करते हैं।

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