भूगोल / Geography

गद्दी जनजाति | गद्दी जनजाति के निवास क्षेत्र तथा अर्थ व्यवस्था का वर्णन | गद्दी जनजाति के समाज का वर्णन

गद्दी जनजाति | गद्दी जनजाति के निवास क्षेत्र तथा अर्थ व्यवस्था का वर्णन | गद्दी जनजाति के समाज का वर्णन

गद्दी जनजाति

स्थिति-

गद्दी आदित्य जाति का निवास बाह्य हिमालय में व्यास नदी के उत्तर में, हिमालय प्रदेश के चम्बा जनपद के दक्षिण-पूर्वी भाग, कांगड़ा जनपद की काँगड़ा, नूरपुर तथा पालम तहसीलों और रावी नदी के पार के कुद भागों में मिलता है। इनके निवास 1200-7500 मीटर की ऊंचाई तक मिलते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पहले इनके पूर्वज मैदानी भागों में निवास करते थे, परन्तु मुगलों के आक्रमणों, अत्याचारों से परेशान होकर ये लोग सुरक्षा के लिए पर्वतीय क्षेत्र में स्थानान्तरित हो गये। इसीलिए अन्य जनजातियों के विपरीत ये लोग पर्याप्त विकसित हैं।

गद्दी नाम की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। कुछ विद्वान् पर्वतीय घास ‘गहर’ से इस शब्द की उत्पत्ति मानते हैं, परन्तु ‘कायस्थ’ के अनुसार ‘गद्दी’ शब्द संस्कृत भाषा से लिया गया उद्भूत है जिसका अर्थ ‘चराने वाला’ होता है और इनके पशुचारण-व्यवसाय के आधार पर इन्हें गद्दी कहा जाने लगा।

जलवायु एवं वनस्पति-

जिन भू-भागों में गद्दी लोग निवास करते हैं, उनकी घाटियों में शुष्क तथा उच्च भागों में उपध्रुवीय जलवायु मिलती है। शीतकाल में तापमान पर्याप्त नीचा होता है। जून से सितम्बर तक वर्षा ऋतु होती है। मध्य सितम्बर के बाद से ही उच्च भागों में हिमपात होने लगता है। इसीलिए शीतकाल में लोग निचले भागों में चले जाते हैं।

निचले ढालों पर चीड़, देवदार, पाइन, फर आदि के वृक्ष पाये जाते हैं। अपेक्षाकृत उच्च पहाड़ी ढालों पर ग्रीष्मकाल में बर्फ के पिघलने पर कुछ घासें उग आती हैं। सर्वाधिक उच्च माग सर्वदा हिमाच्छादित रहते है।

शरण 

गद्दी लोग अपने मकान पत्थर, स्लेट, लकड़ी एवं घास-फूस से बनाते हैं। प्रायः मकान दो मंजिल वाले होते हैं। धरातल वाले भाग में पशु रहते हैं एवं उपकरण रखे जाते हैं, जबकि ऊपरी भाग में वे लोग निवास करते हैं। मकान के सामने इनके देवता की मूर्ति बनी होती है।

वस्त्र-

ये लोग भेड़ों के ऊन से निर्मित वस्त्र मुख्य रूप से उपयोग करते हैं। स्त्रियाँ वस्त्र तैयार करती हैं। शीत से बचने के लिए भेड़-बकरियों की खाल से टोपियाँ, जूते एवं झोले बनाये जाते हैं। वकरी के ऊन से इनके द्वारा बनाये गये थोबी वस्त्र बड़े सुन्दर होते हैं। स्त्रियों ऊनी कम्बल बुनने में बड़ी निपुण होती हैं। पुरुष ढीलार-ढाला कुर्ता पहनते हैं, जिसे कमर में ऊनी रस्सी से बाँधा जाता है। सिर पर नुकीली टोपी पहनते हैं जो कि कानों को ढँके रहती है। इनके कुर्ते में लम्बे-लम्बे जेव होते हैं जिसमें कुछ खाद्य-सामग्री, हथियार तथा भेड़ के बच्चों को रख सकते हैं। सिर पर पगड़ी भी बाँधते हैं। कानों में सोने की बालियाँ धारण करते हैं। पैरों में कभी- कभी जूते पहनते हैं। स्त्रियाँ एक लम्बा ऊनी गाउन पहनती हैं जिसे ‘चोलू’ कहते हैं। सिर पर चादर रखती हैं। आभूषण पहनने की बड़ी शौकीन होती हैं। गले में रंग-बिरंगी मोतियों की मालाएँ पहनती हैं। बालों को बाँधकर उसमें फूल लगाने का शैक भी पाया जाता है।

भोजन-

भेड़-बकरियों से प्राप्त दूध-दही के अतिरिक्त गेहूँ, मक्का, बाजरा, जई, दालें एवं आलू इनके भोजन के प्रमुख अंग हैं। उत्सवों एवं शादी-ब्याह के अवसर पर भेड़ों का माँस तथा ‘लुक्री’ (Luqri) नामक विशिष्ट शराब का उपयोग किया जाता है। जौ, जई तथा वनस्पतियों की जड़ों से ये लोग स्वयं शराब तैयार करते हैं। वनों से प्राप्त शहद का भी उपयोग करते हैं।

अर्थव्यवस्था-

पशुपालन इनकी अर्थव्यवस्था का प्रमुख अंग है। प्रत्येक गद्दी-परिवार में भेड़-बकरियाँ प्रमुख सम्पत्ति होती हैं। ऊंचे-नीचे धरातल पर वृक्षों के नीचे मुलायम हरी घासें, उपयुक्त जलवायु आदि के फलस्वरूप इस व्यवसाय में इनकी विशेष रुचि होती है। यही नहीं,  कृषि सम्भव न होने के कारण भी ये लोग पशुचारण का कार्य करते हैं। उच्च भागों में कठोर सर्दी तथा निचले भागों में अधिक वर्षा एवं गर्मी के कारण ये लोग एक स्थान पर स्थायी रूप से पशुचारण नहीं कर पाते हैं। इसीलिए ये मौसमी स्थानान्तरण करते रहते हैं। अप्रैल से मध्य जून तक धौलाधर पर्वत के दक्षिणी ढाल पर क्रमशः ऊपर की ओर बढ़ते हुए तथा मध्य जून से मध्य सितम्बर तक धौलाधर के उत्तरी भाग में पंजी, लाहुल आदि क्षेत्रों में निवास करते हैं और नवम्बर तक निचली घाटियों में बनी अपनी शीतकालीन बसितयों में पहुंच जाते हैं। यहाँ ये लोग दिसम्बर से मार्च तक रहते हैं। अपने जानवरों की रक्षा के लिये ये कुत्ते भी पालते हैं।

सामाजिक रीति-रिवाज-

ये लोग हिन्दू हैं और ईश्वर में विश्वास रखते हैं। इनमें ब्राह्माण, क्षत्रिय राजपूत, ठाकुर, रथा आदि जातियाँ होती हैं। ये लोग विश्व के उपासक हैं। आषाढ़ पूर्णिमा पर अपने ‘धन’ (भेड़-बकरियाँ) की पूजा करते है। एक परिवार में एक धर्मोपदेशक होता है। ये लोग भूत-प्रेतों में भी विश्वास करते हैं। इनके देवता भी अनेक होते हैं। सांसारिक व्याधियों के कारण किसी-न-किसी देवता की असन्तुष्टि मानते हैं। गद्दी समाज में स्त्रियों का स्थान उच्च होता है। घर के अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य स्त्रियाँ ही करती हैं। विवाह युवावस्था में होता है और लड़के-लड़कियों की सहमति से होता है। पुरुषों में बहुविवाह भी पाया जाता है, जबकि स्त्रियाँ एक से अधिक विवाह नहीं कर सकती हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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