फ्रांसीसी क्रांति के लाने में दार्शनिकों की भूमिका | फ्रांस की क्रांति में दार्शनिकों के योगदान
फ्रांसीसी क्रांति के लाने में दार्शनिकों की भूमिका | फ्रांस की क्रांति में दार्शनिकों के योगदान
फ्रांसीसी क्रांति के लाने में दार्शनिकों की भूमिका
फ्रांस की क्रान्ति का बौद्धिक कारण-
समाज की भौतिक स्थिति में ही परिवर्तन की आवश्यकता निहित होती है। परिवर्तन के लिए स्थापित व्यवस्था के प्रति असंतोष का होना परम आवश्यक है। किन्तु केवल असन्तोष विरोध, उपद्रव एवं असहयोग को ही जन्म देता है, क्रांति को नहीं। ऐतिहासिक घटनाओं को देखते हुए क्रांति जैसे परिवर्तन (व्यवस्था में आमूल परिवर्तन) के लिए निम्न आवश्यक तत्वों को इंगित किया जा सकता है-
- निवर्तमान व्यवस्था में जनता की आस्था का समाप्त होना।
- वर्तमान व्यवस्था के हटने पर वैकल्पिक व्यवस्था के नक्शे का साफ होना (परिवर्तित व्यवस्था के स्वरूप की कल्पना असंतोष को दिशाहीनता से बचाती है)।
- वर्तमान व्यवस्था (जिसमें परिवर्तन लाना है) की कमजोरियों एवं खामियों को विवेक- संगत एवं प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया जाय तथा इसका व्यापक प्रचार-प्रसार किया जाय।
फ्रांस में बुद्धिजीवी अथवा विचारक समाज के वे अंग थे जो व्यवस्था की कमजोरियों तथा अन्तद्रर्वन्द्वों को आवाज प्रदान कर रहे थे। वे जनता को प्रेरणा दे रहे थे, उनके असन्तोष को व्यक्त कर रहे थे, उन्हें नेतृत्व और विश्वास दे रहे थे। केटल्बी-संसद विहीन देश में विचारक ही राजनीतिज्ञ बन गए थे। इतिहासकार शातोब्रियाँ लिखता है- “फ्रांस की राज्य-क्रांति बौद्धिक जागरण और जनसाधारण ने दैनिक जीवन की कठिनाइयों के मेल से उत्पन्न हुई तथा बौद्धिक जागरण के कारण इसने लौकिक जीवन की कठिनाइयाँ दूर करने हेतु तीव्र विरोध प्रकट किया।” यह बात बिल्कुल सत्य है कि सामाजिक और आर्थिक बुराइयों के बावजूद फ्रांस में क्रांति शायद न हो पाती यदि लोगों को इन बुराइयों से अवगत् न् कराया जाता। केटेल्वी का कथन है कि-फ्रिांस की राज्य क्रांति को सब तरह से लेखकों ने तैयार किया था। इस काल का साहित्य राज्य को नष्ट करने के लिए बढ़िया गोला-बारूद के समान था।” विचारों के क्षेत्र में फ्रांसीसी चिन्तन क्रांति का ही एक रूप था।
- बुद्धि, विद्या और ज्ञान की जन्मदात्री है;
- जटिल तथा कृत्रिम संस्थाएँ/सभाएँ न तो विश्वसनीय,न मानव प्रकृति के अनुरूप और न ही बौद्धिक हैं। सरल संस्थाएँ ही उपयुक्त हो सकती है।
- कोई स्थापित व्यवस्था, संस्था, आस्था तथा विचार बिना बौद्धिक मूल्यांकन के स्वीकार नहीं की जानी चाहिए अर्थात् प्रत्येक तथ्य की वैधता संशय की दृष्टि से देखा जाय और यह तभी मान्य हो जबकि मनुष्य की आलोचनात्मक परीक्षण पर खरी उतरे। दिदरो का कहना है कि जिस विषय पर कोई प्रश्न ही न उठा हो वह प्रामाणिक नहीं माना जा सकता है।
- समाज मानवीय आदर्शों की अभिव्यक्ति है।
जनकल्याण को प्राप्त करने के लिए चार विभिन्न पहलू प्रस्तुत किए गए.-
- सामाज्य की न्यायिक व विधिक व्यवस्था में सुधार हो । दण्ड व्यवस्था अनियमित और अनियन्त्रित न हो (सबके लिए समान न्याय हो)। दण्ड का लक्ष्य मनुष्य प्रकृति को सुधारना हो।
- युद्ध, दास-प्रथा तथा मनुष्य के शोषण का विरोध ।
- शोषित व दलित वर्गों के लोगों के प्रति विशेष सहानुभूति रखी जानी चाहिए।
- किसी भी कार्य प्रक्रिया का मूल उसकी सामाजिक उपादेयता से आंकी जाय। ऐसे चिंतक जिनके विचारों का फ्रांसीसी क्रांति पर प्रभाव पड़ा निम्नलिखित हैं-
उदारवादी (Liberal)
- वाल्टेयर (Voltair)।
- मांटेस्क्यू (Montesquicu) |
- फिजियोक्रेट्स-क्वेसने (अर्थशास्त्री)।
- इनसाइक्लोपीडियस्ट-दिदरो
मूलवादी- (Radicals)
(1) रूसो (Rousseau),
(2) यूटोपियन्स (Utopians)।
उपर्युक्त सभी चिन्तक 17वीं सदी के दो यूरोपीय (इंग्लैण्ड) चिंतकों -न्यूटन (Newton) तथा लॉक से प्रभावित थे।
माण्टेस्क्यू (1685-1755) को
(1) राजनीतिक विज्ञान का प्रथम विचारक माना गया है। वह (2) इंग्लैंड की लोकतन्त्रात्मक पद्धति से काफी प्रभावित था। उसने (3) राजा के दैवी अधिकारों के सिद्धान्त का जोरदार खण्डन किया। उसने (4) अपनी प्रथम कृति Persian Letters में दो काल्पनिक ईरानी यात्रियों का चित्रण, फ्रांस की तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति से लोगों को अवगत कराया। (5) फ्रांस के लिए उसने प्रबुद्ध सामंत और राजा के साझेदारी वाली राजतन्त्र को उपयुक्त माना। उसने (6) स्वतन्त्रता की तुलना में समानता को अधिक महत्व दिया। (7) The Spirit of Law में उसने अपने प्रसिद्ध शक्ति- पार्थक्य के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जिसके अनुसार शासन के तीन प्रमुख अंग- कार्यपालिका व्यवस्थापिका तथा न्यायपालिका तीनों पृथक्-पृथक् व्यक्तियों के हाथ में रहे। ऐसा करने से तीनों शक्तियाँ एक-दूसरे के अधिकारों को सीमित रखेंगी तथा जनता के अधिकारों की रक्षा होगी। (8) उसने अधिकारों पर नियन्त्रण एवं संतुलन (Checks and Balance) के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
वाल्टेयर (1694-1778)- अपने समकालीन लेखकों में यह सबसे दक्ष था। प्रायः यह माना जाता है कि वह अपनी लेखनी में स्याही के स्थान पर विष का प्रयोग करता था- उसके व्यंग्यपूर्ण लेख काफी मर्माहत होते थे जिन्होंने तत्कालीन व्यवस्था-विशेषकर सामाजिक तथा धार्मिक की धज्जियाँ बिखेर दी। वह सहिष्णुता तथा विचार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का समर्थक था। संगठित धर्म व्यवस्था व रोमन कैथोलिक धार्मिक व्यवस्था व परम्परा का उसने विरोध किया। उसका मत था कि ईश्वर अपने आपको प्रकृति एवं मानव हृदय में अभिव्यक्त करता है बाइबिल अथवा चर्च में नहीं। फ्रांस की सभी संस्थाओं को उसने बुनियादी तौर पर सही बताया लेकिन समय के तकाजे के अनुसार इसमें सुधार की बात की। यह प्रजातन्त्रवादी नहीं था तथा जनता द्वारा शक्ति के प्रस्तुतीकरण को अराजकता का पर्याय मानता था। उसने प्रबुद्ध निरंकुशता का समर्थन किया। उसने क्रांति की बात नहीं की पर ‘स्थिति अपरिवर्तनीय’ का भ्रम तोड़ दिया। तर्क की उपयोगिता बतायी तथा लोगों की तटस्था एवं निर्लिप्तता तोड़ दी। आइना रखकर दिखा दिया कि दाग कहाँ लगा है।
फिजियोक्रेट्स- विचारकों का वह समूह जिन्होंने प्रकृति को धन मानकर अपने राजनीतिक तथा आर्थिक विचार व्यक्त किए। इन विचारकों में Quesney (1694-1774) तथा Lurgot (1727-1781) प्रमुख थे। इनका विचार था कि जिस प्रकार भौतिक विश्व प्राकृतिक नियमों के अनुसार चलता है उसी प्रकार सम्पत्ति का उत्पादन, संचरण व वितरण प्राकृतिक नियमों के अनुसार चलता है। भूमि सम्पत्ति का मूल स्रोत है, कृषि और खनिज उद्योग ही आर्थिक व्यवस्था के मूल स्रोत है। व्यक्ति का सम्पत्ति पर मूल अधिकार है। शासन को आर्थिक जीवन में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। इन्होंने मुक्त व्यापार नीति पर जोर दिया। इन विचारकों ने सत्ता के केन्द्रीकरण, कर व्यवस्था तथा विशेषाधिकारों का विरोध किया क्योंकि वे संपत्ति के अधिकार तथा मुक्त संचरण व वितरण को प्रभावित करते हैं।
इनसाइक्लोपीडिया- (व्हद् ज्ञानकोष) दिदरो इसका सम्पादक था तथा इसमें अपने समय की योग्यतम व्यक्तियों की रचनाएं संकलित की। इसमें संतुलित ढंग से धार्मिक असहिष्णुता दोषपूर्ण कर व्यवस्था गुलामों के व्यापार तथा निर्मम फौजदारी जैसी कानून व्यवस्थाओं पर प्रहार किया गया था। इसमें मध्यमवर्गीय चेतना की झलक दिखाई पड़ती है जिसने परिवर्तन के लिए अनुकूल मानसिकता निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इस प्रकार ये उदारवादी विचारक क्रमिक सुधारवाद व संरक्षणवाद के समर्थक थे। ये प्रतिनिधिपूर्ण शासन के स्थान पर उत्तरदायित्वपूर्ण शासन चाहते थे, प्रजातांत्रिक नहीं और प्रबुद्ध निरंकुशता के समर्थक थे।
रूसो (1712-78)- रूसो को फ्रांसीसी बौद्धिक जागरण का परिणाम माना जाता है जिसके चिंतन ने न केवल समकालीन अपितु परवर्ती यूरोप को भी प्रभावित किया। स्वयं नेपोलियन ने कहा था यदि रूसो न होता तो क्रांति न होती।
रूसो के अनुसार मनुष्य पहले प्राकृतिक अवस्था (State Nature) में रहता था। इस अवस्था में उनका मन निर्मल था तथा वह एक-दूसरे से प्रेम करता था। बाद में एक समझौता द्वारा समाज का गठन हुआ जिससे लालच, शोषणु वृत्ति व अन्य विकृतियाँ आ गयीं। आर्थिक विषमता का विरोध करते हुए उसने लिखा है- No citizen should be rich cnough to be able to busy another and none poor to be forced to sell himself. Social contact a fan ofera o Man is born free buc every where he is in chains ने फ्रांस में हलचल मचा दिया। उसका कहना था कि आधुनिक सभ्य समाज को अपेक्षा प्राकृतिक अवस्था का मानव अच्छा था अतः उसने नारा दिया Go back to Nature.
उसने बुद्धि को ज्ञान का स्रोत माना पर मानव जीवन की उपादेयता के लिए उसे अन्तरात्मा से सम्बद्ध किया। यह मनुष्य पर अच्छाई करने का दबाव डालती है। राजनीति के क्षेत्र में इसने “जनसंप्रभुता” का प्रतिपादन किया। प्रत्येक मनुष्य अपने स्वार्थ के साथ परमार्थ को भी प्राप्त करना चाहता है। यह (परमार्थ) व्यक्ति का प्रबुद्ध मत कहा जाता है। समाज के हरेक व्यक्ति के प्रबुद्ध मतों का योग “सामान्य मत” है और इसकी इच्छा सर्वोपरि है।
‘रूसो के दर्शन में विरोधाभास भी मिलता है। कहीं वह क्रांति की बात करता है तो कहीं संरक्षणवाद की। कहीं-कहीं पर उसने जनता को शक्ति देने का विरोध किया है। किन्तु जनता ने उसके क्रान्तिकारी विचारों को ही ग्रहण किया है।
यूटोपियन्स के अनुसार व्यक्ति मूल रूप से नैतिक एवं पुण्यात्मा है। समानता के अभाव में उसमे अवगुणों का जन्म होता है। असमानता का कारण सम्पत्ति है अत: इसका समान वितरण किया जाय। ऐसा होने पर मनुष्य नैतिक रूप से उठेगा। ये इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए खून-खराबे को भी बुरा नहीं समझते।
विभिन्न इतिहासकारों जिन्होंने बौद्धिक जागरण के प्रभाव का अध्ययन किया उनके विश्लेषण को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है-
संरक्षणवादियों का मत है कि फ्रांस में क्रांति से पूर्व जो व्यवस्था थी उसमें अनेक दोष थे, जनता त्रस्त थी तथा समस्याओं का समाधान करने में अक्षम थी। उनके विरुद्ध जन आन्दोलन केवल बौद्धिक कारण से हुआ।
प्रगतिवादियों के विचार से फ्रांस की सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियाँ संकटग्रस्त हो गयी थीं। जब समस्या का निदान, समाधान प्रस्तुत करने के बजाय एक नई समस्या को जन्म दे तो स्थिति संकटग्रस्त कही जाती है। फ्रांस का राजतन्त्र समस्याओं के निवारण में पूरी तरह अक्षम था। इस कारण एक गंभीर राष्ट्रीय संकट की स्थिति उत्पन्न हुई जिसमें क्रांति का होना अनिवार्य था।
दोनों विचारों में से किसी एक को पूरी तरह सही नहीं माना जा सकता-सत्य दोनों के मध्य है। विचारधार तथा सामाजिक यथार्थ में अन्तरंग तथा द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध होता है। 18वीं सदी में फ्रांस यूरोप का सर्वाधिक समृद्धिशाली देश हो सकता था। पर इस सदी के दौरान फ्रांस सदैव वित्तीय संकट का सामना करता रहा क्योंकि राजतंत्र सत्ता के साधनों आर्थिक, सामाजिक तथा मानवीय को ठीक तरह से समायोजित करने में अक्षम रहा। यह व्यवस्था समाज के संकुचित वर्ग (2%) के हितों पर आधारित थी। स्थापित व्यवस्था की संरचना के कारण ही क्रांतिकारी स्थिति उत्पन्न हुई। किन्तु क्रांतिकारी अवस्था क्रांति होने का पर्याय नहीं इसके लिए अन्य तत्वों का भी होना आवश्यक है-
-समाज के विभिन्न वर्गों में समाज चेतना का उद्भव,
-सत्ता को रहस्यात्मकता का पर्दाफाश,
-स्थापित व्यवस्था के प्रति अनास्थाभाव
-स्पष्ट विकल्प की प्रस्तुति।
पर इस समस्त कारणों की उत्पत्ति बौद्धिक जागरण से हुई जिससे क्रांति जैसा परिवर्तन संभव हो सका।
न्यूटन (Newton)- के दो विचार 1. सारा विश्व कुछ ऐसे प्राकृतिक नियमों से चलता है जिनका सम्बंध गणितीय है, 2. यह प्राकृतिक नियम मनुष्य प्रायोगिक विधि के माध्यम से ज्ञात कर सकता है (दर्शन) चिन्तन-निष्कर्षे ।
लांक (Lock)- जब मनुष्य पैदा होता है तो उसका मस्तिष्क चार मुक्त होता है, उसमें सारे मूल विचार सामाजिक अनुभव व पर्यावरण के कारण आते हैं।
सामाजिक संविदा का सिद्धान्त-
शासनाधिकार एक समझौते के माध्यम से एक वर्ग विशेष को कुछ नियमों व शतों के तहत दिया जाता है, यदि शासक उसका उल्लंघन करता है तो जनता को शासन बदल देने का अधिकार है (क्रांति करने का अधिकार)। इसने फ्रांसीसी बौद्धिक जागरण को प्रभावित किया। लॉक ने सरकार के तीन गुण भी बताए- (i) जन कल्याण, (ii) शासनाधिकार सीमित व संविधान के अनुरूप होना चाहिए, (iii) शासन के लिए जनता की सतत् अनुमति आवश्यक है।
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