फ्रेरा का शिक्षा दर्शन | फ्रेरा का शैक्षिक आदर्श | Frara’s education philosophy in hindi | Frara’s educational ideal in hindi
फ्रेरा का शिक्षा दर्शन | फ्रेरा का शैक्षिक आदर्श | Frara’s education philosophy in hindi | Frara’s educational ideal in hindi
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मनुष्य व्यवहार किसी आवश्यकता के कारण ही करता है यहाँ तक कि मनुष्य की भोजन करने की क्रिया में भी उसका उद्देश्य भूख आन्तरिक आवश्यकता की पूर्ति करना होता है। स्पष्ट है कि मनुष्य की सभी क्रियायें सोदेश्य होती है। मनोवैज्ञानिक भी इस नियम से पूर्णतया सहमत है कि किसी भी व्यवहार का जन्म किसी-न-किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही होता है। यदि एक क्रिया से आवश्यकता, की पूर्ति नहीं होती है तो व्यक्ति अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए दूसरी क्रियायें करता है।
व्यक्ति जो क्रिया करता है उससे उसे अनुभव प्राप्त होता है। इस अनुभव से उसके व्यक्तित्व का विकास होता है। वचन में हमारी आवश्यकतायें सीमित होती हैं क्योंकि हमारे ज्ञान का क्षेत्र सीमित होता है, किन्तु जैसे-जैसे हमारा विकास होता जाता है, हमारी जानकारी का क्षेत्र भी बढ़ता जाता है। हमारे अनुभवों में विविधता आती जाती है। ज्ञान में वृद्धि होने के कारण हमारी आवश्यकताओं के क्षेत्र में भी वृद्धि हो जाती है। इन बढ़ी हुई आवश्यकताओं की पूर्ति करने से हमारे अनुभवों में वृद्धि हो जाती है, जिसके फलस्वरूप हमारे व्यक्तित्व का विकास होता है। उदाहरणार्थ प्रारम्भ में हम केवल अक्षर-ज्ञान सीखते हैं। अक्षर सीखने से हमारे ज्ञान के क्षेत्र का विकास होता है जिससे हमें और अधिक जानने की आवश्यकता होती है। तब हम भाषाज्ञान सीखते हैं। तत्पश्चात् सरल साहित्य पढ़ना सीखते हैं यह क्रम निरन्तर चलता रहता है।
आवश्यकता-पूर्ति के लिए व्यक्ति में आन्तरिक प्रवृत्तियों के रूप में जो प्रेरक विद्यमान रहते हैं यही प्रेरक व्यक्तित्व आवश्यकता कहलाते हैं। आवश्यकता का स्वरूप हमारी आन्तरिक प्रवृत्तियों पर निर्भर करता है। प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत आवश्यकताओं में अन्तर पाया जाता है। यही कारण है कि एक ही आवश्यकता की पूर्ति के लिए भिन्न-भिन्न साधनों का प्रयोग करते हैं। यहाँ तक कि साधनों का उपयोग में लाने के ढंग में भी अंतर पाया जाता है। उदाहरणार्थ-यदि डॉ. बनने के लिए सी. पी.एम.टी. की प्रतियोगिता उत्तीर्ण करने की आवश्यकता है तो प्रतियोगिता में भाग लेने वाले सभी छात्रों की तैयारी में अन्तर पाया जायेगा। जैसे कोई सुबह पढ़ेगा तो कोई शाम को। कोई कम पढ़ेगा तो कोई ज्यादा। प्रतियोगगिता की तैयारी में यह अन्तर इसलिए पाया जाता है क्योंकि प्रत्येक छात्र की आवश्यकता पूर्ति करने के लिए प्रेरित करने वाली आन्तरिक, प्रवृत्तियों जैसे प्रेरणा, मनोस्थिति, रुचि, धैर्य, थकान, शारीरिक तथा मानसिक क्षमताओं में भिन्नता पायी जाती है। अतः स्पष्ट है कि आवश्यकता का स्वरूप व्यक्ति की आन्तरिक प्रवृत्तियों पर निर्भर करता है।
आवश्यकता पूर्ति के लिए व्यक्ति वातावरण के साथ जो प्रतिक्रिया करता है यही प्रतिक्रिया शिक्षा प्रक्रिया है। शिक्षा व्यक्तिगत विकास का कारक है। औद्योगिक शिक्षा तथा व्यक्तित्व विकास में पारस्परिक निर्भरता है। इनके पारस्परिक संबंध को हम इस प्रकार समझ सकते हैं जैसे बचपन में व्यक्तित्व विकास की हमारी आवश्यकता होती है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए हम शिक्षा ग्रहण करते हैं। शिक्षा ग्रहण करने से हमारे व्यक्तित्व का विकास होता है। आवश्यकता ही हमारी शिक्षा का स्वरूप निर्धारित करती है। शिक्षा के अनुसार ही हमारे व्यक्तित्व का विकास होता है। व्यक्तित्व विकास के अनुरूप ही हमारी आवश्यकता का निर्माण होता है।
आवश्यकता पूर्ति के लिए साधन का ज्ञान हमें समाज से ही प्राप्त होता है। इसके साथ ही साधन का स्वरूप भी समाज ही निर्धारित करता है। उदाहरणार्थ शरीर ढकने के लिए हम वस्त्र साधन का ज्ञान समाज से ही प्राप्त होता है। इसके साथ ही वस्त्रों का स्वरूप भी समाज हो निर्धारित करता है। जैसे ग्रामीण समाज में छोटी उम्र से ही लड़कियाँ साड़ी पहनना शुरू कर दता हैं और शहरी समाज में काफी उम्र तक लड़कियाँ सलवार- कुर्ता, स्कर्ट-ब्लाउज तथा जीन्स-टॉप आदि वस्त्र पहनती रहती हैं।
समाज में विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्र प्रकार की विभिन्न स्तरों की योग्यता वाले व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। उदाहरणार्थ-भवन निर्माण योजना में एक व्यक्ति नक्शा बनाता है, दूसरा उसको क्रियान्वित करता है। इस योजना को पूर्ण करने के लिए हमें दीवार बनाने वाले फर्श बनाने वाले, छत बनाने वाले, वायरिंग करने वाले, फिटिंग करने वाले, प्लम्बिंग करने वाले तथा सफेदी करने वाले आदि विभिन्न प्रकार का कार्य करने वाले मिस्त्रियों की आवश्यकता होती है। एक मिस्त्री दूसरे प्रकार का कार्य करने वाले मिस्री का कार्य उचित ढंग से नहीं कर सकता है। इसलिए न केवल भवन निर्माण में बल्कि किसी भी योजना में मिस्त्रियों की ही अधिक आवश्यकता होती है। मिस्त्रियों की मानसिक योग्यता का स्तर सामान्य होता है क्योंकि इनके अपने कार्य को भली प्रकार से करने के लिए सोच-विचार की अपेक्षा कौशल की अधिक आवश्यकता होती है। इसी प्रकार के सामान्य योग्यता वाले व्यक्तियों को विभिन्न व्यवसायों में प्रशिक्षण देकर कुशल मिस्त्रियों (तकनीशियनों) को तैयार करने के उद्देश्य से ही ओद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों की स्थापना हुई है। बढ़ते हुए औद्योगीकरण के कारण तकनीकी शिक्षा का महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। पिछले चार दशकों में तकनीकी शिक्षा संस्थानों का काफी विकास हुआ है और भविष्य में भी होने की संभावना है।
भूख व अन्य दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति सभी को करनी है। हमें ऐसा प्रयास करना चाहिये कि व्यक्ति साक्षर व शिक्षित होकर अपनी आवश्यकता की पूर्ति अच्छी तरह कर सके।
फ्रेरा का जीवन दर्शन ईसा मसीह के जीवन व दर्शन से प्रभावित था। वे ईसा मसीह के सच्चे अनुयायी थे और शिक्षा द्वारा बालक के व्यक्तित्व का निर्माण करना चाहते थे।
शैक्षिक आदर्श
आधुनिक शिक्षा में अनेकानेक विषम परिस्थितियों की कराह आच्छादित हैं। अपने स्वयं के तुच्छ स्वार्थ से व्यक्ति इतना ग्रसित है कि वह दूसरों को क्षति पहुँचाने में लेशमात्र भी संकोच नहीं कर पा रहा है। अनेकानेक मानसिक यातनाओं और कुपरिस्थितियों से वह ग्रसित है। वैज्ञानिक प्रगति के बाद भी मानव को आत्मीय शान्ति नहीं है। वह स्वनिर्मित वस्तुओं का कृतदास हो गया है। सामाजिक न्याय का सम्प्रत्यय विकसित नहीं हो पाया है, जिसके कारण मानवीय दृष्टिकोण संकुचित और एकांगी हो गया है।
यही कारण है कि वह अपने तुच्छ स्वार्थ की खातिर दूसरों की आवश्यकताओं को नहीं समझ पाता और अन्याय हो जाता है। आज हम समाजवाद की बात करते हैं। समाजवाद और पूँजीवाद दोनों की कल्पना आर्थिक मनुष्य की कल्पना है, जो अर्थ और काम को एकमात्र पुरुषार्थ मानती है, लेकिन आर्थिक मनुष्य एक अमूर्त प्रत्यय है। मानवतावाद अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों को महत्व देकर सम्पूर्ण मानव (Whole Man) को इकाई मानकर चलता है। शिक्षालयों में छात्रों और अध्यापकों की अनेकानेक समस्याएँ हैं। आये दिन घेराव, धरना, तोड़-फोड़ मारपीट इत्यादि अभद्रताएँ हो रही हैं। इसका कारण मानवतावादी शिक्षा का अभाव है। मानवतावादी शिक्षा द्वारा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में सौहार्द्र, प्रेम, करुणा, मुदिता का संचार होगा और सर्वत्र शान्ति और भ्रातृत्व होगा।
फ्रेरा ने ठीक ही कहा है कि निरंकुश राज्य और सम्पन्न लोग नहीं चाहते कि किसान पढ़ने की प्रक्रिया में उठ खड़े हों। शिक्षा का आदर्श दलितों, किसानों, मजदूरों को साक्षर व शिक्षित करना आवश्यक हे। मानवतावाद का यही संदेश है। वैसे, मानवतावाद शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम जर्मन शिक्षाविद् एफ. जे. नीथ हैमर ने ऐसे शिक्षा दर्शन के अर्थ में किया था जो विद्यालय पाठ्यक्रम के रूप में क्लासिक साहित्य के पठन-पाठन का समर्थन करता है। 14वीं सदी से 16वीं सदी का काल यूरो के इतिहास में पुनर्जागरण काल है जिस काल में शिक्षा में मानवतावाद ने जोर पकड़ा, यह शास्त्रीय मानवतावाद था। फ्रेरा ने जिस मानवतावाद को अपनाया वह आज के मजदूर व दलित वर्ग के प्रति प्रेम से परिपूर्ण है।
औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप मनुष्य मशीन के पुर्जे के सदृश्य हो गया जिससे विद्रोह की भावना का संचार हुआ। नगरीकरण औद्योगीकरण के फलस्वरूप मनुष्य का क्रन्दन या आर्तनाद ही मानवतावाद कहा जायेगा। मानवतावाद कल्पनाओं में नहीं बाह्य जगत में अस्तित्ववान है। वह विचारों, शुभाकांक्षाओं एवं सन्द्रावनाओं से ओत-प्रोत है। शिक्षा का यही उद्देश्य होना चाहिए।
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