इतिहास / History

शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार युद्ध के कारण | औरंगजेब की विजय के कारण

शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार युद्ध के कारण | औरंगजेब की विजय के कारण

शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार युद्ध के कारण

शाहजहाँ के जीवन काल में ही उसके पुत्रों ने गद्दी के लिये औपस में संघर्ष किया। निम्नलिखित कारणों से यह संघर्ष हुआ-

(1) चारों भाइयों के स्वभाव और नीति में अन्तर- शाहजहाँ के चारों पुत्रों के स्वभाव और नीति में बहुत अधिक अन्तर था। दारा अत्यन्त उदार और सहिष्णु था। वह सभी धर्मों का आदर करता था । सूफियों और वेदान्तियों से वह समान रूप से मिलता था। परन्तु उसमें औरंगजेब की सी सैनिक क्षमता नहीं थी। जिस समय शाहजहाँ बीमार पड़ा तो वह उस समय दिल्ली और पंजाब का गवर्नर था। शुजा एक बुद्धिमान व्यक्ति था । वह बड़ा साहसी और वीर योद्धा था। परन्तु उसमें सबसे बड़ा दोष यह था कि अत्यधिक आनन्दप्रेमी और विलासी था। शराब पीने का उसे अत्यधिक शौक था। यह उस समय बंगाल का गवर्नर था। औरंगजेब शाहजहाँ के पुत्रों में सबसे योग्य था। दक्षिण और उत्तर पश्चिम में वह अनेक युद्ध लड़ चुका था। वह बहुत बड़ा कूटनीतिज्ञ था। अपने कार्य को किसी प्रकार से भी बनाना उसका उद्देश्य रहता था। वह कहर मन्नी था और हिन्दुओं से पणा करता था। उस समय वह दक्षिण का गवर्नर था। सबसे छोटा भाई मुराद पी विलासी था। तसे राजनीति का कोई भी जान नहीं था। परन्तु उसके चरित्र में कुछ अच्छाइयाँ भी थी। वह बहुत अधिक स्पष्टवादी और वीर था। कठिनाइयों को झेलने से वह हिचकिचाता नहीं था। उसमें नेतृत्व की क्षमता नहीं थी और एक योग्य नेता में जो गुण होने चाहिए उनका उसमें अभाव था। इस प्रकार चारों भाइयों के स्वभाव भिन्न भिन्न थे और वे भिन्न भिन्न मार्ग का अनुसरण करने वाले ये।

(2) अत्तराधिकार के नियम का अभाव- मुसलमानों में तलवार की ताकत के आधार पर ही उत्तराधिकारी का निर्णय होता था। शाहजहाँ के समय में भी यही हुआ। सभी पुत्र अपने को एक दूसरे से शक्तिशाली समझते थे। निश्चित नियम के अभाव में उनमें संघर्ष होना स्वाभाविक हो गया।

(3) तख्त या तख्ता का सिद्धान्त- तख्त या तख्ता का सिद्धान्त इस संघर्ष का विशेष कारण था। चारों पुत्र यह जानते थे कि उन्हें या तो तख्न मिलेगा या तो तख्ता अर्थात या तो सिंहासन प्राप्त होगा या फांसी । एक को सिंहासन और अन्य तीन को फाँसी तो मिलनी ही थी। अत: चारों भाइयों में शाहजहाँ के जीवन काल में ही गद्दी के लिए युद्ध हो गया।

(4) भ्रातृत्व प्रेम का अभाव- शाहजहाँ के पुत्रों में भ्रातृत्व प्रेम का सर्वथा अभाव था । दारा और औरंगजेब में भी बिल्कुल ही नहीं पटती थी। दोनों सदैव एक-दूसरे से दूर रहते थे।

(5) संघर्ष की परम्परा- प्रारम्भ से ही संघर्ष की परम्परा सी चल पड़ी थी। बावर के मना करने के बाद भी हुमायूं के भाइयों ने गद्दी के लिए झगड़ा किया था। हुमायूं के बाद अकबर को भी संघर्ष करना पड़ा था। जहाँगीर और शाहजहाँ ने भी युद्ध किया। यही परम्परा शाहजहाँ के पुत्रों ने भी अपनाई।

(6) शाहजहाँ के पुत्रों की अनुकूल परिस्थिति- शाहजहाँ के पुत्रों को अनुकूल परिस्थितियों ने उनहें युद्ध के लिए विवश कर दिया। जिस समय उत्तराधिकार का प्रश्न उठा था उस समय दारा की अवस्था 43 वर्ष की थी, और मुराद की 38 वर्ष की थी। चारों पुत्र विभिन्न प्रान्तों के गवर्नर थे। युद्ध और शासन का चारों को अनुभव था अतः सिंहासन के लिए झगड़ा होना स्वाभाविक था।

(7) शाहजहाँ की वृद्धावस्था- 31 वर्ष तक शासन कर चुकने के बाद शाहजहाँ वृद्धावस्था को प्राप्त कर चुका था। उसके अतिरिक्त दारा को छोड़कर अन्य तीनों पुत्रों को उसकी बीमारी के कारण यह सन्देह हो गया था कि शाहजहाँ शायद मर गया है। वे सभी दारा से लोहा लेने के लिए तैयार हो गये, क्योंकि दारा शाहजहाँ के स्वास्थ्य की सूचना बहुत कम लोगों को देता था।

(8) दारा को उत्तराधिकारी बनाने का प्रयत्न- शाहजहाँ ने बीमार पड़ने के एक सप्ताह पश्चात् ही दारा को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। महावत खाँ और मीरजुमला को उसने आज्ञा दी थी कि वे अपनी सेनाओं को लेकर दारा के पास आकर उसकी स्थिति दृढ़ करें। दारा के अनुयायियों को ऊंचे पदों पर पहुंचा दिया गया। इससे सभी यह समझने लगे कि दारा ही शाहजहाँ का उत्तराधिकारी बनेगा। अतः संघर्ष होना अनिवार्य हो गया।

(9) योग्य सेनापतियों तथा अफसरों की मृत्यु- शाहजहाँ के समय में जो योग्य कर्मचारी व कुशल सेनानायक थे। उनकी धीरे-धीरे मृत्यु हो गई और उनकी मृत्यु से शाहजहाँ के सामने एक संकट सा आ गया। ऐसी स्थिति में शाहजादों का संघर्ष करना अनिवार्य था।

(10) कौटुम्बिक नीति- शाहजहाँ के दरबार में पड्यन्त्रों का जाल सा फैला हुआ था। यह गृह-कलह के कारण था। शाहजहाँ दारा को सबसे अधिक चाहता था। वहीं उसके पास रहता था। जहाँआरा दारा से सबसे अधिक सहानुभूति रखती थी। परन्तु रोशनआरा औरंगजेब का पक्ष ग्रहण करती थी। अत: वह दरवार की सभी गुप्त सूचनाएँ औरंगजेब के पास भेजती रहती थीं। औरंगजेब शुजा और मुराद को दारा के विरुद्ध भड़का कर षड्यन्त्र रचने लगा। ऐसी स्थिति में संघर्ष अनिवार्य हो गया।

युद्ध की घटनाएँ

(1) युद्ध की तैयारियाँ- शाहजहाँ के शासन काल में ही उसका साम्राज्य उसके चारों पुत्रों में विभाजित हो चुका था। दारा पंजान तथा उत्तरी-पश्चिमी सीमान्त प्रदेश का सूबेदार था। मुराद के अधिकार में मालवा और गुजरात थे। औरंगजेब दक्षिण का सूबेदार था तथा शुजा बंगाल और उड़ीसा का शासक । इस प्रकार चारों का शासन का पर्याप्त अनुभव हो गया था। चारों के पास युद्ध की पर्याप्त सामग्री और साधन भी थे। शाहजहाँ की बीमारी की सूचना पहुंचते ही सब युद्ध की तैयारियां करने लगे।

(2) शुजा की स्वतन्त्रता की घोषणा- सर्वप्रथम शुजा ने बंगाल में अपने को स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया। इसके अतिरिक्त एक विशाल सेना लेकर वह आगरे की ओर बढा । परन्तु बनारस के निकट बहादुरपुर नामक स्थान पर दारा के पुत्र सुलेमान शिकोह तथा राजा जयसिंह ने उसे हराकर बंगाल की ओर खदेड़ दिया।

(3) औरंगजेब और मुराद की दोस्ती- औरंगजेब ने मुराद से दोस्ती कर ली। 5 दिसम्बर, 1657 ई० को मुराद ने अहमदाबाद में अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया। 14 अप्रैल, 1658 ई० को मालवा में दीपालपुर नामक स्थान पर औरंगजेब और मुराद की सेनाएँ मिल गई तथा संयुक्त रूप से आगरे की ओर बढ़ी ।

(4) धरमत का युद्ध- दारा ने तुरन्त ही जोधपुर के राजा जसवन्त सिंह तथा कासिम खां के नेतृत्व में एक सेंना मुराद तथा औरंगजेब का सामना करने के लिए भेजी। उज्जैन से चौदह मील उत्तर-पश्चिम में धरमत नामक स्थान पर शाही सेना तथा औरंगजेब और मुराद की सेनाएँ आ डटों । राजपूतों ने औरंगजेब का मुकाबला किया परन्तु असफल रहे । भीषण युद्ध के पश्चात् औरंगजेब की विजय हुई। इस विजय से औरंगजेब के सम्मान और शक्ति में काफी वृद्धि हो गई। सर जदुनाथ सरकार ने लिखा है-

“The hero of Deccan wars and the Victor of Dharmat faced the world not only without any loss but with his military reputation rendered absolutely unrivailed in India.”

-J. Sarkar

(5) सामूगढ़ का युद्ध- धरमत के युद्ध के पश्चात् औरंगजेब और मुराद आगरे को ओर बढ़े। दारा ने दुवारा शीघ्र एक शक्तिशाली सेना तैयार की। 28 मई, 1658 ई० को दोनों सेनायें आगरे के निकट सामूगढ़ नामक स्थान पर आ डटौं दूसरे दिन दोपहर के समय दारा ने औरंगजेव की सेना पर आक्रमण किया। दारा की सेना संख्या में औरंगजेब से अधिक थी, परन्तु उसके सैनिकों का विश्वास उसके ऊपर से उठ चला था। भीषण युद्ध हुआ। युद्ध के समय दारा अपने हाथो से उतर कर घोड़े पर सवार हो चुका था। उसके सैनिकों ने समझा कि दारा मर गया है अतः उसकी सेना भाग खड़ी हुई। सेना को भागते देखकर दारा भी आगरे की ओर भाग गया।

(6) शाहजहाँ को बन्दी बनाया जाना- सामूगढ़ के युद्ध से दारा अत्यन्त लज्जित हुआ और उसने अपने बाल-बच्चों सहित दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दिया। दूसरी ओर औरंगजेब ने आगरे के दुर्ग का घेरा डाल दिया। पहले तो शाहजहाँ औरंगजेब के सामने झुकने को तैयार न हुआ, परन्तु जब औरंगजेब ने किले में पानी जाना बन्द करवा दिया तो शाहजहाँ को आत्म-समर्पण करना पड़ा। औरंगजेब ने सम्राट को बन्दी बना लिया।

(7) मुराद का अन्त- शाहजहाँ को बन्दी बनाने के पश्चात् औरंगजेब ने दारा का पीछा किया परन्तु मथुरा से उसे यह समाचार मिला कि मुराद भी औरंगजेब के विरुद्ध विद्रोह करने वाला है। अतः उसको समाप्त करने के लिए औरंगजेब ने मुराद को एक दावत दी। दावत में उसने उसे खूब शराब पिला दी और जब वह सो गया तो उसे कैद कर ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिया। तीन वर्ष की कैद के बाद जब उसने भागने का प्रयास किया तो औरंगजेब ने उसका वध करवा दिया।

(8) दारा का अन्त- औरंगजेय दारा को पूर्णत: समाप्त करना चाहता था। अतः उसने दारा का पीछा किया। दारा मुल्तान होता हुआ दादर की ओर भाग गया। अन्त में दादर के शासक मलिक जीवन के यहां शरण ली, जिसे एक बार उसने मृत्यु दण्ड से बचाया था। परन्तु मलिक जीवन विश्वासघाती निकला। उसने दारा को औरंगजेब के हवाले कर दिया। औरंगजेब ने दारा को अपमानित करने के लिए एक नंगे हाथी पर शहर भर में घुमाया और फिर उसका वध करवा दिया।

(9) खजवा का युद्ध और शुजा का अन्त- शुजा भी अपने पिता को मुक्त करने तथा सिंहासन प्राप्त करने के लिए प्रयास कर रहा था। अक्टूबर 1658 ई० में उसने अपनी सेना के साथ खजवा नामक स्थान में पड़ाव लिया। मुल्तान से लौटने पर औरंगजेब भी अपनी सेना लेकर शुजा का मुकाबला करने आ पहुंचा। दोनों में भीषण युद्ध हुआ और अन्त में शुजा हार गया। वह युद्ध -भूमि से भाग कर मुंगेर पहुंचा। मीरजुमला ने उसका पीछा किया। अन्त में वह भागकर अराकान पहुंचा और वहां के शासक की हत्या का षड्यन्त्र रचा। परन्तु उसमें भी उसे सफलता नहीं मिली और उसे जंगलों की ओर भागना पड़ा। अन्त में अराकानियों ने उसे पकड़ कर उसका वध कर दिया।

औरंगजेब की विजय के कारण

उत्तराधिकार युद्ध में औरंगजेब की सफलता के अनेक कारण थे। इनमें से मुख्य की चर्चा यहाँ नीचे की जा रही है-

(i) शाहजहाँ की कमजोरी- उत्तराधिकारी युद्ध में औरंगजेब की सफलता के लिए शाहजहाँ बहुत हद तक उत्तरदायी था। डॉ० ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है-

“Nothing contributed more to Aursngzeb’s rapid rise than Shah Jahan’s weakness and incapability.”

शाहजहाँ की बीमारी के कारण यह अफवाह फैल गई कि उसकी मृत्यु हो गई है। परन्तु शाहजहाँ ने इस अफवाह का खण्डन नहीं किया। यदि वह स्थिति का स्वयं सामना करने में असमर्थ था तो कम से कम अपने मंत्रियों को बुलाकर उनको राय दे सकता था। बीमारी से अच्छा होने के पश्चात् वह स्वयं औरंगजेब के प्रयलों को असफल करने में सफल हो सकता था। क्योंकि प्रजा उसका बहुत अधिक सम्मान करती थी। वह दारा और औरंगजेब के बीच समझौता भी करवा सकता था। परन्तु उसने ऐसा कुछ नहीं किया और दारा के कहने पर चलता रहा।

(ii) औरंगजेब की नीति और सैनिक क्षमता- औरंगजेब एक वीर सैनिक और कुशल सेनापति था। वह कूटनीति से कार्य करता था और उसने बड़ी चतुरता से मुराद को अपनी ओर मिला लिया। धरमत और सामूगढ़ के युद्धों में उसने शनु के बहुत से सैनिकों को अपनी ओर मिला लिया। डॉ० ईश्वरी प्रसाद ने ठीक ही लिखा है-

“In fact, victory of Aurangzeb in the war of succession was the victory of action over supineness of interpidity over intertia and of organisation and discipline over confusion and incoherence.”

-Dr. Ishwari Prasad

(iii) औरगंजेब का अच्छा तोपखाना- औरंगजेब की शक्ति उसके तोपखाने पर निर्भर थी। उसका तोपखाना उसके शत्रुओं के तोपखाने से कहीं अधिक अच्छा था। सामूगढ़ के युद्ध में उसने तोपखाने का प्रयोग बड़ी कुशलता से किया। उसके तोपची अत्यधिक योग्य थे।

(iv) दारा की अयोग्यताएँ- दारा एक कुशल सेनापति नहीं था। उसे युद्ध का विशेष अनुभव भी नहीं था। धरमत के युद्ध के पश्चात् दारा ने सबसे बड़ी भूल यह की कि उसने सुलेमान शिकोह और जयसिंह का इन्तजार नहीं किया और अकेले ही युद्ध करना प्रारम्भ कर दिया। सामूगढ के युद्ध में भी उसने शत्रु पर ठीक प्रकार से हमला नहीं किया। उसे औरंगजेब और मुराद की थकी हुई सेना पर तुरन्त हमला करना चाहिए था। परन्तु उसने इनको आराम करने का अवसर दे दिया। दारा ने युद्ध-भूमि में अपने हाथी से उतर कर घोड़े पर सवार होने की बहुत बड़ी भूल की। उसके सैनिकों ने समझा कि उसका नेता मर गया और वे भाग खड़े हुए।

(v) दारा की सेना में एकता का अभाव- दारा की सेना भी औरंगजेब की विजय का एक कारण बनी। उसकी सेना ठीक प्रकार से संगठित न थी। दारा की सेना में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही बराबर-बराबर थे। वे एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते थे। इससे दारा की सैनिक शक्ति को बहुत अधिक धक्का लगा। दारा की सेना में एकता न होने के कारण उसकी पराजय हुई।

(vi) दारा की धार्मिक सहिष्णुता और औरंगजेब की कट्टरता- दारा धार्मिक दृष्टि से सहिष्णु था। परन्तु औरंगजेब कट्टर सुन्नी था । इसका परिणाम यह हुआ कि दारा के कट्टरपंथी सैनिकों ने भी छिपे रूप से औरंगजेब का साथ दिया। यद्यपि दारा को हिन्दुओं का सहयोग प्राप्त हुआ परन्तु हिन्दुओं और मुसलमानों में आपसी मतभेद के फलस्वरूप ही वह हिन्दुओं की शक्ति का पूरी तरह लाभ नहीं उठाया।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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