पूर्वी समस्या का उदय | पूर्वी समस्या क्या थी | राजा ओटो और जार्ज प्रथम के शासनकाल के यूनानी इतिहास का वर्णन | 1897 ई० में यूनान और तुर्की के मध्य हुए युद्ध के कारण

पूर्वी समस्या का उदय | पूर्वी समस्या क्या थी | राजा ओटो और जार्ज प्रथम के शासनकाल के यूनानी इतिहास का वर्णन | 1897 ई० में यूनान और तुर्की के मध्य हुए युद्ध के कारण

पूर्वी समस्या का उदय

(The Rise of Eastern Question)

पूर्वी समस्या की व्याख्या करते हुए लार्ड माले ने लिखा है- “पूर्वी समस्या विरोधी हितों, प्रतिद्वन्द्वी जातियों एवं विपरीत धर्मों की एक परिवर्तनशील दुःसाध्य और जटिल समस्या रही है। इस प्रकार पूर्वी समस्या यूरोप महाद्वीप के दक्षिणी पूर्वी भाग में विस्तृत तुर्क साम्राज्य को स्थिर रखने के यूरोपीय शक्तियों द्वारा किये गये प्रयासों का ही दूसरा नाम है। 1856 ई० में पेरिस की सधि (Treaty of Paris) द्वारा तुर्क साम्राज्य को स्थिर रखने के लिये प्रयल किये गये थे। परन्तु उन प्रयासों के सम्पन्न किये जाने पर भी 1860 ई० के पश्चात् यूरोप में फिर से पूर्वी समस्या का उदय हुआ। इस साम्राज्य के अन्तर्गत सर्व (Serbs), अल्बानियन (Albanians), रूमानियन (Rumanians), यूनानी (Greeks) तथा बल्गार (Bulgarians) आदि अनेक विभिन्न जातियाँ बसी हुई थीं। इन जातियों में स्वतन्त्रता और राष्ट्रीयता की भावनाएँ अपना प्रभाव प्रकट करने लगी थीं। जिनके कारण इन्होंने तुर्क साम्राज्य की दासता की बेड़िया काटने के प्रयल आरम्भ कर दिये थे। रूस की ओर से उन जातियों को तुर्क साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने के लिये प्रोत्साहित किया जाता था, जिससे समय-समय पर पूर्वी समस्या जन्म लेती और गम्भीर रूप धारण करती रहती थी। उस समस्या का 1856 ई० की संधि के पश्चात् फिर से उदय निम्न कारणों से हुआ था-

पूर्वी समस्या के पुन: उदय के कारण

(Causes of the rise of the Eastern Question again)

(i) ईसाई जन्ता में असन्तोष (Dissatisfaction among the Christian pepole)-  तुर्क जनता में तुर्क सुल्तान के निरंकुश और अत्याचारी शासन के विरुद्ध असन्तोष की भावना का उदय होने लगा था, जिसके कारण ईसाई जनता स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने लगी। (ii) राष्ट्रीयता का उदय (Rise of ationality)-  यूरोप में फ्रांस की राज्य क्रांति द्वारा स्थापित राष्ट्रीयता के पुनीत सिद्धांतों का यूरोपीय देशों की जनता में भली-भांति प्रचार हो चुका था। अत: तुर्क साम्राज्य में निवास करने वाली ईसाई जनता में भी राष्ट्रीयता की भावना अपना प्रभाव प्रकट करने लगी। तुर्क साम्राज्य के प्रदेशों में बसी हुई विभिन्न ईसाई जातियाँ इस भावना के कारण तुर्क सुल्तान की अधीनता में रहना अपने लिये अपमानजनक समझ्न लगी थीं। अत: उनके द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिये तुर्क साम्राज्य के विभिन्न भागों में किये गये विद्रोहों ने पूर्वी समस्या को फिर से यूरोपीय राष्ट्रों के सामने एक नवीन रूप में उद्य किया । (iii) तुर्क सुल्तान की अयोग्यता (Inability of Porte)-  पूर्वी साम्राज्य के उदय होने के कारणों में तुर्क सुल्तान (Porte) को अयोग्यता और अपव्यय को भी अत्यधिक महत्व प्राप्त था। सुल्तान के कर्मचारी राजकोष को भरने और अपनी जेब गर्म करने के लिये ईसाई जनता पर तरह-तरह के अत्याचार करते रहते थे। उसके साथ ही उन पर करों का भार भी बहुत अधिक होता जा रहा था। अतः ईसाई जनता के विद्रोह पूर्वी समस्या को गम्भीरता के साथ जन्म देने लगे। (iv) यूरोपीय शक्तियों की स्वार्थपरता (Selfishness of the European Powers)-  फ्रांस (France) इंगलैण्ड (England), जर्मनी (Germany), रूस (Russia), आस्ट्रिया हंगरी (Austria Hungary) आदि यूरोप के विभिन्न शक्तिशाली राज्य भी अपने साम्राज्य की वृद्धि के लिये तुर्क सुल्तान के विशाल यूरोपीय साम्राज्य को हड़पने के लिये उत्सुक थे। उनकी स्वार्थपरता ने पूर्वी समस्या को फिर से उत्पन्न किया। (V) रूस का कुस्तुनतुनिया विजय की इच्छा (Desire of Russia to win constantinoiple)-  तुर्क सुल्तान की राजधानी कुस्तुनतुनिया अपनी महत्वपूर्ण स्थिति के कारण रूस के लिये अत्यधिक आकर्षक बनी हुई थी। वह उस पर अधिकार करने के लिये बृहुत उत्सुक था और इसीलिये तुर्क साम्राज्य के विविध प्रान्तों में निवास करने वाली ईसाई जातियों को विद्रोह के लिये उकसाता रहता था। रूस के उन प्रयासों के कारण पेरिस संधि के पश्चात शीघ्र ही पूर्वी समस्या का उदय होने लगा। (vi) सेबेस्टेपोल की रूस द्वारा किलाबन्दी (Fortification of Senblastapoleby Russia)-  रूस ने पेरिस संधि में वर्णित काले सागर (Black Sea) से सम्बन्धित धाराओं के विरुद्ध काले सागर के किनारे स्थित सेवास्टोपोल (Sebastopole) की किलेबन्दी क्रके वहाँ रूसी युद्धपोतो का एक बेड़ा रख दिया। रूस के इस कार्य ने पूर्वी समस्या को फिर से नवीन रूप में उत्पन्न किया। इंगलैण्ड (England) द्वारा रूस की इस किलेबन्दी का अत्यधिक विरोध किया गया परन्तु जर्मनी के चांसलर बिस्मार्क (Bismark) द्वारा रूस के कार्य का समर्थन किया गया जिसके कारण इंगलैण्ड के विरोध का सुनिश्चिंत परिणाम नहीं निकला।

पूर्वी समस्या का नवीन रूप

(New Form of Eastern Problem)

पूर्वी समस्या ने पेरिस की सन्धि के उपरांत एक नवीन दिशा से नवीन रूप में उदय होकर यूरोपीय शक्तियों का उस पर विचार-विमर्श करने के लिये विवश किया। पूर्वी समस्या का यह नवीन रूप यूनान (Greece) और क्रीट (Creete) द्वारा निर्मित किया गया था। अत: उस समय के समझने के लिये यूनान के इतिहास पर ध्यान देना आवश्यक है, जिसका वर्णन संक्षिप्त रूप में निम्न प्रकार से किया जा सकता है-

(1) राजा ओटो का शासन  यूनान के शासन का भार 1833 ई० में बवेरिया (Baveria) के राजकुमार ओटो (Outo) के कन्धों पर डाल दिया गया। वह कैथोलिक धर्म का अनुयायी सत्रह वर्ष का अनुभवहीन युवक था। इसकी प्रजा रोमन कैथोलिक न होकर यूनानी चर्च की उपासक थी। उसने 1862 ई० तक लगभग 30 वर्ष शासन किया। उसका शासन काल वैधानिक नहीं था तथा उसकी मूर्खताओं और प्रशासनिक अयोग्यता का प्रतीक था। उसके अपव्यय ने राजकोष रिक्त कर दिया था। उसके अत्याचारी शासन से उताकर यूनानी सेना ने विद्रोह कर दिया। राजा ओटो सिंहासन त्याग कर विदेशों में शरण लेने के लिये विवश हुआ।

जार्ज प्रथम  राजा ओटो के यूनान से भाग जाने के कारण यूनानियों ने डेन्मार्क (Denmark) के राजकुमार जार्ज को राज सिंहासन पर बिठाया । वह 1863 ई० में जार्ज प्रथम (George I) के नाम से शासक बना । उसने 1863 से 1913 ई. तक 50 वर्ष तक प्रशासनिक कार्यों को सम्पन्न किया।

(2) यूनान की इच्छा यूरोपीय राष्ट्रों द्वारा यूनान की सीमायें निश्चित कर दी गई थीं। यूनानियों को उन सीमाओं से सन्तुष्टि नहीं हुई, क्योंकि इस सीमा निर्धारण ने मेसीडोनिया (Macedonia), एपीरस (Eprus), थेजले (Thesley) और आयोनियन द्वीप समूह (Ionian islands) में रहने वाले यूनानियों को विदेशी बना दिया था तथा उनके प्रदेश यूनान के राज्य में सम्मिलित नहीं रहने दिया था। यूनान इन क्षेत्रों को अपने राज्य में लाना चाहता था। 1854 में क्रीमिया का युद्ध (Crimean War) आरम्भ होने पर यूनान के राजा ने थेजले (Thesley) पर अधिकार कर लिया। यूरोपीय राष्ट्रों ने क्रीमिया के युद्ध के पश्चात् पेरिस में होने वाली सन्धि के समय थेजले को फिर से तुर्क सुल्तान को वापिस दिला दिया।

(3) यूनान की इच्छा की पूर्ति 1880 ई. में इंगलैण्ड के प्रधान मन्त्री ग्लैडस्टन (Gladstone) ने जो तुर्क सुल्तान का विरोधी था, तुर्क सुल्तान पर दबाव डालना आरम्भ किया कि वह थेजले और एपीरस (Epirus) को, जहाँ की जनसंख्या अधिकांशत: यूनानियों की थी. यूनान को प्रदान करे। 1881 ई. तुर्क सुल्तान (Porte) ने विवश होकर थेजले (Thesley) तथा एपीरस (Epirus) का अधिकांश भाग यूनान को प्रदान करना पड़ा। अंग्रेज सरकार ने भी आयोनियन द्वीप समूह, जो उसके संरक्षण में था, यूनान को दे दिया। इस प्रकार यूनान की इच्छा की अनेक अंशों में पूर्ति हो गई।

(4) यूनान-तुर्की युद्ध  यूनान के साथ हुए टर्की (Turkey) के युद्ध के कारण इस प्रकार है-

(i) क्रीट पर तुर्की का निरंकुश शासन तुर्क सुल्तान का क्रोट द्वीप पर निरंकुश शासन प्रचलित था। सरकारी कर्मचारी क्रीट की यूनानी जनता पर तरह-तरह के भीषण अत्याचार करते थे, जिनसे तंग आकर वहाँ की जनता तुर्क शासन का विरोध करने के लिये तेयार हो गई।

(ii) क्रीट का विद्रोह क्रीट द्वारा तुर्क शासन की समाप्ति के लिये 1830 ई. से 1910 तक 14 वार विद्रोह किया गया। परन्तु 1896 ई० से पूर्व इन विद्रोह को सफलता नहीं मिल सकी। तुर्क सुल्तान द्वारा उन विद्रोहों का कठोरता के साथ दमन कर दिया गया।

(iii) 1897 ई० का विद्रोह 1897 ई० में कीट निवासियों द्वारा तुर्को शासन से स्वतन्त्र होने के लिये फिर से सशस्त्र विद्रोह किया गया। उन्होंने यूनान के साथ मिलने की घोषणा की। अतः यूनान को भी सेना भेज कर क्रीट की सहायता करनी पड़ी।

(iv) यूनान की सैनिक सहायता क्रीट का विशाल द्वीप यूनान के समीप भूमध्यसागर में स्थिति है। यहाँ के निवासी यूनानियों के जाति भाई थे। अतः 1897 ई० में क्रीट द्वारा विद्रोह करने पर यूनान को क्रीट वालों की सहायता के लिये अपनी सेना भेजनी पड़ी। यूनानी सेना के युद्ध में प्रवेश करते ही तुर्क सुल्तान को यूनान के विरूद्ध युद्ध घोषणा करनी पड़ी। यूनान-टर्की युद्ध का तत्कालीन कारण यही था।

युद्ध की घटनायें तथा परिणाम

(Events of War & Consequences)

यूनान की सेना द्वारा भेजेली (Thesley) पर आक्रमण कर दिया गया। यूनान को बिना किसी तैयारी के ही युद्ध में भाग लेना पड़ा था। उधर तुर्की (Turkey) को जर्मनी की सहायता प्राप्त थी। अत: एक माह के भीषण युद्ध के पश्चात् यूनानी सेना को तुर्की द्वारा पराजित् कर दिया गया। यूरोपीय राष्ट्रों ने, जो इस युद्ध को बलकान युद्ध नहीं बनने देना चाहते थे। तुर्की और यूनान में सन्धि करा दी।

इस युद्ध के परिणाम बड़े महत्वपूर्ण रहे। यूनान और टर्की में हुई सन्धि के अनुसार यूनान को भारी धन राशि युद्ध क्षति पूर्ति के रूप में तुर्क सुल्तान को देनी पड़ी। थेजेले का कुछ भाग फिर से तुर्क सुल्तान के अधिकार में दे दिया गया। क्रीट को भी यूनान के साथ नहीं मिलाया गया। इसके बजाय क्रीट (Crete) को फ्रांस, रूस, इटली और इंगलैण्ड के प्रतिनिधियों द्वारा मनोनीति सदस्यों के एक आयोग (Commission) को सौंप दिया गया। इस प्रकार इस युद्ध के परिणामस्वरूप क्रोट को तुर्कों के अत्याचारी शासन से मुक्ति प्राप्त हुई तथा यूनान के राजा जार्ज प्रथम (George I) को क्रोट का राज्यपाल (Governor) नियुक्त किया गया।

क्रीट का यूनान में विलय (Union of Crete With Greece)- क्रीट की जनता को यूरोपीय राष्ट्रों द्वारा की गई इस प्रकार की व्यवस्था से संतोष नहीं मिला। उन्होंने 1908 ई० में हुई तुर्क क्रान्ति से उत्साहित होकर यूनान के साथ मिलने का प्रयास किया, परन्तु यूरोपीय शक्तियों के हस्तक्षेप के कारण वे यूनान में अपना विलय नहीं कर सके। 1912 ई० में जब बलकान युद्ध आरम्भ हुआ तो उसमें तुर्की (Turkey) के निर्बल पड़ जाने पर क्रीट को यूनान के साथ मिलने में सफलता प्राप्त हो गई।

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