अर्थशास्त्र / Economics

प्रकृतिवादियों का प्राकृतिक अर्थव्यवस्था सम्बन्धी विचार | प्राकृतिक व्यवस्था एक ईश्वरीय व्यवस्था | प्राकृतिक व्यवस्था की रूपरेखा | प्राकृतिक व्यवस्था के आधार स्तम्भ | आलोचनात्मक मूल्यांकन

प्रकृतिवादियों का प्राकृतिक अर्थव्यवस्था सम्बन्धी विचार | प्राकृतिक व्यवस्था एक ईश्वरीय व्यवस्था | प्राकृतिक व्यवस्था की रूपरेखा | प्राकृतिक व्यवस्था के आधार स्तम्भ | आलोचनात्मक मूल्यांकन

प्रकृतिवादियों का प्राकृतिक अर्थव्यवस्था सम्बन्धी विचार

(Physiocrats’ Views of Natural Order)

निर्बाधावादी प्रणाली का सार प्राकृतिक व्यवस्था की कल्पना में निहित है, अर्थात् निर्बाधावादियों का समस्त आर्थिक विवेचन प्राकृतिक व्यवस्था के पक्के विश्वास पर आधारित है। इसीलिए दयूपों दि नेमोर्स (Dupont de Nemours) ने निर्बाधावाद को ‘प्राकृतिक व्यवस्था का विज्ञान’ (Science of the Natural Order) कहा है।

प्राकृतिक व्यवस्था एक ईश्वरीय व्यवस्था

(Natural Order: A Divine Order)

निर्बाधावादियों की कल्पना थी ‘प्राकृतिक व्यवस्था’ वह आदर्श व्यवस्था है, जिसमें संस्थाओं का प्रबन्ध सब तरह पूर्ण है और जिसका संचालन प्रकृति के नियमों द्वारा किया जाता है। यह व्यवस्था ईश्वरीय है और भगवान ने दया करके इसे मानव जाति के लाभार्थ व सुख के लिए बनाया है। अत: यह व्यवस्था पवित्र, सर्वव्यापी, शाश्वत और अपरिवर्तनीय है। निर्बाधावादियों के विश्वास के अनुसार, वर्तमान समाज में बुराइयाँ इसलिए देखी जाती हैं क्योंकि उसका संगठन प्राकृतिक व्यवस्था के विपरीत है। अत: मानव समाज में व्याप्त बुराइयों, यातनाओं, पीड़ाओं आदि को समाप्त करने का एकमात्र उपाय यही है कि समाज को प्राकृतिक व्यवस्था के अनुरूप बनाया जाय। प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि प्राकृतिक व्यवस्था के मंगलमय स्वरूप में आस्था रखे और तद्नुसार ही अपना जीवन और आचरण ढाले।

प्राकृतिक व्यवस्था की रूपरेखा

(Outlines of Natural Order)

निर्बाधावादी प्राकृतिक व्यवस्था को निश्चित रूपरेखा (definite outlines) नहीं दे पाये। इसका कारण यह था कि वे रूपरेखा के बारे में स्वयं ही दुविधा में पड़े हुए थे। प्राकृतिक व्यवस्था के वास्तविक स्वभाव के सम्बन्ध में विभिन्न निर्बाधावादियों के विभिन्न विचार थे, जैसे-

(1) प्राकृतिक व्यवस्था का आशय प्रकृति की प्राचीनतम दशा से लगाना- कुछ लेखों में प्राकृतिक व्यवस्था का अर्थ प्रकृति की एक दशा (state of nature)से लगाया गया है, जो कि कृत्रिम रूप से निर्मित सभ्य दशा से बिल्कुल विपरीत होती है। अन्य शब्दों में, प्राकृतिक व्यवस्था का अर्थ उस प्राचीन व्यवस्था से लगाया जाता है, जिसमें मनुष्य एक सामाजिक प्राणी के रूप न रह कर एक पशु के समान जीवन बिताता है। दुपोंदन मूर के अनुसार, “एक प्रकार का प्राकृतिक समाज होता है, जिसका अस्तित्व प्रत्येक अन्य मानवीय संगठन से पूर्व रहा है।”

लेकिन यह विचार असंगत है, क्योंकि प्राकृतिक व्यवस्था के (निर्बाधावादियों द्वारा बताये गये) दो प्रमुख लक्षण इस (प्रकृति की दशा) में नहीं हैं-व्यक्तियों को स्वहित में कार्य करने का अधिकार और प्राइवेट सम्पत्ति का अधिकार।

(2) प्राकृतिक व्यवस्था को भौतिक व्यवस्था के समतुल्य बताना- अन्य लेखों में ‘प्राकृतिक व्यवस्था’ (natural order) और ‘भौतिक व्यवस्था’ (physical order) में समानता स्थापित करने की चेष्टा की गयी है। अन्य शब्दों में, प्राकृतिक व्यवस्था का अर्थ इस प्रकार लगाया जाता है कि मनुष्य समाज पर भी प्राकृतिक नियम उसी तरह लागू होते हैं जिस तरह से कि ये पशु-समाज, वनस्पतियों अथवा भौतिक पदार्थों पर होते हैं।

किन्तु यह विचार भी अस्पष्ट है। इस पर भी यह निर्बाधावादियों की अधिकृत व्याख्या थी, क्योंकि केने, जो कि निर्बाधावाद के संस्थापक थे, एक चिकित्सक रहे थे और वह हार्वे की रक्त परिभ्रमण (circulation of blood) सम्बन्धी खोज से परिचित थे। अत: सम्भव है कि उसने शारीरिक और आर्थिक नियमों में समानता अनुभव की हो अर्थात् हो सकता है कि निर्बाधावाद शरीर शास्त्र को आर्थिक जीवन पर लागू करने का फल हो। केने कहा भी करते थे कि “प्राकृतिक व्यवस्था एक भौतिक विज्ञान मात्र है, जिसे ईश्वर ने स्वयं ही सृष्टि को प्रदान किया है।”

(3) प्राकृतिक व्यवस्था की स्थापना सर्व रचियता के द्वारा ही, मनुष्य के द्वारा नहीं- एक अन्य निर्बाधावादी लेखक रिवेरी के अनुसार, “प्राकृतिक व्यवस्था मनुष्य की उपज नहीं है, किन्तु इसके विपरीत, उसकी स्थापना समस्त प्रकृति के रचियता ने स्वयं अपने हाथों की है, जिस प्रकार से कि भौतिक व्यवस्था की समस्त अन्य शाखाओं की हुई है।” उन्होंने आगे बताया है कि “प्राकृतिक अधिकार का निर्धारण प्रकृति की दशा में ही होता है। यह अधिकार तब ही प्रगट होता है, जबकि न्याय और श्रम की स्थापना हो जाती है।”

प्राकृतिक व्यवस्था के आधार स्तम्भ

(Pillars of Natural Order)

निर्बाधावादियों के मतानुसार, प्रभुसत्ता (sovereignty), अधिकार (authority), सम्पत्ति (property) और नियमितता (orderliness) प्राकृतिक व्यवस्था के प्रमुख आधार स्तम्भ हैं। चूंकि

निर्बाधावाद : प्रकृति तथा विशेषताएँ अथवा प्रकृतिवाद निर्बाधावादी पादरी, गवर्नर, शाही चिकित्सक, मजिस्ट्रेट आदि के रूप में सम्मानपूर्ण जीवन बिता रहे थे, इसलिए यह स्वाभाविक था कि वे सम्पत्ति, सुरक्षा और स्वतन्त्रता का बहुत ध्यान रखें। प्रो० केने के अनुसार, “प्राकृतिक व्यवस्था के नियम, किसी भी तरह मानव जाति की स्वतन्त्रता का कम नहीं करते, बल्कि इनसे मिलने वाला एक बड़ा लाभ यह है कि वे और भी अधिक स्वतन्त्रता का अवसर प्रस्तुत करते हैं।”

प्रकृतिवादियों ने सभी सामाजिक वर्गों की पारस्परिक निर्भरता के विचारों को महत्व दिया। इस सम्बन्ध में केने ने बताया कि “समाज में प्रवेश करके और अपने पारस्परिक लाभ के लिए समझौते करके मनुष्य ने अपनी स्वतन्त्रताओं पर रोक लगाये बिना ही प्राकृतिक अधिकार के क्षेत्र में वृद्धि कर ली।”

प्रकृतिवादियों का यह भी कहना था कि किसी व्यक्ति विशेष का हित और सामान्य हित एक-दूसरे से सामंजस्य रखते हैं। “हमारे सभी आर्थिक प्रयासों का उद्देश्य न्यूनतम व्यय के द्वारा अधिकतम सुख की प्राप्ति होना चाहिए और यही प्राकृतिक व्यवस्था भी चाहती है। जब प्रत्येक व्यक्ति इस नीति का पालन करेगा, तब प्राकृतिक व्यवस्था खतरे में पड़ने के बजाय और अधिक सुदृढ़ हो जायेगी। इस व्यवस्था का सार यही है कि व्यक्ति का विशेष हित सबके सामान्य हित से कभी भी पृथक् नहीं किया जा सकता, किन्तु ऐसा एक स्वतन्त्र पद्धति के ही अन्तर्गत होता है।”

सारांश में, प्राकृतिवादियों का मत था कि यदि मानव समाज की व्यवस्था प्राकृतिक नियमों, स्वतंत्रता, परस्पर निर्भरता, शान्ति और प्रेम के अनुरूप हो, मानव समाज की अन्तर्निहित सभी कुव्यवस्थायें समाप्त हो जायेंगी।

आलोचनात्मक मूल्यांकन

(Critical Evaluation)

प्रकृतिवादियों के प्राकृतिक व्यवस्था के विचार में कई दोष व असंगतियाँ हैं, जिनके कारण विद्वानों ने इसकी आलोचना की है। प्रमुख आलोचनायें निम्नांकित हैं-

(1) मानवीय हितों की एकता का न पाया जाना- इस सम्बन्ध में जीड एवं रिस्ट ने लिखा है-“उनके सामाजिक तत्व ज्ञान पर, विशेषत: इसकी सादगी पर महज हँसी आती है। यह सरलता से स्पष्ट किया जा सकता है कि मनुष्यों के बीच हितों की एकता कहीं भी नहीं पायी जाती और न व्यक्ति विशेष के हित समाज के हितों के अनुरूप होते हैं। यह कहना भी गलत है कि एक प्राइवेट नागरिक सदा अपने हितों को सबसे अधिक जान सकता है।”

सरल शब्दों में, निर्बाधावादियों का कहना अयुक्तिपूर्ण है कि समाज के सदस्य अपने हित और अहित को तथा दूसरों के साथ सहयोग करने के महत्व को भली प्रकार जानते हैं। यदि ऐसा होता, तो वर्ग संघर्ष के दृश्य दिखायी न पड़ते।

(2) सरकार की भूमिका- निर्बाधावादियों द्वारा कल्पित प्राकृतिक व्यवस्था के आधार पर संगठित समाज में सरकार की भूमिका किसी तरह कम महत्वपूर्ण न होगी। जीड एवं रिस्ट के मतानुसार “यह सत्य है कि समाज में सरकार के लिए अधिक काम नहीं होगा, परन्तु उसका कार्य किसी भी तरह से महत्वहीन बताना भी ठीक नहीं है, विशेषत: जबकि वह निर्बाधावादियों के कार्यक्रम को लागू करेगी। समस्त कृत्रिम बाधाओं को हटाकर उसे (सरकार को) व्यक्तिगत सम्पत्ति और स्वतंत्रता की रक्षा करनी होगी और उनको सजा देनी होगी जो कि इन अधिकारों को करते हैं। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण कर्त्तव्य यह होगा कि वह जनता को प्राकृतिक व्यवस्था के नियमों से परिचित करायें।”

(3) प्राकृतिक व्यवस्था के स्वभाव एवं नियमों को भली प्रकार स्पष्ट न करकरायें निर्बाधावादी विचारक प्राकृतिक व्यवस्था के स्वभाव एवं नियमों को भी भली प्रकार स्पष्ट नहीं कर पाये और इस सम्बन्ध में विभिन्न निर्बाधावादी विचारकों के विचार भी अलग-अलग हैं । डा. केने ने अपनी प्राकृतिक व्यवस्था सम्बन्धी धारणा को भौतिक शास्त्र के रक्त परिभ्रमण के सिद्धान्त पर आधारित किया था, किन्तु उस काल तक भौतिक विज्ञान का अधिक विकास नहीं हुआ था, जिस कारण केने का स्पष्टीकरण सही न था। प्रो० हेने ने इस सम्बन्ध में लिखा है-“यदि भौतिक विज्ञान और विशेषतः जीव विज्ञान का अधिक विकास हो गया होता, तो एक दूसरी कहानी कही जाती, क्योंकि निर्बाधावादियों ने भौतिक और सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच अन्तर्सम्बन्ध को स्पष्टता से देखा था और इसलिए वे भौतिक घटकों पर बल देने के लिए प्रेरित हुए। किन्तु जीव विज्ञान उस काल में कठिनता से ही शिशु अवस्था में पहुँच सका था और वे सनातन विचारों, ईश्वरीय शक्ति और इसी प्रकार की अन्य सामाजिक धारणाओं से प्रभावित थे।

यद्यपि आधुनिक दृष्टिकोण से प्राकृतिक व्यवस्था का सम्पूर्ण विचार बड़ा अस्पष्ट जान पड़ता है, तथापि तत्कालीन यूरोप ने इसे एक महान् खोज (great discovery) के रूप में लिया। इस विचार ने एडम और इनके द्वारा बाद की आर्थिक विचारधारा को बहुत प्रभावित किया। प्राकृतिक व्यवस्था का व्यावहारिक निष्कर्ष यह निकला कि व्यक्तियों और संस्थाओं को स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए। उनका तर्क था कि प्राकृतिक व्यवस्था सबसे लाभप्रद व्यवस्था है और प्रत्येक व्यक्ति इसको स्वयं प्राप्त कर सकता है। व्यक्तिगत कार्यों पर लगे सभी प्रतिबन्धों को हटा लीजिए और प्रत्येक को स्वहित में अपना मार्ग स्वयं चुनने दीजिये, इससे प्राकृतिक व्यवस्था स्वयं प्राप्त हो जायेगी। अत: व्यक्तिगत स्वतन्त्रता सबसे व्यावहारिक व लाभप्रद नीति है। “स्वतन्त्र छोड़ दो, अपना मार्ग स्वयं निश्चित करने दो” (Laissez faire, Laissez passer) के सिद्धान्त का उदय इसी विचार से हुआ। यह आर्थिक क्षेत्र में प्राइवेट साहस के पक्ष में एक प्रभावशाली नारा बन गया। इस प्रकार, निर्बाधावादी, उदारवादियों, एडम स्मिथ एवं उसके अनुयायियों के आध्यात्मिक पिता थे, जिनके हाथों में निर्बाधावादी सिद्धान्त 19वीं शताब्दी के विचार एवं नीतियों के निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले थे।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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