शिक्षाशास्त्र / Education

शिक्षा दर्शन का तात्पर्य | दर्शन और शिक्षा दर्शन में अन्तर | शिक्षा दर्शन का कार्य

शिक्षा दर्शन का तात्पर्य | दर्शन और शिक्षा दर्शन में अन्तर | शिक्षा दर्शन का कार्य | Meaning of education philosophy in Hindi | Difference between philosophy and education philosophy in Hindi | Work of education philosophy in Hindi

शिक्षा दर्शन का तात्पर्य

शिक्षा तथा दर्शन के तात्पर्य को जान लेने के बाद हमें शिक्षा- दर्शन के बारे में भी जानना जरूरी होता है। शिक्षा दर्शन (Philosophy of Education) शिक्षा और दर्शन का मिश्रण है। शिक्षा मनुष्य के अनुभव, ज्ञान और इन्हें प्राप्त करने की क्रिया है, दूसरे लोग इसे सीखना-सिखाना भी मानते हैं जिससे अनुभव ज्ञान मिलता है। इस प्रकार शिक्षा-दर्शन मनुष्य का वह दृष्टिकोण है जो सीखने-सिखाने अथवा अनुभव-ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया से सम्बन्धित प्रसंगों की विवेचना करता है और इनकी सभी समस्याओं का समाधान करता है। यह शिक्षा के क्षेत्र में दर्शन का प्रयोग कहा जाता है। प्रो० कनिंघम ने शिक्षा दर्शन के बारे में निम्नलिखित विचार दिया है-

“शिक्षा-दर्शन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का प्रयोग रूप में इन विचारधाराओं से बहुत सी समस्याओं के खोज-बीन के लिए निर्देशन लेता है।”

शिक्षा-दर्शन एवं शिक्षाशास्त्र का भी एक अंग हो गया है। शिक्षाशास्त्र एक ऐसा विषय है और मनुष्य को सीखने-सिखाने की किया का व्यवस्थित रूप से अध्ययन करता है। (education is a subject which studies systematically man’s learning-teaching process)। इस व्यवस्थित अध्ययन में मनुष्य सीखने-सिखाने के सम्बन्ध में निर्णयात्मक चिन्तन (decisive thinking) करता है और ऐसा चिन्तन वह जीवन के सन्दर्भ में करता है। अतएव शिक्षा दर्शन शिक्षाशास्त्र का चिन्तनात्मक एवं निर्णयात्मक अंश है। (Philosophy of education is therefore the reflective and decision-making part of education)। इसी रूप में इसका विकास आज हो रहा है। परन्तु जैसा प्रो० कनिंघम ने लिखा है कि वह दृष्टिकोण भी सामने रहता है अर्थात् विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं के सिद्धान्तों को ध्यान में रखा जाता है और उन्हीं की सहायता से सीखने-सिखाने की प्रक्रिया के प्रसंगों पर गूढ़ चिन्तन-मनन होता है और अन्ततोगत्वा एक निश्चित अभिवृत्ति बनाई जाती है जैसे शिक्षा के उद्देश्य या पाठ्यक्रम का निर्धारण शिक्षा दर्शन ही करता है।

दर्शन और शिक्षा दर्शन में अन्तर-

दर्शन और शिक्षा दर्शन दोनों अलग-अलग अध्ययन हैं। प्रो० रसेल के अनुसार “दर्शन अन्तिम प्रश्नों का आलोचनात्मक उत्तर देने का प्रयास है।” इससे स्पष्ट है कि दर्शन जीवन की जटिलताओं को स्पष्ट करता है, उनका समाधान करता है और मार्ग प्रशस्त करता है। दर्शन भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों पक्षदृष्टियों में मानवीय समस्याओं एवं रहस्यों की निर्णयात्मक खोज एवं निर्देशन है। दर्शन मनुष्य को सर्वोत्तम चिन्तन के लिए तैयार करता है ताकि वह अन्तिम सत्य तक पहुँच जावे।

शिक्षा-दर्शन से भिन्न है। चिन्तन दर्शन का मुख्य साधन है और शिक्षा के क्षेत्र में चिन्तन करके कुछ सत्यों की स्थापना करना ही शिक्षा दर्शन है। प्रो० कनिंघम ने लिखा है कि “शिक्षा-दर्शन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का प्रयोग है। ” प्रो० रॉस ने लिखा है कि “दर्शन और शिक्षा एक सिक्के के दो पहलू के- समान हैं।” वास्तव में शिक्षा-दर्शन एक सिक्के के दोनों पहलू हैं। शिक्षा क्रियाशील और दर्शन चिन्तनशील पहलू है। इस आधार पर शिक्षा दर्शन ज्ञान-अनुभव का क्रियाशील एवं चिन्तनशील रूप है। ज्ञान-अनुभव क्यों, कैसे, किस प्रकार का, कहाँ, किसके द्वारा प्राप्त हो यह निर्णय करना शिक्षा दर्शन ही है। अब स्पष्ट है कि दर्शन और शिक्षा दर्शन में कितना अन्तर है।

दर्शन और शिक्षा दर्शन दो अलग-अलग विषय हैं। दर्शन का क्षेत्र सामान्य जीवन के क्षेत्र में चिन्तन होता है। शिक्षा दर्शन शैक्षिक जीवन के क्षेत्र में व्यावहारिक चिन्तन कहा जा सकता है। प्रो० फिश्टे ने लिखा है कि “दर्शन के बिना शिक्षा की कला स्वतः पूर्ण स्पष्टता को कदापि प्राप्त नहीं कर सकेगा।” इस आधार पर दर्शन आधार है और शिक्षा- दर्शन उस आधार पर बनाया जाने वाला भवन है। दर्शन केवल खाका बना सकता है, निर्देशन करता है, शिक्षा दर्शन उसे स्पष्ट रूप प्रदान करता है। वास्तव में दर्शन और शिक्षा-दर्शन सामान्य एवं विशिष्ट चिन्तन है जो मानव जीवन को अपने सद्-पथ पर ले गएजाते हैं, विकासोन्मुख करते हैं तथा अन्तिम सत्य की प्राप्ति एवं अनुभूति कराते हैं।

भारतीय और पाश्चात्य दृष्टिकोण से ‘शिक्षा-दर्शन’ और ‘एजुकेशनल फिलॉसफी’ में अन्तर- दर्शन और फिलॉसफी के बीच कुछ अन्तर है। जो दृष्टिकोण भारतीय शब्द ‘दर्शन’ का है वह अंग्रेजी शब्द ‘फिलॉसफी’ का नहीं है। इसी आधार पर शिक्षा-दर्शन व एजूकेशनल फिलॉसफी के दृष्टिकोण में भी अन्तर दिखाई देता है जो निम्नलिखित है-

भारतीय दृष्टिकोण

  1. शिक्षा दर्शन का अभिप्राय दो प्रकार हैं:

(अ) प्राचीन और (ब) अर्वाचीन ।

इसका प्राचीन अभिप्राय है आत्मा के ज्ञान की शैक्षिक प्रणाली और अर्वाचीन अभिप्राय है शैक्षिक प्रक्रिया का सम्यक् ज्ञान ।

  1. शिक्षा दर्शन भारतीय दृष्टिकोण से सीमित पाया जाता है। शिक्षा का उद्देश्य ब्रह्मा की प्राप्ति या आत्मानुभूति रखा गया था। ब्रह्म को ही सर्वोच्च सत्ता स्वीकार किया गया था। आज भी भारतीय शिक्षा दर्शन एवं दार्शनिक का झुकाव इसी ओर है।
  2. भारतीय परिप्रेक्ष्य में शिक्षा दर्शन का विकास अत्यन्त कम हुआ है। भारतीय दर्शन का अपना कोई शिक्षा दर्शन अंग नहीं है। जो कुछ चिन्तन हुआ है या हो रहा है वह पाश्चात्य दृष्टिकोण को सामने रख कर हुआ है।
  3. भारतीय विचारको ने शिक्षाशास्त्र के संदर्भ में शिक्षा दर्शन पर नहीं दिया है। शिक्षाशास्त्र स्वयं एक अछूता और अर्द्ध विकसित अनुशासन या शास्त्र है। इसलिए शिक्षा दर्शन की भी कमी है।

पाश्चात्य दृष्टिकोण

  1. एजुकेशनल फिलॉसफी का भी दो अभिप्राय है :

(अ) शैक्षिक प्रक्रिया का अन्तिम ज्ञान।

(ब) शिक्षा का सिद्धान्तवाद। ये दोनों अभिप्राय आधुनिक परिप्रेक्ष्य में ही मिलते हैं।

  1. एजुकेशनल फिलॉसफी शिक्षा दर्शन की अपेक्षा अधिक व्यापक दृष्टिकोण रखता है। इसमें केवल शैक्षिक उद्देश्य पर ही बल नहीं बल्कि शैक्षि प्रक्रिया एवं उसके उत्पाद्य पर भी ध्यान दिया जाता है।
  2. एजुकेशनल फिलॉसफी का विकास काफी हो चुका है। शिक्षाशास्त्र के एक अंग के रूप में या दर्शन-शास्त्र के एक अंग के रूप में यह काफी आगे आ गया है।
  3. पाश्चात्य विचारकों ने शिक्षा शास्त्र पर अधिक विचार प्रकाशन किया है, तभी तो एजुकेशनल फिलॉसफी आगे-आगे बढ़ती जा रही है।

शिक्षा दर्शन का कार्य

शिक्षा-दर्शन का तात्पर्य स्पष्ट करने में हमें इसके कार्य की ओर भी अपनी दृष्टि डालनी चाहिए। इस सम्बन्ध में प्रो० शील्ड्स ने जो कुछ लिखा है वह विचारणीय है-

“शिक्षा दर्शन का कार्य शुद्ध दर्शन के द्वारा प्रतिपादित सत्यों एवं सिद्धान्तों की शैक्षिक प्रक्रिया के व्यावहारिक संचालन में प्रयोग करना है। यह दार्शनिक सत्य तथा छात्र के जीवन व आचरण के बीच सम्बन्ध को चेतना के क्षेत्र में लाने का प्रयत्न करता है तथा तर्कयुक्त सप्रयोजन और अधिक तात्कालिक और प्रभावकारी बनाता है, तथा शिक्षक को बहुमुखी सम्बन्धों के स्थापन में निर्देशन देने के लिए प्रयास करता है जो सम्बन्ध वह छात्रों को ज्ञान देने में, आद |के बनाने में और जीवन के प्रयोजनों तथा अर्थों के विषय में शक्ति तथा प्राप्त करने में निश्चित करता है।”

उपर्युक्त कथन से ज्ञात होता है कि शिक्षा दर्शन का मुख्य कार्य छात्र और अध्यापक दोनों को अपने जीवन और आचरण को अच्छा, प्रभावकारी, अन्तर्दृष्टिपूर्ण बनाने के लिए दार्शनिक सत्य प्रदान करना है, निर्देशन देना है, सचेतन एवं तर्कयुक्त ढंग से कार्य करने की क्षमता प्रदान करना है, तभी शिक्षा की सार्थकता पाई जाती है। शिक्षा दर्शन का कार्य इस प्रकार शिक्षा सम्बन्धी सभी समस्याओं पर छात्र एवं अध्यापक को विचार करने, निर्णय लेने, मार्ग-दर्शन प्राप्त करने तथा लक्ष्य सिद्ध करने में समर्थ बनाना होता है। (The function of philosophy of education is thus to make student and teacher capable to think about all problems of education, to take decision, to get guidance and attain the objectives.)

शिक्षाविदों ने शिक्षा दर्शन के तीन कार्य बताये हैं-(1) प्राक्कल्पनात्मक कार्य (Hypothical Function) जिसमें विभिन्न परिभाषाएँ दी जाती हैं और किसी प्रसंग में क्या होना चाहिए यह बताया जाता है। (2) नियामक कार्य (Constructive Function) जिसमें शिक्षा का पाठ्यक्रम, कार्यक्रम आदि तैयार किया जाता है। (3) समीक्षात्मक कार्य (Critical Function) जिसमें विभिन्न चीजों की विभिन्न दृष्टियों से आलोचना की जाती है और जो सही, उपयुक्त एवं शुद्ध होता है उसे ग्रहण किया जाता है। इससे स्पष्ट है कि शिक्षा-दर्शन शैक्षिक प्रसंगों की विवेचना, समीक्षा, यदि करता है और फलस्वरूप उसके बारे में निर्णय भी देता है कि वास्तव में क्या होना चाहिए। उदाहरण के लिए शिक्षा के कई उद्देश्य होते हैं और उनमें से किसे आज की परिस्थिति में निश्चित किया जाय यह बताना शिक्षा दर्शन का ही कार्य है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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