साहित्य के इतिहास संबंधी कुछ समस्याएँ | हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की समस्याएँ

साहित्य के इतिहास संबंधी कुछ समस्याएँ | हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की समस्याएँ

साहित्य के इतिहास संबंधी कुछ समस्याएँ

किसी भी भाषा के साहित्य के इतिहास का अध्ययन करते समय कई समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं, जैसे यदि किसी साहित्य का सर्वप्रथम और सर्वमान्य ग्रंथ उपलब्ध न हो, तो उस साहित्य का आरंभ कब से माना जाय? ऐसा होता है कि कुछ साहित्यकारों और उनके द्वारा रचित किसी ग्रंथ या ग्रथों का उल्लेख किसी प्राचीन साहित्यिक ग्रंथ में मिल जाता है और कुछ लोग उसी साहित्यकार अथवा उसके उसी उल्लिखित ग्रंथ या ग्रंथों से उस साहित्य का आरंभ घोषित कर देते हैं। इसके विपरीत, कुछ इतिहास लेखक, अपनी मान्यतानुसार किसी उपलब्ध साहित्यिक ग्रंथ को ही उस साहित्य का सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ मान, उस साहित्य का आरंभ उसी से मानने लगते हैं। इसके अतिरिक्त इतिहास लेखक कतिपय सर्वाधिक प्राचीन उपलब्ध ग्रंथों के आधार पर अनुमान द्वारा उस साहित्य का आरंभ उन ग्रंथों की रचना-शताब्दी से मानने लगते हैं। हिंदी -साहित्य का इतिहास लिखते समय विभिन्न विद्वानों ने उपर्युक्त प्रक्रियाओं का ही आधार ग्रहण किया है। हमें इन प्रक्रियाओं में से उपलब्ध सामग्री के आधार पर आरंभ मानने वाली पद्धति को ही अपना आधार मानना चाहिए। क्योंकि जब तक कोई उल्लिखित प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध ही न हो तो उसके बिना हम उस साहित्य के आदि स्वरूप का निर्धारण और विवेचन कैसे कर सकेंगे। इसलिए हमें उपलब्ध सामग्री को ही आधार बनाकर आगे बढ़ना पड़ेगा। इतिहास निराधार कल्पनाओं के बल पर आगे नहीं बढ़ता। डॉ0 बच्चन सिंह ने ठीक ही कहा है- “इतिहास लिखने का क्रम तब तक जारी रहेगा जब तक मानवीय सृष्टि रहेगी।” उसकी बौद्धिक चेतना निरंतर कुछ अच्छे प्रयास में लगी रहती है। यही कारण है कि हिंदी-साहित्य के इतिहास लेखन की समस्याएँ बनी हैं। उन समस्याओं के स्वरूप पर यहां पर विचार किया जाता है।

ज्ञान वाङ्मय भाव वाङ्मय का प्रश्न-

मोटे तौर से साहित्य का इतिहास साहित्येतर विषयों के इतिहास से भिन्न होता है। उसमें व्यक्ति के, शासकों के, सामंतों के, राज्यों के, परविारों के, युद्ध के, शांति के, दुःखों-कष्टों के, वैभव-विलासों के, अच्छाई-बुराइयों के वृत्त होते हैं, चित्र होते हैं। इसमें यानी साहित्य के इतिहास में उसका कोई मूल्य नहीं है। यों तो संपूर्ण वाङ्मय ही तर्क की दृष्टि से साहित्य के अंतर्गत आता है परंतु उसके दो वर्ण एकदम स्पष्ट हैं- ज्ञान वाङ्मय और भाववाङ्मय। वैद्यक, ज्योतिष, गणित, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, समाजशास्त्र सब ज्ञान वाङ्मय है। साहित्य की सृष्टि भावाङ्मय के अंतर्गत आती है। उसमें हृदय का संवाद होता है, जीवंतता होती है, रसात्मकता होती है, लोकोत्तरता होती है, जीवन और जगत् की दिशा-दृष्टि होती है, भविष्योन्मुखता होती है, सर्जनात्मकता होती है।

इन सब बातों पर विचार किये बिना यदि साहित्य का इतिहास लिखा जायेगा तो वह कविकृत संग्रह, युग तथ्य संग्रह, व्याख्या विवेचन संग्रह होगा। सही मायने में साहित्य का इतिहास नहीं होगा।

अपभ्रंश की स्वीकृति-अस्वीकृति की समस्या-

अपभ्रंश का प्रयोग बहुत समय तक हिंदी के सामानांतर चलता है। अवहट्ट और देशी भाषाओं के साहित्य के साथ अपभ्रंश की रचना होती रही है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपभ्रंश की प्रवृत्तियों का परिचय देते हुए उसकी परंपरा को संवत् 1400 तक तो माना ही है। यह दूसरी बात है कि उन्होंने उनको हिंदी के साथ मिलाकर ‘साहित्येतिहास मूल्यांकान’ की ओर रूचि नहीं दिखलाई। राहुल सांस्कृत्यायन सरह पाद की रचना अठावीं शताब्दी से ही मानते और साहित्येतिहास में उसको समाविष्ट करते हैं। डॉ0 शंभूनाथ सिंह ने तो कहा है कि अपभ्रंश कोई भाषा नहीं है। उधर गुलेरीजी अपभ्रंशको पुरानी हिंदी कहते हैं और विद्वानों ने माना है कि पुरानी अपभ्रंश संस्कृत प्राकृत से मिली है और पिछली अपभ्रंश पुरानी हिंदी से मिलती है। यहाँ यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि साहित्येतिहास का लेखक अपभ्रंश को अपनी रचना में स्थान दे या न दे। यदि हाँ तो प्राचीन अपभ्रंश की अथवा पिछली अपभ्रंश की। इसलिए साहित्येतिहास लेखन में यह समस्या बनी हुई है कि अपभ्रंश को स्वीकार करें या न करें?

फिर पृथ्वीराज रासों जैसी कृतियों में तो भाषा वैविध्य बहुत अधिक मिलता है। कोई उसे अपभ्रंश की रचना कहता है, कोई अपभ्रंश मिश्रित हिंदी की, कोई डिंगल, कोई राजस्थानी की।

उदाहरण के लिए एक छप्पय द्रष्टव्य है-

एक बान पुहवी नरेश कयमासह सुक्कउ।

उर उप्परि षरहरिउ बीर कष्षहत्तर चुक्कउ।।

बीउ वान संधानि – हनउ सोमेसुर नंदन।

गाडउ करि निग्गहउ षनिव षोदउ संभरि धनि।।

थर छंडि न जाई अभागरउ गारइ गहउ जु गुन परउ।

इजं धपइ चंद विरछिया सु कहा निमिट्टिहिं इह प्रलउ।।

मुनि जिनविजय के, पुरातन प्रबंध संग्रह में पृथ्वीराजरासो के चार छप्पय पाये गये थे, उसमें से यह एक है। इसे और इसके आधार पर रासों को अपभ्रंश की रचना मानते हैं। मथुरा प्रसाद दीक्षित इसमें प्राकृत अपभ्रंश का मेल मानते हैं। डॉ0 नामवर सिंह पृथ्वीराज रासों की भाषा को पंगल मानते हैं डॉ0 दशरथ शर्मा राजस्थानी डिंगल मानते हैं। डॉ0 मोती लाल गेनारिया मिश्रित भाषा मानते हैं।

साहित्येतिहास लेखन के सामने इस तरह किसी रचना को अपने इतिहास में समाविष्ट करने, या उसके अपभ्रंश होने के कारण हिंदी में लाने न लाने के बारे में समस्या उपस्थित हो जाती है। साहित्य के इतिहास लेखन की यह महती समस्या है।

खड़ी बोली और इतर भाषाओं के समावेश की समस्या-

हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन के समय यह एक प्रबल और प्रमुख समस्या है। हिंदी साहित्य के आरंभिक काल और मध्यकाल तक राजस्थानी, मैथिली, अवधी और व्रज भाषा के साहित्य का वर्चस्व देखने में आता है। चंदबरदाई, विद्यपति, जायसी, तुलसी, सूर की भाषाएँ क्रमशः ये ही थीं। इनमें से कभी किसी भाषा की प्रधानता रही, किसी किसी की। उसके राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक कारण मूल में हो सकते हैं लेकिन अपभ्रंश को छोड़ती हुई अपना रूप बदलती हुई ये बोलियाँ या उपभाषाएँ भाषा रूप में प्रतिष्ठित होती रहीं। उनका इतिहास भी आदिकाल तक बिना किसी सोच के लिखा जाता रहा, समझा जाता रहा । आधुनिक काल में आकार खड़ी बोली की प्रतिष्ठा हो गई। आधुनिक काल में कविता हो चाहे गद्य की कोई विधा हो- कहानी, नाटक, उपन्यास निबंध हो, सबकी भाषा खड़ी बोली है। ऐसी स्थिति में भिन्न-भिन्न प्रदेश के लोगों की जो मातृ भाषाएँ हैं, जैसे- अवधी, भोजपुरी, व्रज आदि उनका प्रचार बंद तो नहीं हो गया है। वहाँ अधिकांश जनता अपनी भाषा बोलती है। उसका साहित्य भी होता है, परंतु हिंदी साहित्य में उसका आधुनिक काल की खड़ी बोली के प्रसंग में नाम नहीं लिया जाता। उसको ध्यान में रखकर ही साहित्य के आधुनिक काल का इतिहास लिखा जाना चाहिए। यह एक ज्वलंत समस्या है। हिंदी के अनेक विद्वानों का ध्यान इतिहास लेखन की इस समस्या पर गया है। शिवदान सिंह चौहान ने अपनी रचना ‘हिंदी साहित्य के अस्सी वर्ष में इस प्रश्न को उठाया है और कहा है कि क्या खड़ी बोली ही सदैव विकास के शीर्ष पर रहेगी। इस संबंध में वे अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं- “क्या मनुष्य का इतिहास अपने विकास के अंतिम चरण में पहुंचकर परिवर्तन का नियम भी झुठला बैठता है? क्या राजस्थान के लोग आज भी, राजस्थानी नहीं बोलते? क्या ब्रजवासी अपनी मातृभाषा को छोड़ बैठे हैं या बिहार की जनता मैथिली, भोजपुरी को भूल गई है? यदि यह सत्य है कि इस क्षेत्र की विभिन्न भाषाओं के निन्यानबे फीसदी बोलने वाले आज भी अपनी- अपनी मातृभाषाओं को ही बोलते हैं, तो कल उनमें कोई दूसरा चंद, सूर, तुलसी या विद्यापति पैदा होकर हमारे इतिहासकारों के इतने यत्न और अध्यवसाय से तेयार किये गोरख धंधे को छिन्न-भिन्न नहीं कर डालेगा, इसकी संभावना से कैसे इंकार किया जा सकता है।”

इस प्रकार अनेक प्रश्न ऐसे हैं जो हिंदी साहित्य के इतिहास को लिखने के संदर्भ में उठाये जाते हैं। विद्वानों की मान्यता है कि विभिन्न भाषाओं के साहित्य का अनुसंधान करके ऐसा वृहद् इतिहास बनाया जाय जिससे हिंदी-उर्दू के साथ-साथ “उत्तर-मध्य भारत की इन सभी भाषाओं का सम्मिलित इतिहास हो।”

हिंदी के साथ उर्दू के रखने की समस्या-

हिंदी के साथ उर्दू के साहित्य को रखना की एक समस्या है। कुछ विद्वानों ने तर्क दिये हैं कि हिंदी की यह एक शैली है। जिस भाषा में अरबी-फारसी के शब्द मिले हुए हों और हिंदी क्रिया पदों या शब्दों से युक्त हो उसे उर्दू ए मुअल्ला कहा जाता रहा था, परंतु दोनों भाषाओं की परंपरा में अंतर होने से बहुत से विद्वान् हिंदी के इतिहास के साथ समावेश करना ठीक नहीं समझते। इस संबंध में डॉ. नगेंद्र ने कहा है-

“उर्दू का हिंदी साहित्य में अंतर्भाव करना उचित नहीं है- प्रसाद और इकबाल को एक ही भाषा के कवि मानना संगत नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि दोनों में कुछ तत्त्व समान हैं परंतु असमान तत्त्व कहीं अधिक हैं। अतः हिंदी साहित्य के इतिहास में उर्दू के समावेश का प्रयास करना व्यर्थ है।”

हिन्दी – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: sarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *