अर्थशास्त्र / Economics

सामाजिक कल्याण के विभिन्न मानदण्ड | राष्ट्रीय आय मानदण्ड | उपयोगितावादी मानदण्ड | संख्यावाचक मानदण्ड

सामाजिक कल्याण के विभिन्न मानदण्ड | राष्ट्रीय आय मानदण्ड | उपयोगितावादी मानदण्ड | संख्यावाचक मानदण्ड

सामाजिक कल्याण के विभिन्न मानदण्ड

सामाजिक कल्याण की निम्नलिखित कसौटियों को विस्तार से समझाइए।

(क) राष्ट्रीय आय कसौटी (मानदण्ड)

(ख) उपयोगितावादी कसौटी (मानदण्ड)

(ग) संख्यावाचक कसौटी (मानदण्ड)

कल्याणवादी अर्थशास्त्र का सम्बन्ध समाज के कल्याण के दृष्टिकोण से वैकल्पिक आर्थिक दशाओं के मूल्यांकन से है। इस सामाजिक कल्याण के मापन हेतु अनेक मानदण्डों की चर्चा की गई है। इनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं-

(A) राष्ट्रीय आय मानदण्ड (National Income Criteria)

एडम स्मिथ ने यह स्वीकर किया था कि समाज के धन में संवृद्धि स्वतः एक-एक कल्याण का मानदण्ड है अर्थात् राष्ट्र का सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) वस्तुतः कल्याण का आधार है एवं इसमें होने वाली वृद्धि कल्याण का स्पष्ट मानदण्ड बन सकती है। उनके अनुसार आर्थिक संवृद्धि के परिणामस्वरूप सामाजिक कल्याण में वृद्धि होना आवश्यक है क्योंकि संवृद्धि के परिणाम- स्वरूप रोजगार में वृद्धि होती है तथा राष्ट्र में उत्पादन के माध्यम से उपयोग के लिए वस्तुएँ एवं सेवाएँ उपलब्ध होती हैं। राष्ट्रीय आय पर आधारित यह मानदण्ड सामाजिक कल्याण में दक्षता के महत्त्व को निर्दिष्ट करता है। अन्य शब्दों में सामाजिक कल्याण वस्तुओं एवं सेवाओं की मात्रा एवं वितरण पर आधारित होता है ठीक उसी प्रकार ‘दक्षता’ पर सामाजिक कल्याण का महत्तमीकरण आश्रित होता है। यद्यपि सामाजिक कल्याण के महत्तमीकरण के लिए दक्षता एक आवश्यक शर्त अवश्य है परन्तु यह इस महत्तमीकरण की कोई गारन्टी का सूचक नहीं होती। अतः राष्ट्रीय आय मानदण्ड के अन्तर्गत यह उल्लेखनीय है कि न केवल राष्ट्रीय आय का आकार ही महत्त्वपूर्ण है अपितु इसके आकार के परिवर्तन की दर सामाजिक कल्याण की अधिक सही कसौटी है तथा इस कसौटी के परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय दक्षता एक अभीष्ट मानदण्ड सिद्ध होती है।

(B) उपयोगितावादी मानदण्ड (The Hedonists Criteria)

उपयोगितावादी विचारधारा का अन्तिम साध्य उपभोक्ता की सन्तुष्टि माना जाता है अतः इन सन्तुष्टिवादी अथवा उपयोगितावादी अर्थशास्त्रियों ने सामाजिक कल्याण का सम्बन्ध समाज के सन्तुष्टि एवं सुख के आधार पर मापना अधिक उचित समझा। इस सुख एवं सन्तुष्टि को जे० बेन्थम ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है।

“Greatest good (is reeived) for the greatest number”

इस प्रकार उक्त कथन के आधार पर यह माना गया कि समाज का कुल कल्याण समाज के सभी व्यक्तियों की प्राप्त उपयोगिताओं के योग के बराबर होगा। इस मानदण्ड को समीकरणात्मक रूप में बेन्थम ने प्रस्तुत किया है-

W=UA+UB+lU

उनके अनुसार- ∆W>O यदि (∆UA+∆UB+∆UC)>O

इसका अभिप्राय यह है कि राष्ट्र के सामाजिक कल्याण स्तर में परिवर्तन सदैव धनात्मक होंगे तथा इनका मान शून्य से अधिक होना चाहिए। ऐसी मान्यता के साथ यह स्वत: परिकल्पनीय है कि यदि राष्ट्र का सामाजिक कल्याण स्तर उठेगा तो स्वभावत: A, B,C सभी व्यक्तियों की उपयोगिताओं के स्तर में समूची वृद्धि होनी चाहिए परन्तु इसके विपरीत यदि A तथा B की उपयोगिताओं में वृद्धि हुई हो परन्तु C की उपयोगिता स्तर में ह्रास हुआ हो तथा अन्य शब्दों में समाज के कुछ वर्ग समुन्नत हुए हों तथा कुछ वर्ग अवनत हुए हों तो कल्याण का मानदण्ड भी सत्यापित हो सकता है जबकि समुन्नत वर्ग (better of section) को प्राप्त उपयोगिता अवनत वर्ग (worse of section) की अनुपयोगिताओं से अधिक हो। इस परिप्रेक्ष्य में बेन्थम ने ये भी उल्लेख किया है कि सामाजिक कल्याण फलन में समुन्नत एवं अवनत वर्ग की सापेक्षिक योग्यता का मूल्यांकन भी किया जाना आवश्यक है।

बेन्थम द्वारा प्रस्तुत इस मानदण्ड में अन्तर पारस्परिक तुलना की एक महत्त्वपूर्ण समस्या इसलिए उत्पन्न होती है क्योंकि उपयोगिता मापनीय नहीं है तथा अधिकतम कल्याण का सम्बन्ध उत्पादन से है तथा अधिकांश व्यक्तियों का सम्बन्ध वितरण प्रणाली से है। इस प्रकार उत्पादन तथा वितरण दोनों के सुरक्षित होने पर ही सामाजिक कल्याण का समुन्नयन सम्भव है।

(C) संख्यावाचक मानदण्ड (The cardinal criteria)

अनेक संख्यावाचक अर्थशास्त्रियों ने सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम को सामाजिक कल्याण का मानदण्ड माना है। उनके अनुसार उदाहरण के लिए समाज में यदि तीन व्यक्ति A, B,C हों तथा उनकी आय क्रमश: 10000, 5000, 5000 रु० हो तो Aउपभोक्ता B अथवा C उपभोक्ता से दूनी मात्रा का क्रय कर सकता है परन्तु सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम के अनुसार A को प्राप्त कुल उपयोगिता B तथा C को प्राप्त कुल उपयोगिता के दुगने से कम होगी क्योंकि A की मुद्रा की सीमान्त उपयोगिता B अथवा C की मुद्रा की सीमान्त उपयोगिता से कम होगी अतः इस वितरण प्रणाली के परिणामस्वरूप सामाजिक कल्याण स्तर में वृद्धि करने हेतु आय का वितरण समान होना आवश्यक है जिससे कि सामाजिक कल्याण अधिकतम हो सके।

संख्यावाचक उपागम की एक प्रमुख आलोचना यह है कि इसके अन्तर्गत सभी व्यक्तियों का मुद्रा सम्बन्धी उपयोगिता फल समरूप मान लिया गया है जिससे कि आय के समान वितरण होने पर सभी व्यक्तियों की मुद्रा सम्बन्धी सीमान्त उपयोगिता समान होगी। वस्तुतः ऐसा सम्भव है कि ये उपयोगिता फलन धनी और निर्धन वर्ग में पृथक्-पृथक् विद्यमान हो जिसके परिणामस्वरूप धन का समान वितरण समाज के कल्याण स्तर को गिरा सकता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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