जीवन चक्र सिद्धान्त | नेतृत्व अनवरत उपागम या सांतत्यक उपागम | बूम तथा येटन द्वारा प्रयुक्त नेतृत्व शैली | नेतृत्व के जीवन चक्र सिद्धान्त का वर्णन
जीवन चक्र सिद्धान्त | नेतृत्व अनवरत उपागम या सांतत्यक उपागम | बूम तथा येटन द्वारा प्रयुक्त नेतृत्व शैली | नेतृत्व के जीवन चक्र सिद्धान्त का वर्णन | Life cycle theory in Hindi | Leadership Continuous Approach or Continuum Approach in Hindi | Leadership styles used by Boom and Yetton in Hindi | Description of the life cycle theory of leadership in Hindi
जीवन चक्र सिद्धान्त
(Life Cycle Theory)
पाल हर्से तथा ब्लेंचर्ड द्वारा प्रतिपादित यह विचारधारा नेतृत्व की शैली का सम्बन्ध उसके अनुयायियों की परिपक्वता से जोड़ती है। इस विचारधारा के अनुसार, नेतृत्व के किसी भी स्वरूप में अनुयायी ही सर्वाधिक प्रभावकारी तत्व होते हैं। ऐसा इसलिये नहीं है कि वे व्यक्तिगत रूप से नेता को स्वीकार या अस्वीकार करते हैं, अपितु उन्हीं के द्वारा निर्मित समूह के माध्यम से यह निर्धारित होता है कि नेता के पास कौन सी वैयक्तिक शक्ति है। इन विचारकों के अनुसार, अनुयायियों की परिपक्वता का स्तर जैसे-जैसे ऊँचा उठता है, वैसे-वैसे नेता को कम कार्य करने के लिये अपेक्षा नहीं होती है अपितु उसे अपने अनुयायियों को सामाजिक और सापेक्षिक आलम्बन देने की भी कम आवश्यकता पड़ने लगती है। इस विचारधारा में परिपक्वता से आशय शिक्षा और अनुभव सम्बन्धी कार्यों और जिम्मेदारियों को वहन की इच्छा और योग्यता से लिया गया है। परिपक्वता में वृद्धि के साथ व्यक्ति दूसरों पर आश्रित न रहकर अपने बल पर खड़ा होने लगता है।
हर्से तथा ब्लेंचर्ड का मत है कि जैसे-जैसे अनुयायियों की परिपक्वता बढ़ती है, नेता को अधिक सम्बन्ध अभिमुखी व्यवहार तथा निम्न कार्य -अभिमुखी व्यवहार का प्रयोग करना चाहिये जब तक कि परिपक्वता मध्यम स्तर (Moderate Level) तक नहीं पहुँच जाती है। इस बिन्दु पर नेता को अपने कार्य एवं सम्बन्ध अभिमुखी व्यवहार में कमी करनी चाहिये, क्योंकि सामान्य से अधिक परिपक्वता वाले लोगों को निम्न कार्य और निम्न सम्बन्ध की शैली के माध्यम से अधिकाधिक सफलता प्राप्ति की सम्भावना हो जाती है।
सार रूप में, जीवन चक्र विचारधारा इस बात पर बल देती है कि ऐसे लोगों को जिनकी परिपक्वता सामान्य स्तर से कम है, उच्च कार्य शैली के द्वारा सफलता प्राप्ति की अधिक सम्भावना रहती है, किन्तु सामान्य परिपक्वता लोगों की सफलता हेतु उच्च कार्य उच्च सम्बन्ध तथा उच्च सम्बन्ध और निम्न कार्य के द्वारा अधिक परिपक्व व्यक्तियों को निम्न कार्य तथा निम्न सम्बन्ध की शैली के माध्यम से अधिकाधिक सफलता प्राप्ति की सम्भावना हो जाती है।
नेतृत्व अनवरत उपागम या सांतत्यक उपागम
(Continuum Approach of Leadership)
नेतृत्व की इस शैली का विकास टेननबाम तथा शिमिट (Tannenbaum and Schmidt) के द्वारा किया गया है जिन्होंने नेतृत्व को एक शाश्वत क्रम की विचारधारा के रूप में व्यक्त किया है। इन्होंने नेतृत्व की विभिन्न शैलियों को परिपूर्ण बताया है जो अत्यधिक ‘अधिकारी- केन्द्रित’ से लेकर ‘अधीनस्थ-केन्द्रित’ तक बिखरी हुयी है तथा जो एक नेता या प्रबन्ध द्वारा अधीनस्थों को दिये गये अधिकारों की मात्रा में परिवर्तन को बतलाती है। अनवरत प्रक्रिया के एक छोर पर नेता को निर्णय करने की पूरी स्वतन्त्रता होती है, जबकि दूसरे छोर पर अधीनस्थ समूह को यह अधिकार प्राप्त रहता है। बीच में दोनों ही पक्षों को समान स्वतन्त्रता प्राप्त रहती है। नेतृत्व की शैली का चुनाव परिस्थितियों पर आधारित होता है। अन्य शब्दों में, उपर्युक्त सात शैलियों में किस शैली का चयन किया जाये, निम्न तीन घटकों पर निर्भर करता है।
(i) प्रबन्धक में निहित शक्ति (Force in the Manager),
(ii) अधीनस्थों में निहित शक्ति (Force in the Subordinate),
(iii) परिस्थितियों में निहित शक्ति (Force in the Situation),
प्रबन्धक में निहित शक्ति में उसके व्यक्तित्व तथा मूल्य व्यवस्था, अधीनस्थों में विश्वास, नेतृत्व शैलियों के प्रति प्रबुद्धता तथा अनिश्चित स्थितियों में सुरक्षा की अनुभूति का समावेश होता है। अधीनस्थों में निहित शक्ति में उन मनोवैज्ञानिक घटकों एवं वास्तविक चातुर्य को सम्मिलित किया जाता है। जो प्रबन्धक के प्रभाव को प्रभावित करती हैं। परिस्थिति में निहित शक्ति में संगठनात्मक मूल्य एवं परम्पराओं, अधीनस्थों की एक जुट होकर कार्य करने की प्रभावशीलता, समस्या की प्रकृति तथा उससे निपटने के लिये प्रदत्त शक्ति को सुरक्षापूर्ण सौंपे जाने की व्यवस्था तथा समय का दबाव सम्मिलित है।
टेननबाम तथा शिमिट का मत है कि किसी विशेष नेतृत्व की प्रभावशीलता परिस्थितियों पर निर्भर करती है। नेतृत्व की प्रभावहीनता का निर्धारण किसी एक कारक के द्वारा नहीं होता है, वरन् यह कई कारकों के सम्मिलित प्रभाव के द्वारा निर्धारित होता है जो एक विशेष समय में नेतृत्व सम्बन्धी कार्य वातावरण में क्रियाशील रहती है। इस प्रकार नेतृत्व के सम्बन्ध में एक व्यापक उपागम अपनाने की आवश्यकता होती है।
बूम तथा येटन द्वारा प्रयुक्त नेतृत्व शैली
(Vroom and Yetton Style)
बूम तथा जागो (Jago) ने अपने नवीनतम शोध द्वारा पथ लक्ष्य विचारधारा की यह कहकर आलोचना की है कि इसमें निर्णय परिस्थितियों का समावेश नहीं किया गया है जिससे भीतर अधीनस्थों की सहभागिता हो सकती है। ब्लेक और माउण्ट, रेडीन तथा लिकर्ट आदि विद्वानों ने भी इस तथ्य का तो अवश्य प्रतिपादन किया है कि नेतृत्व की शैली पर कार्य वातावरण का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है, किन्तु इन विचारकों ने इस तथ्य का स्पष्ट रूप से निरूपण नहीं किया है कि किसी स्थिति या कार्य वातावरण में प्रबन्धक को किस प्रकार का निर्णय लेना चाहिये। इस अभाव की पूर्ति हेतु ब्रूम तथा येटन ने एक ऐसे मॉडल का विकास किया है जो प्रबन्धकों को यह निश्चित करने में मदद करता है कि उन्हें कब तथा किस सीमा तक एक समस्या के समाधान में, निर्णय की गुणवत्ता एवं प्रतिबद्धता को सम्मिलित करते हुये अधीनस्थों को सम्मिलित करना चाहिये।
ब्रूम-येटन मॉडल में नेतृत्व की पाँच शैलियों को प्रतिबिम्बित किया गया है, जो एक अनवरत् दृष्टिकोण (तानाशाही ए-1, ए-II) से परामर्शदात्री दृष्टिकोण (सी-1, सी-II से पूर्ण सहभागिता दृष्टिकोण तक जी-II) का प्रतिनिधित्व करती है।
ब्रूमं येटन मॉडल में उपर्युक्त पाँच नेतृत्व शैलियों के अतिरिक्त 7 स्थितिजन्य चल (Variables), 14 समस्याओं के प्रकार तथा सात निर्णय सम्बन्धी विषय सम्मिलित हैं। नेतृत्व शैली में अधिकारवादी, परामर्शवादी एवं सहभाजन शैलियाँ सम्मिलित हैं। परिस्थितिजन्य चर मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं- (1) वह पद्धति जिसके माध्यम से समस्या के गुणात्मक पक्ष एवं उसकी स्वीकृति का स्वरूप प्रभावित होता है। (2) वह पद्धति जिसके माध्यम से कोई समस्या सहभाजन की सीमा को प्रभावित करती है। सात स्थितिजन्य या कार्य परिवेशजन्य चर ‘हाँ’ और ‘नहीं’ के तरह प्रश्नों से सम्बन्धित होते हैं और उनके उत्तर के आधार पर नेता के हेतु उपर्युक्त कार्य स्थिति या परिवेश का निदान हो जाता है।
समस्या की प्रकृति पर निर्भर करते हुये, बूम तथा येटन का मत है कि एक से अधिक नेतृत्व शैली ‘ उपयुक्त’ या ‘व्यावहारिक’ (Feasible) हो सकती है। उन्होंने इन उपयुक्त समूहों को विकल्पों का व्यावसायिक समूह (Feasible set of alternatives) की संज्ञा दी है। इनके अनुसार, जहाँ व्यावसायिक चयन सम्भव है, वहाँ प्रबन्धक इनमें से किसी का भी स्वतन्त्रतापूर्वक चयन कर सकता है, क्योंकि निर्णय गुणवत्ता तथा स्वीकृति दोनों को मध्यनजर रखा गया है। व्यावसायिक समूहों में से चयन हेतु मार्गदर्शक तत्वों के रूप में इन्होंने दो पटक सुझाये हैं-
(1) जब निर्णय तुरन्त लिया जाता है या समय बचाना आवश्यक है, तो प्रबन्धक को अधिकारवादी निर्णय शैली का प्रयोग करना चाहिये।
(2) जब प्रबन्धक अपने अधीनस्थों के ज्ञान एवं निर्णय चातुर्य का विकास करना चाहते हैं तो सहभागिता शैली का चयन किया जाना चाहिये।
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