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ध्वनि-काव्य के प्रमुख भेद/प्रकार | आचार्य मम्मट के आधार पर ध्वनि- काव्य के भेद

ध्वनि-काव्य के प्रमुख भेद/प्रकार | आचार्य मम्मट के आधार पर ध्वनि- काव्य के भेद

ध्वनि-काव्य के प्रमुख भेद/प्रकार

‘ध्वन्यालोक’ की रचना आचार्य आनन्दवर्धन ने की है। इस पर अनेक टीकाओं की रचना हुई है, परन्तु सबसे प्रथम एवं सर्वोत्तम टीका आचार्य अभिनवगुप्त की’ ‘लोचन’ है। आचार्य आनन्दवर्धन ने ‘ध्वन्यालोक’ के प्रथम प्रयोग में ध्वनि की परिभाषा और ध्वनि-विरोधी मतों का खण्डन विस्तार से दिया है। इसके बाद ध्वनि के भेदों पर इस प्रकार प्रकाश डाला गया है-

अस्ति ध्वनि …. विवक्षित वाच्यो विवक्षितान्य परवाच्यो विवक्षितान्य परवाच्यश्चेति द्विविधः सामान्येन।’

(ध्वनि के अस्तिल को सिद्ध करके ध्वनिकार उसके दो मुख्य भेदों को प्रदर्शित करते हैं-

ध्वनि का अस्तित्व है और वह सामान्य रूप से अविवक्षित वाच्य और विवक्षितान्य परवाच्य भेद से दो प्रकार की है।)

इस विषय में डॉ. कृष्णकुमार का कहना है-

‘ध्वनिकार ने ध्वनि के प्रथम दो भेद दिखाये हैं-

(1) अविवक्षित वाच्य- लक्षणामूला ध्वनि ही अविवक्षित वाच्य ध्वनि है। अविवक्षितः वाच्यः मुख्यार्थः यस्य सः’ जिसमें वाच्य अर्थ की विवक्षा नहीं होती। मुख्य वाच्य अर्थ के बाधित होने से इसमें लक्षय अर्थ विवक्षित होता है, अतः इसको लक्षणामूला भी कहते हैं। इसके सम्बन्ध में आचार्य मम्मट का कथन है-

‘लक्षणामूल गूढ व्यंग्य प्रधान्ये सत्येन अविवक्षित वाच्यं यत्र स ध्वनौ इत्यनुबादाद् ध्वनिरीति ज्ञेय ।’

(लक्षणामूला गूढ व्यंग्य की प्रधानता होने पर भी जहाँ पर वाच्य अविवक्षित रहता है वह (अविवक्षित वाच्य ध्वनि है।) ध्वनौ’ शब्द के द्वारा अनुवाद से ध्वनिः (प्रथमान्त पद का अध्याहार कर लेना चाहिए ।)

(2) विवक्षितान्य परवाच्य- अभिधामूला ध्वनि को विवक्षितान्य परवाच्य ध्वनि कहते हैं— ‘विविक्षतम अन्यपरं व्यंग्यनिष्ठं च वाच्यं मंत्र सः ।’ (जहाँ वाच्य अर्थ विवक्षित होने पर भी व्यंग्य अर्थ के प्रति निष्ठा होती है । वह विवक्षितान्य परवाच्य ध्वनि है।)

इनमें पहले का अर्थात् अविक्षित वाच्य ध्वनि का उदाहरण इस प्रकार है-

सुवर्णपुष्पां पृथिवीं चिन्वन्ति पुरुषास्त्रयः।

शूरक्ष कृत विधश्च पश्य जानाति सेवितुम ॥

(सुवर्णरूपी पुष्पों वाली पृथ्वी का चयन तीन प्रकार के पुरुष करते हैं। पहला शर, दूसरा विद्वान् और तीसरा वह जो उसकी सेवा करना जानता हो।)

इसकी व्याख्या करते हुए डॉ. कृष्णकुमार ने लिखा है-

‘इस श्लोक में पृथिवी न तो कोई लता है और न ही इसमें पुष्प विकसित होते हैं, जिनका कि चयन किया जाता हो। अतः इसका वाच्य अर्थसंगत न होने से मुख्यार्थ बाधा उपस्थित होती है। अभिधा व्यापार के संगत न होने से लक्षणा का प्रयोग करना पड़ता है। लक्षणा द्वारा सुवर्णपुष्पा का अर्थ ‘विपुल धन’ और चयन का अर्थ ‘समृद्धि का अनायास उपार्जन’, लक्ष्य अर्थ होंगे। इस लक्षणा का प्रयोजन होगा-शूर, कृतविद्य और सेवा में विलक्षण पुरुषों का प्राशस्त्य अर्थात् प्रशंसा। यह प्रयोजक-व्यंजक अर्थ है जो कि स्वपद वाच्य न होकर सुन्दर नायिका के कुचकलश के समान सौन्दर्यातिशय से सम्पन्न होता है । इस प्रकार लक्षणामूला होने के कारण यह अविवक्षित वाच्य ध्वनि है। इस पद्य की व्याख्या में अभिधा, लक्षणा, तात्पर्या और व्यंजना- ये चारों वृत्तियाँ कार्य करती हैं। जहाँ मुख्य रूप से शब्द व्यंजक है तथा सहकारी रूप से अर्थ भी व्यंजक है।

ध्वनि-काव्य के भेद

‘काव्य-प्रकाश’ के रचयिता आचार्य मम्मट ने ध्वनि-काव्य के भेदों का वर्णन इस प्रकार किया शहै-

  1. अविवक्षितं वाच्य-

अविवक्षित वाच्यो यस्तत्र वाच्यं भवेत् ध्वनौ।

अर्थान्तरे संक्रमितमत्यन्तम् वा तिरस्कृतम् ॥

(अविवक्षित वाच्य अर्थात् लक्षणामूलक जो ध्वनि-काव्य है, उसमें ध्वनि में वाच्य या तो अर्थान्तर में संक्रमित हो जाता है अथवा अत्यन्त तिरस्कृत हो जाता है।)

आचार्य मम्मट ने अपनी इस कारिका पर स्वयं वृत्ति की रचना करते हुए इसका भाव इन शब्दों में स्पष्ट किया है-

‘लक्षणामूल के गूढव्यंग्य प्राचीन्ये सत्येव अग्विक्षितम् वाच्यं यत्र स ध्वनौ इत्यनुवादात् ध्वनिरीतिज्ञेयः। तत्र च वाच्यं ववचिदनपयजमानत्वा दन्तर परिणमितम् ।’

(लक्षणामूलक गूढ व्यंग्य की प्रधानता होने पर ही जहाँ वाच्य अविवक्षित अर्थात् बिना कहा हुआ रहता है, वहाँ अविवक्षित वाच्य ध्वनि है। ‘ध्वनौ’ इस सप्तम्यन्त पद के द्वारा अनुवाद करने से ध्वनि (प्रथमान्त पद, प्रथमा विभक्ति वाला पद) का अध्याहार कर लेना चाहिए। वहाँ पर अविवक्षित वाच्य ध्वनि में वाच्य कहीं पर अनुपयुक्त होने से अर्थान्तर में परिणित हो जाता है, अर्थात् बदल जाता है।)

वास्तविकता यह है कि ध्वनि-काव्य के दो भेद होते हैं-

(1) लक्षणामूलक ध्वनि और

(2) अभिधा मूलक ध्वनि।

इनमें लक्षणामूलक ध्वनि-काव्य को अविवक्षित वाच्य ध्वनि-काव्य कहा जाता है और अभिधामूलक ध्वनि-काव्य को विवक्षितान्य परवाच्य ध्वनि-काव्य कहा जाता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि अविवक्षित वाच्य ध्वनि-काव्य ही लक्षणामूलक ध्वनि-काव्य है। इसमें वाच्य अर्थ अविवक्षित होता है। अर्थात् उसे कहने की इच्छा नहीं रहती है।

विवक्षित वाच्य ध्वनि-काव्य को अभिधामूलक ध्वनि-काव्य कहा जाता है। इसमें वाच्य अर्थ विवक्षित होता है। इस प्रकार ध्वनि-काव्य के दो भेद बताये गये हैं। उनमें प्रयोग किया गया विवक्षित पद साभिप्राय अर्थात् अभिप्रायसहित है। विवक्षित शब्द का अभिप्राय अर्थात् अर्थ है- तात्पर्य या प्रयोजन ।

  1. विवक्षित वाच्य ध्वनि अथवा अभिधामूलक ध्वनिकाव्य-

आचार्य मम्मट ने ध्वनिकाव्य के दूसरे भेद विवक्षित वाच्य का लक्षण इस प्रकार प्रस्तुत किया है –

विवक्षितं चान्यपरं वाच्यं यथापरस्तु सः।

अन्य परं व्यंग्यं निष्ठम्। एष च-

कोऽप्यसंलक्ष्यक्रमव्यंग्यो लक्ष्यव्यंग्यक्रमः परः।

(जहाँ पर वाच्यार्थ विवक्षित होता हुआ भी व्यंग्यनिष्ट होता है, वहाँ काव्य का विवक्षित वाच्य ध्वनि नाम का दूसरा भेद होता है।)

अन्य पद व्यंग्यनिष्ठ है और यह है-

अर्थात् विवक्षित वाच्य-ध्वनि एक असेलक्ष्य क्रम-व्यंग्य-ध्वनि और दूसरा संलक्ष्य क्रम व्यग्य होता है। आचार्य मम्मट ने वृत्ति में इसका विवरण देते हुए लिखा है-

अलक्ष्येति न खलु विभावानुभाव व्यभिचारिणः एव रस, अपितु रसस्तैरित्यसति क्रमः। स तु लाघवानन लक्ष्यते।

(अलक्ष्य पद से सूचित होता है कि विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव ही रस नहीं है, अपितु उनसे अर्थात् विभाव आदि से रस अभिव्यक्त होता है, इसलिए क्रम तो है, पर शीघ्रता के कारण वह परिलक्षित नहीं होता।)

संलक्ष्य क्रम व्यंग्य ध्वनि-काव्य- ‘काव्यप्रकाश’ के रचयिता आचार्य मम्मट ने ध्वनि- काव्य के दो भेद बताये हैं—अविवक्षित वाच्य ध्वनि और विवक्षिततान्य परवाच्य ध्वनि। इनमें अविवक्षित वाच्य ध्वनि को लक्षणामूलक ध्वनि कहते हैं और विवक्षितान्य परवाच्य ध्वनि को अभिधामूलक ध्वनि कहते हैं। अविवक्षित वाच्य ध्वनि के दो भेद होते हैं—अर्थान्तर संक्रमित वाच्य और अत्यन्त तिरस्कृत बाच्य। विवाक्षितान्य परवाच्य ध्वनि के भी दो भेद हैं-असंलक्ष्य क्रम व्यंग्य ध्वनि और संलक्ष्य क्रम व्यंग्य ध्वनि। इनमें असंलक्ष्य क्रम व्यंग्य को रसादि ध्वनि भी कहते हैं। असंलक्ष्य क्रम व्यंग्य ध्वनि के विवेचन के पश्चात् संलक्ष्य क्रम व्यंग्य ध्वनि का निरूपण प्रस्तुत है –

अनुस्वानाम संलक्ष्य क्रम व्यंग्य स्थितिस्तु यः।

शब्दार्थों भय शक्तुत्यस्त्रिधा स कथितो ध्वनिः ॥

(अनुस्वानाम संलक्ष्य क्रम व्यंग्य नामक जो ध्वनि है, वह शब्द शक्त्ययुत्थ, अर्थ शक्तयुत्य और उभय शक्त्युत्थ भेद से तीन प्रकार की होती है।)

इसकी वृत्ति की रचना करते हुए आचार्य मम्मट ने लिखा है-

‘शब्द शक्तिमूलानुरणनरूप व्यंग्यः अर्थशक्ति मूलानुरणनरूप व्यंग्यः, उभयशक्ति मूलानुरणनरूप व्यंग्यश्चेति त्रिविधः।’

(शब्द-शक्ति मूलअनुरणनरूप व्यंग्य, अर्थ-शक्ति मूलअनुरणनरूप व्यंग्य तथा उभय-शक्ति मूलअनुरणनरूप व्यंग्य-तीन प्रकार का होता है।)

शब्दशक्ति उद्भव अथवा शब्दशक्तिमूला ध्वनि के भेद-

अलंकारोऽयवस्त्वेव शब्दधन्ना भासते।

प्रधानलेन स ज्ञेयः शब्दशक्प्युद् भवो द्विधा ॥

(जहाँ पर शब्द के द्वारा वस्तु अर्थात् अलंकार प्रधानरूप से अभिव्यक्त अर्थात् प्रतीत होते हैं, वह शब्दशक्ति उद्भव ध्वनि दो प्रकार की होती है।)

अलंकार ध्वनि का उदाहरण-

उल्लास्यकाल करवाल महाम्बु वहि, देवेन येन जठरोर्जित गर्जितेन।

निर्वामित्तः सकल एवरेण रिपणां धारा जलैस्थि जगति ज्वलितः प्रतापः ॥

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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