इतिहास / History

गुप्तवंश | Gupta Empire in Hindi (320-550 ई०) | प्रशासन, समाज, साहित्य एवं कला, स्वर्णकाल

गुप्तवंश | Gupta Empire in Hindi (320-550 ई०) | प्रशासन, समाज, साहित्य एवं कला, स्वर्णकाल

गुप्तवंश Gupta Empire (320-550 ई०)

गुप्त राजवश की स्थापना लगभग 275 ई० में महाराज श्री गुप्त द्वारा की गयी थी । इस वंश के दूसरे महाराज घटोत्कच थे। गुप्त साम्राज्य की विशालता की नीव तृतीय गुप्तवंशीय शासक चन्द्र गुप्त प्रथम (320-335 ई ०) ने रखी एवं महाराजाधिराज की उपाधि धारण की । इन्होंने लिच्छवि वंश से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर सुदृढ़ नींव रखी एवं 320 ई० से गुप्त सम्वत शुरु किया। कोशल, कौशाम्बी, उत्तरी बंगाल तथा दक्षिणी बिहार के कुछ हिस्से में फैले इनके साम्राज्य को इनके उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त ने विशालता प्रदान की ।

समुद्रगुप्त (335-380) भारतीय नेपोलियन के नाम से विख्यात कुशल राजनीतिज्ञ एवं वीर योद्धा समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त प्रथम का पुत्र था । इसने आर्यावर्त के 9 राज्यों की, विन्ध्य क्षेत्र (आटविक राज्य ) के 18 राज्यों तथा दक्षिण के 12 राज्यों को परास्त किया। फलतः भयभीत होकर पूर्वी एवं पश्चिमी सीमान्त राज्यों ने अधीनता स्वीकार किया एवं विदेशी राज्यों (श्रीलंका का मेघवर्मा) ने मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किया कवि, विद्वान एवं वीणा में निपुण समुद्रगुप्त ने चक्रवर्ती बनने के उपलक्ष्य में अश्वमेघ यज्ञ किया था । मूलतः अशोक द्वारा निर्मित एवं कौशाम्बी में स्थित प्रयाग स्तम्भ लेख वर्तमान में इलाहाबाद के किले में है । उसमें समूद्रगुप्त के सम्बन्ध में उसके सन्धि विग्राहक मंत्री हरिषेण द्वारा उत्कीर्ण लेख हैं । बाद में जहाँगीर ने भी इस स्तम्भ पर लेख उत्कीर्ण करवाया था।

चन्द्रगुप्त II (380-415 ई०) विक्रमादित्य के नाम से विख्यात एवं प्रसिद्ध योद्दा अपने भाई राम गुप्त की हत्या कर भाभी ध्रुवस्वामिनी (ध्रुवस्वामिनी को राम गुप्त ने शकों को सन्धि में दे दिया था) से विवाह कर शकों को परास्त करने वाला चन्द्रगुप्ते II, समुद्रगुप्त का पुत्र था जिसने भारत से विदेशियों शक आदि) को निष्कसित कर मालवा, गुजरात, काठियावाड़ आदि के शासकों को परास्त किया। कवि कालिदास, गणितज्ञ एवं वैज्ञानिक आर्यभट्ट, बराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त आदि इसके दरबार के नवरत्न, चीनी यात्री फाह्यान विदेशी यात्री ( 405-411 ई०) एवं धनवन्तरि वैद्य थे। विद्वानों के अनुसार मेहरौली (दिल्ली) स्थित लौह स्तम्भ में वर्णित चन्द्र राजा यही था । फाह्यान ने इसके राज्यकाल में देश को धनी, ईमानदार, नैतिक तथा अपराधों से परे बताया है ।

कुमारगुप्त (415-455 ई०) चन्द्रगुप्त के पुत्र एवं उत्तराधिकारी कुमारगुप्त ने पुष्यमित्रों एवं हूणों के आक्रमण से देश की रक्षा की।

स्कन्दगुप्त (455-467 ई०) कुमारगुप्त के उत्तराधिकारी स्कन्द गुप्त ने मध्य एशिया की बर्बर जाति हूणों को रणक्षेत्र में  धूल चटाकर (455-467) देश की रक्षा की एवं चक्रवर्ती की उपाधि धारण किया । पुरुगुप्त, कुमारगुप्त II, बुद्धगुप्त एवं नरसिंह गुप्त इस वंश के अन्तिम शासक कथे । गुप्तवंश के बाद बल्लभी में मैत्रक तथा कन्नौज में मौखरी वंश का परिचय मिलता है।

प्रशासन – भारत के स्वर्णयुग के नाम से ज्ञात गुप्तकाल में सम्राट, साम्राज्य का सर्वोच्च अधिकारी होता था, जिसकी सहायता के लिये एक मन्त्रि-परिषद होती थी साम्राज्य भूक्ति (प्रान्त), विषय (जिला), तथा ग्राम में विभाजित था एवं उपरिक, विषयपति, ग्रामिक इनके प्रधान होते थे । अन्य उच्चपदाधिकारी थे – कुमारअमात्य, महाबलाधिकृत ( मुख्य सेनापति), सन्धि विग्रहिक (विदेशमंत्री), महा-दण्डनायक (मुख्यन्यायाधीश) आदि थे। वेतन नगद दिया जाता था, सामान्य तया आर्थिक दण्ड एवं विशेष मामलों में शारीरिक दण्ड दिया जाता है। विकेन्द्रीकृत प्रशासन इसकी मुख्य विशेषता थी ।

अर्थव्यवस्था – भूराजस्व आय का प्रमुख स्रोत था । कृषकों से उनके उत्पादन का 1/ 2 से 1/3 भाग तक कर के रूप में लिया जाता था । ब्राह्मणौं को अनुदान में करमुक्त जागीर दी जाती थी उसे अग्रहार कहते थे । स्थानीय आनुवांशिक अधिकारियों द्वारा राजस्व संग्रह किया जाता था । कावेरी, कल्याण, भड़ौच प्रमुख बन्दरगाह थे । पश्चिमी तट (रोम आदि) की तुलना में पूर्वीतट (जावा, सुमात्रा, कम्बोडिया, पूर्वी चीन) से व्यापार में वृद्धि हुई थी व्यापारियों के समूह को सार्थ तूथा इनके नेता को सार्थ वाह कहते थे । व्यापारियों की समिति को निगम तथा इनके प्रधान को श्रेष्ठि कहा जाता था । माध्य पश्चिमी भारत में गाँव वालों को सरकारी फौज और हृक्त्कामों के लिए बेगार करना पड़ता था इसे विष्टि कहते थे। अलग व्यवसायों की अपनी-अपनी श्रेणियाँ (गिल्ड) थी । मंदसौर अभिलेख में पट्टवाह (वस्त्र व्यापारी) का विवरण मिलता है। जमींदारी प्रथा की शुरुआत इसी काल से मानी जाती है। सोने चाँदी के सिक्कों के साथ-साथ कौड़ियों का भी प्रचलन था।

समाज – समाज परम्परागत चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य, शुद्र) में विभक्त था लेकिन जाति व्यवस्था की जटिलता में कमी आयी थी। समाज में विदेशियों को एवं उनकी संस्कृति को आत्मसात किया गया। व्यवसाय जातिगत नहीं था । शद्रों एवं औरतों की स्थिति में सुधार हुआ परन्तु अछूतों (चाण्डाल) की स्थिति खराब थी। सामूहिक खान-पान, अन्तर्जातीय विवाह, नगर वधू, दासप्रथा, देवदासी प्रथा का प्रचलन था परन्तु सतीप्रथा, विधवा विवाह पर रोक, बाल विवाह, पर्दाप्रथा आदि सामाजिक कुरीतियों का प्रचलन नहीं था समाज का नैतिक स्तर ऊँचा था एवं अपराधों की संख्या बहुत कम थी ।

साहित्य एवं कला – प्राचीन काल के साहित्य का सर्वाधिक विकास इसी काल में हुआ । संस्कृत राजभाषा थी एवं कला तथा साहित्य को राजाश्रय प्राप्त था (प्रयाग प्रशस्ति -हरिषेण) । रामायण एवं महाभारत का वर्तमान स्वरूप इसी काल की देन है। इसी काल में अनेक स्मृतियों व पुराणों (नारद, वृहस्पति, कात्यायन, याज्ञवल्क्य स्मृति, धर्म-शास्त्र आदि) की रचना की गयी। इस काल के प्रमुख ग्रन्थ हैं – मेघदूत , रघुवंश, ऋतुसहार, कुमारसम्भव, अभिज्ञान शाकुन्तलम, विक्रमोवशीयम, मालवि-काग्निमित्र (कालिदास), किरातार्जुनीयम (भारवि ), मृच्छ कटिक (शूद्रक), दशकुमारचरित (दण्डी ), उत्तर रामचरित एवं मालतीमाधव (भवभूति), अमरकोश (अमरसिंह), वासवदत्त (सुबन्धु), मुद्राराक्षस (विशाखदत्त ), कामसूत्र (वात्स्यायन), पंचतंत्र (विष्णु शर्मा), हितोपदेश, रावणवध (भट्टि नारायण), पदम चूड़ामणि (बुद्ध घोष) वास्तुकला, मूर्ति कला, शिल्पकला आदि का विकास इसी काल में हुआ। कन्हेरी, अजन्ता, एलोरा, बाघ, बादामी, वेडसा, पीतलखोरा, तिरुमलयपुरम तथा सितगवासल के गुफा मन्दिर इस काल के चित्रकला के प्रमुख उदाहरण है। सारनाथ, मथुरा एवं सुलतान-गंज की बौद्ध मूर्तियाँ, शिव, ब्रह्मा विष्णु आदि की मूर्तियाँ इस काल के प्रमुख उदाहरण हैं एवं मथुरा, सारनाथ, कौशाम्बी, पाटलिपुत्र, नालंदा, बोधगया गुप्त मूर्तिकला के प्रमुख केन्द्र थे। वास्तुकला के सर्वोत्तम उदाहरण राजप्रासाद एवं मन्दिर हैं क्योंकि इनके निर्माण का इसी काल में प्रारम्भ माना जाता है। प्रमुख मन्दिरों में तिगवा (जबलपुर) का विष्णु मन्दिर, भूमरा (सतना) का शिवमन्दिर, नचना-कुठार (पत्ना) का पार्वती मन्दिर, देवगढ़ (झाँसी) का दशावतार मन्दिर, खोह (सतना) का मन्दिर, भीतर गाँव (कानपुर) का मन्दिर आदि हैं। इस काल की मुद्राएँ कलाकृतियों से युक्त थीं। इनमें समुद्रगुप्त की व्याघ्रहन्ता, चन्द्रगुप्त की सिंहहन्ता, अश्वमेध यज्ञ के घोड़े, कुमार गुप्त की मयूर एवं हस्तमुद्राएँ प्रमुख है ।

धर्म, विज्ञान एवं ज्योतिष – इस काल में धर्म, विज्ञान, चिकित्सा, ज्योतिष आदि ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों का काफी विकास हुआ। आर्यभट्टीयम (आर्य भट्ट), वृहतसंहिता (वाराहमिहिर), ब्रह्मसिद्धान्त (ब्रह्मगुप्त), सुश्रुत संहिता (सुश्रुत), आयुर्वेद चिकित्सा (धनवन्तरि), आदि प्रमुख ज्ञान-विज्ञान का ग्रन्थ है । नागार्जुन चिकित्सा, रसायन एवं धातु विज्ञान के प्रमुख विद्वान थे। मेहरौली (दिल्ली) का 27.40 मीटर ऊँचा एवं छह टन बजन लोहे का स्तम्भ इस काल के धातू विज्ञान का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। नक्षत्र विज्ञान, शून्य, दशमलव, एवं संख्या-पद्धति की शुरुआत का श्रेय इस काल के प्रमुख विद्वान आर्य भट्ट एवं वाराहमिहिर को प्राप्त है। वैष्णव, शैव, बौद्ध, जैन धर्म इस काल के प्रमुख धर्म थे। षडदर्शन (बैशेषिक, न्याय, योग, वेदान्त, सांख्य, मीमांसा) एवं बौद्ध एवं जैन दर्शन का विकास इस काल में हुआ । असंग, वसुबन्ध, कुमारजीव, दिगनाग (बौद्ध) , सिद्धसेन (जैन), उधोत कर (ब्राह्मण धर्मी) इसी काल में थे हिन्दू धर्म (वैष्णव, शैव) विकासोन्मुख एवं बौद्ध तथा जैन ह्वासोन्मुख थे ।

स्वर्णकाल – राजनैतिक एकता, महान सम्राट, श्रेष्ठ शासन- व्यवस्था, आर्थिक समृद्धि, धार्मिक सहिष्णुता, साहित्य, कला, विज्ञान एवं धर्म दर्शन तथा संस्कृति आदि के चरमोत्क्र्ष के कारण इसे स्वर्ण युग माना जाता है ।

पतन – अयोग्य उत्तराधिकारी, विदेशी (हूण) आक्रमण, रोम से व्यापार का हास, जागीरदार प्रथा का उदय, सेना की कमी, आन्तरिक विद्रोह आदि प्रमुख पतन के कारण थे ।

यशोधर्मन –  छठी शती ई० में मालवा का शासक जिसने सफलता पूर्वक हूणों के आक्रमण को रोका ।

हूण – मंध्य एशिया की बर्बर जाति जिसने पाँचवीं एवं छठी शती ई० में पश्चिमोत्तर भारत पर कई बार हमला किया।

वर्घन वंश (560-647 ई०) – थानेस्वर के राजा प्रभाकर वर्धन का पुत्र हर्षवर्धन (606-647) पुष्यभूति वंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक था जिसमें अशोक एवं समुद्रगुप्त के प्रमुख गुण विद्यमान थे। यह एकीकृत उत्तर भारत का अन्तिम हिन्दू शासक था जिसने कन्नौज को राजधानी बनाया । नागानन्द रत्नावली, प्रियदर्शिका आदि संस्कृत ग्रन्थों का रचयिता हर्षवर्धन गुणवान एवं चरित्रवान तथा बौद्ध धर्म का अनूयायी था जिसके दक्षिण विस्तार को चालुक्य वंश के पुलकेशिन II ने रोक दिया था। इसके शासन काल में चीनी यात्री ह्वेन सांग (विदेशी यात्री) आया था एवं हर्षचरित्र एवं कादम्बरी के लेखक बाणभट्ट राजकवि थे। एवं नालन्दा प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था ।

 

 

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प्रथम अध्याय – प्रस्तावना

द्वितीय अध्याय – प्रयागराज की भौगोलिक तथा सामाजिक स्थिति

तृतीय अध्याय – प्रयागराज के सांस्कृतिक विकास का कुम्भ मेले से संबंध

चतुर्थ अध्याय – कुम्भ की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि

पंचम अध्याय – गंगा नदी का पर्यावरणीय प्रवाह और कुम्भ मेले के बीच का सम्बंध

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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