शिवाजी की प्रशासनिक व्यवस्था | शिवाजी की शासन-व्यवस्था | एक प्रशासक एवं संगठनकर्ता के रूप में शिवाजी का मूल्यांकन

शिवाजी की प्रशासनिक व्यवस्था | शिवाजी की शासन-व्यवस्था | एक प्रशासक एवं संगठनकर्ता के रूप में शिवाजी का मूल्यांकन

शिवाजी की प्रशासनिक व्यवस्था

शिवाजी एक अच्छे सेनानायक के साथ-साथ उच्च कोटि के सफल प्रशासक भी थे। डा० आर० सी० मजूमदार ने लिखा है, “वह केवल एक निर्भीक सैनिक तथा सफल सैनिक विजेता ही न था वरन् अपनी प्रजा का प्रबुद्धशीलशासक भी था।”

“He was not merey a daring Soldier and a successful military conqueror but also an enlightened ruler of his people.“-R. C. Majumdar.

राबिन्सन महोदय ने भी शिवाजी की प्रशासकीय प्रतिभा को बतलाते हुए लिखा है, “प्रायः सभी महान् सेनानायकों की भांति शिवाजी एक महान् शासक था क्योंकि वही गुण, जो एक योग्य सेनापति को पैदा करते हैं, एक सफल संगठनकर्ता तथा राजनीति के लिए भी वांछनीय हैं। शिवाजी ने अपने नये राज्य की जो श्रेष्ठतम प्रशासकीय व्यवस्था स्थापित की वह इस बात का प्रमाण है कि शिवाजी केवल श्रेष्ठ योद्धा व सेनापति ही नहीं थे, बल्कि वे एक श्रेष्ठ व्यवस्थापक और सफल प्रशासक भी थे।”

केन्द्रीय शासन तथा उसके विभिन्न अंग

राजा- शिवाजी के हाथों में राज्य की सभी शक्तियाँ केन्द्रित थीं। उनका शासन स्वेच्छाचारी था। सारे प्रशासन की धुरी शिवाजी ही थे। उन पर किसी का प्रतिबन्ध अथवा नियन्त्रण नहीं था। उनके आदेशों का सभी को पालन करना पड़ता था। पदाधिकारियों की नियुक्ति एवं उनको पदच्युत करने का अधिकार भी शिवाजी को ही था। लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से वे अपने समकालीन तानाशाहों से बिल्कुल भिन्न थे। शिवाजी ने कभी भी स्वार्थ के लिए आम जनता की उपेक्षा नहीं की, न जनता के अधिकारों का हनन किया। शिवाजी ने सत्ता का दुरुपयोग कभी नहीं किया तथा हर सम्भव तरीके से जनता के उत्थान की चेष्टा की। अतः शिवाजी ने राजस्व के जिन आदर्शों की कल्पना की थी उनमें प्रजाहित, प्रजा-सुरक्षा, न्याय, नैतिकता, सहिष्णुता तथा धर्म की उदान्त भावना थी।

अष्ट-प्रधान मन्त्रिपरिषद्-

इस मन्त्रिपरिषद् में आठ मन्त्री ‘अष्ट-प्रधान’ होते थे। इन मंत्रियों को शिवाजी स्वयं नियुक्त करते थे। प्रत्येक मन्त्री को एक विभाग सौंप दिया जाता था और अपने विभाग को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए वह पूर्ण रूप से उत्तरदायी होता था।

मन्त्रियों को शिवाजी की आज्ञानुसार ही कार्य करना पड़ता था। मन्त्रियों का कार्य सिद्धान्त रूप में शिवाजी को परामर्श देना था और वह भी जबकि राजा उसे सुनने की आकांक्षा करे । मंत्रियों से परामर्श लेने के लिए शिवाजी बाध्य नहीं थे। इन अष्ट प्रधानों के नाम व कार्य इस प्रकार थे-

(1) पेशवा (प्रधान मन्त्री)- इसे पन्त प्रधान भी कहा जाता था। ‘पेशवा‘ का शाब्दिक अर्थ होता है नेता या अगुवा। पेशवा के पद पर वही व्यक्ति नियुक्त किया जाता था जिसका व्यक्तित्व बड़ा ऊंचा होता था तथा जिसमें उच्चकोटि की राजभक्ति तथा स्वामिभक्ति होती थी। शासन की कार्यकुशलता राज्य के विभिन्न अधिकारियों के कार्यों में सन्तुलन रखना उसका मुख्य कर्त्तव्य था।

(2) आमात्य- जो मन्त्री अर्थ विभाग का प्रधान होता था उसे राज्य के आय-व्यय का ब्यौरा रखता था तथा विभिन्न प्रान्तों के हिसाब-किताब की जांच पड़ताल करता था।

(3) मन्त्री- यह शिवाजी के गृह-प्रबन्ध के लिए उत्तरदायी था तथा दरबार के महत्वपूर्ण घटनाओं का विवरण भी रखता था। राजा के भोजन का प्रबन्ध भी यही करता था। मन्त्री मुगल दरबार का बाकिया नवीस समान था।

(4) सचिव- यह राजा के पत्र-व्यवहार का उत्तरदायित्व वहन करता था। परगनों आदि की आमदनी का हिसाब भी इसे ही रखना पड़ता था। यह राजकीय पत्रों को ठीक ढंग से तैयार करवाता था। इसे सुरनिस या गुरु-नवीस भी कहा गया है। इसे पंत सचिव भी कहते थे।

(5) सुमन्त (विदेश मन्त्री)- सुमन्त का कार्य मुगल दरवार में दबीर के समान था। यह विदेश मन्त्री होता था। यह शिवाजी को विदेशी मामलों में तथा शत्रु से युद्ध एवं सन्धि के मामलों में परामर्श देता था। राष्ट्र के बाहर, राजा तथा अपने देश के सम्मान एवं सुरक्षा का भार सुमन्त पर ही था।

(6) सेनापति (सर-ए-नौबत)- यह सैन्य विभाग का मुख्य अधिकारी था। सैनिकों की भरती, सेना के संगठन, प्रशिक्षण, अनुशासन, रसद, युद्ध योजना आदि सेना सम्बन्धी कार्यों को यही देखता था। सेना द्वारा लूटकर लाये गये माल का भी हिसाब यही रखता था।

(7) पण्डितराव- राज्य के द्वारा दी हुई धनराशि को गरीब ब्राह्मणों में बाँटना तथा राज्य की ओर से दीन-दुखियों की सहायता करना उसका काम था। लोगों के नैतिक आचरण पर भी वह निगाह रखता था। धार्मिक रीति-रिवाजों के लिए नियम बनाना तथा जाति-पाति के झगडों का निर्णय करना भी उसके कर्तव्य थे।

(8) न्यायाधीश- यह न्याय की व्यवस्था करता था। न्याय विभाग का अध्यक्ष होता था। यह दीवानी तथा फौजदारी दोनों प्रकार के मुकदमों को सुनता था और हिन्दू धर्मशास्त्र तथा परम्पराओं के अनुसार निर्णय देता था।

मन्त्रियों का वेतन- सभी मत्रियों को राजकोष से वेतन दिया जाता था। पेशवा को 15 हजार होण वार्षिक, आमात्य को 12 हजार होण वार्षिक तथा अन्य 6 मन्त्रियों का वेतन 10 हजार होण वार्षिक दिया जाता था।

अन्य अधिकारी एवं कर्मचारी- राज्य के समुचित पत्र व्यवहार के हेतु विभिन्न चिटनिस और मुन्शी भी महत्वपूर्ण अधिकारी होते थे। प्रत्येक मन्त्री की सहायता हेतु विभिन्न अधिकारी एवं कर्मचारी होते थे। जैसे फड़निस, सबनिस, मजूमदार, पोतनिस, जायदार, दाबन आदि।

सैनिक प्रबन्ध- शिवाजी ने अपनी सैन्य व्यवस्था की ओर विशेष ध्यान दिया था। शिवाजी से पहले मराठा सैनिक छ: महीने सेना में तथा छ: महीने खेतों में कार्य किया करते थे। शिवाजी ने इस व्यवस्था को समाप्त कर स्थायी सेना की व्यवस्था की जो सदैव राज्य की सेना में संलग्न रहती थी। सैन्य शक्ति के बल पर ही उन्होंने इतनी विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी।

अश्वारोही सेना- अश्वारोही सेना में दो प्रकार के अश्वारोही होते थे। प्रथम बारगीर और दूसरे सिलेदार । बारगीर में वे अश्वारोही सैनिक होते थे जो कि प्रत्यक्ष वेतनभोगी होते थे। इन्हें राज्य की ओर से आवश्यक युद्ध में शस्त्रों का प्रबन्ध स्वयं करते थे। इन्हें बारगीर की अपेक्षा अधिक वेतन मिलता था। अश्वारोही सेना का संगठन ‘पागा’ कहलाता था। अश्वारोही सेना की छोटी इकाई 25 बारीगरों का एक दल होता था। इसका मुख्य अधिकारी हवलदार होता था। शिवाजी ने घोड़ों को दाग देने तथा घोड़ों का हुलिया लिखने की व्यवस्था की थी। अश्वारोही सेना महाराष्ट्र के पर्वतीय प्रदेश के लिए बड़ी आवश्यक थी।

पैदल सेना- पैदल सैनिक में नौ पायकों की सबसे छोटी इकाई होती थी। इनका मुख्य नायक कहलाता था। इसका वेतन साधारण होता था। पाँच नायकों पर एक हवलदार होता था। 2 या 3 हवलदारों पर एक जुमलादार होता था।

जल सेना- शिवाजी ने जल सेना का भी प्रयोग अपने युद्ध में किया था। जंजीरा के सिद्दियों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए एक जल सेना निर्मित की थी। इसमें विभिन्न प्रकार के चार सौ जहाज थे। इनमें पांच प्रकार के युद्ध पोत तथा कुछ बड़ी-बड़ी नावें भी थी।

अंग रक्षकों की सेना- ये बड़े साहसी, वीर तथा बलिदान की प्रेरणा से प्रेरित थे। इन अंगरक्षकों की सेना पर पूरा व्यय राज्य की ओर से होता था।

तोपखाना- किलों में छोटा तोपखाना होता था जिसे दारूखाना कहा जाता था। इसमें विभिन्न प्रकार की छोटी-बड़ी तोपें होती थीं। शिवाजी की सेना में लगभग दो सौ तोपें थीं। शिवाजी ने तोपें बनाने का अपना कोई कारखाना स्थापित नहीं किया था। वे प्रायः फ्रांसीसियों, पुर्तगालियों और अंग्रेजों से तोपें खरीदते थे।

सैनिकों का नगद वेतन- शिवाजी सैनिकों को व उनके अधिकारियों को उनकी सैनिक एवं सामरिक सेवाओं के लिए जागीर या भूमि नहीं देते थे, उन्हें नगद वेतन देते थे। शिवाजी ने सैनिक अन्य अधिकारियों से किसी भी पद व पुरस्कार के लिए जागीर देने की प्रथा बन्द कर दी थी। उन्होंने सेना में किसी पद को भी वंशानुगत नहीं किया। हेग ने भी लिखा है, “शिवाजी ने, प्रबल सामन्तों से जो खतरा पैदा हो सकता है उसे समझा। इसी से उसने कोई जागीर न दी। सभी कोटि के सरकारी कर्मचारियों, सैनिकों तथा असैनिकों दोनों को ही कोष से वेतन दिया जाता था।”

“Shivaji recognising the danger of powerful feudal aristocracy granted no liefs. Public servants of all ranks, both civil and military being paid directly from the treasury.”

-Sir Wodscley Haig

सैनिक अनुशासन- शिवाजी की सेना सामान्य जनता में से निर्मित की गयी थी। जनता को शिवाजी के प्रति केवल निष्ठा ही नहीं अपितु अपने कल्याण व स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए शिवाजी के कार्यों में भी पूर्ण श्रद्धा थी। शिवाजी ने मराठा सरदारों को एकत्रित करके एक राष्ट्रीय सेना की स्थापना की थी, जो राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत थी और महाराष्ट्र में स्वराज्य स्थापित करने के लिए अपना सर्वस्व निछावर करने के लिए उद्यत रहती थी।

दुर्गों का प्रबन्ध- ये दुर्ग अपने सामरिक महत्व व प्रभाव के कारण राज्य के प्राण थे। उनको सुरक्षात्मक उपयोगिता थी । शिवाजी ने इस तथ्य को अपने राज्य की सुरक्षा के लिए भली-भांति समझ लिया था। इसलिए शिवाजी ने नये दुर्गों का निर्माण, पुराने दुर्गों का जीर्णोद्धार, सभी दुर्गों का रखरखाव, उनका प्रबन्ध एवं उनकी सैनिक व्यवस्था तथा सुरक्षा को बड़ी सावधानी से तथा योजनाबद्ध तरीके से किया था। दुर्गों के महत्व के विषय में राबिन्सन ने लिखा है, “लोगों को सिखलाया जाता था कि दुर्ग को वे अपनी माँ समझें और यह वास्तव में ऐसा था भी क्योंकि आक्रमण के समय पास-पड़ोस के ग्रामवासियों को वहाँ शरण मिलती थी।

आर्थिक व्यवस्था- शिवाजी प्रशासन में धन का महत्व भली-भांति समझते थे, इसलिए उन्होंने राज्य की आय हेतु समस्त सम्भावित साधनों की समुचित व्यवस्था की थी। राज्य की अर्थ-व्यवस्था को शिवाजी ने सुसंगठित और सुदृढ़ बनाया था। इसके मुख्य भाग निम्नलिखित थे-

भूमि प्रबन्ध- अन्नाजी दत्ता के निर्देशन में भूमि का सर्वेक्षण कराया गया। प्रत्येक गाँव की भूमि को नापा गया और क्षेत्रफल को लिखा गया, भूमि को उत्तम, मध्यम तथा हीन तीन श्रेणियों में बाँटा गया।

भूमि कर- किसानों से उपज का तीस प्रतिशत लिया जाता था। परन्तु जब अन्य कर समाप्त कर दिये गये तब किसानों से उपज का चालीस प्रतिशत लिया जाने लगा। अनेक स्थानों में भूमि-कर नगद अथवा उपज के रूप में चुकाया जा सकता था। राज्य के कुछ भागों में शिवाजी ने बटाई की प्रथा भी प्रचलित की थी। इसके अनुसार कुल उपज का आधा भूमि-कर के रूप में वसूल किया जाता था। फिर निश्चित कर देने से अब कृषक अच्छी तरह से जानते थे कि उन्हें कितना भूमि कर देना है और वे इसे बिना किसी शोपण या अत्याचार के राजकोष में जमा कर सकते थे।

कृषक व कृषि के हित में अन्य कार्य- युद्धों और अभियानों में व्यस्त रहने के कारण शिवाजी कृषकों की स्थिति तथा कृषि की दशा पर विशेष ध्यान नहीं दे पाते थे। दुर्भिक्ष या अतिवृष्टि के कारण कृषकों को उत्तम बीज, बैल व कृषिक अन्य उपकरण तथा सामान के लिए अनुदान दिया जाता था, कम ब्याज की दर पर ऋण भी दिये जाते थे। बंजर भूमि को जोतने पर कृषकों से भूमि कर नहीं लिया जाता था। जहाँ नये गाँत बसाये जाने थे वहाँ कृषकों को नये हल व बैल दिये जाते थे। बीजों के लिए तथा प्रारम्भिक देख-रेख के लिए धन भी दिया जाता था।

राज्य की आय के साधन- प्रमुख स्थायी साधन भूमिकर व्यापारिक कर मुद्रा, आर्थिक दण्ड, चौथे तथा सरदेशमुखी थे। भूमि के क्रय विक्रय और हस्तान्तरण पर लगे कर से, इकामी भूमि पर लगे कर से व्यापारियों, शिल्पियों और अन्य व्यवसायों पर लगे करों में राज्य की आय में वृद्धि होती थी। टपासालों से भी राज्य को अच्छी आय प्राप्त होती थी। भेंट उपहार, आयात-निर्यात, पार-पत्र आदि भी राज्य की आय के अच्छे साधन थे। शिवाजी ने दो कर चौथ और सरदेशमुखी नामक लिये।

(1) चौथ-महादेव गोविन्द रानाडे के अनुसार, “चौथ एक ऐसा कर था जो मराठे एक प्रदेश को किसी तीसरी शक्ति के आक्रमण से बचाने के लिए मूल्य के रूप में वसूल करते थे।”

सर जदुनाथ सरकार के अनुसार, “चौथ देने से वह स्थान मराठा सैनिकों की अवांछनीय उपस्थिति और असैनिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाता था, परन्तु विदेशी आक्रमणों से उनकी रक्षा करने की शिवाजी की कोई जिम्मेदारी नहीं होती थी।”

(2) सरदेशमुखी- शिवाजी अपने आप को महाराष्ट्र का सरदेशमुखी’ समझते थे, अतएव वे अपने को सरदेशमुखी अर्थात् दसवें भाग का अधिकारी समझते थे। यह प्रदेश की आय का 1/10 भाग होता था।

यह कर राज्यों व प्रदेशों और नगरों से या पड़ोसी राज्यों के नागरिकों से वसूल किये जाते थे। राज्य के व्यय के प्रमुख मद सेना और प्रशासन था।

वाणिज्य और व्यापार- शिवाजी का जीवन में मुगलों व बीजापुर सुल्तान से निरन्तर संघर्ष करने में और अपने नवीन राज्य को स्थापित करने व उसके विकास में व्यतीत हो गया। इसी कारण वे राज्य की आर्थिक समृद्धि की ओर विशेष ध्यान न दे सके, जिससे राज्य में वाणिज्य तथा व्यापार उपेक्षित हो गए। फिर भी युद्ध अभियानों से समय निकालकर शिवाजी ने अपने राज्य में व्यापार और उद्योग की ओर ध्यान दिया। शिवाजी ने व्यापारियों को प्रोत्साहन देने के लिए उन्हें नगरों में अनेक सुविधाएं दी। राज्य के आंतरिक व्यापार के प्रोत्साहन के लिए शिवाजी ने भारी आयात-कर लगाये। उनके राज्य में कल्याण, भिवण्डी, चौल,राजापुर,वेनगुर्ला, कोल्हापुर तथा रायगढ़ इत्यादि प्रसिद्ध नगर व्यापार के प्रमुख केन्द्र थे।

न्याय व्यवस्था- यद्यपि न्याय क्षेत्र में हिन्दू परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों का पूरा ध्यान रखा जाता था तथापि अन्य धर्म वालों के साथ कोई भेद-भाव नहीं था। न्याय निष्पक्ष हो-यही आवश्यक था। नियमों का विश्लेषण करने के लिए योग्य पण्डित होते थे। न्यायाधीश के पद पर केवल ब्राह्मण नियुक्त किये जाते थे, जिन्हें धर्मशास्त्र का ज्ञान होता था। ये न्यायाधीश दीवानी तथा फौजदारी दोनों प्रकार के मुकदमे किया करते थे परन्तु कभी-कभी फौजदारी के मुकदमों का निर्णय ‘पटेल’ भी किया करते थे। अन्तिम अपील खुद शिवाजी के पास हो सकती थी जिसका निर्णय अन्तिम व सर्वमान्य होता था।

शिक्षा तथा दान व्यवस्था- शिवाजी के शासनकाल में शिक्षा कोई संगठित और व्यवस्थित राजकीय विभाग नहीं था। नियमित एवं व्यवस्थित शालाएं नहीं थीं परन्तु राज्य के विभिन्न नगरों में विद्वान् एवं जिज्ञासु ब्राह्मणों के निवास निजी शाला के समान शिक्षा के केन्द्र थे। यहाँ विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए जाते थे। राज्य की ओर से सन्तों, पण्डितों, विद्वान् को दान दिया जाता था। जिन विद्वानों को शिवाजी का संरक्षण प्राप्त-तथा जिनको शिवाजी की तरफ से अनुदान प्राप्त हुए थे, उनमें मुख्य थे-जयराम पिण्डे, कवीन्द्र, परमानन्द, केजल के केवल भारत जालना के तीन पाठक मुद्यतगाँव के देवभारती, महाबलेश्वर के गोपाल भट्ट, कोंकण के सिद्धेश्वर भट्ट और चिंचबड़ के देव गोसावी इत्यादि । सन्तो को भी शिवाजी ने मुक्त हस्त से विना धार्मिक भेदभाव के दान दिये और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। इनमें रामदास, मौनी बाबा चाकूत आदि प्रमुख थे। इसके अतिरिक्त मन्दिरों एवं पवित्र देव स्थलों के निर्माण तथा जीर्णोद्धार के लिए भी अनुदान दिये।

प्रान्तीय शासन

शिवाजी के अधीन जो राज्य था उसको प्रशासन की दृष्टि से 4 भागों में विभक्त किया गया था-

(1) केन्द्रीय प्रान्त- जो शिवाजी के सीधे नियन्त्रण में था। यह ‘स्वराज्य’ कहलाता था।

(2) उत्तरी प्रान्त- इसमें उत्तरी मुम्बई, कोंकण, दक्षिणी सूरत, बगलान, पूना की तरफ का दक्षिण पठार, डाग तथा कोली प्रदेश सम्मिलित थे।

(3) दक्षिणी प्रान्त- इसमें दक्षिणी मुम्बई, कोंकण, सावन्तवाडी तथा उत्तरी कनारा का समुद्रतटीय प्रदेश सम्मिलित था।

(4) दक्षिणी पूर्वी प्रान्त- इसमें सतारा, कोल्हापुर, बेलगाँव, धारवाड़ तथा कोपल के जिले शामिल थे।

शिवाजी ही प्रान्तपतियों की नियुक्ति करते थे। प्रत्येक प्रान्त में सेना रहती थी जिसका सेनापति प्रान्तपति ही होता था। प्रान्तों की रक्षा करना, वहाँ शान्ति स्थापित करना, लगान व अन्य कर वसूल करना आदि उसके मुख्य कर्तव्य थे। प्रान्त प्रशासन की सुविधा की दृष्टि से परगनों में विभक्त थे। परगने का अधिकारी आधुनिक जिलाधीश के समान होता था। प्रत्येक परगना ‘तरफ’ (तफ) में विभक्त था तथा प्रत्येक तरफ में कुछ गाँव होते थे। गाँव प्रशासन की सबसे छोटी ईकाई थी। पाटिल (पटेल) माम शासन का आधार था। ग्राम में स्थानीय स्वशासन के लिए याम पंचायतें थीं। पाटिल व कुलकर्णी इसकी सहायता करते थे। इस प्रकार शिवाजी का शासन-प्रबन्ध व्यवस्थित था।

हेग के अनुसार, “उसकी सारी प्रजा उस तक पहुंच सकती थी और साधारण लोग उसे ऐसी श्रद्धा-भक्ति की दृष्टि से देखते थे जैसे उसके समकालीन भारत का अन्य कोई शासक नहीं देखा जाता था।”

शिवाजी के प्रशासन के विषय में ग्राण्ट डफ ने लिखा है-

“उसकी शासन-व्यवस्था जनता के लिए हितकर तथा सुखदायक थी।”

“Under him the administration was conductive to the welfare and happiness of people.”

-Grant Duff.

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

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