सिरी उपमा जोग सन्दर्भः- प्रसंग- व्याख्या | शिवमूर्ति – सिरी उपमा जोग
सिरी उपमा जोग सन्दर्भः– प्रसंग- व्याख्या | शिवमूर्ति – सिरी उपमा जोग
सिरी उपमा जोग
- अर्दली लड़को.…………हुआ लगता है।
सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यावतरण हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति के “सिरी उपमा जोग” नामक कहानी से अवतरित है। इसमें गाँव से आया लड़का ए.डी.एम. साहब से एकान्त में मिलना चाहता है, किन्तु अर्दली उसे अनुमति नहीं देता।
व्याख्या- सिरी उपमा जोग कहानी में एक नारी के व्याग संघर्ष और प्रतिनिष्ठा का वर्ण है। इसी महिला का यह बेटा है और यह महिला साहब की पहली पत्नी है। लड़का एक पत्र लियेक्षहै जो उसकी माँ ने उसे दिया है। अर्दली लड़के को बड़े गौर से देखता है। वह एकदम गन्दी शर्ट पहने हुए है पायजामा पहना हुआ है। गले में लाल रंग का रूमाल लपेटे है। उसके बाल बड़े एक खड़े-खड़े हैं, ऐसा प्रतीत होता है वह धुले नहीं है। पाँव में जूते नहीं है। यह शहर का वातावरण जहाँ पर अपरिचित है। एकदम कठोर, उसको यहाँ का माहौल अविश्वास युक्त प्रतीत होता है। लड़का प्रामीण अंचल का प्रतीत होता है। ऐसा लगता है कि वह दूर देहात से आया हुआ है। अन्ततः उस पर पसीज कर अर्दली उसे आश्वत करता है और साहब से अकेले में मिलने की अनुमति दे देता है।
- तब धीरे-धीरे.……….दिमाग में।
सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यावतरण प्रख्यात कथाकार शिव मूर्ति की उत्कृष्ट कहानी ‘सिरी उपमा जोग’ से उद्धृत है। इस गद्यांश में ए.डी.एम. साहब की पिछली जिन्दगी का चित्रण हुआ है।
व्याख्या – वह ड्राइवर से गाड़ी रुकवाते हैं। पानी चाय पीकर सिगरेट सुलगाते हैं और स्वयं को सामान्य स्थिति में लाते हैं। उनके मानस पटल पर दस वर्ष पुराना गांव का चित्र उभर आता है। वही गाँव जो उनका प्रिय साथी था। वही महुए का पेड़ जो आज नहीं है, वह उसी के जड़ पर बैठकर सवेरे से शाम तक प्रतियोगिता (कम्पटीशन) की तैयारी में लगे रहते थे। वही गाँव जहाँ उनकी बेटी कमला अत्यन्त प्रिय थी। उसके रक्तिम नरम नरम ओंठ बहुत ही सुन्दर लगते । महुऐ के पेड़ पर बैठा हुआ कौआ कांव-काव करता तो नन्द ही कमला भी उसकी आवाज को दोहराती जाती। आखिर कौआ थक हारकर उड़ जाता तो वह ताली पीटती थी। वही कमला स्यानी हो गयी है। अब वह सत्रह साल की हो गयी है। उसी बेटी की शादी है, शादी हो जायेगी। विदाई के समय छोटे भाई का पैर पकड़कर रायेगी। किन्तु वहाँ बाप न रहेगा। भाई उसको काढस बाधेगा कि वह उसके हर मुसीबत में साथ रहेगा। पिता की शायद ही उसे याद आवे क्योंकि एक लम्बा अरसा बीत चुका है। सम्भवतः कोई धुंधली सी तस्वीर उसके मन में उभर सके।
- शाम को जीप ……………… गल जायेगा।
सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यावतरण सुप्रसिद्ध कथाकार शिव मूर्ति के ‘सिरी उपमा जोग’ नामक कहानी से उद्धृत है। इस गद्यांश में लालू की दशा का चित्रण किया गया है जो साहब का अपना ही पुत्र है।
व्याख्या – ‘साहब’ बाबू पूरे दिन के कार्यक्रम के बाद अपने बंगले पर वापस लौट रहे हैं। जीप से वह लौट आये हैं उनके मन मस्तिष्क में लालू (लड़के) का चित्र उभर आया है। बालक एकदम से बबूल की झाड़ के समान था। जिसके जीने की अशेष इच्छा विद्यमान थी। कोई भी विपत्ति उसे विचलित नहीं कर सकती। कोई धूप या कड़ी से कड़ी गरमी उसे बेहोश नहीं कर सकती। उसने जीने की राह सीख ली है। उपेक्षा की आँच उस लड़के को विचलित नहीं कर सकती है। उस पर अनुग्रह, शायद वह मजबूती न दे पाता जो आज उस लड़के में दिखायी पड़ी है।
- चिट्ठी खोलकर.…………झूलने लगा।
सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यावतरण प्रसिद्ध कथाकार शिव मूर्ति प्रसिद्ध कहानी ‘सिरी उपमा जोग’ से उद्धृत है। इस गद्यांश में साहब की पहली पत्नी का खत है जिसके पढ़ते ही वह असहज हो जाते है।
व्याख्या – ड्राइवर गाड़ी चला रहा है साहब के हाथ में लालू का दिया हुआ पत्र है। वह पड़ते है, लालू की माँ ने खत लिखा है और एक पवित्रता पत्नी की हैसियत से पति का चरण-स्पर्श करती है। अचानक उनको तीव्र झटका लगता है। वर्षों गुजर गये आज वह लालू की माई की चिट्ठी है, इतना समय गुजर गया- साहब को पसीना आ जाता है। माथो पर बल पड़ता है, वह एकदम अवाक हो जाते हैं। बड़ी देर तक वह अतीत में खोये रहते हैं। पुनः वह अपनी सामान्य दशा में आते हैं। वह अपनी नजरे तिरछी करते हैं और पुनः चश्मे के पिछले ग्लास से देखते हैं कि कहीं ड्राइवर मेरे इस भावात्मक स्वरूप को लक्ष तो नहीं कर रहा है। आर्दली भी साहब की भावनात्मक स्थिति को नहीं भांप पाया क्योंकि वह भी ऊंघ रहा था। साहब चिट्ठी पढ़ते जाते हैं और सब लम्बी सांस लेकर पत्र रख देते हैं।
- सिखायेगा कौन.………लिखा रहता है।
सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यावतरण प्रसिद्ध, कहानीकार शिव मूर्ति के ‘सिरी उपमा योग’ नामक कहानी से उद्धृत है। इस गद्यांश में साहब की पहली पत्नी (लालू की माई) का कथन है, जिसमें उसके व्यंग्यात्मक स्वर है।
व्याख्या – लालू की माई अधिकारी बाबू से कहती है कि मैं तो अब आपके योग्य नहीं रही। आप किसी शहरी मेम को ढूंढ़ लीजिए। अधिकारी बाबू कहते हैं कि इतनी सारी बातें तुम कहा से सीखती हो। वह कहती है कि मुझे कौन सिखायेगा जी यहाँ तो हमेशा से होता चला आया है। मैं तो आप की सीता हूँ। जब तक वनवास रहा आपके साथ थी राजगद्दी मिल जाने के बाद तो स्वर्ण की सीता ही सुशोभित होती है। क्योंकि सीता को आगे भी तो कष्ट ही बदा रहता है। उसके जीवन में सुख आता ही कहाँ है।
- पत्र उनके हाथों में.……...दुःख दे रही हैं उसे।
सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश प्रख्यात कथाकार शिवमूर्ति के ‘सिरी उपमा जोग’ नामक कहानी से उद्धृत है। इसमें साहब को नौ वर्ष बाद लालू की माई का दूसरा पत्र मिला था।
व्याख्या – हाथ में पत्र लिया था साहब ने किन्तु वह बड़ी देर तक कांपता रहा। पुनः उसी पत्र को जेब में रख लिया। मन में अनेक प्रकार के प्रश्न उभर आये। उस हिम्मतवाली जीवट महिला को मुझे आगे बढ़ाकर क्या मिला। मन में स्वयं के प्रति घृणा-भाव उत्पन्न हुआ और पुनः अधिकारी बाबू अपने पर विचार करने लगे कि बेरोजगार रहते गाँव में खेती-वारी करते। पत्नी भी कन्धे से कन्धा लगाकर खेत में परिश्रम करती और थककर दोनों रात में सुख की नींद सोते। तीनों लोकों का सुख उनके हाथ में रहता। इसी अपने छोटे से संसार में प्रसन्न होकर वह जीवन बिता देती। मुझे आगे बढ़ाने वाली धूल से आसमान तक उठाने वाली वही जीवित महिला है। इन सबसे उसको क्या मिला। वह दुनिया वालों की नजरों में सुहागिन है, किन्तु वही सिन्दूर और चूड़ियाँ उसे कहीं-न-कहीं शालती होगी।
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