तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण

तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण | तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण में सम्मिलित किए गए मुख्य अध्ययन

तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण | तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण में सम्मिलित किए गए मुख्य अध्ययन

तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण

(Modern Approaches of Comparative Politics)

तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से परम्परागत दृष्टिकोण पर आधारित अध्ययन असन्तोषजनक रहा; अत: इस क्षेत्र में नई पद्धतियों और दृष्टिकोणों की खोज प्रारम्भ हुई। विश्लेषण, निरीक्षण परीक्षण की नई पद्धतियों को ही आधुनिक दृष्टिकोण कहा गया । वास्तव में जिन विद्वानों ने राजनीतिक संस्थाओं और व्यवस्थाओं के तुलनात्मक अध्ययन को अधिक ‘वैज्ञानिकता’ प्रदान करने के लिए परम्परागत दृष्टिकोण से पृथक् दृष्टिकोण अपनाया है, उसे ही आधुनिक दृष्टिकोण कहा जाता है। अनेक विद्वानों- लार्ड ब्राइस, कार्ल जे० फ्रेडरिक तथा गेब्रियल ए० एमण्ड ने अपनी पुस्तकों में राजनीतिक संस्थाओं तथा प्रक्रियाओं का विस्तृत तथा तुलनात्मक विश्लेषण किया है। उन्होंने पश्चिमी तथा गैर-पश्चिमी आदि सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं को सम्मिलित करके राजनीतिक प्रक्रियाओं को विस्तृत सामाजिक तथा आर्थिक दशाओं से सम्बद्ध करने का प्रयत्न किया है। तुलनात्मक राजनीति से सम्बन्धित साहित्य में निरन्तर वृद्धि हो रही है तथा विभिन्न विद्वानों की सम्पादित दृष्टिकोण की पुस्तकें प्रकाश में आ रही हैं।

मैक्रीडिस तथा ब्राउन ने तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण को अधिक व्यवस्थित परीक्षण करने वाला तथा खोजबीन करने वाला कहा है। उनके अनुसार किसी भी व्यवस्थित पद्धति के लिए एक राजनीतिक सिद्धान्त की आवश्यकता होती है। अतः समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों से राजनीतिशास्त्र ने वर्तमान पद्धति में बहुत सहायता ली है।

किसी भी राजनीतिक व्यवस्था की जीवंतता के लिए आवश्यक है कि वह कुछ अत्याज्य और अनिवार्य कार्यों में संलग्न रहे। कुछ संस्थाएँ इन कार्यों को सम्पादित करने के लिए ‘अनिवार्य’ संस्थाएँ हैं लेकिन विभिन्न व्यवस्थाओं में वे अलग-अलग प्रकार की होती हैं। परम्परागत दृष्टिकोण इसके सम्भव न होने के कारण ही आधुनिक दृष्टिकोण का प्रतिपादन हुआ।

आधुनिक दृष्टिकोण में सम्मिलित किए गए मुख्य अध्ययन निम्नलिखित प्रकार हैं:-

(1) व्यवस्थित तथा वैज्ञानिक अध्ययन,

(2) सामाजिक सन्दर्भजनित अध्ययन,

(3) व्यवस्थाजन्य अध्ययन,

(4) विश्लेषणात्मक तथा व्याख्यात्मक अध्ययन,

(5) संरचनात्मक कार्यात्मक अध्ययन,

(6) अन्तराअनुशासनात्मक अध्ययन ।

(1) व्यवस्थित तथा वैज्ञानिक अध्ययन (Systematic and Scientific Study)-

नवीन पद्धति अधिक व्यवस्थित और वैज्ञानिक होती है। क्योंकि इसमें कार्य-कारण तथा क्रिया-प्रक्रिया का सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयल किया जाता है। वर्तमान अध्ययन में यह पद्धति अधिक विकसित हो रही है कि विश्लेषण के सामान्य नियमों के प्रयोग द्वारा परिकल्पनाओं की सत्यता देखकर निष्कर्ष निकाले जाते हैं, जिससे कि विस्तार से सामान्यीकरण निर्धारित किये जा सकें। नवीन पद्धति अध्ययन की सम्पूर्ण विधि अपने लक्ष्य के अनुसार जटिल राजनीतिक प्रक्रियाओं का सामान्यीकरण करके सरलीकरण तथा स्पष्टीकरण करती है।

(2) सामाजिक सन्दर्भजनित अध्ययन (Social Context Oriented Study)-

वर्तमान मान्यता के अनुसार राजनीतिक प्रक्रियाओं तथा सामाजिक शक्ति की अन्त क्रियाओं में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है, इसी कारण प्रथम का अध्ययन दूसरे के सन्दर्भ में अनिवार्य रूप से हो सकता है। इसी कारण आधुनिक विद्वान् सामाजिक संस्थाओं, शक्तियों तथा परम्परागत बन्धनों का अध्ययन राजनीतिक दृष्टिकोण से करने लगे हैं। आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार यह आवश्यक समझा जाने लगा है कि राजनीतिक प्रक्रियाओं, संस्थाओं तथा व्यवस्थाओं को सामाजिक पर्यावरण में समझा जाय ।

(3) व्यवस्थाजन्य अध्ययन (System Oriented Study)-

आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार राजनीतिक व्यवस्था को अधिक महत्वपूर्ण समझा गया है तथा इसी आधार पर राजनीतिक प्रक्रियाओं और संस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है। यह अध्ययन समस्याओं की जड़ तक पहुँचने में सहायक होता है। आधुनिक विद्वानों ने राजनीतिक व्यवस्था में निम्नलिखित तीन बातों को आवश्यक माना है-(i) शक्ति का एकाधिकार, (ii) दमनकारी शक्ति तथा (iii) शक्ति तन्त्र । इन तीनों बातों में से किसी का भी सन्दर्भ एक राजनीतिक व्यवस्था को अन्य से पृथक् बनाता है और इन्हीं के आधार पर किसी राजनीतिक व्यवस्था के औचित्य का ज्ञान होता है।

विद्वानों ने राजनीतिक व्यवस्था की उक्त तीन बातों के आधार पर ही राजनीतिक व्यवस्थाओं को बहुत-सी श्रेणियों में बाँटा है। ये वर्गीकरण अरस्तू से अलग हैं। वे राजनीतिक व्यवस्थाएँ संक्षेप में निम्नलिखित प्रकार की हैं-

(i) पाश्चात्य तथा औग्ल-अमेरिकी व्यवस्था में वे राजनीतिक व्यवस्थाएँ सम्मिलित की गई हैं जिनमें लोगों में राजनीतिक आदर्शों, आस्थाओं, मान्यताओं तथा संस्थाओं पर आधारभूत मतैक्य है।

(ii) महाद्वीपीय व्यवस्था के अन्तर्गत वे राजनीतिक व्यवस्थाएँ आती हैं जिनमें दलों, समाज के विभिन्न वर्गों तथा लोगों में राजनीतिक संस्थाओं और राजनीतिक मान्यताओं तथा लक्ष्यों पर मतभेद रहता है। राजनीतिक मतभेद के साथ साथ महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रक्रियात्मक” व्यवस्थाओं पर भी सहमति नहीं होती।

(iii) सर्वाधिकारवादी व्यवस्था में वे राजनीतिक व्यवस्थाएँ सम्मिलित होती हैं, जिनकी राजनीतिक शक्ति पूर्णरूप से किसी व्यक्ति या दल में केन्द्रित हो । इस प्रकार की व्यवस्थाएँ इटली में मुसोलिनी तथा जर्मनी में हिटलर में निहित थीं।

(iv) पूर्व-औद्योगिक सामाजिक व्यवस्था में विकास के मार्ग पर अग्रसारित समाज सम्मिलित किए गए हैं। इन समाजों की राजनीतिक व्यवस्था में परस्पर विरोधी मान्यताओं के साथ-साथ विरोधी खिंचाव तथा तनाव भी बहुत होता है। इन राजनीतिक व्यवस्थाओं के लिए यह आवश्यक नहीं है कि राजनीतिक शक्ति स्थायी रूप से औचित्यपूर्ण या वैध हो । सत्ताधारी सत्ता की वैधता के लिए प्रयासरत रहते हैं तथा राजनीतिक व्यवस्था को मार्ग की रुकावटों से उत्पन्न खिचावों तथा तनावों से बचाये रखने का प्रयास करते हैं, फिर भी स्थायित्व अधर में लटका रहता है। इन में न्यताओं और राजनीतिक व्यवस्था के लिए अपनायी गई संस्थाओं में टकराव की स्थिति भी बनी रहती है। क्योंकि समुचित दलीय व्यवस्था नहीं होती है और होती भी है तो उसका ठोस वैचारिक आधार नहीं होता तथा इन राज्यों में नए-नए राजनीतिक दल सामान्य रूप से बनते और बिगड़ते रहते हैं।

(v) सैनिक शासन व्यवस्था के अनुसार शासन व्यवस्था निरंकुश तो होती है परन्तु राजनीतिक व्यवस्था की सत्ता सैनिक अधिकारियों में निहित होती है। सेना के समर्थन द्वारा ही सत्ता को स्थायित्व प्राप्त होता है। राजनीतिक व्यवस्था, राजनीतिक संस्थाएँ तथा प्रक्रियाएँ सैनिक तानाशाही के चारों ओर चक्कर लगाती हैं। इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण व्यवस्था अन्त क्रियात्मक, स्थायी और सुनिश्चित नहीं होती।

राजनीतिक व्यवस्थाओं का उक्त वर्गीकरण विभिन्न व्यवस्थाओं की समानताओं तथा असमानताओं को समझने में सहायता करता है। इससे सम्पूर्ण अध्ययन में वास्तविकता आ जाती है तथा राजनीतिक व्यवस्था के विषय में सामान्यीकरण सम्भव होता है। अनेक व्यवस्थाओं का सांगोपांग अध्ययन करते समय सामान्य नियमों का प्रतिपादन तथा पुष्टि आगे बढ़ने में सहायक होती है। आधुनिक दृष्टिकोण राजनीतिक व्यवस्था पर इन्हीं कारणों से अपना अध्ययन केन्द्रित करता है जिससे राजनीतिक प्रक्रियाएँ भली प्रकार समझी जा सकें तथा विश्लेषण एवं विशिष्ट सामान्यीकरण द्वारा व्यवस्था की वास्तविकताओं में सम्बन्ध बना रहे।

(4) विश्लेषणात्मक तथा व्याख्यात्मक अध्ययन (Analytical and Explanatory Study)-

राजनीतिक संस्थाओं की सही प्रकृति समझने के तथा राजनीतिक समाधान के लिए राजनीति का अध्ययन समस्या समाधानात्मक, व्याख्यात्मक तथा विश्लेषणात्मक ढंग से किया जाए। आधुनिक दृष्टिकोण में परिकल्पनाएँ तथा परीक्षण किए जाते हैं और आँकड़ों के संग्रह पर बल दिया जाता है। इनका विश्लेषण सामान्यीकरण के लिए तुलनात्मक रूप में किया जाता है। विश्लेषणात्मक विधि किसी भी राजनीतिक व्यवस्था की उपयुक्त परिभाषा करने का प्रयास करती है तथा उन महत्वपूर्ण संरचनाओं से परिचित कराती है जिनके द्वारा राजनीतिक व्यवस्था कार्य करती है और दूसरी व्यवस्था के समान अथवा असमान बनती है। विश्लेषणात्मक पद्धति परिकल्पनाओं की जाँच करती है तथा इसी आधार पर परिकल्पनाओं को प्रतिपादित, संशोधित या खण्डित किया जा सकता है। तुलनात्मक अध्ययन का नवीन दृष्टिकोण क्षेत्रीय कार्य और अनुभववादी पर्यवेक्षण पर अधिक जोर देता है। विश्लेषण का यह ढंग सभी वैज्ञानिक अन्वेषणों के लिए आवश्यक है। क्योंकि इसके द्वारा उन दशाओं या प्रतिबन्धक तत्वों का समुचित ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है जिनका होना या न होना हमारी परिकल्पनाओं की वैधता अथवा खण्डन के लिए उत्तरदायी होती है।

(5) संरचनात्मक कार्यात्मक अध्ययन (Structural-Functional Approach or Study)-

आज सभी राजनीतिशास्त्री किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में उस व्यवस्था की संरचना तथा राजनीतिक संस्थाओं के काम में सम्बन्ध की घनिष्ता के विषय में सहमत हैं। दोनों एक-दूसरे के प्रभावक तथा नियामक हैं। किसी राजनीतिक प्रणाली या संगठन के समुचित अध्ययन के लिए स्वरूप को जानने के साथ-साथ उसके कार्य करने के ढंग को भी जानना आवश्यक है। किसी संस्था की संरचना तथा कार्य अन्य संस्था की संरचना तथा कार्यों से सम्बद्ध होने के साथ-साथ उनमें कार्य-कारण और क्रिया-प्रतिक्रिया का भी सम्बन्ध होता है। इसलिए राजनीतिक व्यवस्था की अध्ययन विधि में सम्पूर्ण व्यवस्था की संरचना तथा कार्य को सम्मिलित करना आवश्यक है। सभी राजनीतिक विचारक राजनीतिक संस्थाओं में सावयवी एकता से सहमत हैं; अतः सावयवी अन्तर्निर्भरता राजनीतिक व्यवस्था में पायी जाती है। समाज बड़ी व्यवस्था है और उसकी उपव्यवस्था राजनीतिक व्यवस्था होती है। इसी कारण इस राजनीतिक व्यवस्था में कुछ असमानता उत्पन्न हो जाने पर उससे सम्पूर्ण व्यवस्था प्रभावित होती है तथा सन्तुलन बिगड़ कर क्रान्ति उत्पन्न हो सकती है।

संरचनात्मक कार्यात्मक विश्लेषण में ऑलमण्ड के अनुसार राजनीतिक व्यवस्था इन-पुट कार्य तथा आउट-पुट कार्य दो प्रकार से कार्यरत रहती है। किसी व्यवस्था के अन्तर्गत होने वाले कार्य इन-पुट कार्य के अन्तर्गत आते हैं तथा आउट-पुट में बाह्य कार्य आते हैं। दोनों प्रकार के कार्यों के विवेचन से राजनीतिक प्रक्रियाओं में इनकी उपयोगिता स्पष्ट होती है। ये दोनों कार्य परस्पर सावयवी ढंग से स्पष्ट सम्बद्ध हैं और किसी भी राजनीतिक व्यवस्था का अध्ययन इन कार्यों के सन्दर्भ से सरल, गहन तथा समस्या समाधानात्मक हो जाता है। इन कार्यों के आधार पर ही व्यवस्था की सजीवता जानी जाती है, अनेक राजनीतिक व्यवस्थाओं की तुलना की जा सकती है तथा निष्कर्ष रूप में देखा जाता है कि इन-पुट कार्य सम्पूर्ण व्यवस्था को किस प्रकार भिन्न प्रकृति का बना देता है।

स्पष्टतः आधुनिक दृष्टिकोण कई प्रकार से विशेष, अधिक वैज्ञानिक तथा व्यावहारिक है। तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र में विस्तृत अवधारणाएँ बननी प्रारम्भ हो गई हैं तथा गैर- राजनीतिक तत्वों की ओर ध्यान आकर्षित होने लगा है। कुछ निश्चित राजनीतिक व्यवहारों को सुनिश्चित करने वाले कारणों तथा राजनीतिक संस्थाओं की आवश्यकताओं को सम्बन्धित कर समाधान निकालने पर जोर दिया जाने लगा है। विशेष तकनीकी प्रक्रियाओं द्वारा तुलनाएँ की जाने लगी हैं तथा अनुभववादी विश्लेषण का प्रयोग बहुत अधिक होने लगा है। इतने पर भी तुलनात्मक अध्ययन प्रारम्भिक स्थिति में है।

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