समाज शास्‍त्र / Sociology

उद्योगों में कार्यकर्त्ता (श्रम) एवं पर्यवेक्षक एवं अधिकारी के मध्य सम्बन्ध | मानवीय संबंध के आधार

उद्योगों में कार्यकर्त्ता (श्रम) एवं पर्यवेक्षक एवं अधिकारी के मध्य सम्बन्ध | मानवीय संबंध के आधार | Relationship between worker (labor) and supervisor and officer in industries in Hindi | Basis of human relationship in Hindi

उद्योगों में कार्यकर्त्ता (श्रम) एवं पर्यवेक्षक एवं अधिकारी के मध्य सम्बन्ध

सभी उद्योगों का प्राथमिक लक्ष्य एक ऐसे स्वस्थ मनोवैज्ञानिक वातावरण का सृजन करना होता है, जिसमें काम करने वाले कार्यकर्तागण परस्पर मानवीय संबंधों और उससे उत्पन्न कल्याण तथा सुख-भाव का अनुभव करते हुए निर्भीक रूप से एक आदर्श औद्योगिक समाज का निर्माण करें। निःसंदेह हर कार्यकर्ता का एक अपना समाज होता है, जो मात्र औद्योगिक अभियांत्रिकी का कार्य-स्थल ही नहीं होता, बल्कि एक सामाजिक क्षेत्र भी होता है। इस समाज के सदस्य कार्यकर्तागण, पर्यवेक्षक तथा प्रबंधक हुआ करते हैं। यह समाज कार्यकर्ता के परस्पर मानवीय संबंधों की आधारशिला पर टिका होता है। औद्योगिक कुशलता, जिसमें उत्पादन के साथ साथ काम करने वालों का सुख और संतोष भी शामिल है, के निर्धारण में इस समाज का प्रबल हाथ होता है। आधुनिक युग में यह उत्तरोत्तर प्रमाणित हो चुका है कि औद्योगिक कुशलता को निर्धारित करने वाली प्राचीन और दकियानूसी धारणा पूर्णरूप से निरर्थक और अनुपयोगी हैं तथा समाज से पृथक् व्यक्ति की धारणा वातविकता नहीं, बल्कि कल्पना मात्र है। एल्टन माय (Elton Mayo) लगभग चार दशक पूर्व ही यह सिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक कार्यकर्ता अपने कार्यसमूह का एक सदस्य होता है और इन समूहों की मनोवृत्तियाँ एक नागरिक तथा कार्यकर्ता दोनों ही रूपों में उसके व्यवहार को सदैव प्रभावित करती रहती हैं। औपचारिक संगठन से भिन्न हर उद्योग के एक अनौपचारिक (informal) संगठन भी होता है, जिसके अस्तित्व की अनदेखी कर कोई भी प्रबंधक मानवीय संबंध बनाए रखने का अपना स्वप्न साकार नहीं कर सकता। उद्योगों में सामाजिकता की इन नव्य प्रवृत्ति से प्रभावित होकर ही आधुनिक मनोविज्ञानिकों ने उद्योगों को समाज और सामाजिक संबंधों का क्रीड़ा-स्थल मानना आरंभ किया है और सामाजिक विवेक’, ‘दलनिष्ठा’, ‘कार्य समूह’ तथा ‘औद्योगिक लोकतंत्र’ आदि शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से किया जाने लगा है।

उद्योग-धंधों तथा कार्यालयों में स्वस्थ मानवीय संबंध का विकास कतिपय ऐसी अवस्थाओं पर निर्भर करता है, जहाँ स्वस्थ मनोवृत्तियाँ तथा अभिप्रेरणाएँ अपने-आप सहज स्वाभाविक रूप में विकसित हों। ऐसे मानवीय संबंध कार्यक्रम की दो प्रधान विशेषताएँ होती है। प्रथमतः ऐसी परिस्थितियाँ और अवस्थाएँ होती है, जो व्यक्तियों के समुदायों में स्वस्थ मनोवृत्ति तथा अभिप्रेरणाओं का संचार करे और प्रबंधक द्वारा उठाए गए कदम से वांछित परिणाम उत्पन्न हो । द्वितीयतः व्यक्ति- वैभिन्य सिद्धान्त के अनुसार कार्यकर्ताओं के साथ अलग अलग व्यवहार विनियोग करने की जरूरत है।

मानवीय संबंध के आधार (Basis of Human Relations)

मानवीय संबंध बनाने के कुछ सामान्य नियम हुआ करते हैं और विभिन्न प्रयोगात्मक अनुसंधानों के आधार पर यह पता चला है कि मानवीय संबंध बनाए रखने के लिए अधोखित चार बातों पर ध्यान देना होगा-1. पर्यवेक्षण (Supervision), 2. संचार व्यवस्था (Communications), 3. कार्यकर्ता सम्मिलीकरण (Workerk Participation) तथा 4. समूह एकता (Group Unity)

  1. पर्यवेक्षण (Supervision) :

मानवीय संबंधों के प्रहरी के रूप में पर्यवेक्षक अपने अधीनस्थ कर्मचारियों की दृष्टि में कोई पर्यवेक्षक संपूर्ण, संगठन का प्रतीक और प्रतिनिध होता है। उसके व्यक्तित्व और व्यवहार के अधीनस्थों की मनोवृत्ति तथा व्यवहार विशिष्ट रूप से प्रभावित होते है। संगठन की ओर कर्मचारियों की कैसी प्रतिक्रियाएँ होंगी, यह इस बात से निर्धारित होगा कि पर्यवेक्षक की और उनकी कैसी प्रतिक्रिया है।

  1. संचार व्यवस्था (Communication System)-

पर्यवेक्षण के बाद संचार व्यवस्था की कोटि (Quality) पर ही उद्योगों में मानवीय संबंध ओर सामाजिक मनोविज्ञान की आधारशिला अवलंबित होती है। इस संचार-व्यवस्था को उद्योगरूपी पहियों का ‘चिकना तेल’ माना जाता है। हाल के वर्षों में औद्योगिक संचार-व्यवस्था के मनौवैज्ञानिक पहलुओं पर बहुत सारे शोधकार्य हुए हैं। संचार-व्यवस्था की परिभाषा देते हुए लल, फंक तथा पीयरसोल (Lull, Funk and Piersol, 1954) लिखते हैं-“यह ऐसी प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से सूचनाएँ, और जिसके फलस्वरूप परस्पर समझ तथा सहमति के लिए एक आधार सुलभ होता है।” Communication is defined as “all of the processes through which information, attitudes, ideas or opinions are transmitted and received, providing a basis for common understanding and agreement.

-Lull, P.E.; Eunk F.E. & Piersol, D.T.

प्रभावशाली संचार-व्यवस्था से व्यक्तियों और समूहों के बीच आपसी सूझ-बूझ का सृजन ओर विकास अपेक्षाकृत समुन्नत रूप से होता है। एतदर्थ, संचार व्यवस्था यंत्रबोध की अपेक्षा उसकी प्रभावशीलता को जानना मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के अधिक युक्तिसंगत लगता है। भीतर से इच्छा न रखने वाले व्यक्तियों को कोई संवाद सुनाना अथवा कागज के कुछ टुकड़ों को मात्र आगे बढ़ा देना ही यह निर्धारित नहीं करता कि वह संवाद व्यक्ति या समूहविशेष द्वारा सचमुच ग्रहण कर लिया गया है। यहीं पर अभियांत्रिकी की अपेक्षा संचार-व्यवस्था के मनोवैज्ञानिक पक्ष का महत्व अधिक स्पष्ट होता है।

किसी भी उद्योग अथवा व्यापार संगठन में संचार-व्यवस्था का बहाव (Flow) तीन दिशाओं में हो सकता है-

  1. ऊपर से नीचे की ओर (Downward) (प्रबंधक से होते हुए उद्योग के निम्नतम व्यक्ति की ओर),
  2. नीचे से उसकी ओर (Upward) (कर्मचारियों से होते हुए उच्च स्तरीय अधिकारियों की ओर) तथा
  3. एक संगठन के व्यक्तियों से दूसरे संगठन के समस्तरीय व्यक्तियों की ओर (Across) ( भिन्न-भिन्न संगठन के समतुल्य व्यक्तियों की ओर)।

संचार का विषय अथवा संवाद आशिंक रूप से अपनी दिशा के अनुरूप बदलता रहता है। उदाहरणार्थ नीचे की ओर होने वाली संचार-व्यवस्था के अंतर्गत निर्देश, आज्ञा, नीति तथा प्रक्रमों का वक्तव्य एवं अन्य सामान्य सूचनाएं शामिल होती हैं ऊपर की ओर निर्दिष्ट संचार-व्यवस्था के अंतर्गत सुझाव, मनोवृत्ति तथा शिकायतें आदि सम्मिलित होती है। इस तरह संचार की यह भिन्नता संचार का बहाव की दिशा से निर्धारित होती है।

  1. कर्मचारी-सम्मिलीकरण (Worker’s Participation) :

उद्योगों के अंतर्गत कार्य संचालन के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर निर्णय लेने में वहाँ के कर्मचारियों के भागीदार या शामिल होने की नीति को मानवीय संबंध की तीसरी अनिवार्य कड़ी बताया गया है। हाल के वर्षों में कर्मचारियों के सम्मिलीकरण की समस्या के पक्ष तथा विपक्ष दोनों ही में अत्यधिक चर्चाएं हो चुकी हैं। वाइटेलेस (Viteles) ने इस क्षेत्र में हुए कछेक अनुसंधानों के सर्वेक्षण के उपरांत यह निष्कर्ष निकाला है कि “अनुमतिबोधक नेतृत्व द्वारा किसी लोकतांत्रिक परिवेश में निर्णय लेने जैसे कार्य में कर्मचारी-सम्मिलीकरण से अभ्यांतरित अभिप्रेरणा के विकास में सहायता मिलती है एवं इससे कर्मचारी का उत्पादन तथा मनोबल-स्तर ऊंचा उठता है।”

“Employee participation in decision-making in a democratic atmosphere created by permissive’ leadership, facurtates the development of ‘intermalized’ motivation, and serves to raise the levels of the employee production and morale.”

– Vileles, M.S.

  1. समूह एकता (Group Unity)

कर्मचारियों की एकता किसी समूहविशेष के अंतर्गत व्यक्तियों के व्यवहार को बहुत अधिक प्रभावित कर सकती है। हॉर्थन कारखाने के एक अध्ययन-अंश में स्वालिसबर्जर तथा डिक्सन (Roethlisberger and Dickson) ने अपने निरीक्षणोपरांत यह देखा कि उत्पादन-दर को जानबूझ कर सीमित रखने में कार्यसमूह का दबाव महत्त्वपूर्ण होता है। बैंक वायरिंग निरीक्षण कक्ष के कर्मचारियों के साथ यह बात विशिष्ट रूप से लागू हुई। कार्य-समूह एकता के सदैव ऋणात्मक प्रभाव ही नहीं होते, बल्कि इसके धानात्मक प्रभाव भी देखे गए है। इसका लाभ पक्ष यह है कि इससे कार्य-संपादन में वृद्धि तथा अनुपस्थिति दर में कमी होती है। काट्ज, मैक कौबी तथा मोर्स (Kaktz, Mac Coby, and Morse) के ऊपर वर्णित प्रयोग में हमें इसका प्रमाण मिल चुका है। मान एवं बामगारटेल (Mann and Baumgartel) ने भी एक विद्युत शक्ति कंपनी में अपने अध्ययनोपारांत यह पाया कि समूह-एकता तथा अनुपस्थितीकरण की दर के बीच प्रत्यक्ष संबंध होता है।

इस तरह हम पाते हैं कि समूह-एकता भाव के फलस्वरूप बांछनीयता अथवा अवांछनीयता दोनों तरह की परिणाम दिखाई पड़ते हैं। प्रभाव तथा परिणामों की यह भिन्नता सबसे अधिक समूह के प्राथमिक लक्ष्यों द्वारा निर्धारित होती है।

निष्कर्ष (Conclusion)-

उपर्युक्त विवरण और विवेचन से यह प्रतीत होता है कि उद्योगों में समुन्नत मानवीय संबंध तथा सामाजिक मनोविज्ञान की ओर ले जाने वाला मार्ग बड़ा ही टेढ़ा-मेढ़ा है और यह उतना सरल, नहीं जितना प्रतीत होता है। बहुत कम ही ऐसे प्रबंधक अथवा उद्योगपति होंगे, जो इस पवित्र मार्ग की वांछनीयता पर प्रश्न चिह्न लगाते हों। अधिकाधिक प्रमाणों तथा निरीक्षणों से इस बात का खुला समर्थन मिल चुका है कि संतोषप्रद मानवीय संबंध और कर्मचारी दोनों ही द्वारा एक साथ अनुमोदित किया जाता है। कार्य-स्थलों में यद्यपि मानव-व्यवहार के बारे में ज्ञान प्राप्त करना अभी बहुत कुछ शेष है, फिर भी, ऐसा लगता है कि उक्त लक्ष्य की पूर्ति की ओर हर औद्योगिक प्रबंधक द्वारा भरपूर प्रयास किया जाना चाहिए और इस तरह के प्रयासों की प्रशंसा भी उन्मुक्त कंठ होनी चाहिए।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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