समाज शास्‍त्र / Sociology

औद्योगिक विवाद का अर्थ | औद्योगिक विवादों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि | प्रथम विश्व युद्ध के बाद औद्योगिक विवाद औद्योगिक विवाद के रूप

औद्योगिक विवाद का अर्थ | औद्योगिक विवादों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि | प्रथम विश्व युद्ध के बाद औद्योगिक विवाद औद्योगिक विवाद के रूप | Meaning of industrial dispute in Hindi | Historical background of industrial disputes in Hindi | Industrial disputes after the First World War as industrial disputes in Hindi

औद्योगिक विवाद का अर्थ (Meaning of Industrial Dispute)

यदि किसी उद्योग के दोनों वर्गों के पारस्परिक सम्बन्ध सहयोगपूर्ण एवं मित्रतापूर्ण न हों, तो उस स्थिति को औद्योगिक संघर्ष, औद्योगिक विवाद या औद्योगिक झगड़े (Industrial Dispute) कहते हैं औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 2 (क) में यह भली भाँति उल्लेख किया गया है, ‘औद्योगिक विवाद का अर्थ है मालिक और श्रमिक के मध्य या मालिक और कार्य करने वालों के मध्य, जो रोजगार से सम्बन्धित हैं अथवा रोजगार से सम्बन्धित नहीं हैं या रोजगार की शर्तों या किसी व्यक्तिश्रम के साथ किसी प्रकार के विवाद है।

“Industrial Dispute means any dispute or difference between employees and employers or between employers and workmen, or between workmen, which is connected with the employment or nonemployment or the term of employment or with the condition of labour and person.” – Industrial Disputes

Act.

इस प्रकार हम देखते हैं कि औद्योगिक विवादों के भिन्न-भिन्न रूप हैं उदाहरणार्थ छँटनी, काम के घण्टे, मजदूरी, बोनस, अबकाश, कार्य की दशायें इत्यादि। अतः यहाँ वह आवश्यक हो जाता है कि ओद्योगिक विवादों के कारणों की विवेचना के पूर्व उनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को संक्षिप्त रूप से देख लिया जाये।

औद्योगिक विवादों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

(Historical Back-ground of Industrial Disputes)

भारत में संगठित उद्योगों स्थापना हुए अधिक समय व्यतीत हो गया है किन्तु भारतीय उद्योगों में औद्योगिक विवादों का इतिहास लम्बा नहीं है, यही कारण है कि औद्योगिक विवाद पिछली शताब्दी में व्यापक पैमाने पर उद्योगों की स्थापना के बाद विकसित हुये। सन् 1918 के पूर्व भारत में सामान्य रूप से हड़ताले नहीं हुआ करती थी। सर्वत्र प्रायः औद्योगिक शांति का ही वातावरण था। इसके दो मुख्य कारण थे, सर्वप्रथम श्रमिक संगठित नहीं थे, द्वितीय लोकमत जागृत नहीं था और तत्कालीन सरकार भी इस ओर प्रायः उदासीन रहती थी।

लेकिन औद्योगिक विकास और श्रमिकों के संगठित होने के बाद, छोटे स्तर पर पड़तालों का आयोजन होने लगा। सन् 1859-60 में यूरोपियन रेलवे ठेकेदारों और भारतीय श्रमिकों के मध्य संघर्ष उत्पन्न हुआ जिसके कारण इसी वर्ष श्रमिक विवाद अधिनियम पारित हुआ। इसके बाद 1877 के नागपुर की एम्प्रेस मिल और 1882 में बम्बई की सूती वस्त्र मिल में हड़ताल हुई। परन्तु एक ऐसी हड़ताल जिसका अधिकृत विवरण मिलता है, वह अहमदाबाद की सूती मिल में पाक्षिक मजदूरी को लेकर हुई। 1890 तक मद्रास और बम्बई में 25 हड़तालों का आयोजन हुआ किन्तु वृहत् हड़ताल 1895 में मजदूरी के प्रश्न पर बम्बई में हुई और फिर बम्बई में ही सन् 1905 में विद्युत के प्रयोग और श्रम के घण्टों को लेकर हड़ताल की गयी। इस वर्ष रेलवे कर्मचारियों ने भी विभिन हड़तालों का आयोजन किया। इन हड़तालों ने अपना उम्र रूप सन् 1908 में ग्रहण किया जब स्व0 बाल गंगाधर तिलक को अंग्रेज सरकार ने 6 वर्ष का कठोर कारावास दण्ड दिया। यह एक राजनीतिक पक्ष को लेकर एक ऐतिहासिक हड़ताल थी जिसने भारत के समस्त श्रमिकों को जागरूक किया।

प्रथम विश्व युद्ध के बाद औद्योगिक विवाद (Industrial Disputes After Ist World War)-

प्रथम विश्व युद्ध के बाद देश की औद्योगिक दशा में अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए और उद्योगपतियों एवं श्रमिकों के सम्बन्धों में काफी कटुता उत्पन्न हो गई। युद्ध के परिणामस्वरूप एक तो महँगाई बढ़ी परन्तु दूसरी ओर महँगाई की वृद्धि के अनुपात में श्रमिकों को मजदूरी में वृद्धि नहीं की गयी और पूँजी पतिया ने अधिक लाभ प्राप्त कर लिया था। इस प्रकार देश राष्ट्रीय आन्दोलन के विकास में श्रमिकों के नेतृत्व के उदय से औद्योगिक विवादों में वृद्धि हो गई। अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organisation) की स्थापना से भी श्रमिक संगठनों के विकास को विशेष प्रोत्साहन मिला। सन् 1918 में एक ऐसी श्रमिक-हड़ताल का आयोजन हुआ जिसने भारत की सम्पूर्ण औद्योगिक व्यवस्था को प्रभावित किया। इस काल में हड़तालों की संख्या और भी बढ़ गयी। इस काल की हड़तालों में 1921 में आसाम के चाय बागान के श्रमिकों की हड़ताल, सन् 1924 में बम्बई नगर की सामान्य हड़ताल मुख्य हैं। जिसमें 1,60,000 श्रमिकों ने सक्रिय भाग लिया। सन् 1928 में श्रमिकों की एक बड़ी हड़ताल हुई।

सन् 1929 के उपरान्त (After 1929)- सन् 1929 के बाद देश में भयंकर मन्दी का आरम्भ हुआ। वस्तुओं के मूल्य निरन्तर गिरने लगे। उत्पादन की लागत वस्तुओं के मूल्य से अधिक हो गई। परिणाम यह हुआ कि उत्पादन की लागत कम करने के लिए श्रमिकों की छँटनी, कम मजदूरी, अभिनवीकरण आदि को प्रोत्साहन मिला। इस आर्थिक दशन के बीच इस समय श्रमिक संगठन काफी बलवान हो गये थे। अतः उद्योगों की नीति के विरुद्ध श्रमिकों ने संघर्ष करना प्रारम्भ कर दिया। अभिनवीकरण के विरोध में सन् 1929 में एक महत्वपूर्ण हड़ताल आयोजित की गई। परन्तु फिर भी सन् 1930 में सन् 1939 तक का समय सापेक्षिक दृष्टि से औद्योगिक शान्ति का रहा। इसका मुख्य कारण यह था कि प्रदेशों में राष्ट्रीय मन्त्रिमण्डलों के स्थापित होने से श्रमिकों को अपने जीवन स्तर में सुधार की आशा हो गई थी। यह उल्लेखनीय है कि इस बीच इन सरकारों ने श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाये। उत्तर प्रदेश में श्रमिकों की स्थिति की जाँच करने के लिए एक समिति की स्थापना हुई। परन्तु मिल-मालिकों ने समिति के सुझावों पर आपत्ति प्रकट की। इस कारण श्रमिकों में असन्तोष उत्पन्न हो गया और कानपुर, बम्बई और बंगाल की अनेक मिलों में आम हड़ताले हुईं। जैसे कि आंकड़ों से पता लगता है कि उस समय (सन् 1937 और सन् 1938) में देश में क्रमशः 739 और 399 हड़ताले हुई। इस दौरान उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों में हड़ताल होनी प्रारम्भ हो गयीं।

सन् 1939 के पश्चात् (After 1939)- औद्योगिक विवादों की दृष्टि से सन् 1939 के बाद का समय काफी संकटपूर्ण रहा है। सितम्बर सन् 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध का आरम्भ हुआ। इसके फलस्वरूप मुद्रास्फीति (Inflation) हुयी। वस्तुओं की कीमत में वृद्धि हुई। सन् 1940 में बम्बई की सूती मिलों के कर्मचारियों ने अपने श्रमिक नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में हड़ताल की। सरकार तथा पुलिस के कड़े प्रतिबन्धों के होते हुए भी यह हड़ताल 40 दिनों तक चलती रही। इन हड़तालों का मुख्य कारण यह था कि वस्तुओं की कीमत बढ़ गयी थी अतः जीवनयापन का व्यय भी अधिक बढ़ गया था। परन्तु इसके विपरीत बढ़ती हुई मँहगाई के अनुपात में श्रमिक की आय में वृद्धि नहीं हुई थी। इस प्रकार कानपुर के सूती मिल कर्मचारियों ने, बंगाल और बिहार की जूट मिलों के कर्मचारियों, आसाम के दिग्बोई के तेल कर्मचारियों ने तथा धनबाद व झरिया में कोयले की खानों में काम करने वाले कर्मचारियों ने काम करना बन्द कर दिया। इस असन्तोष की लहर को दबाने के लिए सरकार को भारतीय रक्षा कानून बनाना पड़ा। इस कानून से सरकार ने अनेक आवश्यक उद्योगों में हड़ताल को अवैध घोषित कर दिया। परन्तु युद्ध के बाद श्रमिकों में असन्तोष की भावना फिर से जाग उठी। अतः उन्होंने विभिन्न उद्योगों में अपनी माँगों को पूरी करवाने के लिए हड़तालें करना प्रारम्भ कर दिया। जुलाई 1946 में डाक व तार कर्मचारियों ने देश व्यापी हड़ताल की। इस समय रेल कर्मचारियों ने भी हड़ताल की धमकी दी जो राजनीतिक नेताओं के हस्तक्षेप के कारण टल गयी।

सन् 1947 के बाद (After 1947)- स्वाधीनता के बाद, औद्योगिक व्यवसायों में अनेक परिवर्तन हुए। देश में एक ओर मुद्रा स्फीति की समस्या थी और दूसरी ओर उत्पादित वस्तुओं का अभाव था। इसके अलावा देश के विभाजन से विस्थापितों की भी समस्या उत्पन्न हो गई थी। अतः सरकार श्रमिकों की समस्या पर अधिक ध्यान न दे सकी। देश के साम्यवादी तत्त्वों को इस स्थिति का विशेष लाभ हुआ। अतः श्रमिकों का असन्तोष हड़तालों के रूप में सामने आया। सन् 1947 में ही बम्बई की सूती मिलों के लगभग एक लाख श्रमिकों ने हड़ताल कर दी। दूसरी महत्वपूर्ण हड़ताल बकिंघम तथा कर्नाटक मिल में हुई जो तीन महीने तक चलती रही। साथ ही कोयम्बटूर, नागपुर, कानपुर, बंगाल तथा बम्बई सूती मिलों तथा बंगाल की जूट मिलों में हड़तालें हुई। इसी समय ट्राम्बे, अल्यूमीनियम तथा बड़ी उद्योगों में कार्य करने वाले श्रमिकों ने भी हड़तालें कीं।

सन् 1949 में मध्य प्रदेश की अनेक मिलों में तालाबन्दी की घटनाएँ हुई। 1950 में बम्बई की सूती मिलों के कर्मचारियों ने बोनस के प्रश्न को लेकर आम हड़ताल की। उत्तर प्रदेश में चीनी मिलों के श्रमिकों ने न्यूनतम वेतन प्रश्न को लेकर हड़तालें कीं। सन् 1952 में अहमदाबाद, बम्बई तथा नागपुर की सूती मिलों के कर्मचारियों तथा राजकीय आर्डिनेन्स फैक्टरी पूना के कर्मचारियों ने हड़तालें कीं। 1953 की सबसे महत्वपूर्ण हड़ताल बर्नपुर की आयरन और स्टील मिलों के कर्मचारियों की हड़ताल है। सन् 1966 में कानपुर के कपड़ा मिल कर्मचारियों ने अभिनवीकरण के विरोध में हड़ताल की। सन् 1958 में बम्बई, अहमदाबाद और कलकत्ता में पुनर्गठन के प्रश्न को लेकर हड़तालें हुई। 1957 में बंगाल और बिहार में खानों में काम करने वाले कर्मचारियों और बंगाल में बैंकों में कार्य करने वाले कर्मचारियों ने हड़ताल की। इसी वर्ष मोदीनगर की कताई और बुनाई की मिलों में लाताबन्दी की गई। 1956 के कोलार में सोने की खानों में कार्य करने वाले कर्मचारियों ने और रामपुर की राजा ‘शुगर मिल’, धनबाद की कायेला खानों में, उत्तरी आरकोट के बीड़ी कारखानों में तथा इलाहाबाद की स्वदेशी कपड़ा मिलों में भी हड़ताल हुई। जुलाई सन् 1964 में केन्द्रीय सरकार कर्मचारियों ने पने न्यूनतम वेतन के प्रारम्भ को लेकर महत्वपूर्ण हड़ताल की। इसके पश्चात् अखिल भारतीय स्तर पर सबसे महत्वपूर्ण हड़ताल सन् 1974 में रेलवे कर्मचारियों ने की।

1947 में 1181 1957 में 1630, 1967 में 2817 और 1973 में 3370 औद्योगिक विवाद हुए। 1975 में आपात स्थिति की घोषणा के बाद औद्योगिक विवादों की संख्या में कमी आई। 1977 और 1981 के मध्य औद्योगिक विवादों में बढ़ोत्तरी हुई परन्तु 1982-83 में कम औद्योगिक विवाद हुए। भारत में सबसे अधिक औद्योगिक विवाद सूती वस्त्र उद्योग, बम्बई तथा पश्चिमी बंगाल में होते हैं यह विवाद श्रमिकों की निर्धनता एवं सौदाकारी के अभाव के कारण असफल होते हैं।

औद्योगिक विवाद के रूप

(Forms of Industrial Disputes)

औद्योगिक विवाद की अभिव्यक्ति हड़ताल और तालाबन्दी के रूप में होती है-

  1. हड़ताल (Strike)- औद्योगिक विवाद अधिनियम द्वारा हड़ताल को निम्नलिखित शब्दों में परिभाषित किया गया है, “हड़ताल का अर्थ यह है कि ऐसे व्यक्तियों के एक समूह द्वारा कार्य बन्द कर दिया जाये जो किसी उद्योग में कार्य पर लगे हुए हैं और जो मिल-जुल कर कार्य करते हैं या ऐसे व्यक्तियों द्वारा जो नौकरी पर लगे हैं या लगाये गये हैं, रोजगार पाने और कार्य करते रहने से एकमत होकर इन्कार कर दिया जाये या सामान्य समझौते के अन्तर्गत इन्कार कर दिया जाये।
  2. तालाबन्दी (Lockout)- इसी प्रकार तालाबन्दी की परिभाषा भी की जा सकती है। तालाबन्दी का अर्थ यह है कि जिस जगह कार्य हो रहा है उस स्थान को बन्द कर दिया जाये या कार्य को रोककर स्थगित किया जाये या मालिक द्वारा ऐसे व्यक्तियों को, जो उसके द्वारा कार्य पर लगाये गये हैं, नौकरी पर लगाये रखने से इन्कार कर दिया जाये।” यहाँ पर भी जान लेना आवश्यक है कि तालाबन्दी श्रमिकों द्वारा न होकर मालिकों द्वारा की जाती है।

उक्त परिभाषाओं से यह पूर्ण रूप से ज्ञात हो जाता है कि हड़ताल और तालाबन्दी दोनों श्रमिक मालिकों के बीच होने वाले संघर्षों की ओर इशारा करते हैं। मालिकों द्वारा श्रमिकों का शोषण होने पर हड़ताल होती है और जब कभी मालिकों के अपने हितों की रक्षा नहीं होती तो तालाबन्दी की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यही कारण है कि उद्योगों में समय-समय पर विभिन्न प्रकार के विवाद होते रहते हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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