विद्यापति सौन्दर्य एवं प्रेम के कवि हैं | विद्यापति मुख्यतः यौवन और शृंगार के कवि हैं | विद्यापति मूलतः शृंगार के कवि हैं | विद्यापति के श्रृंगार चित्रण की विशेषताएँ | विद्यापति भक्ति और श्रृंगार के कवि है

विद्यापति सौन्दर्य एवं प्रेम के कवि हैं | विद्यापति मुख्यतः यौवन और शृंगार के कवि हैं | विद्यापति मूलतः शृंगार के कवि हैं | विद्यापति के श्रृंगार चित्रण की विशेषताएँ | विद्यापति भक्ति और श्रृंगार के कवि है

विद्यापति सौन्दर्य एवं प्रेम के कवि हैं

विद्यापति पदावली का प्रतिपाच विद्वानों में विवादसद बना हुआ है। कुछ विद्वानों का मत है कि विद्यापति शृंगारी कवि हैं और उनकी भक्ति-भावना एक झीना आवरण मात्र है। दुछ विद्वान् विद्यापति की पदावली को आध्यात्मिक विचारों तथा दार्शनिक गूद रहस्यों से परिपूर्ण मानते हैं। यहाँ विभिन्न विद्वानों के मत उद्धत किये जा रहे हैं

“विद्यापति उच्चकोटि के भक्त कवि थे”

डॉ. ग्रियर्सन – “विद्यापति के पद लगभग सबक-के-सब वैष्णव-पद या भजन हैं। जिस प्रकार सोलोमन के गीतों को ईसाई पादरी पढ़ा करते हैं, इसी प्रकार हिन्दू भक्त विद्यापति के चमत्कारी पदों को पढ़ते हैं और जरा भी कामवासना का अनुभव नहीं करते है।”

नगेन्द्रनाथ गुप्त- “विद्यापति की राधा-कृष्ण पदावली का सारांश यही है कि जीव आत्मा को खोज रहे हैं, और एकान्त स्थान में परमात्मा से मिलने के लिए चिन्तित हैं।”

डॉ. श्यामसुन्दरदास- “हिन्दी में वैष्णव-साहित्य के प्रथम कवि प्रसिद्ध मैथिल-कोकिल विद्यापति हुए। उनकी रचनाएँ राधा और कृष्ण के पवित्र प्रेम से ओतप्रोत है।

डॉ. जनार्दन मिश्र- “विद्यापति अपने को पत्नी (राधा) समझकर ईश्वर (कृष्ण) की उपासना पति के रूप में करते थे।” डॉ. मिश्र की दृष्टि में विद्यापति की पदावली आध्यात्मिक विचार तथा दार्शनिक गूढ रहस्यों से परिपूर्ण है।

डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी- “इनका (पदावली का) वक्तत्व विषय राधा तथा अन्य गोपियों के साथ श्रीकृष्ण की प्रेमलीला है। राधा और कृष्ण के प्रेम-प्रसंगों की यह पुस्तक प्रथम बार उत्तर भारत में गेयपदों को प्रकाशित करती है। इस पुस्तक के पदों ने आगे चलकर बंगाल, आसाम और उड़ीसा के वैष्णव भक्तों को खूब प्रभावित किया और यह उन प्रदेशों के भक्ति-साहित्य में नयी प्रेरणा और नयी प्राणधारा संघारित करने में समर्थ हुई। इसीलिए पूर्वी प्रदेशों में सर्वत्र यह पुस्तक धर्मग्रन्थ की महिमा पा सकी।”

पं. शिवनन्दन ठाकुर- “चैतन्यदेव पर इस पदावली का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने कौमार्य व्रत धारण कर लिया। इसलिए इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि पदावली में भक्तिरस प्रधान है, शृंगार रस नहीं।”

डॉ. जयनाथ नलिन- “भाषा और भावों की सूक्ष्मता, प्रांजलता, महत्ता और सघनता के विकास-क्रम को कसौटी मानें तो क्रमशः शैव, शाक्त और वैष्णव धर्म की ओर उनका अग्रसर होना निश्यित होता है। निर्वेद ही शान्त रस का स्थायी भाव है। यह वैराग्य से उत्पन्न होता है। कवि की यौवनश्री मुरझा गई है। इन्द्रियों शिथिल हो गई हैं? तब भी मन चंचल है। निरोध करने पर भी वह निरंकुश वासनाजन्य सुख का आकांक्षी है। (इसके प्रमाणस्वरूप उन्होंने ‘कैसन केस की’, ‘भए विह्वल बन भरी बहुकण्ठ’ आदि से सम्बन्धित पद उद्धत किया है।) यही आत्मग्लानि भक्त को वासना की कीचड़ से निकालकर भक्ति के मानस-तट पर पहुंचती है। इस प्रकार यह आत्मग्लानि सभी भक्तों की रचनाओं में पाई जाती है। यही संसार-सुख की क्षणभंगुरता का बोध कराती है और भक्त को भगवान् की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करती है।”

“विद्यापति शृंगार के (शृंगारी) कवि है”-

आचार्य पं. रामचन्द्र शुक्ल- “विद्यापति के पद अधिकतर शृंगार के ही हैं, जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण हैं। इन पदों की रचना सम्भवतः जयदेव के ‘गीत-गोविन्द’ के अनुकरण पर ही की गयी है। इनका माधुर्य अद्भुत है। विद्यापति शैव थे। उन्होंने इन पदों की रचना शृंगार-काव्य की दृष्टि से की हैं, भक्त के रूप में नहीं। विद्यापति को कृष्ण-भक्तों की परम्परा में नहीं समझना चाहिए। आध्यासत्मि रंग के चश्में आजकल बहुत सस्ते हो गये हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने ‘गीत गोविन्द’ के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी। सूर आदि कृष्ण-भक्तों के शृंगारी पदों की भी ऐसे लोग आध्यात्मिक व्याख्या चाहते है।”

पं. शिवनन्दन ठाकुर- “विद्यापति के ग्रन्थ-रचना-क्रम से भी यही मालूम पड़ता है। राजदरबार में आकर सबसे पहले उन्होंने ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ की रचना की, जिनमें कीर्तिसिंह के वर्णन के अवसर पर वीर रस के साथ शृंगार रस का सम्मिश्रण पाया जाता है। गुणाग्राही राजा-रानी (शिवसिंह और लखिमादेवी) के पाकर विद्यापति ने शृंगार रस की सरिता बहा दी। वही मुक्तक-काव्य ‘पदावली’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। मालूम पड़ता है कि शिवसिंह की मृत्यु के बाद विरक्त होकर विद्यापति ने शृंगार रस की कविता करना छोड़ दिया।”

डॉ. बाबूराम सक्सेना- “विद्यापति के पदों के अध्ययन से पता लगता है कि वे बड़े शृंगारी कवि थे। इन पदों को राधा-कृष्ण की भक्ति पर आरोपित करना पद-पदार्थ के प्रति अन्याय है। कवि विद्यापति के रसिक होने का परिचय उनके प्रथम ग्रन्थ ‘कीर्तिलता’ को पढ़ने से ही हो जाता है। जौनपुर की वेश्याओं और वहाँ की बनैनियों का जो वर्णन उन्होंने किया है, वह उनके रसिक शृंगारी होने का पूर्ण परिचायक है।”

डॉ. रामकुमार वर्मा- “राधा का प्रेम भौतिक और वासनारमय प्रेम है। आनन्द ही उसका उद्देश्य है और सौन्दर्य ही उसका कार्य-कलाप। विद्यापति के इस बाह्य संसार में भगवत् भजन कहाँ? इस वयः सन्धि में ईश्वर से सन्धि कहाँ ? सद्यः स्नाता में ईश्वर से नाता कहाँ और अभिसार में भक्ति का सार कहाँ उनकी कविता विलास की सामग्री है, उपासना की साधना नहीं। उससे हृदय मतवाला हो सकता है, शान्त नहीं।।”

रामवृक्ष बेनीपुरी- “इनकी कविताएँ विशेषतः राधा-कृष्ण विषयक हैं। अतः लोगों की धारणा है कि वे वैष्णन रहे होंगे। बंगाल में भी पहले यही धारणा थी। बाबू ब्रजनन्दन सहाय ने अपने समर्पण-पत्र में इन्हें ‘वैष्णव कवि चूड़ामणि’ लिखा है, किन्तु जनश्रुति और प्रमाण इसके विरुद्ध है।”

डॉ. आनन्द प्रकाश दीक्षित- “मैथिल-कोकिल प्रसिद्ध रचना ‘पदावली’ उन्हें भक्त सिद्ध नहीं करती है। हमारा विश्वास है, कवि विद्यापति की शृंगारी कविताओं को पसन्द करके उन्हें राजा-रानियों अथवा जनता ने जो उपाधियाँ वितरित की थीं, उनका खुला प्रयोग कवि ने अपनी पदावली की श्रृंगारिक भावनाओं से ओत-प्रोत पदों में जिस निष्ठा से किया है, उसी निष्ठा से वे उन उपाधियों का भी प्रयोग करते, जो उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें मिलती। न वे भक्त थे, न उसके पुरस्कारस्वरूप उन्हें वैसी उपधियाँ मिलीं और न ही उनका वे प्रयोग कर पाये। विद्यापति तो वास्तव में रस-सिद्ध कवि थे, इसलिए जिस भाव की कविता में जब जिस कारण से भी उनका मन रमा, उन्होंने उस भाव की कविता तभी लिख डाली और अपने सिद्धत्व से उसे चरमोत्कर्ष पर पहुंचा दिया। वास्तव में विद्यापति मूलतः एक शृंगारी कवि थे। विद्यापति ने यौवन के अत्यन्त मनोरम चित्र अंकित किये है। ये चित्र मांसल, स्वस्थ और मनोरम हैं। उनका यह वर्णन जयदेव की परम्परा में है। ‘गीत-गोविन्द’ के विलास कुतूहल का विद्यापति की पदावली पर व्यापक प्रभाव है। विद्यापति ने नायिका के नख-शिख, सद्यःस्नाता, मानवती, अभिसारिका, विरह से व्यथित आदि विभिन्न रूपों का अंकन किया है।”

एक समीक्षक के मार्मिक शब्दों में “विद्यापति ने राधा और कृष्ण का जो वर्णन किया है, वह एक मिलनातुर नर-नारी का ही स्वस्थ, मांसल रूप प्रस्तुत करता है। राधा और कृष्ण हमेशा सदैव मिलने के लिए आतुर बने रहते हैं। संयोग में मुक्त होकर केलि-क्रीड़ा करते हैं और विछोह के समय पुनः मिलन के लिए व्याकुल और व्यथित बने रहते हैं। राधा-कृष्ण सम्बन्धी पदों में कहीं इसका आभास तक नहीं मिलता कि कृष्ण मानव-रूप ब्रह्म है और राधा उनकी नारी-रूप शक्ति। उनका रूप वही रहा है जो एक स्वस्थ, सुन्दर और विलास-लिप्सु नर-नारी का होता है। विद्यापति ने इन दोनों के सन्दर्भ में संयोग और वियोग-शृंगार की दोनों स्थितियों का चित्रण किया है, परन्तु इसमें भी प्रधानता संयोग की ही रही है। उन्होंने संयोग के ऐसे मादक चित्र अंकित किये हैं, जिनमें कुण्ठाहीन उन्मुक्त सुख-भोग अपने सम्पूर्ण सौन्दर्य, मादकता और प्रभाव के साथ सजीव और साकार हो उठा है। कुछ नीतिवादी आलोचकों को इन पदों में विलास की तीव्र गन्ध और सामाजिक मर्यादा की अवहेलना दिखाई पड़ी, इसीलिए उन्होंने विद्यापति को घोर शृंगार का चित्रण करने वाला ऐसा कवि घोषित कर दिया था जो समाज में विकृतियों को जन्म देने वाला है। मानव-मनोविज्ञान की अवहेलना करके स्वस्थ शृंगार को घातक सिद्ध करने वाले आलोचक स्वस्थ शृंगार के चितेरों की हमेशा इसी प्रकार उपेक्षा और भर्त्सना करते आये है, परन्तु जन-समाज पर उनका कोई-प्रभाव नहीं पड़ता। विद्यापति के मांसल श्रंगार सम्बन्धी पद आज भी उनके पाठकों में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं और समाज में जब तक यौवन की स्वाभाविक चेतना और आकर्षण रहेगा, तब तक बराबर लोकप्रिय बने रहेगें। इन नीति-वृद्धों को जंग की यह जवानी हमेशा इस तरह अखरती रहेगी और शृंगार का चित्रण भी सदैव इसी प्रकार होता रहेगा।”

विद्यापति के काव्य पर संस्कृत-साहित्य की शृंगारपरक रचनाओं का भी व्यापक प्रभाव पड़ा है। जयदेव के ‘गीत-गोविन्द’ की परम्परा का विकास विद्यापति की पदावली में स्पष्ट है। ‘गाथा-सप्तशती’ और ‘आर्या-सप्तशती’ द्वारा जो शृंगार की परम्परा चली थी, उसी के अनुरूप विद्यापति ने भी मुक्तक- काव्य-शैली में राधा-कृष्ण की प्रेम-लीला को माध्यम बनाकर शृंगारिक भावना की अभिव्यक्ति की।

विद्यापति का श्रृंगार वर्णन स्थूल है। उन्होंने बहुत से ऐसे शृंगारी पदों की रचना की है, जिनमें राधा और कृष्ण का नाम भी नहीं है। अतः वे पद भक्ति-भाव सम्पन्न न होकर शृंगारी हैं।

विद्यापति के समय में मिथिला में शैव और शाक्तों का प्राधान्य था। शाक्त मार्ग के अनुसार क्रीड़ारत नारी परम उपास्य है। नारी देवता का पर्याय है। विद्यापति का राधा-कृष्ण के माध्यम से किया हुआ शृंगार वर्णन शाक्त-भक्ति से प्रभावित है।

निष्कर्ष-

उपर्युक्त विवेचन एवं ‘पदावली’ के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि विद्यापति प्रारम्भ में श्रृंगारी कवि थे, किन्तु अपनी साहित्य-रचना के प्रौढ़-काल में वे भक्ति-भावना की ओर उन्मुख होते गये। प्रारम्भ में वे शुद्ध शृंगारी कवि थे और उनकी रचनाएँ विलास का साधन थीं, किन्तु आगे चलकर वे युगल-मूर्ति के प्रति उपास्य भाव से उन्मुख हुए और माधव से अपना उद्धार करने की विनती करने की ओर प्रवृत्त हुए

माधव, हम परिनाम निरासा।

तुहुँ जगतारन दीन दयामय अतय तोहर विसवासा।।

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