समाज शास्‍त्र / Sociology

जातिवाद का अर्थ | जातिवाद की परिभाषा | जातिवाद के कारण | जातिवाद के कारक | जातिवाद से आप क्या समझते है?

जातिवाद का अर्थ | जातिवाद की परिभाषा | जातिवाद के कारण | जातिवाद के कारक | जातिवाद से आप क्या समझते है?

जातिवाद का अर्थ

(Meaning of Casteism)

विज्ञान एवं तकनीकी विस्तार के फलस्वरूप भारतवर्ष में भी अभूतपूर्व औद्योगिक एवं नागरिक विकास की प्रक्रियाओं का शुभारम्भ हुआ। यातायात एवं संदेशवाहन के साधनों में अभी तक बिखरे हुए प्रदेशों एवं समाजों को एकसूत्र में बाँध दिया। इधर प्रजातन्त्र की स्थापना एवं नवीन शिक्षा प्रणाली ने अन्य कारकों के साथ भारतीय समाज की आधारभूत संस्थाओं, मूल्यों एवं व्यवहार प्रतिमानों में क्रान्तिकारी परिवर्तन किए। भारतवर्ष की सबसे जटिल, कठोर एवं रूढ़िवादी जातिप्रथा भी इसका अपवाद न रह सकी। आज लोग जाति के भविष्य के बारे में भी शंका व्यक्त करने लगे हैं। किन्तु एक ओर यदि परम्परा व जाति प्रथा का विघटन हो रहा है तो दूसरों ओर द्वितीयक समाजों में अवैयक्तिक सम्बन्धों एवं स्वार्थी प्रवृत्तियों के कारण एक जाति के सदस्यों के मस्तिष्क में अपनी जाति एवं उसके सदस्यों के प्रति एक विशेष जगारूकता पैदा हो रही है। यह जातिगत भावना अपना ही स्वार्थ सिद्ध करने को प्रेरित करती है। साधारणतया किसी जाति के सदस्यों की इस कलुषित स्वार्थी प्रवृत्ति एवं भावना को ही हम जातिवाद की संज्ञा देते हैं।

जातिवाद की परिभाषा

(Definition of Casteism)

के, एम. पाणिक्कर के अनुसार, “राजनीति की भाषा में उपजाति के प्रति निष्ठा का भाग ही जातिवाद है।”

नर्मदेश्वर प्रसाद का कथन है, “जातिवाद राजनीति में रूपान्तरित जाति के प्रति निष्ठा है।”

काका कालेलकर का मत है, “अतः जातिवाद अंध और परमोच्च भक्ति है जो न्याय के स्वस्थ सामाजिक स्तरों, समानता और सार्वभौमिक बन्धुत्व की भावना की उपेक्षा करती है।”

डा. शर्मा (Dr. Sharma) लिखते हैं, “जातिवाद अथवा जातिभक्त एक जाति के व्यक्ति की वह भावना है जो देश या समाज के हितों का ध्यान न रखते हुए व्यक्ति की केवल अपनी ही जाति के उत्थान, जातीय एकता और जाति की सामाजिक स्थिति को दृढ़ करने के लिए प्रेरित करती है।”

जातिवाद एक जाति के सदस्यों की अपनी जातीय स्वार्थों के प्रति वह दृढ़ एवं आंधी भक्ति मानी जा सकती है जो कि अन्य जातियों एवं सम्पूर्ण समाज के स्वार्थों की अवहेलना करने को प्रेरित करती है। आज के इस बदलते भारत में अब जाति के स्थान पर जातिवाद का प्रभाव चरम सीमा पर है। राजनीति हो या धर्म, शिक्षा हो या सरकारी नौकरी, व्यवसाय हो या सार्वजनिक कल्याण संस्थाये, प्रत्येक आज जातिवाद के रंग में रंगी हुई है। हमारे राष्ट्रीय विकास की धीमी गति का एक प्रमुख कारण जातिवाद ही है। एम. एन. श्रीनिवास ने अपनी पुस्तक “Caste in Modem India & Other Essays” में लिखा है कि मैसूर में जहाँ कभी भस्मासुर राज्य करता था, आज वर्णासुर राज्य कर रहा है।

जातिवाद के कारण या कारक

(Factors of Casteism)

जातिवाद के कारण निम्नलिखित हैं –

(1) यातायात एवं संदेशवाहन के साधनों में वृद्धि- यातायात एवं संदेशवाहन के आधुनिकतम साधनों ने अभी तक बिखरे लोगों को एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया है। आज के औद्योगिक समाज में व्यक्ति अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु विभिन्न जातीय संगठनों का निर्माण करता है। सभा तथा भाषण का आयोजन कर जातिवाद की गन्दी भावना का प्रसार करता है।

(2) उच्च जातियों द्वारा निम्न जातियों का शोषण- पहले जाति व्यवस्था कर्म के ऊपर आधारित थी किन्तु जब से जाति का निर्धारण जन्म के आधार पर होने लगा, निम्न जातियों की स्थिति दिन पर दिन दयनीय होती जा रही है। जातीय संगठनों का निर्माण कर उच्च जातियाँ निम्न जातियों का शोषण कर अपने स्वार्थ सिद्धि की चेष्टा करती है।

(3) भारतीय स्वतन्त्रता एवं प्रजातन्त्र की स्थापना- निरन्तर संघर्ष के पश्चात् भारत एक स्वतन्त्र गणराज्य घोषित हुआ। इसका अपना एक अलग संविधान बना, सम्यक नागरिकता को स्वीकार करते हुए भारत एक पूर्णतया धर्म निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया। प्रजातन्त्र का नया अध्याय प्रारम्भ हुआ। चुनाव द्वारा विभिन्न राजनैतिक दलों ने सत्ता हथियाने का प्रयास किया। चुनाव में विजय प्राप्त करने के लिए नेताओं ने लोगों के मस्तिष्क में अपनी जाति के उम्मीदवारों को वोट देकर जिताने का प्रयास किया। आज भी चुनावों में जातिवाद का ही बोलबाला रहता है।

(4) अअन्तःविवा- जाति प्रथा के अन्तर्गत कठोर वैवहिक प्रतिबन्ध होते हैं। जाति अपने सदस्यों को अपनी ही जाति में विवाह की मान्यता प्रदान करती है। इसलिये लोग अपनी जाति के लड़कों को ही शिक्षा एवं नौकरी के क्षेत्र में वरीयता प्रदान कर जातिवाद को बढ़ावा देते हैं। अतःविवाह ने प्रत्येक उपजाति को एक आत्मकेन्द्रित समूह बना दिया जिससे हर बात में ये अपनी उपजाति या जाति के सदस्यों का ही पक्ष लेने लगी इसी प्रकार अन्य उपजातियों ने भी इसी का अनुसरण किया।

(5) मुस्लिम एवं ईसाई धर्म प्रचारकों का प्रभाव- मुसलमान तथा ईसाई धर्म प्रचारकों द्वारा अपने-अपने धर्म का प्रचार देखकर भारत में अन्य जाति के लोगों में धार्मिकता की भावना बढ़ी है। उन्होंने अपनी जाति की रक्षा एवं धर्म प्रचार के लिए विभिन्न जातीय संगठनों का निर्माण किया जिसने जातिवाद को प्रेरणा दी।

(6) पुरोहितों द्वारा अपनी जाति को बढ़ावा- भारतीय समाज में जातीय संस्तरण में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोपरि रहा है। इन लोगों ने अपनी श्रेष्टता सिद्ध करने एवं स्थायी बनाने के लिए वेदों, पुराणों एवं स्मृतियों का सहारा लिया फलतः अन्य जातियों ने भी समय में परिवर्तन के साथ अपनी जाति के स्वार्थी एवं प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए जातिवाद का प्रसार किया।

(7) औद्योगीकरण- औद्योगीकरण ने व्यवसाय एवं नौकरी के नये अवसर प्रदान किए हैं। व्यक्ति औद्योगिक संस्थाओं में जाकर अधिक कमाने की चेष्टा करता है। यहां अपने को अकेला पाकर वह अपनी जाति के अन्य लोगों से सम्पर्क बढ़ाकर जातीय संगठन का निर्माण करता है तथा अपने स्वार्थों की रक्षा करता है। वह एक विशेष व्यवसाय में दूसरी जाति के सदस्यों को बढ़ावा न देकर निरुत्साहित करता है। यह भावना ही आगे जातिवाद को बढ़ावा देती है।

(8) शिक्षा का प्रसार- आज शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश सुविधायें, छात्रवृत्तियाँ एवं अध्यापकों की नियुक्तियों का निर्धारण जाति के आधार पर ही किया जाता है। जब एक जाति के लोग ऐसा करते हैं तो अन्य जातियों के लोगों को भी अपने स्वार्थो की रक्षा हेतु उन्हीं का अनुकरण करना पड़ता है।

(9) भारतीय दर्शन एवं भक्तिवाद- भारतीय दर्शन धर्म, कर्म एवं पुरुषार्थ की भावनाओं एवं सिद्धान्तों से ओतप्रोत रहा है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जाति के आधार पर ही कार्य करते हुए सामाजिक दायित्व को निभाने की बात कही गयी है। अतएव प्रत्येक जाति का व्यक्ति प्रायः अपने कार्यों एवं अपनी जाति की श्रेष्ठता को सर्वोपरि सिद्ध करने के लिए उसका प्रचार करता रहा है। इसी भावना ने बाद में जातिवाद का सूत्रपात किया।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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