विकास की अवस्थाएँ | विकास अवस्थाओं का शैक्षिक महत्त्व

विकास की अवस्थाएँ | विकास अवस्थाओं का शैक्षिक महत्त्व

विकास की अवस्थाएँ

व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन काल को “विकास की अवस्था” कह सकते हैं। विकास की अवस्था कई हैं। यदि ऐसा कहा जाता है तो वहाँ अवस्था का तात्पर्य विभिन्न सोपान से है जो कुछ कालान्तर में पाए जाते हैं। इन अवस्थाओं का विभाजन कई काल से लोगों ने किया है परन्तु साधारण तौर पर विद्यालय अध्ययन (शिक्षा) के विचार से चार अवस्थाएँ कही जाती हैं-

(i) गर्भावस्था- जन्म से पूर्व

(ii) शैशवावस्था- जन्म से 6 वर्ष तक

(ii) बाल्यावस्था- 6 वर्ष से 12 वर्ष तक

(iv) किशोरावस्था- 12 वर्ष से 18 वर्ष तक

प्रो० हरलॉक ने अपने अनुसार अवस्थाओं का विभाजन किया है जो नीचे दिया जा रहा है-

(i) गर्भावस्था- गर्भ धारण से 280 दिन तक

(ii) नवजातावस्था- जन्म से 14 दिन तक

(iii) शैशवावस्था- 2 सप्ताह से 2 वर्ष तक

(iv) बाल्यावस्था- 2 वर्ष से 11 वर्ष तक

(v) किशोरावस्था- 11 वर्ष से 21 वर्ष तक

(क) पूर्व किशोरावस्था- 11 वर्ष से 13 वर्ष तक

(ख) मध्य किशोरावस्था- 11 वर्ष से 17 वर्ष तक

(ग) उत्तर किशोरावस्था- 17 वर्ष से 21 वर्ष तक

शिक्षा मनोविज्ञान के अध्ययन में साधारणतया तीन अवस्थाओं को रखा जाता है अर्थात् (1) शैशवावस्था- जन्म से 6 वर्ष तक; (2) बाल्यावस्था- 6 वर्ष से 12 वर्ष तक, (3) किशोरावस्था- 12 वर्ष से 18 वर्ष तक । इन्हीं तीनों अवस्थाओं के बारे में आगे संक्षिप्त विवरण दिया जायेगा।

विकास अवस्थाओं का शैक्षिक महत्त्व

ऊपर शैशवावस्था, बाल्यावस्था तथा किशोर के बारे में कुछ विचार दिया है, अस्तु, इसी क्रम से हम उनके शैक्षिक महत्त्व की ओर भी प्रकाश डालेंगे। जिससे स्थिति स्पष्ट रूप से समझ में आ जावे।

(क) शैशवावस्था और शिक्षा-

चूँकि शैशवावस्था विकास की प्रथम सीढ़ी है इसलिए इस काल को शिक्षा का भी आधार कहें तो अनुचित नहीं होगा। प्रो० फ्रायड ने कहा है कि “मनुष्य चार पाँच वर्षों में ही जो कुछ बनना होता है बन जाता है ।” उनके बाद प्रो० एडलर ने बताया कि “शैशवावस्था सम्पूर्ण जीवन का क्रम निर्धारित कर देता है ।” जीवन के निर्माण की दृष्टि से यह अवस्था बहुत महत्वपूर्ण है। इसलिए इस अवस्था के लिए उपयुक्त शिक्षा व्यवस्था करना भी जरूरी है तभी हमें इसका शैक्षिक महत्त्व मालूम हो जावेगा | इस अवस्था की शिक्षा में हमें नीचे लिखी बातों की ओर ध्यान देना चाहिए।

(1) शारीरिक विकास के लिए प्रयत्न- माता-पिता एवं अध्यापक सभी को उसे स्वस्थ बनाने का विशेष प्रयत्न करना चाहिए। उचित भोजन, उपयुक्त आवास, एवं स्वस्थ क्रियाओं के लिए अवसर देना चाहिए।

(2) जिज्ञासा की संतुष्टि- माता-पिता और अध्यापक जिज्ञासु शिशु को खिलौने, चित्र सामग्री आदि देवें और जो प्रश्न वह पूछे उसका उत्तर देवें जिससे कि उसकी जिज्ञासा सन्तुष्ट हो जाये और उसका मानसिक विकास हो।

(3) शिशु की क्षमताओं को समझना- शिशु की शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक क्षमताओं को जाना जाये और तदनुकूल शिक्षा की क्रियाओं को आयोजित किया जाये। मॉन्टेसरी एवं किण्डर गार्टन की प्रणालियों से काम लिया जावे।

(4) शारीरिक दोषों को दूर करनाउचित विकास के लिए यह करना चाहिए क्योंकि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन होता है।

(5) भावात्मक दमन से बचाना- बालक की मूल प्रवृत्तियों एवं संवेगों को दबाना नहीं चाहिए बल्कि सही ढंग से प्रकट होने देना चाहिए।

(6) उत्तम वातावरण प्रदान करना- अच्छे विकास के लिए यह जरूरी होता है। खेल की चीजें, ज्ञानात्मक अनुभव की चीजें, स्वतन्त्र क्रिया के लिए स्थान एवं अवसर देने से उत्तम विकास होता है।

(7) भाषा का विकास- परस्पर अच्छी भाषा का प्रयोग करने से शिशु में भाषा का अच्छे ढंग से विकास होता है।

(8) क्रिया द्वारा शिक्षा देना- चूँकि शिशु क्रिया प्रधान प्राणी होता है इससे वह क्रिया के द्वारा सिखाया जाये। इसके लिये आत्म प्रदर्शन का पूरा-पूरा अवसर मिलता है। कर्मेन्द्रियों का प्रयोग भी खेला के द्वारा कराया जावे।

(9) ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण- मॉन्टेसरी एवं किण्डर गार्टेन पद्धतियों में इस प्रकार के प्रशिक्षण की व्यवस्था पाई जाती है जिसमें “शिक्षोपकरण तथा उपहारों’, का प्रयोग करके अपनी ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों को वह प्रशिक्षित करता है।”

(10) सामाजीकरण एवं अच्छी आदतों का निर्माण- शिशु के साथ मेल, प्रेम, सहयोग के द्वारा व्यवहार करके उसमें भी समायोजित क्रिया करने की आदत डाली जा सकती है।

(11) स्वतन्त्रता, सहानुभूति एवं सहकारिता के साथ व्यवहार- इस ढंग से व्यवहार करने पर शिशु का उत्तम विकास होता है। ध्यान रखा जाये कि उसमें इनके कारण दोष-बुराई न आने पाये। क्रोध, घृणा, शत्रुता, कलह आदि के अवसर न आने दिया जाये।

(12) दण्ड व भय से दूर रखना- शिशुओं के साथ दण्ड का प्रयोग न हो। उन्हें किसी तरह से भय न दिखाया जावे नहीं तो उसमें भाव-ग्रन्थियाँ पड़ जायेगी और विकास रुक जायेगा।

(13) आदर्शों से चरित्र निर्माण- बड़े लोग शिशु के सामने अपने अच्छे आदर्श रखें तो उससे उसमें अच्छे चरित्र का निर्माण होता है।

(14) अवस्थानुकूल शिक्षा- उपर्युक्त शारीरिक, मानसिक, भावात्मक एवं सामाजिक विशेषताओं के अनुकूल शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम एवं शिक्षा विधि का प्रयोग किया जावे तभी हमें पूर्ण सफलता मिल सकेगी। इसके लिए शिशु गृह एवं विद्यालय भी स्थापित किये जावें।

(ख) बाल्यावस्था और शिक्षा-

बाल्यावस्था विकास की दूसरी सीढ़ी है और विद्यालय शिक्षा का प्रारम्भ इसी काल से होता है। इस दृष्टि से वास्तविक शिक्षा का आरम्भ बाल्यावस्था से होता है और अध्यापक के जिम्मे यह कार्य होता है कि वह बालक को सही दिशा में ले जाने की योजना बनाये। इस अवस्था की शिक्षा के लिये हमें नीचे दी गई बातें ध्यान में रखनी चाहिए।

(1) शारीरिक विकास पर बल- ‘स्वस्थ शरीर सभी सफलताओं की कुंजी है। इस कथन को ध्यान में रख कर शिक्षा की व्यवस्था की जावे। इसके लिए संतुलित आहार एवं शारीरिक शिक्षा की व्यवस्था की जावे |

(2) जिज्ञासा की सन्तुष्टि- इसके लिए बालक को नई-नई चीजें दिखानी-बतानी चाहिए। नये ज्ञान की खोज में उसे प्रेरणा भी दी जावे । पुस्तकालय, प्रयोगशाला, निरीक्षण आदि की सहायता ली जावे।

(3) क्रियात्मक शिक्षा पर बल- बालकों को स्वयं करके सीखने की विधि से ज्ञान दिया. जावे तो अच्छा प्रभाव पड़ता है और उसकी जिज्ञासा भी सन्तुष्ट होती है। खेल का भी प्रयोग किया जावे। इसके साथ-साथ सहपाठ्यक्रमीय क्रियाओं को भी रखा जावे। शैक्षिक पर्यटन का प्रयोग भी इसी दिशा में लाभदायक होता है। बालचर संस्था की क्रिया भी उपयोगी कही गई है।

(4) सामाजिकता एवं नेतृत्व का विकास- बालकों को समाज के कार्यों में लगाकर उनमें सामाजिकता की भावना बढ़ाई जावे। आधुनिक समय में समुदाय केन्द्रीय विद्यालय इसी दृष्टि से चलाये गये हैं। विभिन्न सामूहिक कार्यों के संगठन एवं आयोजन का भार बालकों को देने से उनमें नेतृत्व के गुण का विकास होता है। कक्षा में मानीटर या खेल में कप्तान बनाकर भी इस भावना का विकास किया जा सकता है।

(5) भाषा का विकास- बालोपयोगी साहित्य प्रस्तुत करने व पढ़ने की रुचि उत्पन्न की जावे। विद्यालय में वाद-विवाद, अन्त्याक्षरी ‘कहानी-निबन्ध प्रतियोगिता, कविता पाठ, आदि के द्वारा भाषा का विकास किया जावे। विद्यालय में लोगों के भाषण कराये जावें जिससे कि भाषा के विकास में सहायता मिलती है। पत्र-पत्रिकाओं का अधिक प्रयोग किया जावे।

(6) संवेगात्मक विकास- मूलप्रवृत्तियों, सामान्य प्रवृत्तियों, संवेगों के विकास का अवसर विद्यालय में दिया जावे। खेल कूद, गोष्ठियों, सभाओं, संस्थाओं आदि के द्वारा किया जावे। पुरस्कार दिया जावे।

(7) खेलों की सुव्यवस्था- सभी प्रकार के खेलों की सुव्यवस्था विद्यालय तथा घर पर भी हो। शिक्षा में खेल विधि का प्रयोग किया जावे।

(8) सहानुभूति, सहृदयता एवं शिष्टता का व्यवहार- बालक के साथ इस ढंग का व्यवहार होने से वह भी तदनुरूप व्यवहार करता है। इससे उसका विकास उचित ढंग का होता है।

(9) उत्तम वातावरण प्रदान करना- विद्यालय तथा घर में भी मारपीट, कलह, धूर्तता, छल-कपट के आचरण न हों। पक्षपात दूर रखा जावे। प्रेम का वातावरण हो। साफ दिल से व्यवहार हो तभी बालक का आचरण भी अच्छा बनता है।

(10) जीवन से सम्बन्धित शिक्षा होना- बालक वास्तविक जीवन में विश्वास रखता है अतएव उसे काम-काज वाली शिक्षा दी जावे जो जीवन में लाभकारी हो। जिस समाज में जिस काम की माँग हो उसकी शिक्षा दी जावे।

(11) अवस्थानुकूल शिक्षा व्यवस्था- जो विशेषतायें बताई गई हैं उनके अनुकूल शिक्षा के उद्देश्य पाठ्यक्रम, शिक्षा विधि, विद्यालय आदि की उचित व्यवस्था की जावे। हरेक अध्यापक एवं अभिभावक का कर्तव्य है कि वह उचित निर्देशन भी देवे।

(12) शिक्षक का आदर्श- बाल्यावस्था में एक आदर्श की माँग पाई जाती है क्योंकि बालक अनुभवहीन है और अपना अनुभव वह बढ़ाना भी चाहता है। विद्यालय में अध्यापक के आदर्श पाने की उसे आशा रहती है। अतएव अध्यापक को चरित्र, ज्ञान, क्रिया सभी का आदर्श प्रस्तुत करना चाहिये, अच्छे कामों में लगाये रहना चाहिये और अच्छे चरित्र का निर्माण करना चाहिए।

(ग) किशोरावस्था और शिक्षा-

किशोरावस्था शिक्षा की दृष्टि से अन्य दो अवस्थाओं से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इस अवस्था में विशेष सावधानी के साथ शिक्षा देने की जरूरत होती है क्योंकि तूफान, तनाव एवं संघर्ष के प्रभावानुसार कुछ समायोजन की सम्भावना होती है। इस अवस्था की शिक्षा- योजना करते समय निम्न बातों की ओर ध्यान रखना चाहिए-

(1) शारीरिक एवं गति सम्बन्धी विकास के लिये समुचित शिक्षा- इसके अन्तर्गत व्यायाम, खेल, दौड़-धूप, क्रियात्मक कार्यक्रम, आजकल “कार्य अनुभव” की व्यवस्था हो । साथ में पौष्टिक भोजन एवं आहार भी दिया जावे। शैक्षिक यात्रा की भी व्यवस्था करना अच्छा होगा।

(2) आवर्श लोगों की जीवनी; सत्साहित्य के पढ़ने की व्यवस्था- शिक्षक और अभिभावक का कर्तव्य है कि वे किशोरों को अच्छे साहित्य पढ़ने में लगायें। इन्हें प्रस्तुत करना, उपलब्ध कराना भी इन्हीं का काम है। इससे मानसिक और चारित्रिक विकास भी होगा।

(3) व्यक्तिगत भिन्नता के आधार पर शिक्षा- किशोरों की अलग-अलग विशेषताएँ होती हैं, इसरो उनकी रुचि एवं आवश्यकता हुआ करती है शिक्षा को भी इसी के अनुरूप बनाया जावे। इस दृष्टि से विभिन्न पाठ्यक्रम होना चाहिये। कला, विज्ञान, तकनीकी, शिल्प-कौशल, वाणिज्य, कृषि, गृहविज्ञान, घरेलू उद्योग व्यवसाय सभी पाठ्यक्रम में रखें जावें।

(4) संवेगों का प्रशिक्षण, शोधन एवं उदात्तीकरण- शिक्षक को विभिन्न तरीकों से किशोर के संवेगों का उचित दिशा में ले जाना चाहिये। संगीत, कला, साहित्य, विज्ञान एवं कौशलों की सहायता से उसके संवेगों के मार्ग को बदला जा सकता है। खेल-कूद भी संवेगों के शोधन में सहायक होता है। सामाजिक सेवा में संवेगों का उदात्तीकरण किया जाता है। सैनिक शिक्षा भी इसमें हितकर सिद्ध होती है।

(5) यौन शिक्षा- कुछ मनोविज्ञानी इस शिक्षा के पक्ष में हैं और स्ट्रॉल ने लिखा है कि “यौन विषयों पर सूचना देनी चाहिये ।” इससे काम प्रवृत्ति की संतुष्टि होती है। परम्परावादी लोग इसके विरुद्ध हैं।

(6) सह-शिक्षा की व्यवस्था- इसी प्रकार से कुछ अन्य मनोविज्ञानी सहशिक्षा के पक्ष में भी हैं। सहशिक्षा से भी मौन प्रवृत्ति सन्तुष्टि होती है, क्योंकि किशोर-किशोरी आपस में मिलते-जुलते बातचीत कर लेते हैं। इसके विरुद्ध भी कुछ लोग हैं।

(7) सहानुभूति एवं प्रेम के साथ व्यवहार-‌ इस ढंग से काम करने में अच्छा काम होता है। किशोर के प्रति उपेक्षा से उसमें कुण्ठा एवं भावग्रन्यि आ जाती है और कुसमायोजन का परिणाम होता है। अतएव किशोर के साथ प्रेम का व्यवहार किया जावे।

(8) व्यक्तिगत एवं व्यावसायिक निर्देशन- प्रत्येक किशोर को उसकी समस्याओं को हल करने के लिए निर्देशन की अधिक जरूरत पड़ती है। इसे प्रदान करना शिक्षक का कार्य है। इसीलिये प्रत्येक विद्यालय में अध्यापक निर्देशक होते हैं जो किशोर की योग्यता, बुद्धि, अभिक्षमता आदि की जाँच करता है।

(9) सहपाठ्यक्रमीय क्रियाओं की व्यवस्था- किशोर की शक्तियों को उचित दिशा में ले जाने के लिए ऐसी व्यवस्था जरूरी है। इससे बौद्धिक शारीरिक, संवेगात्मक एवं सामाजिक विकास होता है। विकास के उपर्युक्त अवसर भी मिलते हैं। समायोजन भी अच्छी तरह होता है।

(10) स्वतन्त्र आत्माभिव्यक्ति के लिये साधन प्रस्तुत करना- शिक्षकों को चाहिये कि वे विभिन्न क्रियाओं में किशोरों को लगावें जिससे कि उनकी स्वतन्त्र आत्माभिव्यक्ति के अवसर मिले। किशोरों पर कार्य का उत्तरदायित्व भी देना चाहिए। योजना पद्धति से शिक्षा देकर यह सम्भव होता है।

(11) उचित स्थायी भावों और आदर्शों का निर्माण तथा मानवीयता का विकास- किशोर-किशोरियों के सामने महापुरुषों के जीवन-चरित्र रखकर उनमें भी अच्छे स्थायी भावों तथा आदर्शों का निर्माण किया जाये । महापुरुषों के कार्यों से किशोरों में भी मानवीयता का गुण विकसित किया जाये। उन्हें जीवन की बड़ी योजना में अपना योगदान करने को कहा जावे। किशोर को नैतिक विकास के लिये भी इसी तरह प्रेरणा दी जावे।

(12) शिक्षक द्वारा नेता के रूप में अपने आप को प्रस्तुत करना- शिक्षकों को चाहिए कि वे प्रत्येक किशोर एवं किशोरी को अपने सद्व्यवहार, गुण, कार्य से इतना प्रभावित करें और उनका नेतृत्व करने को तैयार रहें कि किशोर अपने मार्ग पर अच्छी तरह बढ़ता जावे। परन्तु किशोर को भी अच्छे-बुरे को समझने की पूर्ण क्षमता रखनी चाहिये। किसी बुरी भावना से उसे काम नहीं करना चाहिए।

ऊपर दिये गए सुझावों से ज्ञात होता है कि शैक्षिक दृष्टि से इन विकासावस्थाओं का काफी महत्त्व होता है। “सभी देश में सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था का आधार विकासावस्थाएँ हैं।” यह कथन बिल्कुल सही है। अपने देश में भी शिक्षा के प्रारम्भिक, माध्यमिक एवं उच्च स्तर इन्हीं अवस्थाओं के आधार पर निश्चित किये गए हैं। अतएव शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम संगठन एवं शिक्षण विधि के विचार से विकासावस्थाएँ महत्त्वपूर्ण कही जाती हैं।

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