विकास की सामान्य विशेषताएँ | विकास को प्रभावित करने वाले तत्व
विकास की सामान्य विशेषताएँ | विकास को प्रभावित करने वाले तत्व
विकास की सामान्य विशेषताएँ
मनुष्य के विकास के विभिन्न पहलू होते हैं, फिर भी उन सभी को ध्यान से देखने पर कुछ सामान्य विशेषतायें उनमें पाई जाती हैं। इन विशेषताओं को नीचे दिया जा रहा है-
- विकास एक प्रतिदर्श का अनुसरण करता है- प्राणी के शारीरिक एवं मानसिक विकास में एक निश्चित क्रम पाया जाता है। हर जीवन अपनी जाति की विशेषताओं के अनुरूप ही बढ़ता है। जैसे पशु का बच्चा जल्दी चलने-फिरने लगता है लेकिन मनुष्य का बच्चा 1 – 11/2 साल में ही चलता-फिरता है। इसी तरह मनुष्य पहले बोलता है, बाद में लिखना-पढ़ना-गणित करना सीखता है। अतएव स्पष्ट है कि हरेक परिवर्तन और विकास अवस्थानुकूल होता है और एक प्रतिदर्शन में होता है।
- विकास में समानता होती है- प्रत्येक प्राणी जन्म लेता है, तदनन्तर शिशु, बाल्य और किशोर की अवस्था प्राप्त करता है। प्राणी चाहे पशु हो या मनुष्य सभी में विकास की अवस्थायें समान रूप से पाई जाती हैं।
- विकास में भिन्नता होती है- प्रत्येक प्राणी दूसरे से भिन्न होता है, इसीलिये विकास में भी भिन्नता पाई जाती है। हरेक मनुष्य और पशु में भी व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं का विकास भिन्न मात्रा में होता है। हरेक अपने व्यक्तिगत आन्तरिक शक्ति और पर्यावरण के अनुसार विकास करता है।
- विकास आयु से सम्बन्धित होता है- आयु के बढ़ने के साथ व्यक्ति का विकास होता जाता है। इस प्रकार आयु के अनुसार विकास में कुछ आगे, कुछ पीछे एवं अधिकतर सामान्य हुआ करते हैं जिन्हें क्रमशः प्रतिभाशाली, पिछड़े एवं सामान्य प्राणी कहा जाता है।
- विकास स्थायित्व होता है निरन्तरता होती है- विकास कुछ समय तक होकर स्थिर हो जाता है जिससे कि पुष्टिकरण हो जाये। परन्तु विकास रुकता नहीं वह निरन्तर चलता रहता है। जिससे लगातार परिवर्तन हुआ करता है।
- विकास सामान्य से विशिष्ट की ओर है- विकास पहले सामान्य एवं समष्टि रूप में होता है जैसे शिशु पहले उठने में अपने सभी अंगों पर बल देता है, बाद में वह हाथ- पैर के सहारे उठता है।
- विकास की प्रत्येक अवस्था के विशेष लक्षण होते हैं- विकास की कई अवस्थाएँ हैं जैसे शैशव, बाल्य, किशोर, युवा, प्रौढ़ एवं वृद्ध । इनमें से हरेक के अपने विशेष लक्षण होते हैं। जैसे शिशु में चपलता अधिक होती है, वृद्ध सुस्त-धीमे काम करने वाला होता है, किशोर में आँधी तूफान सदृश क्रियाशीलता एवं संवेगशीलता होती है। प्रौढ़ में अधिक समझदारी एवं स्थिर-बुद्धि होती है।
- शरीर के विभिन्न अंगों के विकास दर भिन्न होते हैं- प्राणी के सिर, धड़, और सभी अन्य अवयवों के विकास की गति एक ही दर से नहीं होती है। उदाहरण के लिए सिर का विकास पहले ही होता है बाद में अन्य अंगों का, मस्तिष्क सात आठ वर्ष में ही पूर्ण रूप से विकसित हो जाता है जब कि हाथ पैर युवावस्था तक परिपक्व एवं पुष्ट होते हैं। इससे विकास दर में भिन्नता पाई जाती है।
- विभिन्न प्रकार का विकास परस्पर सहसम्बन्धित होता है- व्यक्ति के शारीरिक, बौद्धिक, संवेगात्मक, नैतिक, सौन्दर्यात्मक आदि विकास अलग-अलग होते हैं फिर भी उनमें सहसम्बन्ध पाया जाता है। जैसे, मस्तिष्क की रचना के अनुसार ही मानसिक शक्तियाँ बढ़ी रहती हैं। व्यक्ति समाज में अनुकूलन भी इसी विकास की सहायता से करता है। उसे अच्छे-बुरे, सुन्दर और असुन्दर का ज्ञान भी इसी तरह से होता है। इससे स्पष्ट है कि विभिन्न प्रकार के विकास में एक पारस्परिक सह-सम्बन्ध पाया जाता है।
- विकास से सम्बन्धित व्यक्ति की भिन्नता में स्थिरता होती है- यदि किन्हीं दो व्यक्तियों में किसी प्रकार की भिन्नता पाई जाती है तो वह भिन्नता बाद की अवस्था में भी उसी प्रकार पाई जाती है। इसी से स्पष्ट है कि व्यक्तिगत भिन्नता स्थिर हुआ करती है।
- विकास से सम्बन्धित भविष्यवाणी की जा सकती है- उदाहरण के लिए बालक के अंगों की वृद्धि देख कर उसके किशोर अथवा युवा जीवन में होने वाली शारीरिक दशा की भविष्यवाणी की जा सकती है। शरीर की लम्बाई, बुद्धि की मात्रा, मोटाई, दुबलेपन आदि के बारे में भविष्यवाणी हो सकती है।
- विकास का आधारभूत काल बाल्यकाल है- शैशवावस्था तक प्रायः विकास समाप्त हो जाता है, फिर भी बाल्यकाल तक तो निश्चय ही धीमे-धीमे विकास पूरा हो जाता है। अतएव शारीरिक, मानसिक, भावात्मक विकास 12 वर्ष तक अपनी दिशा आधारभूत रूप में निश्चित कर लेते हैं। अन्त में किशोरावस्था तक बचा-खुचा विकास भी सम्पन्न हो जाता है।
विकास को प्रभावित करने वाले तत्व
मनोवैज्ञानिक अध्ययनों एवं निरीक्षणों के आधार पर अब कुछ ऐसे तत्वों को मालूम किया गया है जिनसे मानव विकास प्रभावित होता है। ऐसे तत्त्व नीचे दिए जा रहे हैं-
(i) पोषण- इसका तात्पर्य भोज्य एवं पेय पदार्थ है जिससे शरीर के अंग बढ़ते हैं।
(ii) वायु- स्वस्थ शरीर एवं जीवन के लिए शुद्ध वायु की जरूरत पड़ती है जिसका प्रभाव विकास पर पड़ता है।
(iii) सूर्य का प्रकाश- वायु के समान ही सूर्य का प्रकाश विकास के लिए जरूरी होता है।
(iv) रोग तथा चोट- शरीर और मन दोनों के विकास पर रोग और चोट का प्रभाव पड़ता है।
(v) परिवार में स्थान- परिवार में पहली सन्तान को अधिक सुविधा मिलती है और क्रमशः बाद की सन्तानें कम सुविधा पाती हैं। अतएव पहली सन्तान अपेक्षाकृत अधिक विकसित होती है।
(vi) आर्थिक स्थिति- सम्पन्न परिवार के बालकों का विकास निर्धन परिवारों के बालकों की अपेक्षा अधिक और अच्छी तरह से होता है।
(vii) संस्कृति- समाज की संस्कृति अर्थात् रहन-सहन, शिक्षा, सभ्यता, साहित्य विज्ञान, कला आदि का प्रभाव व्यक्ति के मानसिक एवं सामाजिक विकास पर बहुत पड़ता है।
(viii) प्रजाति- इसका भी प्रभाव विकास पर पड़ता है। अपने देश में अनुसूचित प्रजातियों का विकास अन्य लोगों से कम होता है। इंग्लैण्ड, अमरीका आदि देशों के लोगों का विकास भारतीयों से अधिक हुआ है। प्रजाति ही इसका कारण है।
(ix) धर्म- विकास में धर्म का योगदान पाया जाता है। धर्म के अनुसार आचरण करने से विकास अधिक होता है।
(x) यौन- लिंगीय भेद भी विकास को प्रभावित करते हैं। लड़कों लड़कियों का विकास अलग-अलग होता है। शुरू में लड़कियाँ तेजी से बढ़ती हैं। बाद में कम। परन्तु 14-15 वर्ष के बाद लड़कों में तेजी से विकास होता है।
(xi) बुद्धि- अधिक बुद्धि वालों का विकास तेज होता है जब कि कम बुद्धि वालों का विकास धीमा होता है। यह विकास शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार का होता है।
(xii) अन्तःस्रावी ग्रंथियाँ- शरीर में कुछ अन्तःस्रावी ग्रंथियाँ होती हैं जिनका स्राव विकास को प्रभावित करता है। जैसे थॉयरॉयड ग्रन्थि का स्राव शरीर की बाढ़ को नियंत्रित करता है। पैराथॉयरॉयड ग्रंथियों का स्राव हड्डियों के विकास पर प्रभाव डालता है। अधिक से अधिक बुद्धि होती है और कम स्राव से कम।
(xiii) अभिप्रेरण- अभिप्रेरण का प्रभाव भी विकास पर पड़ता है। कार्य के लिये पुरस्कार पाने पर बालक आगे बढ़ने का प्रयल करता है। परीक्षा में सफलता आगे बढ़ने में सहायक होती है।
(xiv) निर्देशन- विकास के लिये उचित ढंग से निर्देशन भी जरूरी है, इससे थोड़े समय में एवं थोड़े प्रयल से अधिक विकास होता है।
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