भूगोल / Geography

प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण

प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण

प्राचीन काल में जनसंख्या घनत्व कम होने, तकनीकी स्तर निम्न होने व आवश्यकताएं सीमित होने के कारण संसाधनों की संरक्षण की समस्या नहीं थी परन्तु वतमान जन घनत्व बढ़ गया, तकनीकी उच्चस्तरीय है एवं आवश्यकताएँ असीमित हो गयी हैं। क्योंकि हम निरंतर अति उपभोगवाद एवं अति आरामदेह जीवन की ओर लालायित है । इसका सीधा असर हमारे पर्यावरण एवं संसाधनों पर पड़ रहा है । इसलिए आवश्यक हो गया है कि अन्धाधुंध उपभोग की संस्कृति वर्ग छोड़कर हम प्राचीन काल को त्याग के साथ उपभोग (त्यक्तेन भुंजीथाः) की भावना का अनुसरण करें ।

मृदा संरक्षण – यह विभिन्न प्राणियों के जीवन का आधार है एवं वनस्पतियाँ इसी पर उगती हैं । यह एक नवीकरण योग्य संसाधन है । इसका महत्वपूर्ण गुण इसकी उर्वरता है एवं अपरदन इसका सबसे बड़ा शत्रु है । यह अपरदन प्राकृतिक एवं मानव जन्य होता है। भूमिढाल, वर्षा की तीव्रता, वायुकवेग, हिमानी प्रवाह आदि प्राकृतिक एवं वनों की कटाई, वनस्पतियों का विनाश, अति पशुचारण, अवैज्ञानिक कृषि पद्धति आदि मानवजन्य कारण हैं । मृदा संरक्षण के उपाय स्थानीय दशाओं के अनुसार होने पर ही लाभकारी होगे। जैसे (1) पर्वतीय ढालों में सीढ़ीनुमा खेत बनाना, सर्वोच्च रेखाओं के साथ जुताई करना, वनरोपण, अवनालिकाओं को पत्थरों से बन्द करना आदि (ii) शुष्क एवं मरुस्थली क्षेत्र में थोड़ी-थोडी दूरी पर वृक्षों की कतारे लगाकर शैल्टर बैल्ट बनाना, फसल काटते समय 30-50 सेमी तक डंठलों को छोड़कर काटना, अति पशुचारण पर रोक लगाना, पेट्रोलियम जेली का उपयोग (इजरायल में) करके हवा से होने वाले अपरदन को रोकना (iii) मैदानी क्षेत्रों में मेड़ बनाकर, अति पशुचारण पर प्रतिबंध लगाकर, वैज्ञानिक फसलचक्र अपनाकर, हरी एवं गोबर की खादों का प्रयोग आदि करके अपरदन रोका जा सकता है । मृदा की उर्वरता में वृद्धि नवीकरण के लिए हरी तथा गोबर की खादें, रासायनिक उर्वरकों व जिप्सम का प्रयोग फसल चक्र अपनाने आदि तरीकों का प्रयोग किया जा सकता है ।

जल संरक्षण जीवनाधार जल का संरक्षण वास्तव में जीवन का संरक्षण है । इसका संरक्षण उपभोग में मितव्ययता बरतकर, पौधों, पक्की नहरों व नालियों का निर्माण कर, स्प्रिंकलर का प्रयोग कर, ट्रस्य या ट्रिकिल सिंचाई विधि का उपयोग कर एवं उद्योगों में पुनश्शोधित जल का प्रयोग आदि करके किया जा सकता है ।

वायु का संरक्षण प्राणाधार वायु के प्रदूषण में अधिकांशत: मनुष्य का योगदान है क्योंकि प्राकृतिक क्रियाओं जैसे आँधी आने पर धूलकणों का वायुमिलना, ज्वालामुखी के उद्गारों से निकली राख का वायु मिलना आदि से बहुत कम वायु प्रदूषित होती है जबकि मोटर गाड़ियों में खनिज तेलों के जलने से निकले धुँए से, कोयले के प्रयोग से निकले धुएँ से, कारखानों एवं बिजलीधरों की ऊँची चिमनियों से निकले धुएँ से तथा परमाणु भट्टियों एवं विस्फेटों से वायुमण्डल ज्यादा विषाक्त होता है क्योंकि इससे कार्बन डाई आक्साइड, सल्फर, नाइट्रोजन, आक्साइंड आदि की मात्रा बढ़ रही है जिससे उत्पन्न गैसीय असन्तुलन के कारण सूर्य की किरणें पृथ्वी पर एकत्रित होकर पृथ्वी को गर्म करती जाती है (ग्रीन हाउस इफैक्ट) जो कि मानव जीवन के अस्तित्व के लिए अशुभ लक्षण है। इससे प्राणवायु आक्सीजन की मात्रा भी कम हो रही है। मोटर गाड़ियों, कल कारखानों, परमाणु भट्टियों आदि में उपयुक्त तकनीकी का प्रयोग करके इन प्रदूषणों को कम किया जा सकता है। अधिकाधिक वृक्षारोपण के कारण वायु को शुद्ध किया जा सकता है ।

वनों एवं वन्य प्राणियों का संरक्षण वन हमारी आर्थिक व पर्यावरण व्यवस्था के मुख्य अंग हैं एवं वन्यप्राणी हमारे जीवन में विविधता तथा पारिस्थितिक संतुलन के लिए आवश्यक हैं । वनों की कमी से न केवल हमारा आर्थिक ढांचा व पर्यावरण चरमरायेगा वरन वन्य जीवों का भी विनाश होगा । वनों के संरक्षण के लिए वृक्षारोपण, अपरिपक्व वृक्षों की कटाई पर व अन्धाधुंध वनों की कटाई पर प्रतिबन्ध, वनों को बीमारी से बचाने के लिए कीटनाशकों का प्रयोग व वनों को आग से बचाना आदि आवश्यक है । वनो के सरक्षण से वन्य जीवों का संरक्षण होगा। फिर भी लुप्तप्राय वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय उद्योगों की स्थापना, इनकी हत्या पर प्रतिबन्ध आदि आवश्यक है । इस सम्बन्ध में अन्तर्राष्ट्रीय चेतना अत्यन्त आवष्यक है।

मत्स्य संरक्षण – मांसाहारी मानव की खाद्य सामग्री के रूप में मछली का महत्वपूर्ण स्थान है । पशुओं से प्राप्त होने वाले कुल प्रोटीन का 2.3% भाग मछलियों से मनुष्यों को प्राप्त होता है । अति मत्स्यन, औद्योगिक मलवे व जहाजों से निकले तेलों के कारण मत्स्य संसाधन को सर्वाधिक क्षति पहुँची है । इसके संरक्षण के लिये अतिमत्स्यन पर रोक लगाना, ज्वारनदों को औद्योगिक मलवे व रासायनों से मुक्त रखना आवश्यक है । जाल के छेद ऐसे हों कि उससे छोटी एवं अप्रौढ़ मछलियाँ निकल जायें । पशुपालन एवं मुगीपालन की तरह मत्स्य पालन पर चीन की तरह बल दिया जाय । भारत में राष्ट्रीय समूद्र विज्ञान संस्थान के तत्वाधान में इस दिशा में शोध कार्य किया जा रहा है ।

खनिज संसाधनों का संरक्षण – खनिज समाप्त होने योग्य संसाधन है । इसके प्रयोग में सावधानी, दोहन एवं शोधन में उच्च तकनीकी व पुनश्चक्रण के द्वारा इनका संरक्षण किया जा सकता है । कोयला, खनिज तेल व धातुएँ महत्वपूर्ण खनिज संसाधन हैं। कोयला खानों की छत गिरने, पानी भरने, आग लगने व गैसों के विस्फेट से बचाकर एवं खनन में उच्च तकनीक का प्रयोग करके संरक्षित किया जा सकता है । खनिज तेलों का संरक्षण उच्च तकनीकी का प्रयोग करके ( कम तेल से ज्यादा कार्य), तेल दोहन, शोधन व स्थानान्तरण में बरबादी को कम करके किया जा सकता है । ऊर्जा के वैकल्पिक साधनों (सौर ऊर्जा, बायोगैस, पवन ऊर्जा, समुद्र ऊर्जा, भूतापीय ऊर्जा ) का अधिकाधिक ऊर्जा के परम्परागत समाप्त योग्य संसाधनों को संरक्षित किया जा सकता है । लोहा, टीन, ताँबा, एल्यूमिनियम आदि धातुओं का संरक्षण उपयोग में कमी, क्षय में रोकथाम एवं पुनरश्चक्रण (फिर से उपयोग में लाना) के द्वारा किया जा सकता है । जैसे जापान पुराने लोहे को खरीद करके उसका कच्चे माल के रूप में प्रयोग करता है। पेन्ट, ग्रीस व तेल लगाकर हम धातुओं के जंग से क्षय होने से बचा सकते हैं ।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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