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उसने कहा था कहानी की समीक्षा | चन्द्रधर शर्मा गुलेरी – उसने कहा था | कहानी कला की दृष्टि से ‘ उसने कहा था’ का मूल्यांकन | कहानी-कला के तत्वों के आधार पर उसने कहा था’ कहानी की समीक्षा

उसने कहा था कहानी की समीक्षा | चन्द्रधर शर्मा गुलेरी – उसने कहा था | कहानी कला की दृष्टि से ‘ उसने कहा था’ का मूल्यांकन | कहानी-कला के तत्वों के आधार पर उसने कहा था’ कहानी की समीक्षा

उसने कहा था कहानी की समीक्षा

गुलेरीजी की उसने कहा था’ कहानी एक सफल कहानी है। रचना-प्रक्रिया की दृष्टि से कहानी के विकास-क्रम को देखें तो यह कहानी प्रक्रिया के सभी दौरों से गुजरने वाली पहली सफल रचना ‘उसने कहा था’ सिद्ध होती है। इसमें गुलेरीजी विभिन्न संघों, मन स्थितियों को घटना- विम्बों में परिणित कर उन्हें रागमय बना देते हैं। प्रक्रियागत अधकचरेपन की रूचि से मुक्त होने के कारण इसमें जहाँ गरी संवेदना है, वहाँ युगीन यमाको चीरकर सामने आता हुआ प्रयोगशील शिल्प भी है। कहानी की मंजिल दूर से ही उन संकेतों को छोड़ती आई है, जिनके सहारे हम कहानीकार की प्रक्रिया के सहयागी बन सकते हैं। अध्ययन की सहयात्रा के मध्य यह नहीं लगता कि कोई हमारा हाथ पकड़कर खीच रहा है, जैसा कि प्रेमचन्द एवं प्रसाद युग की अधिकांश कहानियों में लगता है।

कहानी कला की समीक्षा कहानी के तत्वों के आधार पर होती है। यही कहानी कला की कसौटी है। अतः इसी के आधार पर प्रस्तुत कहानी ‘उसने कहा था की समीक्षा प्रस्तुत की जा रही है-

(1) कथानक या कथावस्तु-

‘उसने कहा था’ कहानी की कथावस्तु मानव-जीवन की दैनिक घटनाओं से ली गई है। कथानक का विकास कथानक की पाँच अवस्थाओं के आधार पर बहुत सुन्दर, सजीव और आकर्षक है। कहानीकार ने अपनी ओर से कल्पनापूर्ण कवनों द्वारा कुछ कहने का प्रयास नहीं किया है, केवल पटनाओं के कलात्मक एवं मनोवैज्ञानिक क्रम की योजना की है।

कहानी का आराम बहुत ही रोचक और आकर्षक है। पाठक को बम्यूकार्ट वालों के मध्य लाकर पंजाची वातावरण की सुन्दर अनुभूति कराने में कहानीकार की कला के प्रारम्भिक परिचय के साथ कहानी आरम्भ होती है।

एक लड़का और एक लड़की अमृतसर के बाजार में एक चौक की दुकान पर आ मिले। वेश-भूषा से दोनों सिक्स हैं, एक दही लेने आया था, दूसरी बड़ियाँ लेने आई थी।

यह दोनों का प्रथम, किन्तु आकस्मिक मिलन था, जिसमें लड़के के पवित्र प्रेम, वीरता आदि का और लड़की की स्वाभाविक तज्जा और सुशीलता का कथाबीज में संकेत किया गया है।

इसके बाद कचानक का विकास होता है। 25 वर्ष बाद वह लड़का लहनासिंह न0 77 सिख राइफल का जमादार बनकर अंग्रेजों की ओर के फ्रांस के युद्ध-स्थल में पहुंचा। उसे अपने मुकदमें के लिए इस बीच भारत आना पड़ा। लौटते समय वह अपने सूबेदार हजार सिंह के घर गया और वहाँ संयोग से लहना सिंह को उस लड़की के दर्शन हुए जो अब सूबेदारनी थी।

सूबेदारनी ने अपने पति और पुत्र दोनों के युद्ध में जाने का कथन करते हुए प्रथम आकस्मिक मिलन की घटना के साथ उनके प्राणों की रक्षा की भिक्षा मांगी।

लहना सिंह का प्रथम आकस्मिक मिलन का प्रेम युवावस्था के इस स्मृति-चित्र से संयुक्त  होकर ‘कर्तव्य’ में बदल गया। यहां से कहानी का कलात्मक विकास आरम्भ होकर अन्त में कर्त्तव्यपालन करते हुए लहना सिंह की मृत्यु पर चरम सीमा को पार कर जाता है।

कहानी के आरम्भ में जागृत हुआ कुतूहल चलता-चलता असीम प्रभावोत्पादक बन जाता है। इस चरम विकास में बोधा सिंह का बीमार होना, लहना का उसके प्रति अपार प्यार, लपटनसाहब को नकली वेश में पहचानकर तहना द्वारा भेद खोलना, शत्रु द्वारा आक्रमण, घायल होकर भी लहनासिंह द्वारा सबको विदा करके अकेले मोर्चे की रक्षा करना, मृत्यु से पूर्व लहना की स्मृति में पिछली घटनाओं का चलचित्र के समान आना और अन्त में लहना का वाक्य ‘उसने कहा था’ आदि सब घटनाओं में एक करूणापूर्ण प्रभावोत्पादक रूप में कहानी का अन्त होता है।

कहानीकार ने स्वयं कुछ न कहकर घटनाओं द्वारा ‘उसने कहा था’ का रहस्य पाठकों के हृदय को प्रतिभासित करा दिया है। यह कहानी की कथावस्तु का स्वाभाविक और मनोवैज्ञानिक सफल विकास है।

(2) पात्र योजना एवं चरित्र चित्रण-

यह कहानी लहनासिंह की वीरता, सात्विक प्रेम, देशभक्ति, बलिदान आदि का सतर्कतापूर्ण सफल चित्रण करके उसे मानवता की आदर्श भूमि पर प्रतिष्ठत करती है।

लहना सिंह के इस सुन्दर चरित्र का विकास कलात्मक रीति से चार सोपानों में हुआ है-

प्रथम सोपान में प्रथम और आकस्मिक मिलन के अवसर पर प्रेम के आकर्षण के साथ-ही कर्तव्य की भावना का भी उदय होता है और वह ताँगे वाले के घोड़े से उस लड़की की रक्षा करता है।

दूसरे सोपान में उस लड़की के कुड़माई का समाचार सुनकर और कढ़े हुए सालू प्रमाण’ के रूप में देखकर, लहना में निराशा का उदय होता है।

तीसरे सोपान में उस लड़की से पुनर्मिलन के अवसर पर वह लहना से पति और पुत्र की रक्षा की भिक्षा माँगती है। 77 नं0 सिख राइफल्स का युवक जमादार लहना सिंह उन दोनों की रक्षा का वचन देकर अपने सात्विक प्रेम, मानवता और देशभक्ति के कर्तव्यों को साथ-साथ पूर्ण करने का निश्चय करता है।

चतुर्थ और अन्तिम सोपान में लहना सूबेदार के पुत्र बोधासिंह की सेवा-सुश्रुषा, साथियों की रक्षा और कर्तव्य का पालन करते हुए अपने प्राणों का बलिदान करता है।

इस प्रकार कहानीकार के द्वारा चित्रित इस कलात्मक चरित्र-विकास से यह कहानी चरित्र प्रधान बन जाती है।

(3) कथोपकथन अथवा संवाद योजना-

कथोपकथन कहानी का नहीं, बल्कि नाटक का अनिवार्य अंग है, फिर भी कहानी को स्वाभाविक घटना का रूप देने के लिए कथोपकथन रखे जाते है। इस कहानी में कथोपकथन पर्याप्त है। इस कहानी के पात्र अनपढ़ पंजाबी हैं। उनके कथोपकथन उन्हीं के अनुसार हैं। वैसे कथोपकथन घटना को आगे बढ़ाने और पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालने में समर्थ हैं। लहना सिंह और वजीरासिंह के संवाद दोनों के चरित्र को प्रकट करते हैं।

“हुकुम तो यह है कि यहीं……..

“ऐसी तैसी हुकुम की। हुकुम-जमादार लहनासिंह का जो इस वक्त यहाँ सबसे बड़ा अफसर है- उसका हुकुम है। मैं लपटनसाहब की खबर लेता हूँ।

(4) भाषा-शैली–

इस कहानी की भाषा व्यावहारिक, सरल और सरस है। शब्द-चयन सुन्दर और वाक्य-संगठन भावानुकूल हैं। प्रान्तीय शब्दों का सुन्दर प्रयोग, उर्दू और अंग्रेजी शब्दों की व्यंजकता तथा मुहावरों के स्वाभाविक भावपूर्ण प्रयोगों से कहानी इतनी अधिक सफल हुई है कि इसे हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में इसे उच्च स्थान प्राप्त हुआ है।

इस कहानी की भाषा के उदाहरण के रूप में कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-

“लहना कहता गया, चालाक तो बड़े हो पर माझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखे चाहिए। तीन महीने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव में आया था। औरतों के बच्चे होने के बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी नीचे मंजा बिछाकर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पण्डित हैं। वेद पढ़-पढ़कर उसमें से विभान चलाने की विद्या जान गये हैं। गौ को नहीं मारते। हिन्दुस्तान में आ जायेंगे तो गौ- हत्या बन्द कर देंगे। मण्डी के बनियों को कहता था कि डाकखाने से रूपया निकाल लो, सरकार का राज जाने वाला है। डाकबाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्लाजी की दाढ़ी मूंह दी थी और गाँव से बाहर निकाल कर कहा था कि जा मेरे गाँव में अब पैर रखा तो ……..”।

इस कहानी की शैली वर्णनात्मक है, जिसके विकास क्रम में कलात्मकता एवं मनोवैज्ञानिकता है। कथा का आरम्भ कलात्मक, संवेदनापूर्ण, कुतुहलवर्धक और संश्लिष्ट वातावरण से सुसज्जित है। घटनाओं के कलापूर्ण विकास, मनःस्थितियों के विश्लेषण और कहानी के प्रभावपूर्ण अन्त में कहानीकार के कलात्मक व्यक्तित्व का सुन्दर समन्वय है।

(5) देशकाल या वातावरण-

इस कहानी में आदि से अन्त तक यथास्थान बहुत सुन्दर रीति से संश्लिष्ट वातावरणों की सृष्टि की गई है, जिससे कथा में स्वाभाविकता और सजीवता बढ़ गयी है। उदाहरण के रूप में प्रथम आकस्मिक मिलन का सुन्दर पंजाबी वातावरण, युद्ध का सजीव चित्रण और अन्तिम दृश्य के करूणा-मिश्रित प्रभावपूर्ण वातावरण का निर्देश करना पर्याप्त है। युद्ध के वातावरण का एक सशक्त चित्र प्रस्तुत है-

“राम राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खण्डरों में बैठे-बैठे हड्डियाँ अकड़ गयीं। लुधियाना से दस जाड़ा और मेह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में से हुए हैं। जमीन कहीं दीखती नहीं, घण्टे- दो घण्टे में कड़ाके के परदे फाड़ने वाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है। इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहां दिन में पच्चीस जलजले होते हैं। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गयी तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।”

(6) उद्देश्य-

कहानी का उद्देश्य लहनासिंह के आदर्श चरित्र को चित्रित करना है, जिससे प्रत्येक व्यक्ति अपने उत्तरदायित्व को समझकर पूर्ण करने का प्रयत्न करे।

‘उसने कहा था’ कहानी के कलात्मक विधान को देखकर ही आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है- “उसने कहा था’ में पक्के यथार्थवाद के बीच सुरूचि की चरम मर्यादा के भीतर भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यन्त निपुणता के साथ सम्पुटित है।

लेखक का उद्देश्य पवित्र, सच्चे और उदार प्रेम को रेखांकित करना है। बंगला के कवि चण्डीदास ने धोबिन के प्रति अपने प्रेम को कसा हुआ अर्थात् खरा सोना बताया है-

रजकिनी प्रेम निकसित हेम,

कामगंध नहीं ताहि।

(धोबिन के प्रति मेरा प्रेम कसौटी पर कसा हुआ अर्थात् खरा सोना है। मेरे प्रेम में कामवासना की गंध नहीं है।)

सूबेदारनी के प्रति लहनासिंह का प्रेम निकषित अर्थात् कसौटी पर कसा हुआ सोना ही है। जब उसने बालिका सूबेदारनी को घोड़े की टापों से बचाकर तख्ते पर खड़ा किया था, उस समय न वह काम-भावना से परिचित था और न बालिका सूबेदारनी से। आकर्षण केवल यह था कि वह बालिका बालक लहनासिंह को प्रिय लगती थी। उसने बालिका को घोड़े की टापों से बचाकर तख्ते पर खड़ा करते समय बालिका का स्पर्श अवश्य किया था, पर उस समय वह काम-भावनात्मक स्पर्श का सुख प्राप्त करने योग्य अवस्था का नहीं था।

लहनासिंह का दूसरी बार जब सूबेदारनी से सामना हुआ, तब वह उसकी आदरणीया बन चुकी थी। लहनासिंह के द्वारा उसके आगे मत्था टेकना और उसे होरा कहना, यह सिद्ध करता है कि उस समय लहनासिंह की स्थिति उससे बहुत निम्न थी। वह बालिका बड़ी होकर उसके अधिकारी की पत्नी बन चुकी थी। लहनासिंह ने पहली बार तो बालिका की रक्षा बिना उसकी याचना के को, पर दूसरी बार उसकी याचना स्वीकार करके उसके पति सूबेदार हजारासिंह और पुत्र बोधासिंह को बचाने के लिए अपने प्राण दे दिये। भूतपूर्व एवं उत्कृष्ट प्रेयसी के लिए प्राण दे देना लहनासिंह को सच्चा और उदार प्रेमी सिद्ध करता है।

(7) उपसंहार-

कहानी का उद्देश्य पुष्प में गंध की भाँति छिपा रहता है। संवेदना की विशिष्ट इकाई के मूल में लेखक का एक निर्दिष्ट लक्ष्य होता है। प्रस्तुत कहानी में सच्चा प्रेमी अपने  वचन और कर्तव्य पूर्ति के लिए प्राणों को भी न्यौछावर कर देता है। इस प्रकार का बलिदान हृदय में दुःख नहीं, बल्कि अपार आनन्द की सृष्टि करता है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि ‘उसने कहा था’ कहानी कलात्मक औड़ता, नये शिल्प, सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चरित्र-चित्रण आदि की दृष्टि से अपने समय की सर्वोत्कृष्ट कहानी है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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