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पर्यावरण शिक्षा की शिक्षण विधियाँ | औपचारिक विधियाँ तथा अनौपचारिक विधियाँ

पर्यावरण शिक्षा की शिक्षण विधियाँ | औपचारिक विधियाँ तथा अनौपचारिक विधियाँ

पर्यावरण शिक्षा की शिक्षण विधियाँ

प्रत्येक शिक्षक अपने शिक्षण को सफल एवं प्रभावी बनाने के लिए कुछ विशिष्ट विधियों का प्रयोग करता है और यह भी स्पष्ट है कि प्रत्येक प्रकार का किसी एक ही निश्चित विधि से संभव नहीं होता अतः निम्नलिखित शिक्षण विधियां प्रयोग में लायी जाती हैं।

(अ) औपचारिक विधियाँ तथा (ब) अनौपचारिक विधियाँ।

(अ) औपचारिक विधियाँ

पर्यावरण शिक्षा की निम्नलिखित विधियां होती हैं।

  1. पाठ्य-पुस्तक विधि (Text-book Method) –

इस विधि में पर्यावरण शिक्षा से सम्बन्धित पुस्तकों का अध्ययन कराया जाता है। पाठ्य-पुस्तकें साधन मात्र होती हैं। शिक्षण विधि के रूप में इसे ग्रहण करना किसी भी दशा में ठीक नहीं होता है। वैसे पुस्तकें शिक्षक एवं विद्यार्थी दोनों के लिए उपयोगी होती हैं ये उनका विषयगत मार्गदर्शन एवं निर्देशन करत हैं और विद्यार्थियों के लिए स्वाध्याय करने, पुनरावृत्ति और अभ्यास के लिए का आत हैं। यह विधि बहुत ही पुरानी परम्परागत विधि है इसमें या तो छात्र किसी पाठ को कक्षा में खड़े होकर पढ़ता है या अध्यापक स्वयं पुस्तक में से किसी पाठ को पढ़ता है और छात्र सुनते हैं और कहीं-कह वह कठिन शब्दों की व्याख्या भी करता जाता है।

  1. व्याख्यान विधि (Lecture Method) –

इस विधि में पर्यावरण से सम्बन्धित विभिन्न तथ्यों, सिद्धान्तों, घटनाओं एवं अन्य आवश्यक बातों को समझाया जाता है। इस विधि में शिक्षक की भूमिका मुख्य रहती है। विद्यार्थी केवल श्रोता मात्र होते हैं। यह विधि महाविद्यालय स्तर पर उपयोगी सिद्ध होती है और विद्यालयी स्तर पर कम उपयोगी होती है। यदि व्याख्यान के साथ-साथ शिक्षक पाठ से सम्बन्धित श्रव्य-दृश्य सामग्री का भी प्रयोग करे तो यह विधि काफी प्रभावशाली सिद्ध होती है। व्याख्यान देते समय शिक्षक को छात्रों की आयु-स्तर, योग्यता एवं प्रगति का अवश्य ध्यान रखना चाहिए और उसी के अनुसार श्रव्य-दृश्य सामग्री का प्रयोग भी करना चाहिए अन्यथा यह विधि उपयोग और सार्थक सिद्ध नहीं होगी।

  1. चर्चा विधि (Discussion Method)-

इस विधि के अन्तर्गत शिक्षक और विद्यार्थी पर्यावरण के किसी पहलू, घटना, तथ्यों, समस्याओं के कारणों और उनके निवारणों के विषय में आपस में चर्चा करते हैं, अपने-अपने विचार रखते हैं और इस प्रकार बहुत से बिन्दु चर्चा के द्वारा निकलकर सामने आते हैं। इसमें शिक्षक और विद्यार्थी दोनों ही सक्रिय रहते हैं, सभी एक-दूसरे के बिखरों को सुनते हैं और उनकी जिज्ञासाओं एवं समस्याओं काक सही एवं उचित समाधान निकल आता है।

  1. प्रयोगात्मक विधि (Experimental Method) –

इस विधि में समस्या क समाधान के लिए प्रयोग किया जाता है। प्रयोग वैज्ञानिक तरीके से किया जाता है तथा प्रयोग से प्राप्त परिणाम भी वैज्ञानिक होते हैं। इस विधि में धन, समय, पुस्तकें, सामग्री तथा उपकरणों की आवश्यकता होती है। इस विधि से छात्रों को समस्या का समाधान प्राप्त हो जाता है। यह शिक्षण की एक अच्छी विधि है जिसमें शिक्षक छात्रों की आवश्यकतानुसार सहायता करता है। और उनको उचित निर्देशन देता है। शिक्षाशास्त्री इस विधि को वैज्ञानिक विधि या प्रयोगशालाविधि के नाम से भी पुकारते हैं। इस विधि के तीन मुख्य भाग होते हैं।

(i) नियोजन (Planning)

(ii) क्रियान्वयन (Working/Execution)

(ii) निष्कर्ष (Inference)

  1. अनुसंधान विधि (Heuristic Method or Investigating Method) –

‘ह्वरीस्टिक शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द के शब्द ‘Heurisco’ से हुई है जिसका अर्थ है ‘Discover’ अर्थात् ‘खोजना’। अतः इस विधि का अर्थ है कि यह विधि जिसमें बालक स्वयं के प्रयास से नवीन तथ्यों या समस्या का समाधान खोजता है।

अतः इस विधि को ह्यूरुरिस्टिक/अन्वेषण (Investigation)/ स्वयं खोजविधि/अनुसंधान (Discovery) विधि कहते हैं। इस विधि के जनक (आविष्कारक) प्रोफेसर एन.ई. आर्मस्ट्रांग (N.E. Armstrong) हैं। इस विधि का मुख्य उद्देश्य बालकों में अन्वेषण प्रवृत्ति को उत्पन्न करना तथा बालकों को चिन्तन, अवलोकन, निरीक्षण एवं प्रयोग तथा परीक्षण का सही निष्कर्ष निकालना है।

  1. कहानी विधि (Story Telling Method)-

यह विधि प्राथमिक कक्षाओं के लिए उपयुक्त रहती है) इसमें शिक्षक कहानी के माध्यम से प्राकृति स्रोतों, घटनाओं, तथ्यों, पर्यावरणीय समस्याओं तथा उनके समाधान के तरीकों को छात्रों के समक्ष मनोरंजनपूर्ण तरीकों से प्रस्तुत करता है। कहानी विधि से विद्यार्थी आसानी से समझ लेते हैं तथा मनोरंजन के साथ-साथ सभी तथ्य उनके मस्तिष्क में समा जाते हैं।

  1. भूमिका अदा करना (Role Playing)-

इस विधि में ऐसी समस्या को चुना जाता है जो हमारे आसपास के वातावरण से सम्बन्धित हो, जीवन से जुड़ी हो और वास्तविक हो; जैसे- कोई दुर्घटना, जंगल, दिवाली में जलाये गये पटाखों से प्रदूषण, होली और प्रदूषण आदि ऐसी समस्याओं को दर्शाने के लिए बच्चों द्वारा भूमिका अदा की जाती है। उदाहरण के लिए- किसी बगीचे का दृश्य दिखाने के लिए कुछ बच्चे पड़ बनते हैं तो कुछ बच्चे फूल बनते हैं। किसी जंगल का दृश्य दिखाने के लिए पेड़-पौधों के साथ-साथ बच्चे विभिन्न प्रकार के जानवरों के रूप धारण कर भूमिका अदा करते हैं। इस विधि द्वारा बच्चे व भूमिका देखने वाले लोग सरलता से समस्या के प्रति जागरूक हो जाते हैं। मनोरंजन के साथ-साथ उन्हें अनेक जानकारियाँ भी मिल तथा ज्ञानवृद्धि के साथ-साथ मनोवृत्ति व दृष्टिकोण का भी विकास होता है।

  1. भ्रमण विधि (Excursion Method) –

भ्रमण विधि पर्यावरण शिक्षा प्रदान करने की सर्वोत्तम विधि है। प्रत्यक्ष अवलोकन से विद्यार्थी अपने वातावरण से भली-भाँति परिचित हो जाते हैं तथा वहाँ होने वाली विभिन्न घटनाओं व क्रिया-कलापों से भी परिचित हो जाते हैं। पर्यावरणीय प्रदूषण व अन्य समस्याएँ, जीव-जन्तुओं की वातावरण पर निर्भरता, मानव की अपने पर्यावरण पर निर्भरता, प्राकृतिक संसाधनों आदि के विषय में ज्ञान प्राप्त करने में यह विधि अत्यन्त लाभकारी सिद्ध होती है। इस विधि में विद्यार्थी प्रत्यक्ष अवलोकन द्वारा जो ज्ञान प्राप्त करते हैं वह स्थायी होता है। उनकी अपने पर्यावरण के प्रति रुचि और जिज्ञासा बढ़ती है और वे उसके प्रति जागरूक तथा संवदनशील बनते हैं। उन्हें विभिन्न तथ्यों की समझ और ज्ञान प्राप्त होता है और पर्यावरण के प्रति उनका व्यवहार व दृष्टिकोण धनात्मक (Positive) हॉता है।

  1. प्रायोजना विधि (Project Method) –

प्रयोजना विधि पर्यावरणीय शिक्षा की एक प्रभावशाली शिक्षण विधि है। आधुनिक शिक्षा बालक का सर्वांगीण विकास (शारीरिक, मानिसक, संवेगात्मक तथा सामाजिक विकास) करने वाली बाल-केन्द्रित शिक्षा। इसके लिए शिक्षा से पूर्व बालक की आयु, बुद्धि, रुचि के अनुकूल ही शिक्षण विधियों का चयन करना होता है। पर्यावरण शिक्षा के शिक्षण के क्षेत्र में पाठ्यवस्तु के साथ-साथ उसकी शिक्षण विधियों को भी ठीक तरह समझना होगा। विद्यालय में बालक की व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर ध्यान देने के लिए प्रयोजना विधि को ही उपयुक्त माना जाता है।

किलपैट्रिक (Kilpatrik) के अनुसार- “प्रायोजना वह उद्देश्यपूर्ण क्रिया है जिसे पूर्ण मनोयोग से सामाजिक पर्यावरण में कार्यान्वित किया जाता है।”

प्रोफसर स्टीवेन्सन (Prof. Stevcnson) के अनुसार- “प्रायोजना एक समस्यात्मक कार्य है जो अपनी स्वाभाविक परिस्थितियों के अन्तर्गत पूर्ण किया जाता है ।”

(10) सर्वेक्षण विधि (Survey Method)-

इस विधि में किसी समस्या पर विचार करने के लिए उसके कारणों का जानने के लिए, उनका समाधान करने के लिए लोगों के मत, विचार, आदतों, साधनों के उपयोग का तरीका, उनकी आवश्यकताएँ आदि की सूचनाएँ व आँकड़े एकत्रित किए जाते हैं। सर्वेक्षण हेतु प्रश्नावली, चैक लिस्ट, मनोवृत्ति स्केल, साक्षात्कार आदि का प्रयोग किया जाता है। प्रत्यक्ष अवलोकन द्वारा भी विभिन्न जानकारियाँ प्राप्त की जाती हैं। यदि आवश्यकता हो तो स्वयं भी मापन स्केल का निर्माण किया जा सकता है।

सवेक्षण कार्य आसान नहीं होता। इसमें धैर्य, समय और ऊर्जा की आवश्यकता होती है। कभी- कभी लोग अपने विषय में सही और स्पष्ट जानकारी न देकर कितनी ही बातें छिपा लेते हैं। वे अन्जान लोगों से अपने विषय में बातें करना पसन्द नहीं करते हैं । सर्वेक्षण करने के लिए अत्यन्त चातुर्य व निपुणता की आवश्यकता होती है।

(ब) अनौपचारिक विधियाँ-

पर्यावरण शिक्षा की निम्नलिखित अनौपचारिक विधियाँ होती हैं-

  1. प्रौढ़ शिक्षा (Adult Education)-

हमारे देश में लगभग 48% जनसंख्या निरक्षर है। यह निरक्षर पर्यावरण शिक्षा के प्रचार-प्रसार में सबसे बड़ी बाधक है। इसलिए प्रौढ़ शिक्षा को बढ़ावा देकर कुछ सीमा तक इस समस्या व समाधान किया जा सकता है। इसके लिए सरकारी साक्षरता कार्यक्रमों, सरकारी एजेन्सियों, स्वयं सेवी संगठनों और नेहरू –केन्द्रों की सहायता ली जा सकती है और निरक्षर जनता को साक्षर बनाकर पर्यावरण शिक्षा प्रदान की जा सकती है इस कार्य को सफल बनाने के लिए पोस्टरों, बैनरों, कैसिट्स और जन सम्मेलनों का उपयोग किया जाता है।

  1. गैर-सरकारी संगठन (NGOS) –

पर्यावरण शिक्षा के प्रसार के लिए ज्यादा से ज्यादा गैर सरकारी संगठन होने चाहिए और उन्हें समाज और सरकार की ओर से पर्यावरण शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। हमारे देश में लगभग 350 से भी अधिक स्वयंसेवी संगठन, पर्यावरण संरक्षण नियंत्रण, ग्राम्य विकास, मलिन बस्तियों की सफाई जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों में अपना योगदान दे रहे हैं।

  1. शोध एवं विकास कार्य (Research and Development Programme)-

पर्यावरण विभाग द्वारा पर्यावरण से सम्बन्धित विभिन्न शोध एवं विकास कार्यों को प्रोत्साहित किया जाता है। विश्वविद्यालय, महाविद्यालयों, आई. आई. टी. आई. आई. एम. जैसी उच्च शिक्षण संस्थाओं में कार्यरत व्यक्तियों को पर्यावरणीय समस्याओं से सम्बन्धित विशिष्ट शोध योजनाओं के लिए विशेष रूप से प्रोत्साहित किया जाता है।

  1. संगोष्ठियाँ एवं कार्यशालाएँ-

पर्यावरण विभाग द्वारा संगोष्ठियों एवं कार्यशालाओं के आयोजन के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है। ये संगोष्ठियाँ एवं कार्यशालाएँ जहाँ सूचनाओं का आदान-प्रदान करती हैं वहीं पर्यावरणीय समस्याओं के निवान का रास्ता भी निकालती हैं।

  1. जनसंचार एवं बहुमाध्यम साधन (Mass Communication and Multimedia Campaign) –

पर्यावरण शिक्षा के लिए जनसंचार माध्यम से सबसे प्रभावशाली और महत्त्वपूर्ण यंत्र होता है; जैसे- प्रेस, रेडियो, टी. वी. आदि। इसके अलावा नाटक, कठपुतली प्रदर्शन भी प्रभावपूर्ण साधन है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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