दलविहीन लोकतंत्र | दलविहीन लोकतंत्र का स्वरूप | दलविहीन लोकतंत्र की मान्यताएँ | दलविहीन लोकतंत्र का मूल्यांकन
दलविहीन लोकतंत्र | दलविहीन लोकतंत्र का स्वरूप | दलविहीन लोकतंत्र की मान्यताएँ | दलविहीन लोकतंत्र का मूल्यांकन
दलविहीन लोकतंत्र
(Party less Democracy)
यह बात सही है कि प्रजातंत्र की सफलता के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों का अस्तित्व आवश्यक है; लेकिन जब हम विभिन्न राजनीतिक दलों की रस्साकशी पर विहंगम दृष्टिपात करते हैं तब ऐसा लगता है कि सत्ता की होड़ पर आधारित दलगत राजनीति का प्रभाव आज इतना व्यापक हो गया है कि स्वयं लोकतंत्र के सामने एक खतरा उत्पन्न हो गया है। दलीय व्यवस्था ने न केवल दलबंदी को प्रोत्साहित किया, वरन् इसने सार्वजनिक जीवन में बेईमानी, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद का बीजारोपण भी किया | आज की दलीय राजनीति ने नागरिकों के नैतिक पतन को बढ़ाया । दलीय व्यवस्था के चलते ही आज प्रशासन योग्य व्यक्तियों की सेवा से वंचित हो गया है और इस पर अवसरवादियों, पूँजीपतियों और अल्पसंय्यक शासक अभिजानों (ruling elites) का प्रभाव स्थापित हो गया है। दलीय व्यवस्था से उत्पन्न इन लोकतांत्रिक दुर्गुणों से बचने के लिए अनेक राजनीतिक दार्शनिकों ने आज की 20वीं शताब्दी में निर्दलीय लोकतंत्र (partyless democracy) का सुझाव दिया।
दलविहीन लोकतंत्र का स्वरूप (Nature of Party less Democracy)-
दलविहीन जनतंत्र सर्वोदयी विचारधारा की देन है। सर्वोदय-समाज यह स्वीकार नहीं करता कि समाज परस्पर विरोधी समूहों तथा विभिन्न दलों में विभाजित हैं। उनकी दृष्टि में समाज का परस्पर विरोधी समूहों में विभाजन मानव स्वभाव के विपरीत है। सर्वोदय समाज यह भी मानता है कि आज के समाज में विभिन्न विचारविरोधी संघ तथा विभिन्न दल अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कायम किए गए हैं। आचार्य विनोबा भावे के विचारानुसार, इन विरोधी संघों की अधिकता समाज में इतनी ज्यादा है कि वे जीवन के हर क्षेत्र में समा गए हैं। विनोबाजी के विचार में ये सारे विरोधी संगठन मानव स्वभाव के विपरीत हैं, अर्थात् कृत्रिम (artificial) हैं। इस कृत्रिम विरोधी दशा में राजनीति को व्यावहारिक बनाने के लिए या लोकमत के निर्माण के लिए दलीय व्यवस्था का आश्रय लिया जाता है। परिणामस्वरूप, लोकतंत्र क्रमशः दलतंत्र का रूप धारण कर लेता है। विनोबाजी के ही शब्दों में, “चुनाव का विष-वृक्ष बहुमत पर आधारित सहचर के रूप में समाज में पारस्परिक विद्वेष का जहर फैलाता है।” विनोबाजी ने मौजूदा चुनाव की व्यवस्था में निम्नलिखित तीन चीजों का उल्लेख किया है-
- आत्मस्तुति,
- परनिन्दा, और
- मिथ्या भाषण।
अतएव, सर्वोदयी समाज वर्तमान जनतंत्र में विद्यमान दलीय व्यवस्था को समाज के लिए हानिकारक मानता है। उसकी दृष्टि में दलों के अस्तित्व से समाज का केवल अहित ही नहीं होता वरन् समाज का नाश भी होता है। इसी विचार से उत्प्रेरित होकर सर्वोदय-समाज दलविहीन लोकतंत्र की आदर्श व्यवस्था की सुखद कल्पना करता है।
दलविहीन लोकतंत्र की मान्यताएँ (Postulates of Partyless Democracy)
आज के आर्थिक स्पर्धा के युग में दलविहीन लोकतंत्र राजनीतिशास्त्रियों के ध्यान में केन्द्रित होता जा रहा है। स्वर्गीय लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में इस प्रणाली की स्थापना के लिये भारत में पहली बार प्रयास किया गया। इसी प्रयास के फलस्वरूप 1977 में एक समेकित विपक्ष के रूप में जनता पार्टी अस्तित्व में आयी परन्तु आपसी मतभेदों के कारण पार्टी सत्ता से हाथ धो बैठी फिर भी दलीय व्यवस्था की बुराइयों पर ध्यान रखते हुए ही लोकतंत्र की स्थापना का प्रयास प्रवुद्धवर्गीय समाज कर रहा है। दलविहीन लोकतंत्र की निम्नलिखित मान्यताएँ हैं।
- दलीय संगठन से परे समाज-सेवा की भावना (The feeling of social service in absense of partisan-organisation)- सर्वोदयी समाज के विचारानुसार आधुनिक राजनीतिक दलों का निर्माण समाजसेवा के नाम पर किया जाता है। समाज के पवित्र उद्देश्य को दलों का उद्देश्य बताया जाता है। जब दलों का निर्माण हो जाता है तो विभिन्न दलों की समाजसेवा की भावना गौण (secondary) और दल की सेवा प्रमुख (primary) हो जाती है। विविध राजनीतिक दल अपने कार्यों को सामाजिक कल्याण के रंग में रँगते हैं। सर्वोदयी समाज दलों के इस अतिरंजित स्वरूप से अत्यधिक दुखी है और इसीलिए दलीय व्यवस्था की विविध बुराइयों से मुक्ति पाने के लिए यह नारा देता है कि बिना दल की स्थापना के समाजसेवा होनी चाहिए। विनोबाजी के विचारानुसार-“विचार-भेद को हम जिन्दगी का लक्षण समझते हैं; लेकिन विचार-भेद के आधार पर जब पक्षभेद बनते हैं तो उसमें विचार का अंश कम हो जाता है और संगठन में बाहरी प्रचार और अनुशासन का अंश बढ़ जाता है। इसके चलते आज सारे विश्व में कोलाहल-सा मचा हुआ है। राजनीतिक क्षेत्र यदि छोटा होता तो बहुत चिंता की बात नहीं थी, पर यह बहुत व्यापक बन गया है और ऐसे व्यापक क्षेत्र में अगर स्पर्धा रही और विचारमंथन के अतिरिक्त आचार का संघर्ष भी जारी रहा तो मानव के विकास में अत्यधिक बाधा पड़ सकती है। इसलिए मेरा प्रयास है कि एक ऐसा सेवक तैयार हो जो अपने लिए कोई लेबुल न रखे ।” इसलिए दलीय संगठन के बिना समाजसेवा की भावना दलविहीन लोकतंत्र की एक प्रमुख मान्यता है।
- दलविहीन तंत्र और ग्राम-पुनर्निर्माण (Partyless Democracy and Village reconstruction)- सर्वोदयी समाज का नारा है कि दलविहीन जनतंत्र की स्वाधीन इकाइयों के रूप में गाँवों का पुनर्निर्माण होना चाहिए, क्योंकि ऐसा होने से ही लोकतंत्र दलविहीनता की स्थिति प्राप्त कर सकता है। सर्वोदयी समाज चाहता है कि ग्रामसभाओं का संगठन किसी भी दल के आधार पर न हो। वे कहते हैं कि ग्रामसभा के निर्वाचन के बदले एक ऐसी सभा हो, जिसमें प्रत्येक परिवार से एक नागरिक हो और उस सभा द्वारा नियुक्त समिति प्रति दिन के कार्यों की निगरानी करे। गाँवों को अधिकार हो कि वे अपनी शासन-व्यवस्था का प्रबंध स्वयं करें। इस प्रकार दलविहीन लोकतंत्र में ग्राम स्थानीय स्वशासन की एक प्रमुख इकाई होगा, जिस पर ऊपर के स्तरों का प्रभाव बहुत कम होगा। इस व्यवस्था में चूंकि शासन का क्षेत्र स्थानीय मामलों पर सीमित रहेगा, इसलिए प्रशासन में दलबंदी की भावना कम हो जाएगी। इसीलिए लोकनायक जयप्रकाश ने कहा है-“भारतीय लोकतंत्र का सुदृढ़ आधार केवल ऐसी स्वशासित ग्राम-इकाई ही हो सकती है जिसमें भेदों का अपेक्षाकृत कम होना तथा दलविहीन लोकतंत्र की धारणा का सफल होना अपेक्षाकृत अधिक संभव होगा।”
- व्यवस्थापिका-सभाएँ और दलविहीनता (Partylessness in Legislative Assemblies)- दलविहीन जनतंत्र व्यवस्थापिका सभाओं में दलविहीनता की स्थिति लाना चाहता है। व्यवस्थापिका-सभाओं का कार्य दलविहीनता के आधार पर होना चाहिए। आधुनिक युग के दलीय लोकतंत्र में विधानमण्डलों का प्रमुख काम अपने दल के हितों को ध्यान में रखना हो गया है। इससे सार्वजनिक हितों की अवहेलना होने लगी है। यह बात सही है कि विधानमण्डलों के सदस्य जनप्रतिनिधि हैं, लेकिन सच पूछा जाय तो वे अपने दल का प्रतिनिधित्व करते हैं। विधानमण्डलों के सारे कार्य दलीय भावना के आधार पर होते हैं। इसलिए व्यवस्थापिका-सभाओं द्वारा कभी भी सार्वजनिक हित में निर्णय नहीं लिया जा सकता दलविहीन लोकतंत्र की एक कल्पना है कि जहाँ तक संभव हो, व्यवस्थापिका-सभाओं में मतदान की स्थिति न आने पाये। व्यवस्थापिका सभाओं के निर्णय सर्वसम्मति से हों। इस सम्बन्ध में आचार्य विनोबा भावे ने कहा है कि “विभिन्न राजनीतिक दलों को अलग-अलग दल नहीं रखकर एक ऐसा संयुक्त मोर्चा बनाना चाहिए, जिसमें देश के सारे अच्छे और सच्चे व्यक्ति शामिल होकर सर्वसम्मति से कार्यक्रमों को लागू कर सकें।”
- कार्यपालिका और दलविहीनता (Partylessness and Executive)- दलविहीन लोकतंत्र कार्यपालिका-संस्थाओं के निर्माण तथा कार्यविधि में भी दलविहीनता का पालन करना चाहता है। उसकी दृष्टि में आज कार्यपालिका मुख्यतः बहुसंख्यक दल की होती है। संसदीय प्रणाली में बहुसंख्यक दल का नेता ही प्रधानमंत्री होता है और अपने मंत्रिमण्डल की रचना करता है। अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में भी मुख्य कार्यपालिका बहुमत दल के होने के चलते अपने मंत्रियों की नियुक्ति स्वयं करती है। ऐसी स्थिति में इन दोनों शासकीय व्यवस्थाओं में कार्यपालिका का संगठन और कार्य का आधार दलगत भावनाएँ हो जाता है। इसीलिए दलविहीन लोकतंत्र के समर्थकों का कहना है कि कार्यपालिका का निर्माण दलबंदी के आधार पर नहीं होना चाहिए अपितु उसका निर्माण सर्वसम्मति से होना चाहिए।
- दलविहीन लोकतंत्र और चुनाव , (Partyless Democracy and Election)- दलविहीन लोकतंत्र के विचारानुसार प्रत्येक स्तर पर चुनाव की व्यवस्था अप्रत्यक्ष और दलबंदीरहित होनी चाहिए। ग्राम सभाओं के स्तर पर चुनाव न होकर उसका निर्माण प्रत्येक परिवार के एक सदस्य से किया जाना चाहिए | उच्चस्तरीय चुनाव-व्यवस्था को भी अप्रत्यक्ष करना चाहिए और मतदान में दलबंदी की भावना नहीं आनी चाहिए।
दलविहीन लोकतंत्र का मूल्यांकन (Evaluation of Partyless Democracy)
जब हम दलविहीन लोकतंत्र का विश्लेषण करते हैं तब स्पष्ट होता है कि इसके अंतर्गत जनतंत्र की आधारभूत इकाई ग्राम से लेकर उच्चतम स्तर तक प्रशासन का संगठन निर्दलीय आधार पर किया जाना चाहिए। ग्राम सभाएँ प्रत्येक परिवार के प्रतिनिधियों द्वारा बनेगी और उच्च स्तरीय चुनाव भी नीचे की इकाइयों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से होंगे। इस व्यवस्था का एकमात्र, उद्देश्य दल बंदी से परे जनतंत्र की स्थापना करना है। सुनने में निसंदेह लोकतंत्र का यह रूप बहुत ही आकर्षक लगता है, लेकिन इस उच्चतम आदर्श को व्यावहारिक रूप कैसे दिया जाए, हमारे सामने यही एक बहुत बड़ी समस्या है। इस सम्बन्ध में हम अनलिखित तथ्यों को ध्यान में रख सकते हैं :-
(i)समाजसेवा का विचार-एक भ्रम- दलविहीन लोकतंत्र दलीय संगठन के बिना समाज सेवा की भावना को विकसित करना चाहता है। वह समाजसेवा को दलबन्दी का शिकार नहीं करने देना चाहता, लेकिन आचार्य विनोबा भावे और सम्पूर्ण सर्वोदयी समाज की यह मूर्त भावना उस समय वहानाचूर हो जाती हैं तब इसके व्यावहारिक पक्ष पर हम ध्यान देते है। जहाँ सक समाजसेवियों का प्रश्न है, कदम-कदम पर उन्हें विरोधियों तथा निहित स्वार्थ वाले लोगों का सामना करना पड़ता है। निहित स्वार्थवाले लोग अपने स्वार्थ की रक्षा के लिए तुरन्त एक संगठन का निर्माण कर सकते हैं, लेकिन समाजसेवियों का संगठन स्वाभाविक रुप से कायम नहीं हो सकता। बहुत कम ऐसे लोग हैं जो समाजसेवा के नाम पर आगे बढ़ते हैं।
(ii) सजातीयता के कारण मानव में स्वार्थसिद्धि की भावना- सर्वोदयी समाज के दिवास्वप्न का एक व्यावहारिक दोष यह है कि मनुष्य में अपने-जैसे लोगों के साथ रहने की प्रवृत्ति होती है, जिससे समाजसेवी भी प्रोत्साहित होते हैं। लेकिन यह भावना सम्पूर्ण समाज की सेवा की भावना को प्रोत्साहित नहीं करेगी वरन् वे अपने-अपने वर्ग के हितों की साधना में लग जाएंगे।
(iii) ग्रामसभा की एकरूपता और निष्ठा पर विशेष वर्गसमूह का प्रभाव- दलविहीन लोकतंत्र ग्राम समाज का निर्माण प्रत्येक परिवार के प्रतिनिधियों द्वारा करने का स्वप्न देखता है, लेकिन सर्वोदयी समाज की इस भावना का यह भयंकर दोष है कि हर परिवार से आये ग्रामसमाज के सदस्य निश्चित रूप से विभिन्न दलों में विभक्त हो सकते हैं। गाँवों में विभित्र जातियों और सम्प्रदाय के लोग रहते हैं। इसलिए विभिन्न परिवारों से बने नागरिकों की ग्रामसभा में निश्चित रूप से उस जाति की प्रधानता होगी, जिस जाति के अधिक लोग उस गाँव में रखते है। इससे ग्रामसभाओं को हम दलविहीन कैसे बना सकते हैं। यहाँ पर दलविहीन लोकतंत्र की दीवार धराशायी-सी होती प्रतीत होती है।
(iv) दलबन्दीरहित अप्रत्यक्ष चुनावों की व्यवस्था-एक दिवास्वप्न- जहाँ तक दलविहीन जनतंत्र का अप्रत्यक्ष एवं दलबंदीरहित चुनावों की व्यवस्था का प्रश्न है, यह एक सुनहला सपना प्रतीत होता है। अप्रत्यक्ष तथा दलीय माध्यम के बिना चुने जाने के बाद संबंधित सदस्य अपने समान हितों के आधार पर विभिन्न दलों रूप में संगठित नहीं होंगे-यह स्वीकार नहीं किया जा सकता है। खासकर भारत जैसे देश में, जहाँ नेताओं में दल बदल करने की प्रवृत्ति है, वहाँ बिना दलों के माध्यम से चुनाव करा देने मात्र से ही लोकतंत्र का दलविहीनता का दावा नहीं कर सकता।
(v) व्यवस्थापिका सभा के सदस्यों और , दलीय अनुशासन में चोली-दामन का सम्बन्ध- दलविहीन लोकतंत्र का जहाँ तक व्यवस्थापिका सभाओं की कार्यवाहियों में निर्दलीयता के पालन का प्रश्न है, यह एक असंभव तथा भगीरथ प्रयल जैसा प्रतीत होता है। व्यवस्थापिका- सभाओं की कार्याविधि के पीछे विभिन्न सदस्यों की स्वार्थ भावना होती है, जिसके चलते सदस्यों को दलीय बंधनों का मोह लगा रहता है और वे सरासर अनुचित होते हुए देखकर भी दलीय बंधनों को छोड़ नहीं सकते। इसलिए सर्वोदवी समाज का यह दावा गलत है कि दलीय अनुशासन के बंधन मात्र को हटा देने से जनतंत्र दलविहीन बन जायगा।
(vi) कार्यपालिका के निर्माण में सर्वसम्मति से दलविहीन सूची-प्रणाली दलबन्दी से मुक्त नहीं- जहाँ तक दलविहीन लोकतंत्र को कार्यपालिका-संस्थाओं में उतारने का प्रश्न है, वह प्लेटों के आदर्श राज्य से कम नहीं है, जिसकी स्थापना केवल स्वर्ग में ही हो सकती है। दलविहीन लोकतंत्र का यह आधार है कि कार्यपालिका का निर्माण सर्वसम्मति से होना चाहिए और सबसे अधिक समर्थन प्राप्त करनेवाले लोगों को कार्यपालिका का सदस्य बनाना चाहिए। अपने इस पक्ष में सर्वोदयी सूची-प्रणाली (list system) को अपनाने की सलाह तो देते हैं,लेकिन वास्तविकता यह है कि सूची-प्रणाली का निर्माण भी.दलबन्दी के आधार पर ही होता है। इससे एक लाभ यह हो सकता है कि व्यापक प्रतिनिधित्व पर आधारित कार्यपालिका का निर्माण होगा। लेकिन ऐसी कार्यपालिका व्यावहारिक दृष्टिकोण से निश्चित रूप से कमजोर होगी-यह दावे के साथ कहा जा सकता है।
उपसंहार
दलविहीन लोकतंत्र सैद्धान्तिक दृष्टि से भले ही सुन्दर, आकर्षक एवं आदर्शमय हो, लेकिन व्यावहारिक दृष्टिकोण से इसमें बहुत-सी त्रुटियाँ हैं जिनके चलते इसके सिद्धान्तों को हम क्रियान्वित नहीं कर सकते। दलविहीन लोकतंत्र सर्वोदयी समाज की मृगतृष्णा है जो लालच में अपने आप में समाप्त हो जाती है। चूंकि मार्च, 1977 ई० के बाद जयप्रकाश नारायण का भारतीय राजनीति में बोलबाला था, इसलिए सर्वोदयी समाज का यह दिवास्वप्न अन्य राजनीतिशास्त्री भी देखने लगे हैं। दलविहीन लोकतंत्र तभी साकार हो सकता है, जब किसी देश का चारित्रिक और नैतिक विकास होगा और उस देश में अभावग्रस्त कोई नहीं रह पाएगा और तब भारत-जैसे देश में दलविहीन लोकतंत्र के उज्ज्वल भविष्य की कल्पना साकार हो सकेगी।
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