भारत में पंचायती राज | स्वतंत्रता के बाद पंचायतों का विकास | पंचायती राज की कमजोरियाँ एवं सुझाव
भारत में पंचायती राज | स्वतंत्रता के बाद पंचायतों का विकास | पंचायती राज की कमजोरियाँ एवं सुझाव
भारत में पंचायती राज
(Panchayati raj)
भारत में ग्राम पंचायत संस्था का उद्गम प्रारम्भिक अवस्था में हुआ था और एक दीर्घकाल तक चलता रहा जो कि विश्व के सभी देशों के लिए एक मिशाल थी। यह कहा जाता है कि इस व्यवस्था की शरुआत सर्वप्रथम राजा पृथु ने उस समय की जब गंगा-यमुना के द्वाबा क्षेत्र का विस्तार किया जा रहा था।
स्वतंत्रता के बाद पंचायतों का विकास
(Development of Panchayats after Independence)
भारत में पंचायती राज को पुनः सशक्त आधार पर कायम करने का प्रयास महात्मा गांधी ने किया था, लेकिन इन पंचायतों को सक्रिय बनाये जाने का कार्य स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् ही हो सका। भारतीय संविधान में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (Directive Principles to State Policy) के अन्तर्गत अनुच्छेद 40 में यह व्यवस्था की गयी है कि राज्य ग्राम पंचायतों की स्थापना के लिए कदम उठायेगा और उन्हें ऐसी शक्तियाँ एवं अधिकार प्रदान करेगा, जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने के योग्य बनाने के लिए आवश्यक हों। इसके आधार पर पहली योजना के प्रारम्भ में ही ग्राम पंचायतों का गठन हो भी गया। जनवरी, 1957 में श्री बलवन्तराय मेहता की अध्यक्षता में सामुदायिक विकास कार्यक्रमों के मूल्यांकन हेतु एक समिति गठित की गयी, जिसने त्रिस्तरीय (गाँव, ब्लाक तथा जिला पंचाय राज व्यवस्था स्थापित करने का सुझाव दिया जिसके फलस्वरूप तत्कालीन प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू ने अक्टूबर, 1959 में राजस्थान के नागौर जिले में पंचायती राज की स्थापना की घोषणा की। इस सन्दर्भ में मेहता समिति की संस्तुतियों के परिप्रेक्ष्य में अन्तः सम्बन्धित त्रिस्तरीय ढाँचा- गाँव सभा एवं पंचायतें गाँव स्तर पर, पंचायत समितियाँ ब्लाक स्तर पर तथा जिला परिषदें जिला स्तर पर स्थापित की गयीं। वास्तव में पंचायत राज की स्थापना से लोगों में समुचित विकास आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना के प्रति आशा जागृत हुई थी। इसके पश्चात् विभिन्न प्रान्तों में पंचायत राज अधिनियम पारित किये गये तथा प्रत्येक राज्य अपनी स्थानीय दशाओं के अनुरूप व्यवस्था निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र था। आज सभी राज्यों एवं केन्द्रशासित प्रदेशों में संरचनात्मक विभिन्नताओं वाली पंचायत राज संस्थाएँ कार्य कर रही हैं। आमतौर पर यह प्रणाली तीन स्तरीय ही है। पंचायती राज संस्थाओं की अवधि तीन से पाँच वर्ष की होती है। ये संस्थाएँ क्षयकषि, ग्रामीण उद्योग, चिकित्सा राहत प्रावधान, महिला एवं बाल कल्याण विकास, सार्वजनिक चरागाहों, ग्रामीण सड़कों, तालाबों, कुओं तथा अन्य सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रमों का उत्तरदायित्व भी ग्रहण करती हैं। इसी श्रृंखला में ही तीसरी योजना के दौरान पंचायती राज के निम्न उद्देश्य निर्धारित किये गये थे-
(i) कृषि उत्पादन में वृद्धि
(ii) ग्रामोद्योगों का विकास;
(iii) भौतिक एवं वित्तीय उपलब्ध स्थानीय संसाधनों का पूर्णतया उपयोग करना;
(iv) गाँव के आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्गों की सहायता करना;
(v) सहकारी संस्थाओं का विकास करना;
(vi) ऐच्छिक संगठनों को प्रगतिशील बनाना; तथा
(vii) समुदाय के अन्दर स्वयं सहायता की भावना को प्रोत्साहित करना आदि।
वर्तमान समय में ये ग्राम पंचायतें कुछ स्थानों पर प्रारम्भिक शिक्षा भी देने का कार्य कर रही हैं। इन पंचायतों को “समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम’ तथा ‘जवाहर रोजगार योजना’ जैसे अन्य ग्रामीण विकास कार्यक्रमों का दायित्व सौंपा गया है। इस समय देश में 2.20 लाख ग्राम पंचायतें, 4.5 हजार पंचायत समितियाँ तथा 357 जिला परिषदें कार्य कर रही हैं।
पंचायती राज की कमजोरियाँ एवं सुझाव
वास्तव में पंचायती राज की स्थापना का उद्देश्य ग्रामीण उत्थान करना है। यद्यपि स्वतंत्रता के बाद के कुछ वर्षों तक इस व्यवस्था के प्रति लोगों में अत्यधिक उत्साह था, लेकिन समय- अन्तराल के साथ-साथ यह कम होता गया क्योंकि जिन आकांक्षाओं की आशा थी, वे पूरी नहीं हो सकीं। इसका कारण प्रशासनिक व्यवस्था की शक्ति का जिला एवं राज्य स्तर पर केन्द्रीयकरण होना रहा है जिसके परिणामस्वरूप स्थानीय नेतृत्व कमजोर होता गया और पंचायत राज व्यवस्था की कुशलता घटती गयी। पंचायती राज व्यवस्था के प्रतिनिधियों को उचित प्रशिक्षण नहीं दिया गया और न ही उनमें मिल-बैठकर उचित निर्णय लेने की भावना जगायी गयी। पंचायत राज व्यवस्था की असफलता का दूसरा प्रमुख कारण यह रहा कि, इनका नेतृत्व क्षमताग्रामीण संभ्रान्त और सम्पन्न वर्ग के लोगों तक सीमित रहा। फलस्वरूप अधिकांश जनसामान्य अपने को इस व्यवस्था से कटा हुआ अनुभव करने लगे। इससे पंचायती राज की मूल भावना कि सबलोग मिल-जुलकर कार्य करें, एक-दूसरे का सुख-दुःख बांटें, ही पूरा नहीं हो सकी राज्य सरकारों द्वारा पंचायतों को मनमानी तरीके से भंग करना और नियमित रूप से चुनाव न कराना भी असफलता का एक कारण है। ऐसे भी राज्य हैं जहाँ लम्बी अवधि तक पंचायतों के चुनाव ही नहीं कराये गये। आमतौर पर लोगों की यह धारणा है कि अधिकांश गाँवों की पंचायतें आठ या दस महत्वपूर्ण परिवारों की संस्थाएँ होती हैं। साधारण व्यक्ति पंचायत के कार्यालय में नहीं जाता। दूसरी ओर इन संस्थाओं के पास वित्तीय साधन का अभाव है और जो साधन हैं भी, उनका दुरुपयोग हो रहा है, यद्यपि कि 1990 में तत्कालीन जनता दल सरकार ने पंचायतों को सक्रिय एवं सशक्त बनाने का प्रयास किया था। संविधान के 64वें संशोधन में त्रिस्तरीय पंचायत संस्थाओं की गठन की व्यवस्था की गयी है और महिलाओं, अनुसूचित एवं अनुसूचित जनजातियों के स्थान सुरक्षित कर दिये गये थे।
लेकिन इन सब प्रयासों के बावजूद भी आज ग्राम पंचायतें अपना अस्तित्व खो रही हैं और वे प्रभावहीन हो गयी हैं। जिन उद्देश्य के लिए इनकी स्थापना पर जोर दिया गया था। शायद उनको । पूरा करने में असफल रही हैं। आज गुजरात, महाराष्ट्र, पं0 बंगाल एवं कर्नाटक जैसे कुछ कमराज्यों को छोड़कर अन्य राज्यों में पंचायतें प्रायः मृतप्राय हो गयी हैं। सन् 1977 में अशोक मेहता समिति ने इनकी तीन अवस्थाएँ बतायी थीं-(i) 1959 से 1964 तक इन संस्थाओं ने जड़ पकड़ी, (ii) 1964 से 1969 तक की अवधि में पतन हुआ, (iii) 1969 से 1977 की अवधि में निष्क्रियता रही। अतः इन संस्थाओं की जड़ें जनता में आज भी नहीं हैं। अतः आज पंचायत राज को मजबूत एवं सक्रिय बनाने की आवश्यकता है, जिससे कि सही मायने में जनता का प्रशासन एवं भागीदारी प्रभावी हो सकें। यदि ऐसा नहीं होता तो सत्ता के विकेन्द्रीकरण के सिद्धांत का उपहास होगा तथा ग्रामीण विकास को कोई दिशा न मिल सकेगी।
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