अर्थशास्त्र / Economics

अदृश्य बेरोजगारी | प्रच्छन्न बेरोजगारी | अदृश्य बेरोजगारी के रूप | अदृश्य बेरोजगारी-पूँजी निर्माण का एक स्त्रोत | अतिरिक्त श्रम-शक्ति का कृषि से स्थानान्तरण का औचित्य

अदृश्य बेरोजगारी | प्रच्छन्न बेरोजगारी | अदृश्य बेरोजगारी के रूप | अदृश्य बेरोजगारी-पूँजी निर्माण का एक स्त्रोत | अतिरिक्त श्रम-शक्ति का कृषि से स्थानान्तरण का औचित्य | Invisible Unemployment in Hindi | disguised unemployment in Hindi | form of invisible unemployment in Hindi | Invisible unemployment – ​​a source of capital formation in Hindi | Justification for transfer of surplus labor force from agriculture in Hindi

अदृश्य बेरोजगारी

आर्थिक विकास की सबसे बड़ी बाधा पूँजी की कमी होती है जो कि दरिद्रता के दुश्चक्रों से उत्पन्न होती है। दरिद्रता देश की पूँजी निर्माण की निम्न दर का कारण व परिणाम होती है। अल्प-विकसित देश में जनसाधारण दरिद्रता में फँसे रहते हैं। वे पुराने पूँजी उपकरण एवं उत्पादन के तरीके ही प्रयोग करते हैं।

मध्यम वर्ग विनियोजित धनराशि प्रदान करने वाला द्वितीय स्रोत है, परन्तु औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े राष्ट्रों में इनकी संख्या बहुत कम होती है। अर्द्ध-विकसित राष्ट्रों में अधिकांश बचत उच्च आय वर्ग से प्राप्त होती है परन्तु यह बचतें उत्पादक दिशाओं में प्रवाहित नहीं होती हैं। दूसरी ओर ये भूमि, स्वर्ण, आभूषण एवं विदेशी वस्तुओं के संग्रह पर व्यय की जाती है। यह वर्ग प्रायः भूमिपति वर्ग होता है जिनमें साहस का अभाव पाया जाता है।

प्रो. नर्कसे, ड्यूजनबेरी, बुकानन तथा एलिस आदि अर्थशास्त्रियों का मत है कि अदृश्य बेरोजगारी को पूँजी निर्माण के साधन के रूप में प्रयोग कियाजाना चाहिये। वास्तव में इस विधि की अपनी कुछ सीमायें हैं जिसके कारण पूंजी निर्माण की अगली दो रीतियों का प्रयोग अधिक किया जाता है। इन रीतियों के अनुसार यह निश्चय करना आवश्यक होगा कि विनियोग अतिरेक का कितना भाग उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में लगाया जाये और कितनी मात्रा, उत्पादक वस्तुओं के लिए निर्धारित की जाए। ध्यान रहे, विनियोजित राशि की मात्रा उत्पादक वस्तुओं के लिए जितनी अधिक होगी, अन्य बातें समान रहने पर, पूँजी निर्माण उतना ही अधिक होगा। दूसरे शब्दों में पूँजी निर्माण, ‘उत्पादक विनियोग’ का ‘फलन’ (Function) माना जायेगा।

उपर्युक्त विवरण ये यह स्पष्ट हो जाता है कि अधिक पूँजी निर्माण के लिए उत्पादक विनियोगों की मात्रा भी अधिक रखी जानी चाहिये, परन्तु इस सम्बन्ध में एक समस्या यह पैदा हो जाती है कि चूंकि उत्पादक वस्तुओं का पूँजी-उत्पाद अनुपात (COR) उपभोक्ता वस्तुओं की अपेक्षा कम होता है। दूसरे शब्दों में, उत्पादक उद्योगों की विकास दर अल्पकाल में उपभोक्ता उद्योगों की अपेक्षा कम होती है जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय आय में वृद्धि कम दर से हो पाती है। अतः ऐसी हालत में सरकार के सम्मुख एक विकट समस्या यह होती है कि वह- (अ) आय में अल्पकालीन वृद्धि को प्राथमिकता दे और दीर्घकालीन आय वृद्धि के विचार को स्थगित कर दे, अथवा (ब) अल्पकाल में आय में न्यून वृद्धि को स्वीकार कर लिया जाये और दीर्घकालीन दृष्टि से सम्भाव्य विकास के लिए वचांछित पृष्ठभूमि का निर्माण होने दिया जाये।

स्मरण रहे, प्रथम विकल्प स्वीकार करने का अर्थ होगा-उत्पादक विनियोग के स्थान पर उपभोक्ता विनियोगों को प्राथमिकता देना, जिससे अल्पकाल में वृद्धि अथवा विकास की दर (Rate of growth) अवश्य अधिक होगी परन्तु पूँजी निर्माण कम होने के कारण, देश अल्प- विकसित ही बना रहेगा। इसके विपरीत दूसरे विकल्प को स्वीकार करने पर भले ही अल्पकाल में राष्ट्रीय आय में कम वृद्धि हो, पर पूँजी निर्माण की सम्भावना अधिक होने के कारण विकास की दर दीर्घकाल में अधिक हो जायेगी। पिछड़े हुए देशों को आर्थिक विकास की दृष्टि से सदैव दूसरे विकल्प को ही अपनाना चाहिये।

प्रच्छन्न बेरोजगारी

(Disguised Unemployment)

अदृश्य अथवा छद्मवेषी बेरोजगारी से आशय

अदृश्य बेरोजगारी आंशिक बेरोजगारी की उस अवस्था को बतलाती है जिसमें रोजगार में संलग्न श्रम शक्ति का उपज में योगदान शून्य या लगभग नहीं के बराबर होता है। अल्प-विकसित देशों में कृषि में प्रायः आवश्यकता से अधिक श्रमशक्ति लगीं होती है जो अदृश्य या प्रच्छन्न बेरोजगारी को जन्म देती है। श्रीमती जॉन रॉबिन्सन के मतानुसार, “बेरोजगारी की यह वहक्षस्थिति है जिसमें श्रमिक अपने अस्तित्व के लिए, अपनी योग्यता के विपरीत, कम आय वाले व्यवसायों में धकेल दिये जाते हैं।” रागनर नर्कसे के मतानुसार, “तकनीकी रूपसे अदृश्य बेरोजगारी से अभिप्राय श्रम की सीमान्त उत्पादकता का शून्य होना है।” इस अर्थ में यदि किसी क्षेत्र में कार्यरात श्रमिकों में से कुछ श्रमिकों को हटाकर किसी अन्य क्षेत्र में स्थानान्तरित कर दिया जाए और इस प्रकार किये गये परिवर्तन केफलस्वरूप, मूल क्षेत्र में उत्पादन में अगर कोई कमी नहीं होती तो यह स्थिति अदृश्य बेरोजगारी की स्थिति मानी जायेगी। अतः अदृश्य बेरोजगारी सेक्षआशय किसी विशेष आर्थिक क्रिया में उत्पादन हेतु आवश्यकता से अधिक मात्रा में श्रमिकों के लगे होने से है।

लेकिन प्रो० ए० के० सेन नर्कसे की  व्याख्या से सन्तुष्ट नहीं हैं। उनका कहना है कि यदि श्रम की उत्पादकता शून्य है तो श्रम को काम पर लगाया ही क्यों जाता है? वासतव में यह भ्रम तथा श्रम-काल (Labour Time) में अन्तर स्पष्ट न हो सकने के कारण उत्पन्न होता है। सेन का कहना है कि “सच यह नहीं, कि उत्पादन प्रक्रिया में अत्यधिक श्रम खर्च हो रहा है, बल्कि उसे बहुत ज्यादा मजदूरों द्वारा खर्चक्षकिया जा रहा है। इस दृष्टि से प्रति व्यक्ति कार्यकारी  घण्टों (समय) के काम होने की स्थिति को अवश्य बेरोजगारी की स्थिति कहा जाएगा।”

उदाहरण के लिए, मान लीजिये एक परिवार के छः सदस्य प्रति व्यक्ति पाँच घण्टे के हिसाब से एक फार्म पर 30 घण्टे काम करते हैं। तकनीक व उत्पादन प्रक्रिया के समान बने रहने पर, यदि उनमें से एक मजदूर कहीं अन्यत्र चला जाए तो बाकी पाँच मजदूर अधिक समय तक (यानि अब छः घण्टे) काम करके फार्म के कुछ उत्पादन को उसी स्तर पर बनाए रख सकते हैं। चूँकि मजदूरों के कार्यकारी घण्टे (Working hours) पहले कम थे इसलिये यहाँ, एक मजदूर अदृश्य रूप से बेरोजगार माना जायेगा। स्पष्ट है कि “अदृश्य बेरोजगारी का सम्बन्ध मजदूर की व्यक्तिगत सीमान्त उत्पादकता से नहीं बल्कि प्रति मजदूर प्रतिदिन काम के घण्टे से होता है।”

सेन ने इस तथ्य को रेखाचित्र द्वारा भी स्पष्ट किया है। Y कुल प्रदा वक्र है जो E बिन्दु पर उस समय क्षतिज हो जाता है जब श्रम की OL मात्रा का इस्तेमाल किया जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि OL श्रम-घण्टों पर श्रम की सीमान्त उत्पादकता शून्य है और इससे अधिक श्रमिकों को नियुक्त करने का कोई फायदा नहीं है। कृषि कार्य में संलग्न मजदूरों की संख्या OP2 है ओर इस स्थिति में प्रत्येक मजदूर स्पज्या a घण्टे काम करता है, जबकि प्रति श्रमिक सामान्य कार्यकारी घण्टे स्पज्या b के बराबर है। इस प्रकार यह उतपादन कार्य सामान्य घण्टे काम करते हुए OP1 मजदूरों द्वारा पूरा किया जा सकता है। इस दृष्टि से P1P1 जनसंख्या फालतू है अर्थात् अदृश्य रूप से बेरोजगार है। अतः स्पष्ट है कि L बिन्दु पर श्रम की सीमान्त उत्पादकता शून्य है और P1 P2 क्षेत्र के बीच की अनावश्यक श्रम शक्ति की सीमान्त उत्पादकता कुछ नहीं है।

अदृश्य बेरोजगारी के रूप

अदृश्य बेरोजगारी दो प्रकार की हो सकती है। प्रथम, जब लोग-बाग अपनी योग्यता से कम उत्पादन कार्यों में लगे होते हैं। इस प्रकार की अदृश्य बेराजेगारी आमतौर पर औद्योगिक देशों में पाई जाती है। श्रीमती रॉबिन्सन ने अदृश्य बेरोजगारी को इस अर्थ में लेते हुए कहा है कि व्यापार चक्रों के कारण जब श्रमिक अपने नियमित कार्यों को खो देने पर कम-उत्पादक कार्यों को स्वीकार कर लेते हैं तो वे अदृश्य रूप में बेरोजगार होते हैं। दूसरे प्रकार की अदृश्य बेरोजगारी, किसी काम में आवश्यकता से अधिक लोगों का लगा होना है। यह बेरोजगारी प्रायः अल्प-विकसित कृषि प्रधान देशों में अधिक देखने में आती है। इसकी कुछ प्रमुख विशेषतायें इस प्रकार हैं-

(1) नर्कसे के अनुसार अदृश्य बेरोजगारी का सम्बन्ध अपना निजी काम करने वाले लोगों से होता है न कि मजदूरी पर काम करने वालों से।

(2) अल्प-विकसत देशों में अदृश्य बेरोजगारी दीर्घकालीन जनसंख्या-आधिक्य का परिणाम होती है ओर विकसित देशों की तरह यह चक्रीय न होकर स्थायी होती है।

(3) अदृश्य बेरोजगारी ‘माँग’ की कमी के कारण नहीं बल्कि ‘पूरक साधनों’ की कमी के कारण उत्पन्न होती है और यह श्रम की पूर्ति ओर बेरोजगार के अवसरों के असन्तुलन का परिणाम होती है। चूंकि अल्प-विकसित देशों में पूंजी की पूर्ति तथा पूरक साधन जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में नहीं बढ़ पाते हैं। फलस्वरूप कृषि से बाहर रोजगार के अवसरों के अभाव में, यह अतिरिक्त श्रम-शक्ति कृषि व जीवन-निर्वाह व्यवसायों में ही लगी रहती है।

अदृश्य बेरोजगारी-पूँजी निर्माण का एक स्त्रोत

(Disguised Unemployment-as a Source of Capital Formation)

रागनर नर्कसे एवं मारिस डॉव का मत है कि अति जनसंख्या वाले अल्पविकसित देशों में अदृश्य बेरोजगारी पूँजी निर्माण का एक प्रभावी स्त्रोत बन सकता है। इस दोनों विचारकों ने अपनी थीसिस भले ही अलग-अलग ढंग से प्रस्तुत की हैं तथापि उनका मूल उद्देश्य कार्यशील श्रम शक्ति का क्षेत्र परिवर्तन करके बचत शक्म (saving potential) को बढ़ाना है।

प्रो० रागरन नर्कसे (Regmark Nurkse) की विचारधारा

प्रो. रागनर नर्सो का कहना है कि अल्प-विकसति देशों में अदृश्य बेरोजगारी अदृश्य बचत शक्म को उत्पन्न कर सकती है। पिछड़े हुए देशों में जनसंख्या आधिक्य एवं संयुक्त परिवार प्रणाली के कारण भूमि पर दबाव प्रायः आवश्यकता से अधिक होता है। बाह्य दृष्टि से यही जान करपड़ता है कि कृषि में संलग्न जनसंख्या पूर्ण रोजगार प्राप्त किये हुए है, किन्तु वास्तव में इस श्रम- शक्ति का कुल उत्पादन में कोई योगदान नहीं होता। यह रम-शक्ति का वह भाग है जो अन्यत्र कार्य न मिलने की दशा में, कृषि में अपना अस्तित्व बनाये रहता है जो कि एक प्रकार से श्रम की, भयंकर बर्बादी है। नर्कसे ने इसे ‘अदृश्य बेरोजगरी’ या ‘अतिरिक्त श्रम शक्ति’ कहकर पुकारा है। उनके अनुमानानुसार अल्प-विकसति देशों में कुल श्रम-शक्ति का 2/3 से 4/5 माग कृषि क्षेत्र में लगा होता है और कृषि जनसंख्या का 15 से 30 प्रतिशत अदृश्य बेरोजगारी की स्थिति में है। भारत के सम्बन्ध में प्रो. लुइस का अनुमान है कि ‘कृषि में संलग्न जनसंख्या का कम से कम 1/4 भाग अर्थात् लगभग 2 करोड़ लोग स्थायी रूप से बेरोजगार है।” अतः प्रो. नर्कसे के अनुसार, “अल्प-विकसति देश इस अर्थ में बड़े पैमाने पर अदृश्य बेरोजगारी के क्षणशिकारी होते हैं, कि अगर कृषि तकनीक में परिवर्तन किये बिना, कृषि में संलग्न जनसंख्या के एक बड़े भाग को इस क्षेत्र से हटा लिया जाय तो उत्पादन में कोई कमी नहीं आएगी बल्कि उसी खेत से कम श्रम-शक्ति द्वारा पहले जितना ही उत्पादन प्राप्त किया जा सकेगा।”

अतिरिक्त श्रम-शक्ति का कृषि से स्थानान्तरण का औचित्य

चूँकि व्यापक अर्थ में, पूँजी निर्माण के अन्तर्गत भौतिक पूँजी के अलावा मानवीय पूँजी निर्माण को भी सम्मिलित किया जाता है, इसलिये रागनर नर्कसे का कहना है कि अदृश्य बेरोजगारी के रूप में श्रम के अपव्यय को रोककर, उसे वास्तविक पूँजी निर्माण के कार्य में उपयोग किया जाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि अतिरिक्त श्रम-शक्ति को कृषि से हटाकर सिंचाई, सड़कों, रेलों, कुटीर उद्योगों व भवनों आदि के निर्माण कार्य में लगाया जाए। इसके दो भाग होंगे प्रथम, कृषि पर अनावश्यक भार कम हो जायेगा और द्वितीय, इस श्रम शक्ति के द्वारा अन्य क्षेत्रों में काम करने पर राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि होने लगेगी। रागरन नर्कसे का मत है कि “चूँकि पिछड़े हुए देशों में बिना पूँजी निर्माण किये, कृषि तकनीक में परिवर्तन नहीं किया जा सकता। अतः यह अधिक उचित होगा कि इस अतिरिक्त श्रम शक्ति को ही पूँजी निर्माण का माध्यम बना लिया जाए।” इस बात का समर्थन प्रो. कोकिंगहर्षमैन, ड्यूजनवरी, बुकानन तथा एलिस आदि ने भी किया है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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