इतिहास / History

तुर्की का आधुनिकीकरण | कमाल पाशा के नेतृत्व में राष्ट्रवादी संघर्ष | सेव्रे की सन्धि

तुर्की का आधुनिकीकरण | कमाल पाशा के नेतृत्व में राष्ट्रवादी संघर्ष | सेव्रे की सन्धि

तुर्की का आधुनिकीकरण

पश्चिमी एशिया के इतिहास में तुर्की का महत्वपूर्ण स्थान है। तुर्की  एशिया और यूरोप का मिलन-बिन्दु है। इसका अधिकांश भाग एशिया में है और कुछ भाग यूरोप में। इसको भौगोलिक स्थिति के कारण इसका सामरिक महल बहुत अधिक है। सामाजिक व राजनीतिक एकता की दृष्टि से भी वह पश्चिमी एशिया के महान राष्ट्रों में से एक है। यहां के निवासियों में ईसाई, यहूदी तर्क, अरब आदि मुख्य हैं। ये सब जातियों तुर्की के ऐतिहासिक विकास क्रम में यहाँ प्रविा हुई और धीरे धीरे यहाँ की आबादी का अभिन्न अंग बन गई। 1453 ई० में आटोमन तुर्की के नेता महमूद द्वितीय ने कुस्तुन्तुनिया को जीतकर पूर्वी रोमन साम्राज्य का अन्त कर दिया। इन्हीं तुर्की के कारण इस क्षेत्र का नाम तुर्की पड़ा। ग्यारहवीं शताब्दी से उद्भूत तुर्की साम्राज्य सत्रहवीं शताब्दी तक एक विशाल सामाज्य बन चुका था। क्षेत्रफल की दृष्टि से वह यूरोप में आटोमन साम्राज्य के बाद सबसे बड़ा था। अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ से आटोमन साम्राज्य में निर्बलता के लक्षण प्रकट होने लगे थे और प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् उसके पास केवल ईजियन सागर से लेकर काले सागर तक का एक छोटा सा प्रदेश बचा था लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् के चार वर्षों में ही तुर्की ने अप्रत्याशित रूप से सैनिक राष्ट्रवाद का विकास करके न केवल यूनान को पराजित किया वरन् प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् 1920 ई. में हुई सेव्रे की सन्धि को ठुकरा कर पश्चिमी देशों को पुनः नयी सन्धि करने को भी बाध्य किया।

उन्नीसवीं शताब्दी में तुर्की का शासन पतन की ओर अग्रसर था। इसी कारण उसे ‘यूरोप का मरीज’ कहा जाता था। तुर्की की जनता सुल्तान अब्दुल हामिद द्वितीय की निरंकुशता से ऊब चुकी थी। अतः युवा वर्ग द्वारा सुल्तान की निरंकुशता के विरोध में एक आन्दोलन आरम्भ हुआ, जो युवा तुके आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। युवा वर्ग शासन में आमूल परिवर्तन की मांग कर रहा था। तुर्की में क्रान्तिकारी दलों की स्थापना इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए की गयी थी, इनमें दमिश्क की ‘फादरलैण्ड’ एण्ड फ्रिडम सोसायटी । प्रमुख थी। जुलाई, 1908 में तुर्की में क्रान्ति द्वारा युवा तुर्को के हाथ में प्रशासन आया और सुल्तान केवल नाम मात्र का शासक रह गया।

कमाल पाशा के नेतृत्व में राष्ट्रवादी संघर्ष-

1908 की ‘युवा तुर्क’ क्रान्ति के समय कमाल पाशा सेलोनिका में कार्यरत् था, परन्तु उसमें कोई भाग नहीं लिया। 1911-12 के तुर्क-इटालियन युद्ध के दौरान उसने ट्रिपोली में रण-कौशल का परिचय दिया और उसके पश्चात् 1912-13 के बाल्कन युद्धों में भी सैनिक ख्याति प्राप्त की। प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की के प्रवेश का उसने विरोध किया था किन्तु वह 1915 के गेलीपोली के युद्ध में मित्रराष्ट्रों की सेनाओं को पीछे हटाने में सफल हुआ। 1916 में काकेशस क्षेत्र में जहाँ तुर्क सेनाएँ रूसी सेना में लगातार हार रही थी। उसने रूसियों के विरुद्ध मूस (Mus) एवं बितलिस (Bitlis) में, सम्पूर्ण अभियान की एकमात्र सफलता प्राप्त की। इस विजय के कारण उसे ‘पाशा’ की उपाधि प्रदान की गई। तुर्की में उसकी लोकप्रियता बढ़ने लगी। उसने एनातोलिया में राष्ट्रवादी तत्वों को संगठित करना आरम्भ कर दिया और उन्हें राष्ट्र की स्वतन्त्रता एवं अखण्डता की रक्षा करने के लिए कटिबद्ध होने के लिए प्रेरित किया। उसकी इस गतिविधि के कारण तुर्की की सरकार ने उसे पदमुक्त कर दिया। सेना से मुक्त हो जाने पर वह तुर्की के राष्ट्रवादियों का नेता बन गया। जुलाई, 1919 के अन्त में राष्ट्रीय अधिकारों की रक्षा हेतु पूर्वी प्रान्तों की परिषद् का एक अधिवेशन एजरूम (Erzrum) में हुआ, जिसकी अध्यक्षता कमाल पाशा ने की। इस अधिवेशन में कुछ महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किये गए, जिनका सारांश निम्न प्रकार था-

(i) सम्पूर्ण राष्ट्र, जिसकी सीमाएँ एशिया माइनर से कास्टेन्टीनोपल (इस्तांबुल) तक थी, अविभाज्य था अतः उसको विभाजित किए जाने अथवा उसके किसी भाग पर विदेशी आधिपत्य स्थापित करने के सभी प्रयलों का संगठित रूप से विरोध किया जाना चाहिये।

(ii) यदि इस्तांबुल में स्थित वर्तमान सरकार देश की स्वतंत्रता एवं अखण्डता की रक्षा करने में असफल रही तो, उसके स्थान पर राष्ट्रीय क्रांप्रेस द्वारा निर्वाचित एक नई अस्थायी सरकार स्थापित की जायेगी।

(iii) राज्धानी में राष्ट्रीय सभा (National Assembly) का अधिवेशन यथाशीघ्र आमन्त्रित करने के लिए सरकार पर दबाव डाला जाना चाहिये।

इसके पश्चात् सितम्बर 1919 में सिवास में कमाल पाशा की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें राष्ट्रवादी प्रतिनिधियों ने एर्जरुम में पारित प्रस्तावों की पुष्टि कर दी। तत्पश्चात् कमाल पाशा ने राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर से सुल्तान के पास एक संदेश भेजा, जिसमें फरीदपाशा के मन्त्रिमण्डल के त्यागपत्र और ‘प्रतिनिधि सभा’ की बैठक तुरन्त आमन्त्रित करने की मांग की गई थी। इन मांगों के अस्वीकार करने पर राष्ट्रवादियों ने देश में अव्यवस्था उत्पन्न की, जिससे मजबूर होकर फरीदपाशा को त्यागपत्र देना पड़ा। नये, शासक अली रिजा पाशा ने प्रतिनिधि-सभा के चुनाव कराये, जिसमें कमाल पाशा के राष्ट्रवादी दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त हो गया। 23 अप्रैल, 1920 को मुस्तफा कमाल पाशा को अध्यक्षता में तुर्की को महान् राष्ट्रीय सभा का प्रथम अधिवेशन आयोजित किया गया। राष्ट्रीय सभा ने यह घोषणा की कि राष्ट्र को वास्तविक एवं एकमात्र “प्रतिनिधि संस्था” होने के कारण वह सर्वोच्च सत्ता की अधिकारिणी थी, अतः राज्य की विधायी एवं कार्यकारी शक्तियाँ भी उसके हाथों में केन्द्रित थी। सभा ने ‘सुल्तान एवं खलीफा’ के विदेशियों के प्रभाव से मुक्त होने तक कमाल पाशा को शासनाध्यक्ष एवं सर्वोच्च सेनापति के अधिकारी से विभूषित किया और राज्य का नया संविधान तैयार करने के लिए एक समिति नियुक्त की। किन्तु कमाल पाशा की नई राष्ट्रवादी सरकार को अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए भीषण संघर्ष करना पड़ा।

प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की ने नवम्बर, 1914 में जर्मनी की ओर से युद्ध में भाग लिया था। तुर्की की सरकार ने युद्ध जीतने के लिए एक कूटनीतिक साधन के रूप में अखिल इस्लामाबाद’ की नीति का भी सहारा लिया। उसकी यह नीति कुछ समय तक सक्रिय रही। मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध धार्मिक जेहाद की घोषणा भी की गयी। ईसाई होते हुए भी जर्मनी ने इस नीति का समर्थन किया। किन्तु तुर्की को अपने उद्देश्य में अधिक सफलता नहीं मिली, क्योंकि इसी समय इंग्लैण्ड तथा फ्रांस के समर्थन पर अरब राज्यों में राष्ट्रीयता की भावना फैल गई और अरब राष्ट्र तुर्की के साम्राज्य से मुक्ति प्राप्त करने में लग गये। अन्ततः तुर्की के पक्ष की हार हुई। महायुद्ध के पश्चात् मित्रराष्ट्रों ने तुर्की के साथ सेवे सन्धि की।

सेव्रे की सन्धि (Treaty of Serves)-

मित्रराष्ट्रों ने प्राजित तुर्की के साथ 10 अगस्त, 1920 को सेवे की सन्धि पर हस्ताक्षर करने के लिये उसे मजबूर किया। इस सन्धि में निम्नलिखित बातें तय की गई-

(1) तुर्की ने मिस्र, सूडान, साइप्रस, ट्रिपोली-टानिया, मोरक्को, ट्यूनीशिया, अरब, फिलिस्तीन, मेसोपोटामिया और सीरिया पर अपने सभी अधिकारों और हितों को त्याग दिया।

(2) एशिया माइनर, प्रेस का कुछ क्षेत्र, एड्रियानोपल और गैलीपोली, यूनान को दिये गये।

(3) हेजाज के राजा को स्वतन्त्र मान लिया गया।

(4) इटली को रोड्स तथा डोडेकनीज द्वीप समूह मिले।

(5) आमीनिया को स्वतन्त्र राज्य बना दिया गया और कुर्दिस्तान को स्वतन्त्रता का आश्वासन दिया गया ।

(6) दरें दानियाल के जलडमरूमध्य की किलेबन्दी को नष्ट करके उसे अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र मान लिया गया।

(7) कुस्तुन्तुनिया, अलेक्जेण्ड्रिया, स्मर्ना आदि बन्दरगाहों को अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण में रखा गया।

तुर्की के सुल्तान ने इस सन्धि को स्वीकार किया किन्तु कमाल पाशा इसके विरुद्ध था। उसने अपने भाषणों द्वारा जनता को सन्धि के विरोध में एका किया। जनता भी इस सन्धि के विरोध में उसका समर्थन करने लगी। सन्धि के विरोध में राष्ट्रवादियों ने तुर्की में कई प्रदर्शन भी किये, जिसके परिणामस्वरूप 24 जुलाई, 1923 में मित्र राष्ट्रों को तुर्की के साथ एक अन्य सन्धि करनी पड़ी जो, लोसेन की सन्धि कहलाई। इस सन्धि की शर्ते तुर्की के अनुकूल थीं। लोसेन की सन्धि के अनुसार तुर्की से छीने हुए अधिकांश प्रदेश उसको वापस प्राप्त हो गये। कुस्तुन्तुनिया तथा प्रेस पर तुर्की का अधिकार बना रहा। एशिया माइनर में स्थित अनातोलिया भी उसके ही अधिकार में रहने दिया गया। बास्फोरस तथा डार्डेनल्स के जलडमरूमध्य भी उसी के अधीन रहे किन्तु वह उनकी किलेबन्दी नहीं कर सकता था। राष्ट्र संघ के अधीन मेण्डेट-व्यवस्था के द्वारा सीरिया तथा लेबनान फ्रांस के संरक्षण में दे दिये गये। ईराक, फिलिस्तीन तथा ट्रांस-जोर्डन इंग्लैण्ड के संरक्षण में रखे गये तथा जेरूसलम के समीप की पट्टी में एक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की गई। मित्रराष्ट्रों ने तुर्की से प्रथम विश्व युद्ध सम्बन्धित हर्जाने के दावों को छोड़ दिया और उसकी जल, थल एवं वायु सेना पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं लगाया।

कमाल पाशा ने लोसेन की सन्धि को अपनी एक महत्वपूर्ण उपलब्धि माना। वास्तव में किसी पराजित राज्य द्वारा इतनी सम्मानपूर्ण सन्धि, पहले कभी नहीं की गई थी। कमाल पाशा का वास्तविक उद्देश्य तुर्की में एक राष्ट्रीय राज्य की स्थापना करना था। उसने अनातोलिया में एक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की और अंकोरा को इसकी राजधानी बनाया। एक राष्ट्रीय सभा का भी गठन किया गया, जिसमें जनता के प्रतिनिधियों को सम्मिलित किया गया। तुर्की का सुल्तान इससे भयभीत हो गया। उसने कमाल पाशा को बन्दी बनाने की आज्ञा जारी की किन्तु उसे गिरफ्तार करने की क्षमता तुर्की के किसी भी अधिकारी में नहीं थी। फलस्वरूप सुल्तान 1922 ई० में सिंहासन छोड़कर भाग गया। इसके पश्चात् तुर्की में जनतान्त्रिक शासन की स्थापना की गई।

नवीन तुर्की का निर्माण

लोसेन सम्मेलन आरम्भ होने से पूर्व ही तुर्की का सुल्तान गद्दी छोड़कर भाग गया था। उसके स्थान पर उसके भतीजे अब्दुल मजीद को तुर्की का सुल्तान बनाया गया लेकिन उसके सारे अधिकार छीन लिये गये। अक्टूबर, 1923 के चुनाव के द्वारा ‘ग्राण्ड नेशनल असेम्बली का गठन किया गया । इस सभा ने 29 अक्टूबर, 1923 में तुर्की को गणतन्त्र घोषित किया और मुस्तफा कमाल पाशा को इस गणतन्त्र का प्रथम राष्ट्रपति बनाया। राष्ट्रीय महासभा में उसके दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त था। कमाल पाशा तुर्की को पाश्चात्य सभ्यता पर आधारित एक आधुनिक एवं शक्तिशाली राष्ट्र बनाना चाहता था। उसने धीरे-धीरे राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण सुधार करके तुर्की को आधुनिक राष्ट्र बना दिया। इसी कारण उसे “आधुनिक तुर्की का पिता” अथवा “अतातुर्क” की उपाधि से विभूषित किया गया।

राष्ट्रीय पुनः निर्माण के कार्य-

प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् तुर्की पाश्चात्य संस्कृति के आधार पर विकसित हो रहा था। तुर्की से गैर तुर्क आबादी का प्रायः लोप हो चुका था। तुर्की की आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी थी देश पर एक भारी विदेशी ऋण था। इसके अतिरिक्त अल्पसंख्यक ‘कुर्द’ जाति स्वराज्य के लिए प्रयत्नशील थी। कमाल पाशा ने तुर्की के नवनिर्माण के लिये छः सिद्धान्तों को अपनाया । ये छ: सिद्धान्त इस प्रकार है- (i) गणतन्त्रवाद, (ii) राष्ट्रवाद, (iii) समानतावाद, (iv) नियन्त्रित अर्थवाद, (V) धर्मनिरपेक्षतावाद तथा (vi) क्रान्तिवाद अथवा सुधारवाद । इन सिद्धान्तों के आधार पर कमाल पाशा तुर्की को राष्ट्रीयता के आधार पर प्रगतिवादी गणतन्त्र बनाना चाहता था। उसके राजनीतिक दल ने 1931 ई० में इन सिद्धान्तों को मान्यता दे दी तथा 1937 ई० में इन सिद्धान्तों को संविधान का अंग बना लिया गया। अपने उन्हीं लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कमाल पाशा ने निम्नलिखित सुधार कार्य किये-

  1. सुल्तान पद की समाप्ति- कमाल अतातुर्क की आत्मा लोकतन्त्र की भावना ओत-प्रोत थी। वह तुर्की को धर्म के प्रभाव से मुक्त करना चाहता था। क्योंकि उसके बिना देश का आधुनिकीकरण करना कठिन था। लोसेन की सन्धि के पश्चात् जब विदेशी हस्तक्षेप की सम्भावनाएँ समाप्त हो गयीं तो उसने सुल्तान महमूद पष्टम को अपने पद से हटाने की घोषणा की। तुर्की के सभी सुल्तान मुसलमानों के धर्माध्यक्ष या खलीफा भी होते थे। कमाल पाशा ने सुल्तान महमूद षष्टम् के चचेरे भाई अब्दुल मजीद को खलीफा बनाया। एक वर्ष पश्चात् 29 अक्टूबर, 1923 को तुर्की गणतन्त्र घोषित किया गया, जिसमें मुस्तफा कमाल पाशा तुर्की के प्रथम राष्ट्रपति निर्वाचित हुए।
  2. खलीफा पद की समाप्ति- तुर्की के सभी सुल्तान मुसलमानों के धर्माध्यक्ष या खलीफा भी होते थे। सुल्तान पद की समाप्ति के बाद भी लोग खलीफा को शासन का प्रधान समझते थे। इस स्थिति में धर्म निरपेक्ष राज्य की परिकल्पना असम्भव थी। अत:3 मार्च, 1924 में कमाल पाशा ने राष्ट्रीय सभा में खलीफा के पद को समाप्त करने का प्रस्ताव रखा और दूसरे दिन तुर्को के अन्तिम खलीफा को भी देश से निष्कासित कर दिया गया। खलीफा पद को समाप्ति से धार्मिक कट्टरता का अन्त हो गया और तुर्की वास्तविक रूप से एक धर्म-निरपेक्ष राज्य बन गया।
  3. इस्लामिक परम्पराओं की समाप्ति- खलीफा के पद को समाप्ति के तुरन्त पश्चात् शेख-अल इस्लाम के पद को समाप्त कर दिया गया। शरीयत का मंत्रालय बन्द कर दिया गया। धार्मिक विद्यालयों को बन्द और शरई अदालतें और उनमें बैठने वाले मुल्ला-काजी हटाए गए। उनके गोष्ठी सम्मेलनों, वेशभूषा, और रस्म-रिवाज पर कड़ी पाबन्दी लगा दी गई। कमाल पाशा ने महसूस किया कि जब तक लोगों का हुलिया नहीं बदला जायेगा तब तक उनके विचार नहीं बदल सकते। अतः सभी पुरुषों के लिए फेज (तुर्की टोपी) का पहनना दण्ड्नीय अपराध घोषित किया और उसके स्थान पर यूरोपियन टोपी (Hat) पहनने का आदेश दिया। इसी समय एक कानून द्वारा सभी दरवेशों के धर्म-संघों (तारीकात) को भंग कर दिया और धर्म के पवित्र व्यक्तियों के मकबरों की यात्रायें एवं उनके पूजन बन्द करा दिया गया। 1928 में संविधान की वह धारा जिसमें इस्लाम को राज्य-धर्म माना गया था। निरस्त कर दी गई। अब सरकारी पदाधिकारियों को “अल्लाह के स्थान पर गणतत्र के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी पड़ती थी।
  4. शिक्षा सम्बन्धी सुधार- राष्ट्रीयता की भावना को विकसित करने के लिए शिक्षा की अच्छी व्यवस्था आवश्यक होती है। कमाल पाशा शिक्षा के इस महत्व को समझता था। अभी तक तुर्की में धार्मिक शिक्षा का ही प्रचलन था। अतः शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन करना आवश्यक था। 1924 ई० में ही तुर्की के सभी स्कूलों को शिक्षा मन्त्रालय के अधीन कर दिया गया, जिससे शिक्षा के क्षेत्र में मुल्ला-मौलवियों का प्रभाव समाप्त हो गया। 7 से 16 वर्ष की आयु के सभी बच्चों का प्राथमिक स्कूलों में जाना अनिवार्य कर दिया गया। 1928 ई. में कमाल पाशा अरबी लिपि को समाप्त कर रोमन लिपि को अपनाया। इस नई लिपि के कारण शिक्षा प्रचार का कार्य आसान हो गया। संविधान में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य तथा निःशुल्क स्वीकार किया गया। इस समय तक तुर्की में केवल 15 प्रतिशत लोग ही साक्षर थे। अतः देश की प्रगति के लिए शेष लोगों को साक्षर बनाना आवश्यक था। किन्तु अपर्याप्त धनराशि, स्कूलों के लिए उचित भवनों का अभाव तथा पर्याप्त मात्रा में शिक्षकों के न होने की वजह से सरकार अपनी नीति को सही अर्थों में कार्यान्वित न कर पाई। फिर भी 1933 तक प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या में कई गुना वृद्धि हुई । माध्यमिक स्कूलों तथा विश्वविद्यालयों की भी स्थापना की गयी। व्यापार, कृषि, विज्ञान आदि विषयों के अध्ययन के लिए विशेष विद्यालयों की भी स्थापना की गयी । उच्च शिक्षा हेतु विदेशी विशेषज्ञों की सहायता ली गयी। इस्ताम्बुल में एक मेडिकल कॉलेज तथा अंकारा में राजनीति एवं समाज विज्ञान के लिए एक कॉलेज की स्थापना की गई। इसके साथ ही समाचार पत्रों को भी लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया गया। इस्ताम्बुल में एक मेडिकल कॉलेज तथा अंकारा में राजनीति एवं समाज विज्ञान के लिए एक कॉलेज की स्थापना की गई। इसके साथ ही समाचार-पत्रों को भी लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया गया। सरकार ने स्वयं एक समाचार ऐजेन्सी ‘अनातोलिया न्यूज एजेन्सी’ की स्थापना की तथा कई समाचार पत्र प्रकाशित करना आरम्भ किया। इन समाचार पत्रों में अकसन, उलुस, जान आदि मुख्य थे। इन सब प्रयासों से तुर्की की जनता, में एक नई बौद्धिक जागति उत्पन्न हुई और तुर्की में पाश्चात्य संस्कृति का विकास सम्भव हुआ।
  5. स्त्रियों की स्थिति में सुधार- तुर्की में स्त्रियों की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। उन्हें कोई राजनीतिक या सामाजिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। उन्हें हमेशा पर्दै में रहना पड़ता था तथा उनके लिए शिक्षा की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। तुर्की के विकास के लिए कमाल पाशा स्त्रियों को पूरा सहयोग प्राप्त करना चाहता था। अत: उसने स्त्रियों की दशा सुधारने की ओर विशेष ध्यान दिया । सर्वप्रथम उसने पर्दाथा का अन्त किया । स्त्रियों के लिए पृथक् स्कूलों तथा क्लबों की व्यवस्था की। स्त्रियों के सामाजिक स्तर को ऊंचा उठाने के लिए प्राचीन वैवाहिक पद्धति में परिवर्तन किया गया। 1926 ई० में बहु-विवाह की प्रथा को समाप्त घोषित किया तथा अब सभी विवाहों का पंजीकरण आवश्यक कर दिया गया। तलाक के मामले में पति-पत्नी दोनों को समान अधिकार दिये गये। स्त्रियों में राजनीतिक चेतना जागृत करने के लिए उन्हें वयस्क मताधिकार का अधिकार दिया गया। धीरे-धीरे तुर्की की शिक्षित स्त्रियों को शासकीय सेवाओं एवं अन्य व्यवसायों में स्थान दिये जाने लगे। 1934 ई० में उन्हें राष्ट्रीय महासभा के निर्वाचन में मतदान करने तथा सदस्य बनने का अधिकार दिया गया। इसी के परिणामस्वरूप 1935 ई. के चुनाव में 17 स्त्रियाँ निर्वाचित हुई थीं। इस प्रकार कमाल पाशा के प्रयलों से तुर्की की स्त्रियों में एक नया जोश उत्पन्न हुआ और वे राष्ट्रीय पुन निर्माण में सहायक सिद्ध हो सकीं।
  6. प्रशासनिक और न्याय सम्बन्धी सुधार- कमाल पाशा के नेतृत्व में प्रशासन में भी महत्वपूर्ण प्रिवर्तन किये गये। इसके लिए सम्पूर्ण देश को 62 प्रान्तों में बाँटा गया और इन प्रान्तों को पुनः 430 जिलों में विभक्त किया गया। कमाल पाशा तुर्की की न्याय-व्यवस्था में भी परिवर्तन करना चाहता था क्योंकि गणतन्त्र की स्थापना होने से पूर्व तुर्की को न्याय व्यवस्था मूलतः इस्लाम के सिद्धान्तों पर आधारित थी। अप्रैल, 1924 में राष्ट्रीय संसद ने धार्मिक अदालतों का दीवानी मामलों पर विचार करने का अधिकार समाप्त कर दिया। 1926 ई० में उसने न्याय के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन किये। स्विटजरलैण्ड की दीवानी-संहिता को अपनाया और इटालियन दण्ड विधान व जर्मनी वाणिज्य सम्बन्धी कानून लागू किये गये। इसके साथ ही जर्मनी एवं इटली में प्रचलित व्यापार विधियों पर आधारित एक नई व्यापार-संहिता भी स्वीकार की गई। इससे तुर्की की प्रशासकीय तथा न्यायिक व्यवस्था में आमूल परिवर्तन लाकर उन्हें प्रगतिशील देश के अनुरूप बनाया। इन न्यायिक सुधारों के कारण उलेमा लोगों के अधिकारों का ह्रास हुआ क्योंकि अभी तक वे स्वयं को न्यायिक कार्यों का निरंकुश परिपालक समझते थे।
  7. आर्थिक सुधार- तुर्की की राष्ट्रवादी सरकार ने देश को समृद्ध बनाने के लिए भी विशेष प्रयत्न किये। ये राष्ट्रवादी तुर्की को औद्योगिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे। किन्तु उनके इस उद्देश्य में कई बाधाएँ थीं। तुर्की की 80 प्रतिशत जनता अभी तक कृषि कार्य में लगी हुई थी, धन का अभाव था, साथ ही यातायात के साधनों को भी कमी थी। कमाल पाशा इन सब बाधाओं के होते हुए भी तुर्की को आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाना चाहता था। वह ‘नियन्त्रित अर्थवाद’ की नीति अपना रहा था। 1927 ई० में राष्ट्रीय महासभा ने उद्योगों की सहायता हेतु कानून पारित किया। अक्टूबर, 1929 से राष्ट्रवादी सरकार ने स्थानीय उद्योगों की रक्षा के लिए संरक्षात्मक टेरिफ दरें लागू की। 1933 ई० में सरकार ने प्रथम पंचवर्षीय योजना बनाई जो 1939 ई० में पूरी हुई। इस योजना पर रूसी योजना का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा। इस योजना में उपभोग सामग्री के उत्पादन को भी काफी महत्व दिया गया था। सरकार ने रेल लाइनों एवं सड़कों के विस्तार का कार्य भी आरम्भ किया। 1924 ई० में अंकारा से कार्यसेरी, सिवास और समसून तक नई रेल लाइन बिछाने का कार्य आरम्भ किया। इसके लिए दस वर्षीय योजना बनायी गयी। कई विदेशी कम्पनियों को भी काम के ठेके दिये गये। तुर्की की सरकार ने उद्योगों पर अपना नियन्त्रण रखा। सरकार ने यातायात के साधनों पर भी अपना नियन्त्रण रखा। राष्ट्रवादी सरकार ने कुछ महत्वपूर्ण उद्योगों को भी अपने हाथ में रखा जैसे-शराब, तम्बाकू, नमक, अस्त्र-शस्त्र, पेट्रोल, शक्कर, नो परिवहन, माचिस आदि । उद्योगों के विकास के लिए विदेशी विशेषज्ञों का भी सहारा लिया गया। आर्थिक नियन्त्रण और आर्थिक सुविधा के लिए कमाल पाशा ने विभिन्न बैंकों की स्थापना की। राजकीय उद्योग-धन्धों के लिए सुमेर बैंक की स्थापना की गयी। सुमेर बैंक की सहायता के लिए इश बैंक तथा इटी बैंक स्थापित किये गये। 1935-39 ई० के मध्य वस्त्र, खनिज और शक्कर उद्योग में उल्लेखनीय प्रगति हुई। बैंकों की स्थापना और उसके कार्य से विदेशियों को तुर्की की आर्थिक सम्पन्नता में विश्वास हो गया और वे तुर्की के विकास कार्यों के लिए त्राण भी देने लगे। 1934 ई० में ही रूस ने ऋण के रूप में एक राशि स्वीकृत की, जो व्याज रहित थी, जिससे औद्योगीकरण के कार्यक्रम को आगे बढ़ाने में बड़ी सहायता मिली।
  8. कृषि में सुधार- कमाल पाशा ने तुर्की के आर्थिक पुनः निर्माण में कृषि पर भी समुचित ध्यान दिया। तुर्की मूलतः एक कृषि प्रधान देश था, अत: वह कृषि उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होना चाहता था। कृषि उत्पादन बढ़ाने तथा कृषकों की दशा सुधारने के लिये कृषि विद्यालयों, प्रायोगिक फार्मों एवं आदर्श फार्मों के माध्यम से कृषि के नये तरीकों का प्रचार किया गया। कुछ तुर्की विद्यार्थियों को कृषि की उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए अमेरिका भेजा गया। कृषकों की सहायता के लिए सहकारी समितियाँ भी स्थापित की गयीं । सामन्तवादी व्यवस्था को पूर्णत: समाप्त कर दिया गया। 1927 से 1936 ई. के बीच लगभग 14.000 वर्ग मील अतिरिक्त भूमि खेती के काम में लाई गई। 1945 में बड़े-बड़े कृषि फार्मों की सीमा निर्धारित की गई। 1934 में कृषि के लिए चार वर्षीय योजना बनायी गयी, कृषि महाविद्यालय तथा कृषि बैंक स्थापित किये गये। 1936 में नये श्रम कानून लागू किये गये जिससे श्रमिकों के हितों का भी ध्यान रखा जा सके। इस प्रकार कमाल पाशा ने अपने प्रयासों द्वारा तुर्की को एक सुदृढ अर्थव्यवस्था प्रदान करने का प्रयास किया। किन्तु सरकार की विदेशों से ऋण न लेने की नीति के फलस्वरूप आर्थिक विकास की प्रगति धीमी रही।
  9. अन्य सुधार- कमाल पाशा ने तुर्की में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक सुधारों के साथ ही कुछ ऐसे भी सुधार किये जिससे वहाँ राष्ट्रीयता का विकास हो। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ प्रमुख नगरों के नाम बदले गये। जैसे कान्स्टेन्टिनोपल को इस्ताम्बुल, अंगोरा को अंकारा, स्मर्ना को इजमीर तथा एड्रियानोपल को एडिने कहा जाने लगा। 1935 ई. के एक आदेश द्वारा उसने प्रत्येक व्यक्ति को अपने नाम के साथ एक ‘उपनाम’ लगाना अनिवार्य कर दिया। तुर्की में फारसी उपाधियों का भी अभी तक प्रचलन था, जो कि राष्ट्रीयता के विकास में बाधक समझो गयौं। अतः उनका अन्त कर दिया गया। इसी वर्ष शुक्रवार (जुमे) की छुट्टी बन्द कर दी गई जो मुसलमानों की सार्वजनिक नमाज का दिन होता था, उसके स्थान पर रविवार को साप्ताहिक अवकाश घोषित किया गया। माली कलैण्डर के स्थान पर ग्रेगोरियन कलैण्डर को अपनाया गया। इस परिवर्तन के सम्बन्ध में डॉ० बुद्ध प्रकाश ने लिखा है कि “पुराने तिथिक्रम को हटाकर नए तिथिक्रम को लागू करने का अर्थ था रमजान के उपवास की प्रथा को चुनौती देना ॥” इसके अतिरिक्त समय की गणना के लिए पश्चिमी देशों की 24 घंटे वाली घड़ियों को आधार बनाया गया। इसके साथ ही माप-तौल की मीटरिक प्रणाली को भी 1932 में अनिवार्य कर दिया गया। इस प्रकर इन सुधारों के द्वारा इस्लामी प्रभाव को समाप्त करने तथा तुर्क राष्ट्रीयता को जागृत करने का प्रयास किया गया।

कमाल अतातुर्क की मृत्यु- तुर्की के इस राष्ट्रपिता की मृत्यु 10 नवम्बर, 1938 को 57 वर्ष की आयु में हुई। वह नवीन तुर्की का निर्माता था। पश्चिमी एशिया में किसी एक व्यक्ति ने अपना इतना नैतिक एवं मनोवैज्ञानिक प्रभुत्व जनता पर स्थापित नहीं किया, जितना कमाल पाशा ने अपने शासनकाल में किया। इसी कारण उसे राष्ट्रपिता की उपाधि से शोभायमान किया गया। उसकी मृत्यु के पश्चात् राष्ट्रीय सभा ने उसके मित्र एवं सहयोगी इस्मत इनोन को तुर्की का राष्ट्रपति निर्वाचित किया। वह 1950 ई. तक राष्ट्रपति पद पर रहा और कमाल पाशा की नीति पर चलता रहा।

कमाल पाशा के कार्यों का मूल्यांकन-

कमाल अतातुर्क आधुनिक तुर्की का निर्माता था। उसने अपने 6 सिद्धांतों पर तुर्की में जो सुधार किये उस से तुर्की एक शक्तिशाली राष्ट्र बनकर प्रगति के पथ पर अग्रसर हुआ। उसके सुधारों का मुख्य उद्देश्य तुर्की का पश्चिमीकरण करना था। उसके लिए उसने मध्यकालीन अवशेषों को समाप्त कर विकास को गति प्रदान की। यह कुमाल पाशा को प्रतिभा और शक्ति का ही फल था कि क्रान्तिकारी सुधार तुर्की में सफल हो सके। इस कार्य के लिए उसने निरंकुशता का भी सहारा लिया किन्तु उसकी निरंकुशता उदारता से ओत-प्रोत थी और उसने व्यक्तिगत लाभ के लिए कभी इसका दुरुपयोग नहीं किया यही कारण है कि तुर्की के आधुनिकीकरण का इतिहास सिर्फ एक व्यक्ति की उपलब्धियों का इतिहास है। तुकों के पुनरुद्धार के लिए कमाल अतातुर्क ने जो कार्य किये उसको इतिहासकार बेस्टर ने अस्पताल का आश्चर्यजनक नाटक’ कहा है क्योंकि युवा तुर्कों की तरह मुस्तफा कमाल पाशा ने ‘यूरोप के मरीज’ को औषधि ही नहीं दी, बल्कि उसने शल्य क्रिया द्वारा रोगी के वेकार अवयव काटकर अलग कर दिये, जिससे एक नये तुर्की का निर्माण हुआ। उसके इन प्रयत्नों के कारण उसे तुर्की का ‘राष्ट्रपिता’ (अतातुर्क) कहा जाता है।

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Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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