अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का नियो-क्लासिकीय सिद्धान्त

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का नियो-क्लासिकीय सिद्धान्त | लियोनतिफ विरोधाभास की आलोचनाएँ | अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के प्रतिष्ठित सिद्धान्त की त्रुटियों का समाधान

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का नियो-क्लासिकीय सिद्धान्त | लियोनतिफ विरोधाभास की आलोचनाएँ | अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के प्रतिष्ठित सिद्धान्त की त्रुटियों का समाधान | Neo-classical theory of international trade in Hindi | Criticisms of the Leontief Paradox in Hindi | Solving the errors of the iconic theory of international trade in Hindi

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का नियो-क्लासिकीय सिद्धान्त

ओहलिन मॉडल के सत्यापन के संबंध में पहला व्यापक प्रयत्न लियोनतिफ ने 1951 में किया था? हैक्शर-ओहलिन सिद्धांत कहता है कि जिस देश में सापेक्षतया अधिक पूँजी होगी वह देश सापेक्षतया अधिक पूँजी गहन वस्तुओं का निर्यात करेगा और उन वस्तुओं का आयात करेगा जिनके उत्पादन में दुर्लभ साधन श्रम की सापेक्षतया बड़ी मात्राओं की जरूरत पड़ती है। लियोनतिफ अपने अध्ययन के आधार पर इस विरोध-मूलक निष्कर्ष पर पहुँचा कि यद्यपि बाकी दुनिया के मुकाबले संयुक्त राज्य अमेरिका में पूंजी की सापेक्षतया बड़ी मात्रा और श्रम की सापेक्षतया थोड़ी मात्रा है, फिर भी अमरीका ने श्रम गहन वस्तुओं का निर्यात और पूँजी गहन वस्तुओं का आयात किया। इस निष्कर्ष को लियोनतिफ विरोधाभास का नाम दिया गया है।

लियोनतिफ ने अपना परीक्षण इस भविष्य-कथन से शुरू किया कि संयुक्त राज्य अमरीका अपने प्रचुर साधन पूंजी को वस्तुओं के रूप में निर्यात करेगा, और अपने दुर्लभ साधन श्रम को वस्तुओं के रूप में आयात करेगा। इस भविष्यवाणी का परीक्षण करने के लिए लियोनतिफ ने संयुक्त राज्य अमरीका की 1947 की आगत-निर्गत तालिका का प्रयोग किया। उसने 50 क्षेत्रों में उद्योगों के कुल 200 ग्रुप बनाए। इनमें से 38 क्षेत्र अपने उत्पादनों का अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में सीधा व्यापार करते थे। उसने दो साधन श्रम तथा पूँजी लिये। उसने हिसाब लगाया कि संयुक्त राज्य अमरीका के दस लाख डालर के निर्यातों के लिए श्रम तथा पूंजी की कितनी मात्राओं की जरूरत पड़ेगी और यह भी हिसाब लगाया कि संयुक्त राज्य अमरीका की आयात प्रतियोगी दस लाख  डालर की वस्तुओं के उत्पादन के लिए कितने श्रम और पूंजी की जरूरत पड़ेगी। लियोनतिफ के प्रमुख आनुभविक निष्कर्षो का सार निम्न सारणी में दिया जा रहा है-

सारणी— संयुक्त राज्य अमरीका के प्रति दस लाख डालूर के निर्यात और आयातों की स्थानापन्नताओं के लिए अपेक्षित श्रम तथा पूँजी, 1947

साधन आवश्यकताएँ

निर्यात

आयात स्थानापन्नताएँ

पूँजी

डॉलर 2,550,780

डॉलर 3,091,339

श्रम (मानव-वर्ष)

182,312

170,004

पूँजी श्रम अनुपात

13,911

18,185

लियोनतिफ के निष्कर्षों से पता चलता है कि संयुक्त राज्य अमरीका के निर्यात उद्योगों की अपेक्षा उसके आयात स्थानापन्न उद्योगों में पूँजी श्रम का अनुपात 30 प्रतिशत अधिक था। इसका मतलब है कि संयुक्त राज्य में निर्यात उद्योगों की अपेक्षा आयात प्रतियोगी उद्योग सापेक्षतया अधिक पुँजी-गहन हैं। जैसा लियोनतिफ ने कहा है, ‘श्रम के अन्तर्राष्ट्रीय विभाजन में अमरीका की सहभागिता उत्पादन के पूंजी गहन तरीकों की अपेक्षा श्रम गहन तरीकों के विशिष्टीकरण पर आधारित है।’ दूसरे शब्दों में, ‘वह देश अपनी पूँजी की बचत और अपने अतिरेक (surplus) श्रम का प्रयोग करने के लिए विदेशों के साथ व्यापार करता है न कि इसके विपरीत।’ इस प्रकार लियोनतिफ जिन निष्कर्षो पर पहुँचा वे हैक्शर-ओलिन मॉडल के प्रतिकूल थे। अतः इसे लियोनतिफ घिरोधाभास कहते हैं।

इन निष्कर्षो को देखकर स्वयं लियोनतिफ की नहीं बल्कि सारे संसार के अर्थशास्त्री हैरान रह गए। अधिकांश अर्थशास्त्रियों ने विधिगत एवं सांख्यिकीय आधारों पर लियोनतिफ की आलोचना की। कुछ ने लियोनतिफ-टाइप के परीक्षण भी किए और कुछ ने लियोनतिफ विरोधाभास तथा हैक्शर-ओलिन मॉडल में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न किया।

लियोनतिफ विरोधाभास की आलोचनाएँ

सांख्यिकीय एवं विधिगत आधारों पर लियोनतिफ की आलोचना की गई है। हम उसकी आलोचनाओं की कुछ प्रमुख बातों का यहाँ अध्ययन कर रहे हैं।

  1. 1947 विशेष वर्ष नहीं- स्वलिंग (Swerling) का मत है कि हैक्शर-ओहलिन मॉडल का परीक्षण करने के लिए 1947 को विशेष वर्ष नहीं माना जा सकता क्योंकि युद्ध के बाद उत्पादन के क्षेत्र में जो अव्यवस्था आ गयी थी उसे उस वर्ष तक विश्व भर में ठीक नहीं किया जा सका था। परिणाम यह हुआ कि लियोनतिफ के निष्कर्षों को दो बातों ने दोषपूर्ण बना दिया, उनमें से एक बात तो यह थी कि लियोनतिफ ने कुछ महत्त्वपूर्ण निर्यात अथवा आयात स्थितियों के साथ कृषि एवं मछली पालन जैसे कुछ उद्योगों के पूँजी-श्रम अनुपात लिये और दूसरी बात यह थी कि जिस तरीके से उसने अपने विश्लेषण में परिवहन, कामर्शियल सेवाओं तथा थोक व्यापार को शामिल किया वह ठीक नहीं था।
  2. समूहीकरण की समस्या- बलोग (Balogh) ने आलोचना करते हुए कहा है कि अप्रत्यक्ष रूप से पूँजी-श्रम अनुपातों की गणना करने के लिए जिस ढंग से आगत-निर्गत मैट्रिक्स में समूहीकरण किया गया है, वह ठीक नहीं था। परिणामस्वरूप, हो सकता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका के निर्यात उद्योगों की श्रम-गहनता मिथ्या हो जिसका कारण यह हो कि पूँजी गहन निर्यात्य वस्तुओं को उनसे मिलती-जुलती गैर-निर्यात श्रम-गहन क्रियाओं से जोड़ दिया गया हो।
  3. आगत-निर्गत मॉडल का मेल नहीं- वेलावैरिस-वेल (Valavaris-Vail) ने लियोनतिफ के परीक्षण पर इस आधार पर आपत्ति उठाई है कि ‘तार्किक रूप से आगत-निर्गत मॉडल अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के साथ मेल नहीं खाते। (सिवाय दैवयोग से)’ उसने यह तर्क प्रस्तुत किया कि स्थिर आगत गुणांकों वाला लियोनतिफ मॉडल उस विश्व व्यापार संतुलन से मेल नहीं खाता था जिसमें देश को व्यापार से लाभ होता, पूर्ण रोजगार रहता और व्यापार शुरू कर देने पर कुछ वस्तुओं का उत्पादन बढ़ जाता है और कुछ अन्य वस्तुओं का उत्पादन घट जाता है।
  4. कम पूँजी-श्रम अनुपात उद्योग- स्वर्लिंग ने इस बात के लिए लियोनतिफ की आलोचना की है कि उसने कम पूँजी श्रम अनुपात वाले कुछ उद्योग सम्मिलित कर लिए जिसके परिणामस्वरूप उसके निष्कर्ष दोषपूर्ण हो गए। इस आलोचना के प्रत्युत्तर में लियोनतिफ ने एक बार फिर अपने अध्ययन पर नए सिरे से काम किया और इस बार उसने उद्योगों की बहुत अधिक विस्तृत रेंज ली, परन्तु जो निष्कर्ष प्राप्त हुए वे मूल अध्ययन के निष्कर्षों से ही मिलते-जुलते थे।
  5. उपभोग ढाँचे- लियोनतिफ विरोधाभास यू०एस० निर्यातों और आयातों पर उपभोग ढाँचों के प्रभाव की उपेक्षा करता है। रोमने रोबिन्सन का मत है कि किसी देश में माँग स्थितियाँ किसी एक वस्तु के उपभोग के पक्ष में इतनी बढ़ी हुई हों कि वह देश उत्पादन के सापेक्षतया प्रचुर साधन से उस वस्तु का उत्पादन करे। इस प्रकार वह उस वस्तु का निर्यात नहीं करेगा। जब प्रतिव्यक्ति आय बढ़ती है तो उपभोग ढाँचे श्रम-गहन या पूँजी-गहन वस्तुओं की ओर झुक सकते हैं। ए०-जे० ब्राउन ने दर्शाया कि संयुक्त राज्य अमरीका के उपभोग ढाँचे पूंजी-गहन वस्तुओं की अपेक्षा श्रम-गहन वस्तुओं की ओर झुके हुए हैं। इससे लियोनतिफ विरोधाभास का खण्डन होता है।
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