अज्ञेय की काव्य भाषा | काव्य विषयक अज्ञेय के विचारों की विवेचना
अज्ञेय की काव्य भाषा | काव्य विषयक अज्ञेय के विचारों की विवेचना
अज्ञेय की काव्य भाषा विषयक अवधारणा
सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’- रचनाकार के समक्ष दो प्रकार के संकट उपस्थित होते हैं, विशेष रूप से उस रचनाकार के सामने जो अपने संकल्प की वास्तविकता से जुड़ा रहना और उसे अभिव्यक्त करना चाहता है। अपने युग से कट जाने की न तो कोई सार्थकता ही है और न कल के सत्य की, आज कोई प्रासंगिकता हो अतएव पहला संकट तो यही है कि वह अतीत की अपेक्षा प्रासंगिकता में वर्तमान को जटिल मानसिक संवेदनाओं को ऐसे किस ढंग से व्यक्त करे कि अभी जिन्हें पकड़ पाने के लिये साधारण का मानस तैयार नहीं हुआ है, उन्हें भी वह पकड़ सके या अपनी पहुँच के दायरे में पा सके। दूसरा संकट यह है कि अपने नयेपन और मौलिकता की रक्षा के लिये उसे जो प्रयोग करने हैं, उनका सम्बन्ध भाषा से भी होता है और भाषा यदि नया रूप ग्रहण करती है जो कि उसे नयो अभिव्यक्ति के लिये विवश भाव से करना ही है तो अपरिचित पाठक के लिये उसके दुर्योध हो जाने का डर है। दुर्बोध हो जाने से उससे साधारणीकरण को हानि पहुंचने की अनिष्ट सम्भावना है। दोनों प्रकार की कठिनाइयाँ उपस्थित होने का कारण यह है कि एक तो रचयिता सामान्य व्यक्ति को अपेक्षा अधिक संवेदनशील अतः अधिक तत्पर ग्राहक होता है और जिन बातों को लम्बे अरसे तक सामान्य व्यक्ति प्रहण नहीं कर पाता, उन्हें वह उससे बहुत पहले ही ग्रहण और आत्मसात् कर लेता है तथा अभिव्यक्त कर पाता है। ऐसी स्थिति में दोनों में समानान्तरता के अभाव में संवाद के अभाव की सम्भावना बनी रहती है। दूसरे रचयिता अपने आपको नया और मौलिक रखने के लिए रूढ़ भाषा का रास्ता छोड़कर नये प्रयोग करता है और भाषा का यह नया मुहावरा भी सामान्य पाठक की पकड़ से बाहर रह जाता है। अलग-अलग क्षेत्रों में बेटे हुए विशेषीकृत ज्ञान की अभिव्यक्ति के लिये अलग प्रकार की भाषा की आवश्यकता होती है, अतएव किसी ऐसी भाषा अर्थात् प्रतीक, वि आदि का प्रयोग सम्भव नहीं होता कि वह सार्वजनीन हो सबकी पकड़ में हो।
भाषा सार्वजनीन होती है रूढ होकर या फिर तब जबकि उसके माध्यम से यह कहा जाय जो सबका पहचाना हुआ और सुपरिचित हो। दोनों ही स्थितियों में मौलिकता जो सिर्जक के सष्टान की सार्थकता के लिये अनिवार्य है-की रक्षा सम्भव नहीं होती। कवि नये तथ्यों को उनके साथ-साथ नये रागात्मक सम्बन्ध जोड़कर नय सत्या का रूप दे, वन नये सत्यों की प्रेष्य बनाकर उनका साधारणीकरण करें, यहाँ नयाँ रचना और इसके लिए वह उस क्षण की प्रतीक्षा में बैठा नहीं रह सकता कि जब सारा ज्ञान फिर एक होकर सबकी पहुंच में आ जायेगा। इस स्थिति से बचने के दो ही मार्ग हैं – या तो लेखक सीमित सत्य को सीमित क्षेत्र में सीमित मुहावरे के माध्यम से अभिव्यक्त करे-यानी साधारणीकरण तो तो करे पर साधारण ही क्षेत्र संकुचित कर दे अर्थात् एक अन्तविरोध का आश्रय ले या फिर वह बृहत्तर तक पहुंचन का अमन छाड़ और इसलिए क्षेत्र के मुहावर से बंधा न रहकर उससे बाहर जाकर राह खोजने की जोखिम उठाये। इस प्रकार साधारणीकरण के लिए ही एक संकुचित क्षेत्र साधारण मुहावरा छोड़ने को बाध्य होगा अर्थात् एक दूसरे अन्तविरोध की शरण लेगा। लेकिन दोनों में से पर यही दूसरा ही उचित है और इसमें कुछ समय के लिये दुर्योधता आ जाने या समझी जाने भी पूरा भय है। इस सम्बन्ध में अज्ञेय की अपेक्षा यही है कि हम कवि की समस्या को इस रूप में देखें कि क्या वह उतना ही सत्य कहे जितना सब समझे या उस सत्य को भी कहे जिसे कुछ समझे तो उसकी द्विविधा से सहानुभूति की जा सकेगी। अज्ञेय कवि कर्म का पालन करते हुए यह कभी नहीं चाहेंगे कि केवल इसी डर से उनको भाषा शायद समकालिकों के द्वारा न समझी जाय, वे सम्प्रेषणीयता के साथ इस हद तक खींचतान करे कि उसमें नया अर्थ ही न भरा जा सके या फिर सर्वसुलभता के चक्कर में कविता में गहरायी हो खो जाय। यह उन्हें मान्य है कि- “व्यवहार के माध्यम के रूप में भाषा के लिये ययह अनिवार्य है कि वह एक से अधिक के लिये बोधगम्य हो लेकिन क्योंकि भाषा जीवन की अभिव्यक्ति है, जीवन की जटिलता के साथ अभिव्यक्ति की जटिलता भी सहज सम्भाव्य है। ऐसी दशा में भाषा अलौकिक या दीक्षा-गम्य हो जाती है भले ही वह उसकी शक्ति नहीं उसका आपदर्धम है।”
इस दुर्योधता से बचने के लिये भाषा की सम्भावनाओं की अवहेलना करके उसे सबकी समझ में आ सकने वाला बनाना अज्ञेय की दृष्टि में उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना उसकी शक्तियों को जगाने के लिये तत्पर रहकर समकालिकों को पहुँच से बाहर रहकर भी भविष्यत के सहृदय की प्रतीक्षा करना महत्वपूर्ण है। अपनी इस धारणा की पुष्टि के लिये अज्ञेय को स्वयं लेनिन के इस कथन में सहानुभूति का तार जुड़ता मिल जाता है कि- “अधिक लोगों की समझ में आ सके इस लोभ से सही बात को सस्ता वल्गराइज नहीं करनी चाहिये। एक बार समझ न आने पर दस बार उसकी आवृत्ति करे, पर कहें यही बात ही।”
इस प्रकार अज्ञेय की तीन स्थापनाएँ हैं-(क) रागात्मक सम्बन्धों के बदल जाने से जटिल मानस प्रक्रिया की जटिल अभिव्यक्ति की अनिवार्यता, (ख) नये और विविध प्रकारीय ज्ञान के प्रभाव से उत्पन्न संगतत्व के रूढ़ ढंग से भिन्न ढंग पर सम्प्रेषण तथा ग्रहण की अनिवार्यता तथा (ग) नयी अभिव्यक्ति को ग्रहण करने वाले नये संवेदनशील पाठक की प्रयोग काल में ससंख्या-न्यूनता की अनिवार्यता। इनके रहते ही जो साधारणीकरण किया जा सकता है वहीं उनका काम्य है। कवि को अतिरिक्त संवेदन क्षमता को ध्यान में रखते हुए इन धोरणाओं को स्वीकार करना कठिन नहीं है और यह तो साफ ही है कि प्राचीन आचार्यों ने भी सहृदय के नाम पर विशिष्ट पाठक की हो मांग की थी और काव्यानुशीलन से विशदीभूत मनोमुकुर वाले पाठक को चाहा था। यह भी जाहिर ही है कि आचार्य शुक्ल तक ने कविता में नये वैज्ञानिक अनुसन्धानों को रागात्मकता प्रदान कर सकने के प्रति उनके सुपरिचित हो जाने तक सन्देह व्यक्त किया था। अतएव अज्ञेय के लिये भी नये और विशिष्ट पाठक की मांग आश्चर्यजनक नहीं है। आश्चर्यजनक वह कदाचित रूढ़ कविता के प्रसंग में हो सकती है। तथापि आलोचकों को अज्ञेय की इस धारणा पर आपत्ति है ही कि रागात्मक सम्बन्धों के परिवर्तन के कारण उनकी पहचान करना और उनसे पाठक का प्रभावित होना सम्भव नहीं होता था कि उनकी जटिलता अभिव्यक्ति में भी अनिवार्यता जटिलता बन जाती है। आपत्ति यह है कि रागात्मक ससम्बन्धों का बदलाव जैसा कुछ भी हुआ है वह समाज में हुआ है और पाठक भी समाज का एक हिस्सा है अतएव कोई कार नहीं कि कवि उस परिवर्तन को ग्रहण कर पाये और पाठक उनसे अछूता रहे।
अज्ञेय भाषा के प्रति सजग रहे हैं और उसी के सन्दर्भ में कवि को उन्होंने चिरयात्री को संज्ञा दी है। किन्तु भाषा से भी अज्ञेय का अभिप्राय शब्द प्रयोग से होता है, विचारों की भाषा के नहीं या उससे नहीं जो विचार को प्रकट करने के लिये गद्य में लिखी जाती है। इसीलिये वे इस यात्रा को सही शब्दों की खोज का नाम देते हैं, भाषा की खोज का नहीं। भाषा और शब्दों के बीच वह अन्तर बताते हुए कहते हैं कि शब्द प्रयोग से उनके संगठन से भाषा बनती तो है किन्तु भाषा को खोज करने पर पूरी तरह यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि कवि अपनी रचना के माध्यम से जो कुछ कहना चाहता है उसके लिये उसे अअर्थ गर्भ शब्दो का सजग प्रयोग करना पड़ता है। जैसा कि इलियट ने ऐन्ड्रोज के विषय में कहा है-शब्दों के प्रयोग से स्पष्टता, अनतिशयता और सटीकता लाने का प्रयत्न करना होता है। उसके लिये कवि को शब्द दोहन करके अर्ध-रस को निकालना पड़ता है। वस्तुतः भाषा प्रयोग तो विस्तार या संक्षेप किसी भी प्रकार का हो सकता है, लेकिन उसकी सार्थकता तभी है जबकि कवि जो कुछ कहना चाहता है उसे कम से कम शब्दों में इस तरह प्रस्तुत कर दें कि शब्दों के कोशगत अर्थों से कहीं अधिक उनके सन्दर्भगत अर्थ ध्वनित हो उठ, साक्षात्संकेतित की जगह व्यंजित हो उठे।
भारतीय आचार्यों ने जब शब्द की शक्ति को पहचान कर व्यंजना और ध्वनि की बात कही थी या “एक शब्द: सम्यकज्ञातः सुष्ठु प्रयुक्त स्वर्गे लोके च कामधुग्भवति” कहकर और अभीष्ट अर्थ को प्रदान करने वाले शब्दों के प्रयोग को आवश्यकता पर बल दिया था तब वह भी यही लक्षित कराना चाहता था। कविहि अरथ आखर बल साँचा’ कथन से तुलसीदास का भी यही अभिनेत रहा होगा।
शब्दों के ध्वनिमय प्रयोग अथवा व्यंग्यार्थ के द्वारा कृषि उन वाक्यों को भी संकेतित करता है जो सीधे तरीके से उसके शब्दों में कथित नहीं है। अकथित बात ही महत्वपूर्ण है जिसे अज्ञेय अर्थ गर्भ मौन कहते हैं। इस मौन में हो अर्थ वृद्धि की सामर्थ्य होती है और उसी भाषा का नया संस्कार और बल मिलता है, अभिव्यंजना की शक्ति प्रवल होती है। यही प्राचीन आचार्यों का भी पक्ष है और यही अज्ञेय का भी। अज्ञेय कहते हैं- “कवि शब्दों को न केवल भरपूर सार्थक प्रयोग करता है, बल्कि कभी-कभी शब्दों या वर्णों का उपयोग न करके हो अर्थ की वृद्धि करता है-यही भाषा का श्रेष्ठ कलात्मक उपयोग है-जिसमें न केवल शब्दों के निहित और सम्भान्य अर्थों का पूरा उपयोग किया जाता है बल्कि उन अर्थों का भी जो कि शब्दों के बीच के शब्दहीन अन्तराल में भरे जा सकते हैं। मैंने जय कहा- केवल सही शब्द मिल जायें तो उसका यही आशय है। सही शब्द वे ही हैं जो उनके बीच के अन्तराल का सबसे अधिक उपयोग करे- अन्तराल के उस मौन द्वारा भी अर्थवत्ता का पूरा ऐश्वर्य सम्प्रेषित कर सके। इतना ही क्यों, पूर्व की एक परम्परा के उत्तराधिकारी के नाते मैं यहाँ तक कह सकता हूँ कि कविता भाषा में नहीं होती, वह शब्दों में भी नहीं होती, कविता शब्दों के बीच को नीरवताओं में होती है और कवि सहज बोध से जानता है कि उससे दूसरे तक पहुँचा जा सकता है, इससे संलाप की स्थिति पायी जा सकती है क्योंकि वह जानता है कि मौन के द्वारा भी सम्प्रेषण हो सकता है।”
अज्ञेय शब्द में नया अर्थ भरने, उसे संस्कार देने और नयी अभिव्यक्ति के लिये नये शब्द खोजने की तोनों स्थितियों को स्वीकार करते हैं और उसका मूल लक्ष्य अर्थगर्भता पर रहता है। इस नये अर्थ को भरने या भाषा को संस्कार देने के लिये वे इस बात को जरूरी नहीं मानते कि “अगर धूप के धुएँ से गन्धयुक्त भाषा लिखी जाय।” न ही वे इस पक्ष में हैं कि यथार्थ के नाम पर बाजार की चरपरी या नाली की सड़ी गन्थों से गन्धाती भाषा का प्रयोग किया जाय। उन्हें चाहिये ताजा चिरी हुई लकड़ी की गन्ध जिसमें मिले ऐसी भाषा।
शब्द के नये अर्थगर्भ प्रयोग में ही रचना की सार्थकता मानने के कारण उन्हें चलने वाले सिक्के की तरह ढली, बंधी भाषा का प्रयोग पसन्द नहीं है अर्थात् उपयोगी नहीं लगता। इसलिये वे एक कविता में कहते हैं- “ये एक ही शब्द ठीक बैठा कि हो जायगा वारा न्यारा है।” कविता की रचना के लिये शब्द की सार्थकता इतनी बड़ी है और विचार के लिये भाषा की। दोनों इन्हीं के आधार पर अलग हो जाते हैं विचारों का वाहक गद्य होता है और जब उसे ही कविता का बाना दिया जाने लगता है तो उसे अलंकृत करने, उसे काव्यत्व ओढ़ाने की जरूरत होने लगती है। उसे रंगत दी जाने लगती है। उसमें जो नहीं है उसे अलग से जोड़ा जाने लगता है। प्राचीन लेखकों में बहुतों ने जो अलंकरण और रीति का निषेध किया या उसका महत्व नहीं माना वह इसी कारण कि वह भाषा को, उस भाषा को जो मूलतः काव्य की अर्थ गर्भ भाषा नहीं थी, ऊपरी ताम-झाम से लैस करके काव्य भाषा बनाने में यकीन नहीं करते थे। शब्द के अन्दर से उसके लावण्य को उभारने का प्रयत्न ही उन्होंने किया और उसी में उनकी रचना का महत्व था।
“रूढ़ भाषा तोड़ना ही उसका संस्कार करना है, उसी से शब्दों का संस्कार होता है और इस संस्कार से भाषा समृद्ध होती है अतः भाषा को समृद्ध करना है तो उसका नित्य नया संस्कार करना जरूरी होता है। रूढ़ भाषा से छूटने और भाषा को नया संस्कार देने में ही कवि की प्रक्रियागत उन्मोचन सिद्ध होता है। उसे कोई मुक्ति काव्य है तो वह यही मुक्ति हो सकती है-प्रक्रियागत मुक्ति ! खिचड़ी और अनगढ़ भाषा लिखकर भी मुक्ति की घोषणा तो की जा सकती है। भाषा को संस्कार समृद्ध नहीं किया जा सकता। परम्परागत भाषा का प्रयोग ही भाषा ‘कल्प’ है। इसी प्रकार शब्द वैयक्तिक प्रयोग भी होता है और प्रेषण का माध्यम भी बना रहता है दुरूह भी होता है और बोधगम्य भी पुराना परिचित भी रहता है और स्फूर्तिप्रद अप्रत्याशित भी।
“भाषा संस्कारहीन होती है इसलिये कि जिसे भाषा का प्रयोग या महण करना उसने संस्कार खो दिये हैं। समाज की मूल्य विकृति और संस्कारहीनता का प्रभाव भाषा पर भी पड़ता है और उसके प्रयोग के प्रति उदासीनता का भाव आ जाता है। लेखक व पाठक के बीच निरंतर संस्कार का समझौता तो भाषा भी संस्कार प्राप्त करती है व समृद्ध होती है। संस्कारी भाषा के लिये भाषा सौखने का संस्कार पैदा करना चाहिए।” आज की व्यापक सामाजिक परिस्थिति के समानान्तर काव्य को लाने के प्रयत्न में भाषा की संकरता को अनिवार्य मान लेने के ‘अज्ञेय’ सर्वथा विरोधी हैं।
“भाषा की संस्कारिता का महत्व ध्वनित होने वाले अर्थ को लेकर है। छंदोबद्ध अभिधा में व्यक्त भाव कविता नहीं, कविता की दुर्गति है। कविता से अपेक्षा इस बात की है कि वह इस सौन्दर्यमय अर्थ को ध्वनित करे जिसका आलोक ऐसा हो जैसा हम “बन्द कमरे की खिड़की से आते हुए आलोक को देखकर अपनी संवेदना के सहारे ही मूर्त कर लेते हैं। इस ध्वनित अर्थ की सिद्धि ‘अज्ञेय’ की दृष्टि में भावनात्मक कविताओं में उनके छोटे होने पर भी हो सकती है। भावना प्रधान कविता छोटी ही हो सकती है नहीं तो अपने भावों का ‘पैराफ्रेज’ होने लगता है।” इस ध्वनित अर्थ का ही आग्रह है कि साहित्य में आम भाषा का प्रयोग नहीं होता। प्राचीन आचार्यों ने इसलिये बातों का निषेध कर दिया। अब भी जो लोग काव्य में आम भाषा की माँग करते हैं और आम आदमी की भी उसके विषय में अज्ञेय की सहमति नहीं है। वे महत्वपूर्ण उस ध्येय या लक्ष्य को मानते हैं जिसकी भाषा के मध्यम से अभिव्यक्ति की जा रही है। यदि ऐसा होता है तो इसी में भाषा की अद्वितीयता या असाधारणता है और वह उसकी समृद्धि की सूचक है। इसलिये अज्ञेय ने कहा है “आम भाषा भी नहीं होती यानि साहित्य में नहीं होती। साधारण शब्दावली हो सकती है, साधारण इस अर्थ में कि सभी की जानी मानी हुई हो। पर कवि के इस्तेमाल में आते ही वह विशिष्ट हो जाती है। एक-एक शब्द विशिष्ट हो जाता है, बल्कि सर्जक प्रयोग वही है जिससे ऐसा हो जाए। जैसे कवि दृष्टि ‘आम’ आदमी को खास बनाती है वैसे ही कवि प्रयोग आम शब्द को खास बनाता है।
“सवाल आम आदमी या आम भाषा का है, ही नहीं। उसे यों रखना सारी बात को उलटकर रखना है। सवाल यह होता है कि आपने जहाँ से शुरू किया-आम से या खास से जहाँ पहुँचे वहाँ लेकर क्या पहुंचे अपने अद्वितीय पात्र की अद्वितीय को आप ग्राह्य बना सके तो आपने अपना काम किया और ठीक किया। यह आदमी विशिष्ट होकर भी हमारा अपना हुआ। ‘यह शब्द प्रयोग विशिष्ट होने पर भी और सबके काम आने लायक हो गया और हमें एक नयी समृद्धि का बोध दे गया-जहाँ ऐसा लगे वहाँ सर्जना है और केवल वहीं सर्जना है क्योंकि जहाँ ऐसा नहीं है वहाँ सर्जना नहीं है। सांख्यिकी में, समाजशास्त्रीय सर्वेक्षणों में आम आदमी हो सकता है- जो भी वह हो पर वहाँ सर्जना नहीं होती। बोलचाल में साधारण शब्द होते हैं, उसी से बोलचाल कविता नहीं बन जाती।“
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