
हिन्दू-विवाह का निषेध | हिन्दू-विवाह के स्वरूपों की व्याख्या | हिन्दू-विवाह सम्बन्धी निषेधों की समीक्षा | Prohibition of Hindu marriage in Hindi | Explanation of the forms of Hindu marriage in Hindi | Review of prohibitions related to Hindu marriage in Hindi
हिन्दू-विवाह का निषेध

(Prohibition of Hindu Marriages)
हिन्दू-विवाह एक निश्चित फ्रेम में बंधा हुआ है जिसके अपने नियम और मान्यतायें हैं। इन नियमों का भले ही वैदिक युग में इतनी कठोरता के साथ पालन न किया गया हो किन्तु कालान्तर में विवाह सम्बन्धी नियमों, मान्यताओं और प्रथाओं का पालन कठोरता से होने लगा है। यह सामाजिक-धार्मिक जीवन के महत्वपूर्ण अंग बन गये जिनकी उपेक्षा करना आज सरल कार्य नहीं है। हिन्दू-विवाह में निम्नलिखित चार प्रकार के मुख्य निषेध हैं-
(1) अन्तर्विवाह, (2) बहिर्विवाह, (3) अनुलोम विवाह, (4) प्रतिलोम विवाह ।
(1) अन्तर्विवाह (Endogamy)
इस विवाह का अर्थ है एक समूह के अन्तर्गत विवाह करना। इस सम्बन्ध में फोल्सम लिखते हैं -“अन्तर्विवाह वह नियम है जिससे व्यक्ति को अपनी ही जाति या समूह में विवाह करना चाहिए। फिर भी यह निकट के रक्त सम्बन्धियों के विवाह की आज्ञा बहुत कम देता है।”
धर्मशास्त्र प्रत्येक हिन्दू को अपने वर्ण में विवाह करने की अनुमति देता है किन्तु व्यावहारिक रूप में प्रत्येक वर्ण कई उपजातियों में विभाजित है। यह सभी समूह अपने में अन्तर्विवाही हैं।
श्रीनिवास– ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि- “जाति से मेरा तात्पर्य वेदों के अनुसार जातियों से नहीं है, परन्तु उपजाति से है, जो अन्तर्विवाह की वास्तविक इकाई है।”
इस विषय पर कपाड़िया ने भी लिखा है, “हिन्दू समुदाय अनेक जातियों में विभक्त है जो कि अन्तर्विवाह के समूह हैं। व्यावसायिक दृष्टि से जाति अनेक उपजातियों में बंटी हुई है, जिनमें से प्रत्येक उपजाति पुनः अनेक भागों में बंटी हुई, है, ये उपविभागीय जाति भी कुछ बिस्वा या दास के आधार पर बंटी हुई है जो स्थानीय है।”
श्री हट्टन ने कहा है कि, “भारत के करोड़ों हिन्दू आपस में इतने अधिक विभाजित एवं उपविभाजित हैं कि कुछ जातियाँ तो केवल पन्द्रह परिवारों के बाहर विवाह नहीं कर सकती हैं।”
अन्तर्विवाह के कारण (Causes of Endogamy)
(i) इस विवाह से एक जाति में रक्त की शुद्धता बनी रहती है।
(ii) मुस्लिम काल में हिन्दू कन्याओं की रक्षा के लिए इतने कठोर नियम बनाये गये कि जिससे हिन्दू-कन्याओं का विवाह इस्लाम धर्म के अनुसार न हो सके।
(iii) बाल-विवाह की प्रथा द्वारा बचपन से ही व्यक्ति को अपनी नीति से बांध दिया जाता है।
(iv) बौद्ध और जैन धर्म के बढ़ते हुए प्रभावों के कारण ब्राह्मणों ने अन्तर्विवाह सम्बन्धी कठोर नियम बनाये क्योंकि दोनों ही धर्म बहुत कुछ नास्तिक है।
(v) अपनी जाति और प्रजाति की रक्षा हेतु अन्तर्विवाह के कठोर नियम बनाये गये।
(vi) अन्य जातियों से पृथकता बनाये रखने के लिए उसे प्रोत्साहित किया गया।
(vii) विभिन्न जातियों की विभिन्न संस्कृतियों और प्रथाओं ने भी विवाह को प्रेरणा दी।
(viii) भौगोलिक पृथकता ने भी इस पर बल दिया।
अन्तर्विवाह से हानियाँ- इस विवाह प्रथा ने विभिन्न जातियों और इनकी भी उपजातियों के मध्य अलगाव और ऊँच-नीच की भावना को जन्म दिया है। इससे राष्ट्रीय एकता को सबसे आघात पहुंचा है। विभिन्न जातियों की विभिन्न संस्कृतियों और प्रथाओं ने व्यक्ति को व्यक्ति से अलग रखा है। इस प्रथा ने जीवन साथी चुनने का क्षेत्र सीमित कर दिया जिससे बेमेल विवाह, दहेज प्रथा आदि कुरीतियों के विकसित होने के लिए अवसर प्राप्त हुए। वैज्ञानिक दृष्टि से अन्तर्विवाह से उत्पन्न सन्तानें न तो बुद्धिमान होती हैं और न हृष्ट-पुष्ट ही।
(2) बहिर्विवाह (Exogamy) :
बहिर्थिवाह का सामान्यतः अर्थ है अपने समूह के व्यक्तियों से बाहर विवाह करना। इसलिए एक गोत्र, प्रवर, टोटम, पिण्ड, गाँव तथा जाति भी हो सकते हैं। यह देश विचित्रताओं का है जहां एक तरफ अन्तविर्वाह के लिए व्यक्ति को बाध्य किया जाता है वहीं बहिर्विवाह के लिए भी डॉ. प्रभु ने इस सम्बन्ध में लिखा है- “उत्पत्ति काल से लेकर आज तक बहिर्विवाह के नियमों से सम्बन्धित है ‘गोत्र’, ‘प्रवर’ और ‘पिण्ड’ जिनके वास्तविक अर्थों और अवधारणाओं में इतना अधिक परिवर्तन, संशोधन एवं रूपान्तर है कि मौलिक अर्थों को समझना असम्भव सा हो गया है।”
(i) गोत्र बहिर्विवाह (Gotra Exogamy): इस नियम के अनुसार एक गोत्र के व्यक्ति परस्पर विवाह सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकते हैं। ऋग्वेद में गोत्र शब्द की व्याख्या का अर्थ गोशाला गाय का समूह या पहाड़ या किला आदि के रूप में आया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि एक गोत्र का अर्थ एक समूह के व्यक्तियों से है। कालान्तर में यह धारण किसी पूर्वज से जुड़ गयी है और एक पूर्वज से अपनी उत्पत्ति रखने वाले व्यक्तियों का एक समूह बन गया जो अपने को एक गोत्र का सदस्य कहते हैं।
डॉ. अल्तेकर का कहना है कि सगोत्र विवाह पर निषेध ईसा से 60 वर्ष पूर्व नहीं था। श्री करन्दीकर का कथन है कि “ऋग्वैदिक समाज में गोत्र का सम्बन्ध परिवार से नहीं था, फिर भी इसमें समूह की चेतना शनैः शनैः संलग्न होती गई एवं छान्दोग्य उपनिषद् में तो यह शब्द निश्चय ही परिवार के अर्थ में आया। ‘मनु’ के समय तक सगोत्र विवाह पर कठोर नियम बन चुके थे।”
“सत्याषाढ़ हिरण्य केशी” श्रौत सूत्र के अनुसार, विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप और अगस्त्य ऋषियों की सन्तान गोत्र कहलाती थीं।
(ii) सप्रवर बहिर्विवाह (Pravara Exogamy): उच्च जातियों में सप्रवर विवाह निषेध है। वे सभी व्यक्ति जो ऋषियों के नाम का उच्चारण करते हैं- सप्रवर कहलाते हैं। अस्तु प्रवर का सम्बन्ध धार्मिक एवं आध्यात्मिक कर्मों के फलस्वरूप ही उत्पन्न होता है। डॉ. कपाड़िया के अनुसार, “प्रवर कुछ संस्कारों और ज्ञान से सम्बन्धित एक सम्प्रदाय की ओर संकेत करता है जिससे कि एक व्यक्ति सम्बन्धित है।”
इस प्रकार हम देखते हैं कि, सप्रवर व्यक्ति का सम्बन्ध धार्मिक अनुष्ठान, संस्कार, यज्ञ आदि के फलस्वरूप ही समाज में उत्पन्न हुआ क्योंकि वे एक साथ एक ऋषि के स्थान पर पूजा-पाठ का कार्य करते थे। अस्तु उनमें इस प्रकार आचरण उत्पन्न हुआ कि वे परस्पर विवाह सम्बन्ध स्थापित नहीं करते थे।
(iii) सपिण्ड बहिर्विवाह (Sapinda Exogamy): हिन्दुओं में सपिण्ड विवाह भी निषेध है। मिताक्षरा सम्प्रदाय के अनुसार वे सभी व्यक्ति सपिण्ड हैं, जिनके शरीर में एक ही पिण्ड या शरीर का अंश हो। अस्तु, सपिण्ड के अन्तर्गत वे सभी व्यक्ति आते हैं जिनके माता-पिता, दादा- दादी, नाना-नानी एक ही होते हैं। मनु का विचार है कि, भाभी, मौसी एवं बुआ की लड़कियों से विवाह नहीं किया जा सकता है। इन सम्बन्धियों से विवाह करने पर व्यक्ति पाप का भागी होता है।
दायें भाग के टीकाकार पितरों को दिये जाने वाले चावल के गोलों को पिण्ड समझते हैं। उनके अनुसार वे एक ही पिण्ड के समझे जाते हैं। इसमें किसी भी प्रकार का विवाह सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता है। हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार माँ की तीन पीढ़ियों तक और पिता की पाँच पीड़ियों तक सपिण्डता मानो जाती हैं। जबकि विशिष्ट और गौतम का कहना है कि माता की ओर से पांच पीढ़ियों तथा पिता की ओर से सात पीढ़ियों तक सपिण्ड होते हैं। भारत जैसे विशाल देश में सपिण्ड का नियम समान रूप से लागू नहीं होता है। जैसे दक्षिण में नम्बूदरीपाद ब्राह्मण के अतिरिक्त सभी ब्राह्मणों में मामा की सन्तान से विवाह करना उत्तम समझा जाता है। मद्रास की बेलम जाति में भांजी से विवाह करना अच्छा माना जाता है।
(3) अनुलोम विवाह (Anuloma Marriage)
उच्च वर्ग के पुरुष का अपने वर्ग अथवा अपने से निम्न वर्ग की कन्या के साथ विवाह करना अनुलोम विवाह के अन्तर्गत आता है। किन्तु लड़कियों का विवाह नीची जातियों से करना अनुचित माना जाता है। अनुलोम विवाह पद्धति में मनु जी एक निश्चित विवाह की एक श्रृंखला तैयार करते हैं, जैसे ब्राह्मण पुत्र और क्षत्रिय कन्या या ब्राह्मण पुत्र और वैश्य कन्या। ऐसे विवाहों के पश्चात् जो पुत्र जन्म लेते हैं उनकी सूची मनु ने तैयार की है, जैसे ब्राह्मण पति और वैश्य स्त्री से उत्पन्न पुत्र अम्बस्ट कहलाता है। क्षत्रिय से विवाहित शूद-वर्ण वाली स्त्री से उत्पन्न “उन” नामक पुत्र होता है जो क्रूर चेष्टा वाला होता है।”
वैदिक युग और उसके पश्चात् तक अनुलोम विवाह का प्रचलन था क्योंकि इस समय वर्ण व्यवस्था का कठोरता से पालन किया जाता था। इसलिए पुरुष अपने से निम्न वर्ण वाली स्त्री से विवाह नहीं करता था। इसलिए कुछ विद्वान अनुलोम विवाह को ही कुलीन विवाह (Hypergamy) के नाम से पुकारने लगे। किन्तु यह दोनों इस अर्थ में एक-दूसरे से भिन्न हैं कि कुलीन विवाह बंगाल में प्रचलित हुआ जबकि अनुलोम सम्पूर्ण भारत में।
अनुलोम विवाह के सम्बन्ध में रिजले महोदय का यह विचार है कि आर्य भारत में विजेता के रूप में आये थे। उनके समूह में स्त्रियों की न्यूनता थी। अस्तु उन्होंने अपने से नीचे वर्ण वाली स्त्रियों से विवाह करना आरम्भ कर दिया।
सजातीय कुलीन विवाह: असंख्य जातियों की उत्पत्ति के साथ अन्तर्जातीय अनुलोग विवाह का भी अन्त हो गया। इसका स्थान समाजीय कुलीन विवाह ने ले लिया। इस प्रथा के अनुसार अब लड़कियों का विवाह अपने से ऊँचे कुल में होने लगा और नीचे कुल में विवाह करना रुक गया।
(4) प्रतिलोम विवाह (Reverse Marriage)
प्रतिलोम विवाह अनुलोम विवाह के ठीक विपरीत है। इस विवाह पद्धति में निम्न वर्ण के पुरुष, और उच्च-वर्ण की स्त्री के साथ विवाह सम्बन्ध स्थापित करता है। अधिकतर विद्वानों ने इस विवाह की कटु आलोचना की है। याज्ञवल्क्य ने ब्राह्मण या क्षत्रिग को वैश्य की लड़की से विवाह करने की अनुमति नहीं दी है। जो ऐसा करता है उसे सार्वजनिक स्थानों पर कठोर दण्ड दिया जाता था।
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