समाज शास्‍त्र / Sociology

श्रमिक संघ का अर्थ एवं परिभाषा | श्रमिक संघो का आविर्भाव

श्रमिक संघ का अर्थ एवं परिभाषा | श्रमिक संघो का आविर्भाव | Meaning and definition of labor union in Hindi | Emergence of labor unions in Hindi

श्रमिक संघ का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning of Trade Union)-

उद्योगपतियों द्वारा किये जाने वाले शोषण से बचने के लिए तथा स्वयं के हितों को सुरक्षित बनाये रखने के लिए श्रम वर्ग जो संगठन बनाते हैं, उसे श्रमिक संघ (Trade Union) कहा जाता है, किन्तु श्रमिक संघों को अनेक प्रकार से परिभाषित किया गया है। इसमें मुख्य परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं-

(1) सिडनी एवं वेब- सिडनी और वेब का विचार है कि, “श्रमिक संघ मजदूरी पर निर्वाह करने वाले व्यक्तियों का एक ऐसा स्थायी संगठन है जिसका उद्देश्य उनके जीवन को सुधारना एवं बनाये रखता है।”

इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रमिक संघों का प्रमुख उद्देश्य, एक प्रकार की दशाओं में ऐसे संघों को इस प्रकार से सक्रिय तथा नियमित बनाना है, ताकि श्रमिकों को औद्योगिक प्रतिस्पर्धा से चुने प्रभावों से बचाया जा सके। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सामाजिक विकास की स्थिति का सहारा लेना पड़ता है। पारस्परिक बीमा, सामूहिक सौदाकारी तथा कानूनी विधि जैसे उपायों को अपनाया जाता है। इस प्रकार श्रमिक संघ पूँजीवादी व्यवस्था के लिए ही आवश्यक नहीं है, वरन् प्रजातन्त्र में भी उनका एक महत्वपूर्ण स्थान है। कुछ विद्वान यह भी मानते है कि श्रमिक संघ एक परिणाम है जिसका कारण यान्त्रिक गुण है।

(2) सी.एच.डी. कोल- सी.एच.डी. कोल के अनुसार, “साधारण शब्दों में श्रमिक संगठन का अर्थ श्रमिकों द्वारा बनाये गये उस संगठन से है, जो श्रमिकों के आर्थिक हितों की समृद्धि तथा सुरक्षा से सम्बन्धित है।”

(3) श्री वी. वी. गिरि- श्री वी.वी. गिरि ने श्रमिक संघ की परिभाषा देते हुए कहा है, “वह एक संघ है, जो अपने आर्थिक हितों की रक्षा करने के लिये और उनकी रक्षा करने के लिए है।”

(4) आर.ए. लेस्टर – श्री आर. ए. लेस्टर ने श्रमिक संघ की परिभाषा देते हुये कहा है, “श्रमिकों की वह समिति जिसका उद्देश्य मुख्य रूप से सदस्यों की वृत्ति में सुधार करना एवं उन्हें बनाए रखना है।”

(5) एस.एम. पोटर्सन-श्री पोटर्सन के अनुसार, “श्रमिक संघ कर्मचारियों का वह संगठन है जो उनकी आर्थिक और सामाजिक दशाओं में सुधार हेतु होती है।”

इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रमिक संगठन प्रत्येक प्रजातन्त्र देश में महत्वपूर्ण है और यह औद्योगिक व्यवस्था के अन्तर्गत श्रमिकों के हितों की सुरक्षा करते हैं। दूसरे शब्दों में श्रमिक संगठनों का अर्थ श्रमिकों के उन संगठनों से है जो श्रमिकों के हितों की रक्षा करते हैं।

श्रमिक संघो का आविर्भाव

(Emergence of Trade Unions)

श्रमिक संघ वर्तमान औद्योगिक व्यवस्था की ही देन है। मानवीय सभ्यता के प्रत्येक स्तर पर किसी न किसी प्रकार की समस्यायें अवश्य रही हैं। शिकारी जीवन (Hunting Mode) के स्तर पर भी मनुष्य सम्भ्यताओं से अलग नहीं था। परन्तु समाज के विकास के साथ समस्यायें भी विकसित होती गयी। व्यक्तिगत सम्पत्ति का जन्म, पृथक हितों वाले वर्गों का विकास उत्पादन के साधनों का केन्द्रीकरण तथा औद्योगीकरण एवं सर्वहारा वर्ग का विकास आदि इन समस्याओं में प्रमुख हैं। औद्योगिक विकास के साथ-साथ पूँजीपतियों ने अपने लाभ को अधिक बढ़ाने का प्रयास किया जिससे उन्होंने श्रमिकों के श्रम के घण्टों को बढ़ाया और उन्हें कम मजदूरी दी, दूसरे शब्दों में पूंजीपतियों ने श्रमिकों का शोषण प्रारम्भ कर दिया है। औद्योगिक व्यवस्था से उत्पन्न होने वाली इन समस्याओं ने श्रमिक संघों को जन्म दिया। दूसरे शब्दों में श्रमिक संघों का विकास, औद्योगिक व्यवस्था की ही परिस्थितियों में ही खोजा जा सकता है। फ्रैंक टोनेबम (Frank Tannenbaum) ने कहा है, “श्रमिक आन्दोलन एक परिणाम है जिसका प्रमुख कारण मशीन है। मशीन श्रमिकों की सुरक्षा में बाधा उत्पन्न करती है। अतः मशीन पर नियन्त्रण करते हुये श्रमिक अपने हितों की रक्षा करते हैं।”

उक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि श्रमिक संघों की उत्पत्ति औद्योगिक व्यवस्था के फलस्वरूप हुई। प्रारम्भिक काल में जब उत्पादन गृह या ग्रामीण स्तर पर किया जाता था, तब मालिक और श्रमिक के मध्य प्रत्यक्ष या आमने-सामने का सम्बन्ध (Face to Face Relationship) रहता था। अतः सम्बन्धों के सुधार के लिए उस काल में किसी प्रकार के संघों की आवश्यकता ही नहीं थी। परन्तु वृहद उद्योगों के साथ-साथ मालिकों और श्रमिकों के सम्बन्ध बदल गये, फलस्वरूप श्रमिक की स्थिति मालिकों के सम्मुख कमजोर पड़ने लगी। यह कमजोरी ही श्रम की विशेषता रही है। क्योंकि श्रम नाशवान है, अतः इसका संचय नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि श्रमिक जीवित रहने के लिए अपना श्रम बेचता है। परन्तु मालिक श्रमिक की इस कमजोरी को जानता है। अतः वह उसके श्रम का उचित मूल्य नहीं देता और उसका शोषण करता है। यही कारण है कि हर औद्योगिक व्यवस्था के साथ ही, श्रमिक संघों का विकास प्रारम्भ हो जाता है। जहाँ वह स्पष्ट हो जाता है कि श्रमिक संघों के विकास का मूल कारण मालिक और श्रमिक के पृथक हितों का होता है। श्रमिक की स्थिति कमजोर होती है क्योंकि वह एक ऐसे नाशवान वस्तु (श्रम) का मालिक है, जिसका संचय नहीं किया जा सकता। अतः श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए श्रमिक संघों का विकास भी औद्योगिक व्यवस्था के साथ-साथ स्वतः ही प्रारम्भ हुआ।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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