समाज शास्‍त्र / Sociology

औद्योगिक विवादों का निपटारा | ऐच्छिक और अनिवार्य विवाचन

औद्योगिक विवादों का निपटारा | ऐच्छिक और अनिवार्य विवाचन | Settlement of industrial disputes in Hindi | Optional and Compulsory Arbitration in Hindi

औद्योगिक विवादों का निपटारा

औद्योगिक विवादों के लिए जब निरोधात्मक (Preventive) उपाय अपर्याप्त अथवा अप्रभावकर हो जाते हैं और हड़ताल और तालाबन्दी की स्थिति आ जाती है, तो विवादों को निपटाने के लिए अन्य उपायों को काम में लाया जाता है। जैसे समझौता (Negotiation), सुलह (Conciliation), विवाचन (Arbitration), मध्यस्थता (Mediation), इसमें समझौते का सम्बन्ध केवल प्रतिद्वन्दी पक्षों से है। इसमें दोनों पक्ष अपने आपसी विवाद को दूर करने का समझौता करते हैं। परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से विवाद उत्पन्न होने समझौता तब तक असफल रहता है जब तक इसमें किसी तीसरी पार्टी का हस्तक्षेप न हो। अतः जब कोई तीसरी फटी, विकद के निपटार में भाग लेती है तो इसे सुलह कहा जाता है, विवाचन में विवाचक विवाद के सम्बन्ध में अपना निर्णय देता है जिसे प्रतिद्वन्द्वी पक्षों द्वारा स्वीकार करना कुछ स्थितियों में ऐच्छिक होता है और कुछ स्थितियों में आवश्यक है। ऊपर लिखी विधियाँ औद्योगिक विवादों को निपटाने की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। अतः इनका संक्षिप्त उल्लेख करना भी आवश्यक है।

सुलह, विवाचन और मध्यस्थता-

औद्योगिक विवादों को निपटाने के लिए सुलह, विवाचन और मध्यस्थता आदि महत्वपूर्ण विधियाँ हैं। इन तीनों पद्धतियों में प्रतिद्वन्द्वी पक्ष के अलावा एक तीसरे पक्ष का भी होना आवश्यक होता है। इस प्रकार हस्तक्षेप प्रायः राज्य द्वारा किया जाता है। औद्योगिक विवादों के सुलह के लिए इस प्रकार की विधियों का प्रयोग सर्वप्रथम ब्रिटेन में किया गया था। वहाँ सन् 1800 ई0 में एक अधिनियम पारित किया गया था जिसमें कपास के व्यवसाय से सम्बन्धित विवादों के लिए विवाचन को अनिवार्य बनाया गया था। लेकिन इस समय ब्रिटेन में अनिवार्य विवाचन के अतिरिक्त ऐच्छिक विवाचन भी प्रचलित हो गया है। औद्योगिक विकास के साथ-साथ वर्तमान समय में सभी राष्ट्रों में इस प्रकार की विधियाँ पायी जाने लगी हैं।

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि औद्योगिक विवादों को निपटाने के लिए समझौता तथा विवाचन दो ऐसी पद्धतियाँ हैं जिनमें तृतीय पक्ष (Third Party) द्वारा हस्तक्षेप किया जाता है। विवादों की सुलह में तृतीय पक्ष का हस्तक्षेप निम्नलिखित कारणों से आवश्यक हो जाता है-

(1) प्रतिद्वन्द्वी पक्ष विवादों को स्वयं नहीं समझा पाते। अतः तीसरा पक्ष सुलह के लिए सम्भव शर्तों को प्रस्तुत करता है।

(2) अधिकांश औद्योगिक विवाद अविवेकपूर्ण होते हैं और प्रतिद्वन्द्वी पक्षों के तर्क एक दूसरे के प्रतिकूल होते हैं। अतः तीसरी पार्टी उनके विवादों को दूर कर सम्भव समझौते की ओर अग्रसर करती है।

(3) प्रतिद्वन्द्वी पक्ष स्वयं भी अपनी हानियों और लाभों का मूल्यांकन नहीं कर पाते। अतः तीसरा पक्ष उनके लाभ हानियों को समझाने का प्रयास करता है।

(4) तीसरी पार्टी का यह महत्वपूर्ण कार्य है कि वह सम्भव हल को प्रस्तुत करे जिसे दोनों पक्ष मंजूर कर सकें।

आजकल तीसरे पक्ष का कार्य अधिकतर राज्य ही करता है। समझौते के समय दोनों पक्षों को तीसरी पार्टी के सामने लाया जाता है। यहाँ दोनों पक्षों को एक सामान्य समझौते को मानने के लिये बाधित किया जाता है। परन्तु विधान द्वारा सुलह न होने पर मध्यस्थता को अपनाना आवश्यक हो जाता है। विवाद को सुलझाने के लिए किसी व्यक्ति अथवा बोर्ड की नियुक्ति मध्यस्थ के रूप में की जाती है, जो दोनों पक्षों को सुलह के लिए सामान्य आधार प्रदान करने का प्रयास करता है। परन्तु समझौता और मध्यस्थता दोनों का असफल हो जाने पर विवाचन को अपनाया जाता है इसमें तीसरे पक्ष के एक निति निर्णय को, विवादी पक्षों के सामने प्रस्तुत किया जाता है।

(1) समझौता (Conciliation)- यह औद्योगिक विवादों को दूर करने के लिए एक महत्वपूर्ण पद्धति है। इसका मतलब विवाद उत्पन्न होने के बाद उस प्रक्रिया से है जिसमें श्रमिकों और मालिकों के प्रतिनिधि एक तीसरे पक्ष के सामने विचार-विमर्श करते हैं जिससे उन्हें समझौते के लिए प्रेरित किया जा सके। समझौते की इस पद्धति को प्रायः विवादों की प्राथमिक अवस्था में अपनाया जाता है। इसमें दोनों पक्षों को विवाद को सुलह के लिए सहायता प्रदान की जाती है। यह इसलिए किया जाता है कि हड़ताल या तालाबन्दी के बिना ही विवादों को टाला जा सके। रायल श्रम आयोग के अनुसार, “यह कहीं अधिक अच्छा है कि कोई भी समझौता दो विवादों पक्षों के स्वयं के प्रयत्नों से हो बजाय इससे कि समझौता जनमत या किसी व्यक्ति के जरिये लागू किया जाय। कई बार ऐसा होता है कि चतुर अधिकारी दोनों पक्षों को पारस्परिक समझौते के लिए सम्भावित मार्ग का सुझाव दे सकते हैं।”

इस प्रकार औद्योगिक विवादों की रोक-थाम की दृष्टि से सुलह-व्यवस्था अत्यन्त महत्वपूर्ण है। व्यावहारिक रूप में यह भी देखा गया है कि जहाँ विवाचन असफल रहा है वहाँ सुलह व्यवस्था द्वारा अच्छे परिणाम प्राप्त हुए है।

भारत में विभिन्न अधिनियमों के अन्तर्गत सुलह की व्यवस्था की गई है। सन् 1929 में वाणिज्य विवाद अधिनियम के अन्तर्गत विवाद को सुलझाने के लिए जाँच न्यायालय तथा सुलह बोर्ड की वैधानिक व्यवस्था की गई। इसके बाद सन् 1939 में बम्बई औद्योगिक विवाद अधिनियम में सुलह की व्यवस्था की गई।

(2) विवाचन (Arbitration)- विवाचन का अभिप्राय औद्योगिक विवाद की उस पद्धति से है जिसमें किसी विवादपूर्ण विषय पर एक पक्ष द्वारा निर्णय लिया जाता है। इसमें राज्य विवाचक की नियुक्ति करता है जो विवाद के सन्दर्भ में अपना निर्णय देता है।

विवादन की व्यवस्था सबसे पहले बम्बई अधिनियम, 1941 के अधिनियम में संशोधन करने के बाद की गई जिसमें सरकार को यह अधिकार दिया गया कि आवश्यकता पड़ने पर विवाद विवाचन के निर्णय के लिए प्रस्तुत कर सकती है। सन् 1947 के अधिनियम द्वारा भी विवाचन व्यवस्था को चालू किया गया। परन्तु अनिवार्य विवाचन विफल न हो सका। क्योंकि प्रत्येक राष्ट्र कर्मचारियों की रक्षा के नियम मानता है। इस प्रकार वह उन्हें अधिकार देता है कि वह अपने बारे में तर्क कर सकें।

ऐच्छिक और अनिवार्य विवाचन (Voluntary and Compulsory Arbitration) –

विवाचन ऐच्छिक और अनिवार्य दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं। ऐच्छिक विवाचन में प्रतिद्वन्द्वी पक्ष, अपने विवाद को अपने आपस में अथवा मध्यस्थ की सहायता से सुलझाने में असमर्थ होने पर विचार को विवाचक के सामने प्रस्तुत करते हैं। इसके विपरीत, अनिवार्य विवाचन विवाद को अनिवार्य रूप में विवाचन के लिए प्रस्तुत करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त विवाचन के निर्णय को दोनों पक्षों द्वारा मानना आवश्यक होता है। अनिवार्य विवाचन के लिए सरकार विवाद को निर्णय के लिए विवाचक के सामने पेश करती है। इस अनिवार्य विवाचन का नाम अधिनिर्णय (Adjudication) भी है। इसमें साक्षियों की उपस्थिति, जाँच पड़ताल तथा निर्णयों को कार्यान्वयन अनिवार्य रूप से किया जाता है। भारत में युद्ध के दिनों में उत्पादन को जारी रखने के लिए अनिवार्य विवाचन को ही अपनाया गया है।

अन्तिम विवाचन में दोनों पक्षों को निवाचक के निर्णय को मानना अनिवार्य है। सरकार को अधिकार है कि वह निर्णय को दोनों पर लागू करे। इस व्यवस्था में विवाचक को राज्य द्वारा अधिकार दिये जाते हैं अतः सामाजिक न्याय विवाचक पर आधारित होता है। यदि सरकार विवाचक के निर्णय को सावधानीपूर्वक लागू नहीं करती तो इस व्यवस्था को केवल सरकारी हस्ताक्षेप मात्र ही कहा जा सकता है। यही कारण है कि अनेक विद्वान इस व्यवस्था को प्रजातन्त्र के आधार भूत सिद्धान्तों के खिलाफ मानते हैं। रायल श्रम आयोग के अनुसार यदि किसी औद्योगिक विवाद को निपटाने के लिए किसी बाह्य शक्ति पर आधारित होने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है तो इसका उद्योगों पर प्रभाव अच्छा नहीं पड़ेगा। अनिवार्य विवाचन सामूहिक सौदाकारी को मान्यता नहीं देता। अतः सिडनी बत (Sydney Webb) ने कहा कि अनिवार्य विवाचन ही स्वीकार नहीं किया जा सकता। अमेरिकन फैडरेशन आफ लेबर ने भी अनिवार्य विवाचन का विरोध किया है और कहा है कि, “अमेरिका के मजदूर कभी भी दासता को स्वीकार नहीं करेंगे और न वे अपनी भावनाओं के विरुद्ध किसी प्रकार का कार्य करेंगे। फेडरेशन का स्पष्ट मत है कि अनिवार्य विवाचन (अनिवार्य निर्णय) व्यवस्था औद्योगिक शांति की स्थापना में कभी भी सहायक नहीं हो सकती। यह औद्योगिक झगड़ों को भी दीर्घकालीन बना देती है साथ ही यह सामूहिक सौदेबाजी का अन्त करके उसे मुकदमेबाजी में परिवर्तित कर देती हैं।”

ब्रिटिश श्रमिक संघ भी अनिवार्य विवाचन को औद्योगिक विवादों के निपटाने में उचित नहीं ठहराता। इसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organisation) भी औद्योगिक विवादों की नियुक्ति के लिए सामूहिक सौदाकारी को ही अत्यकि महत्वपूर्ण मानता है।

लगभग सभी राष्ट्रों में अनिवार्य विवाचन का विरोध किया गया है। आपत्ति काल में उद्योगों को सुचारु रूप से चलाने के लिए यद्यपि अनिवार्य विवाचन अत्यन्त महत्वपूर्ण है, परन्तु शान्तिकाल में इसका औचित्य स्वीकार करना कठिन है। भारत के श्रम संगठन अभी असंगठित हैं। अतः भारत के सन्दर्भ में राज्य द्वारा हस्तक्षेप का विरोध नहीं किया जा सकता। भारत के हितों की सुरक्षा का कार्य सरकार पर न्यूनाधिक रूप से आधारित है। इसका मुख्य कारण यह है कि भारत में श्रमिक अधिकतर अनिश्चित है। अतः अनिवार्य विवाचन का प्रयोग श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए किया जाता है। दूसरी ओर भारत के सम्मुख वर्तमान समय में आर्थिक प्रगति की समस्या है। उद्योगों में विकास की समस्या है। अतः अनिवार्य विवाचन की व्यवस्था विवादों को निपटाने के अन्तिम उपाय के रूप में की गई है।

यद्यपि भारत में अनिवार्य विवाचन को कुछ मान्यता अवश्य मिली है। पर भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री वी0वी0 गिरी अनिवार्य विवाचन को स्वीकार नहीं करते। श्री गिरी ने इस स्नदर्भ में स्पष्ट रूप से कहा है, ‘औद्योगिक विवादों का निपटाने का सबसे अच्छा साधन पारस्परिक समझौता और सामूहिक सौदाकारी है। यह प्रबन्ध तथा श्रमिक के मध्य अच्छे सम्बन्ध स्थापित करने और आत्म- विश्वासी श्रम आन्दोलन के निर्माण करने का उत्तम साधन है। लेकिन अभी ऐसा समय नहीं आया है, जब अनिवार्य विवाचन को छोड़कर हम पूर्ण रूप से पारस्परिक समझौता पर आधारित हों। आज एक ओर श्रमिकों की सौदाकारी की शक्ति कम है, वे असंगठित हैं, दूसरी ओर देश में रोजगार की कमी है। अतः ऐसी स्थिति में अनिवार्य विवाचन के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।क्षकिंतु हमारे प्रयत्न सदा सामूहिक सौदाकारी की अवृत्ति को विकसित करने की दिशा में होने चाहिये। हमें आज किसी ऐसे कदम को नहीं उठाना चाहिए, जिससे देश में औद्योगिक विवादों में वृद्धि हो।”

उक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि औद्योगिक विवादों को निपटाने के लिये उनका मूल कारण खोजना आवश्यक है। श्रमिकों को उचित मजदूरी, उचित अवकाश, बीमारी तथा मातृत्व लाभ मिलना चाहिये। उनके लिये सामाजिक सुरक्षा की पूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए। उनकी पूर्ण आवश्यकताओं को पूरा किये बिना हड़तालों को रोकने के लिए दण्ड व्यवस्था करने का अभिप्राय विवाद को त्रुटिपूर्ण ढंग से सुलझाना है।   ने कहा है-

इस प्रकार औद्योगिक विवादों को सुलझाने और दूर करने का सबसे अच्छा उपाय श्रमिकों के कार्य तथा जीवन स्थिति में सुधार कर श्रमिकों और मालिकों के मध्य सहयोग स्थापित करना है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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