आदिकालीन धार्मिक साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ | सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य एवं जैन साहित्य की प्रवृत्तियाँ
आदिकालीन धार्मिक साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ | सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य एवं जैन साहित्य की प्रवृत्तियाँ
आदिकालीन धार्मिक साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
भाषा की दृष्टि से जब आदिकालीन हिंदी साहित्य पर विचार किया जाता है तो यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इस काल में हिंदी भाषा साहित्यिक अपभ्रंश के साथ-साथ चलती हुई क्रमशः जनभाषा के रूप में साहित्य रचना का माध्यम बन रही थी। समस्त आदिकाल में इन दो भाषाओं की समानांतर रचना प्रक्रिया चलती रहती है। नयी खोजों से अब यह धारणा स्पष्ट हो चुकी है कि जन भाषा के रूप में हिंदी 8वीं शताब्दी में ही साहित्य का माध्यम बन चुकी थी तथा वह अपभ्रंश भाषा के साथ अपनी भूमि पर आगे भी बढ़ने लगी थी। फलतः अपभ्रंश में साहित्य लिखने वाले कवि अवसर पाकर हिंदी में भी कविता किया करते थे। दोनों भाषाओं में यह प्रतिस्पर्धा भक्तिकाल के प्रारंभ तक चलती रही और अंत में एक दिन ऐसा भी आया जब अपभ्रंश का खेमा छोड़कर सभी कवि हिंदी के मार्ग पर अग्रसर हो गये।
आदिकालीन साहित्य में अपभ्रंश के अलावा डिंगल, मैथिली और खड़ी बोली में भी रचनाएँ होती थी। मैथिली में लिखी गयी ‘विद्यापति पदावली’ इस काल की एकमात्र उल्लेखनीय रचना है और खड़ीबोली की झलक अमीर खुसरो की रचनाओं में दीख पड़ती है। अमीर खुसरों की पहेलियाँ और मुकरियों की भाषा अरबी-फारसी होते हुए भी क्रियाएँ हिंदी की प्रयुक्त हुई हैं। उनमें तत्कालीन जनभाषा के दर्शन ही होते हैं परंतु मैथिली व खड़ीबोली की अपेक्षा अपभ्रंश और डिंगल की रचनाएँ ही उस समय अधिक मात्रा में मिलती हैं। अतः इन दो भाषाओं को ही आदिकाल की प्रमुख भाषाएँ मानना होगा। इन दोनों भाषाओं में डिंगली तो समूचे राजस्थान की साहित्यिक भाषा बनी। इसका छंदशास्त्र भी अलग था। इसमें अपभ्रंश से निकली हुई राजस्थानी का रूप मिलता है। वीरगाथात्मक रासक ग्रंथों में इस भाषा का स्वरूप देखने को मिलता है। वस्तुतः वीर रस के लिए भाषा ही उपयुक्त थी, हालांकि भाषा की दृष्टि से डिंगल साहित्य बड़ा अव्यवस्थित है। अपभ्रंश के प्रभाव के कारण संयुक्ताक्षरों एवं अनुस्वार शब्दों की प्रचुरता है।
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आदिकाल का साहित्य-
हिंदी साहित्य के आदिकाल में अपभ्रंश भाषा ही विशेष रूप से व्यवहृत हुई है, अतः अपभ्रंश भाषा में लिखित इस काल के साहित्य को तीन खंडों में विभक्त किया जा सकता है- (1) सिद्ध साहित्य, (2) नाथ साहित्य, (3) जैन साहित्य। सिद्ध साहित्य- सिद्धों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्त्व का प्रचार करने के लिए जो साहित्य जन-भाषा में लिखा, वह हिंदी के सिद्ध-साहित्य की सीमा में आता है। राहुल सांकृत्यायन ने चौरासी सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है, जिनमें सिद्ध सरहपा से यह साहित्य प्रारंभ होता है। चौरासी सिद्धों का समय 797 ई0 से 1257 ई0 तक माना गया है। 14 सिद्धों की रचनाएँ उपलब्ध होती हैं। सरहपा, शवरपा आदि इनमें प्रसिद्ध हैं। प्रत्येक सिद्ध के नाम के पीछे ‘पा’ शब्द जुड़ा हुआ है।
डॉ. धर्मवीर भारती ने सिद्धों की शब्दावली की दार्शनिक व्याख्या करते हुए इसे आध्यात्मिक घोषित कर सिद्ध साहित्य के उत्कट मार्गवाद को गौण सिद्ध करना चाहते हैं किंतु डॉ. शिवकुमार शर्मा ने सिद्धों के तथाकथित रहस्यवादी साहित्य को किसी भी कारण अलौकिक प्रेम का काव्य नहीं माना है। सिद्धों की कुछ रचनाएँ अपभ्रंश भाषा में हैं। इसे संध्या भाषा भी कहा जाता है। ‘संध्या’ शब्द के कई अर्थ किये गये हैं। ‘संध्या’ का एक अर्थ है- धूप छाँही शैली अर्थात् जिसकी कुछ बातें स्पष्ट हों और कुछ बातें अस्पष्ट। इसका दूसरा अर्थ किया गया है- रहस्यपूर्ण भाषा, तीसरे मत से इसका तात्पर्य है- अपभ्रंश और हिंदी के संधि काल की भाषा और इसका चौथा अर्थ बताया गया है- अपभ्रंश के संध्याकाल अथवा समाधिकाल की भाषा। वास्तव में सिद्ध अपनी बात सीधे-सीधे ना कहकर प्रतीकों के माध्यम से कहते थे। वे जिस सत्य अथवा आनंद का अनुभव करते थे, उसे सीधी भाषा में कह भी नहीं सकते थे, इसीलिए उन्होंने प्रतीकों का सहारा लिया है। यह शैली आगे चलकर निर्गुणमार्गी संतों ने अपनायी। कबीर ने इसे उलटवाँसी कहा है। इनकी रचनाओं में शांत और श्रृंगार रस उपलब्ध होते हैं। सिद्ध साहित्य में दोहा, चौपाई और चर्या गीत आदि छंद मिलते हैं। सिद्धों के साहित्य को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- (क) नीति तथा आचारमय (ख) उपदेशात्मक (ग) साधना संबंधी अर्थात् रहस्यवादी।
साहित्य उदात्तता और परिपक्वता की दृष्टि से उक्त साहित्य कोई विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं है किंतु इन सिद्धों की इतनी साहित्यिक देन अवश्य है कि इन्होंने अनेक चर्यापदों को विविध रागों में लिखकर परवर्ती गीति काव्यकारों- जयदेव, विद्यापति और सूरदास के लिए मार्ग खोल दिया। निःसंदेह इन कवियों ने हिंदी साहित्य में कविता की प्रवृत्तियाँ प्रारंभ की, उसका प्रभाव भक्तिकाल तक चलता रहा। रूढ़ियों के विरोध का अक्खड़पन जो कबीर आदि की कविता में मिलता है, वह इन सिद्ध कवियों की देन है। योग-साधना के क्षेत्र में भी इनका प्रभाव पहुंचा। सामाजिक जीवन के जो चित्र उन्होंने उभारे, वे भक्तिकालीन काव्य के लिए सामाजिक चेतना की पीठिका बन पाये। कृष्ण भक्ति के मूल में जो प्रवृत्ति मार्ग है, उसकी प्रेरणा के सूत्र भी हमें इनके साहित्य में मिलते हैं।
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नाथ साहित्य-
सिद्धों की वाममार्गी भोगप्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथ पंथियों की हठ योग-साधना प्रारंभ हुई। राहुल जी ने नाथ पंथ को सिद्धों की परंपरा का ही विकसित रूप माना है। इस पंथ के चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ तथा गोरखनाथ माने गये हैं। डॉ. रामकुमार वर्मा ने नाथ पंथ के चरमोत्कर्ष का समय 12वीं शताब्दी के अंत तक माना है। उनका मत है कि नाथ-पंथ से ही भक्तिकाल के संत मत का विकास हुआ था, जिसके प्रथम कवि कबीर थे।
डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार नाथपंथ या नाथ संप्रदाय के सिद्ध मत, सिद्ध-मार्ग, योग-मार्ग, अवधूत-संप्रदाय नाम भी प्रसिद्ध हैं। इस पंथ की दार्शनिकता सैद्धांतिक रूप से शैव मत के अंतर्गत है और व्यावहारिकता की दृष्टि से हठयोग से संबंध रखती है। नाथपंथ की ईश्वर संबंधी मान्यता शून्यवाद में है और यह वयान से ली गयी है। इनमें प्रचार की अपेक्षा मर्यादा रक्षण पर विशेष ध्यान दिया गया। इस संप्रदाय में इंद्रिय-निग्रह पर विशेष बल दिया गया। इंद्रिय-निग्रह के बाद प्राण साधना तथा इसके पश्चात् मनःसाधना पर अधिक बल दिया गया। मनःसाधना से तात्पर्य है- मन को संसार से खींचकर अंतःकरण की ओर खींच देना। यही उलटने की क्रिया उलटवासियों का आधार है।
नाथ संप्रदाय के महात्माओं में गुरू गोरखनाथ का नाम सर्वप्रमुख है। गोरखनाथ ने नाथ संप्रदाय को जिस आंदोलन का रूप दिया वह भारतीय मनोवृत्ति के सर्वथा अनुकूल सिद्ध हुआ है। उसमें जहाँ एक ओर ईश्वरवाद की निश्चित धारणा उपस्थित की गयी, वहीं दूसरी ओर विकृत करने वाली समस्त परंपरागत रूढ़ियों पर भी आघात किया। जीवन को अधिक से अधिक संयम और सदाचार के अनुशासन में रखकर आध्यात्मिक अनुभूतियों के लिए सहज मार्ग की व्यवस्था करने का शक्तिशाली प्रयोग गोरखनाथ ने किया। नाथ साहित्य के विकास में जिन अन्य कवियों ने योग दिया, उनमें चौरंगीनाथ, गोपीचंद, चुणकरनाथ, भरथरी, जनंध्रीपाव आदि प्रसिद्ध हैं। इन कवियों की रचनाओं में उपदेशात्मकता तथा खंडन-मंडनका प्राधान्य है। 13वीं शताब्दी में इन सबने अपनी वाणी का प्रचार किया था। हठयोगी गोरखनाथ के भावों का अनुकरण करते थे, अतः इनकी रचनाओं में कोई उल्लेखनीय विशेषता नहीं मिलती। नाथपंथी महात्माओं की बात केवल कोरा उपदेशमात्र नहीं है, उनमें अध्यात्म तत्त्व की प्रधानता है। उनकी रचनाओं में प्रतीकों का बाहुल्य है। वे अपनी बात सीधे-सीधे न कहकर भ्रमर, गजेंद्र, सूर्य,चंद्र, गंगा, यमुना, सरस्वती, त्रिवेणी आदि प्रतीकों के माध्यम से कहते हैं। भाषाकी दृष्टि से भी योगियों की रचनाओं का महत्त्व है। उन्होंने बिहार से लेकर राजस्थान तक प्रचलित लोग भाषा में अपनी बात कही है।
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जैन साहित्य-
जिस प्रकार हिंदी के पूर्वी क्षेत्र में सिद्धों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान मत का प्रचार हिंदी कविता के माध्यम से किया, उसी प्रकार पश्चिमी क्षेत्र में जैन साधुओं ने भी अपने मत का प्रचार हिंदी कविता के माध्यम से किया। इन कवियों की रचनाएँ आचार, रास, फागु, चरित आदि विभिन्न शैलियों में मिलती हैं। आचार-शैली के जैन काव्यों में घटनाओं के स्थान पर उपदेशात्मकता को प्रधानता दी गयी है। जैन-साहित्य का सबसे अधिक लोकप्रिय रूप ‘रास’ ग्रंथ बन गये। वीरगाथाओं के रास’ को ही रासों’ कहा गया है किंतु उसकी विषय-भूमि जैन रास ग्रंथों से भिन्न हो गयी है।
हिन्दी – महत्वपूर्ण लिंक
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