एल्फ्रेड मार्शल के आर्थिक विचार | मार्शल की आलोचनाएँ

एल्फ्रेड मार्शल के आर्थिक विचार | मार्शल की आलोचनाएँ

एल्फ्रेड मार्शल के आर्थिक विचार

औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप उत्पादन तो बहुत बढ़ा, किन्तु इसमें सहयोग देने वाले करोड़ों श्रमिकों को दरिद्रता घटने के बजाय बदी। इससे स्पष्ट हुआ कि सामाजिक और व्यक्तिगत हितों की अनुरूपता अविश्वसनीय थी तथा आर्थिक मनुष्य का रिकार्डोवादी विचार कोरी कल्पना सिद्ध हुआ। ऐसी परिस्थिति में, अनेक दोषों के बावजूद मार्शल को संस्थापित अर्थशास्त्र से सहानुभूति थी। वे उसे प्रबल आक्रमणों के विरुद्ध जीवित रखना चाहते थे। इस हेतु उसमें वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप संशोधन करने की आवश्यकता थी, जो एक कठिन कार्य था। किन्तु मार्शल ने जो गणितज्ञ और इतिहासकार का एक दुर्लभ मिश्रण थे, संस्थापित अर्थशास्त्र का पुनर्निर्माण बड़ी सफलता के साथ किया। उन्होंने संस्थापित अर्थशास्त्र को इतने प्रभावशाली ढंग से बदला कि वह अब संस्थापित राजनैतिक अर्थशास्त्र (Neo-classical Political Economy) कहा जाने लगा।

लेखकों और विचारकों का प्रभाव

मार्शल पर उन लेखकों और विचारकों का भी प्रभाव पड़ा, जिनका अध्ययन उन्होंने अपने विद्यार्थी जीवन में किया था। जिल और वैन्थम के प्रभाव के कारण ही वह समाज सुधार आन्दोलन और मानवता में विश्वास रखने लगे थे। किन्तु वह प्रचलित सरकार और सामाजिक एवं आर्थिक संस्थाओं को समाप्त करने के पक्ष में न थे वरन् उनमें उपयुक्त सुधार करके दरिद्रता और पीड़ा को दूर करना चाहते थे। कान्ट, डार्विन, स्पेन्सर और हीगल की पुस्तकों ने भी मार्शल को प्रभावित किया। रोशर के लेखन कार्यों में भी वह परिचित थे। कूर्नों ने भी उनको प्रभावित किया, जिनका गणितीय निरन्तरता का सिद्धान्त मार्शल की आर्थिक विचारधारा में समा गया है। वॉन थुनन के प्रभाव को भी वह स्वीकार करते हैं। सीमान्त सिद्धान्त इन्हीं से ग्रहण हुआ था।

मार्शल के आर्थिक विचार (Economic Ideas of Marshall)

मार्शल के प्रमुख आर्थिक विचारों पर नीचे संक्षिप्त में प्रकाश डाला गया है-

  1. अर्थशास्त्र की परिभाषा और अध्ययन विधि

मार्शल ने अर्थशास्त्र की परिभाषा में सुधार किया। वह लिखते हैं, “राजनैतिक अर्थशास्त्र अथवा अर्थशास्त्र मनुष्य जाति के जीवन की साधारण क्रियाओं का अध्ययन है। यह व्यक्ति या समाज के कार्य के उस भाग की परीक्षा करता है जिसका सम्बन्ध विशेषतः भौतिक कल्याण से होता है। एक ओर तो यह धन का अध्ययन है एवं दूसरी ओर जो अधिक महत्त्वपूर्ण है, यह मनुष्य के अध्ययन का एक मात्र भाग है।” इस प्रकार स्पष्ट है कि मार्शल ने अर्थशास्त्र को केवल धन कमाने का विज्ञान नहीं माना। यह तो उसके अनुसार जीवन व्यापार से, भौतिक वस्तुओं से, जोकि कल्याण के लिए आवश्यक है, सम्बन्धित है। यही नहीं उसने अर्थशास्त्र को व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों ही क्रियाओं से सम्बन्धित किया है।

इस प्रकार, वह धन की अपेक्षा मनुष्य पर अधिक बल देते हैं। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उसने अर्थशास्त्र के वैज्ञानिक स्वभाव को घटा दिया है। यथार्थ में वह इस बात पर बल देते हैं चूँकि अर्थशास्त्र एवं निरन्तर परिवर्तनशील एवं अत्यन्त संवेदनशील मानवीय स्वभाव से सम्बन्ध रखता है इसलिए वह उतना निश्चित (exact) नहीं है जितना कि भौतिक विज्ञान होते हैं। इसी सन्दर्भ में उसने अर्थशास्त्र का क्षेत्र जानबूझ कर केवल उन क्रियाओं तक सीमित कर दिया है जिन्हें  मुद्रा के पैमाने से मापा जा सकता हो। ऐसा माप व्यक्तिगत संवेदनाओं और आर्यो,  प्रथाओं और आदतों और अन्य आत्म-परक शक्तियों को उचित महत्व दे सकेगा।

जहां- तक मानवीय उद्देश्यों की अच्छाई बुराई का प्रश्न है,उसके विचार में यह दार्शनिकों से संबंध रखता है न कि अर्थशास्त्रियों से। उसका विश्वास है कि सामाजिक समस्याओं को सुलझाने में अर्थशास्त्र एक बड़ी सीमा तक सहायक हो सकता है। यहां हम उसे एक महान मानवतावादी के रूप में पाते हैं। इस प्रकार मार्शल ना तो भौतिकवादी थे और ना ही व्यक्तिपरक (subjective) वह तो अर्थशास्त्र को सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक दोनों ही तरह से प्रगतिशील देखना चाहते थे।

मार्शल की परिभाषा और क्षेत्र के विवेचन की बाद में बहुत आलोचना हुई। आलोचकों ने कहा कि अर्थशास्त्र को कठोर विभागों (Watertight Compartments) मैं नहीं बांटा जा सकता, अर्थात मनुष्य का कोई कार्य पूर्णतः आर्थिक नहीं होता है और न पूर्णतः अनार्थिक। यह भी कहा गया है कि मानव कल्याण अर्थशास्त्र का उद्देश्य नहीं, परिणाम है।

मार्शल ने अर्थशास्त्र के अध्ययन की प्रणालियों की नियत की। उसने अर्थशास्त्र के अध्ययन में आगमन और निगमन दोनों ही प्रणालियों को गाय के चलने के लिए दो ही पैरों की भाँति आवश्यक बताकर, आर्थिक अध्ययन को सन्तुलित बनाने का प्रयास किया। उन्होंने दोनों प्रणालियों का क्षेत्र निर्धारित किया और कहा कि सिद्धान्त यथाशनिक तथ्यों के आधार पर ही बनाये जाएँ, अर्थात् आगमन प्रणाली को अपनाएँ। किन्तु जहाँ ऐसा । हो सो वह निगम प्रणाली आवश्यक हो जाती है। मार्शल के अनुसार, अर्थशास्त्र की कोई विशेष प्रणाली नहीं है। प्रत्येक प्रणाली को अपने स्थान पर उपयोगी बनाने का प्रयास होना चाहिए।

  1. अर्थशास्त्र के नियम

मार्शल ने अर्थशास्त्र को एक शुज विज्ञान माना और उसके नियमों को प्राकृतिक नियम कहा। किन्तु साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि आर्थिक नियम प्राकृतिक विज्ञानों के नियमों को तुलना में कम निश्चित होते हैं। मार्शल के अनुसार, “नियम, शब्द का आशय एक सामान्य प्रवृत्ति की सामान्य व्याख्या से है जो कि लगभग निश्चित और सही होती है। इस प्रकार, किसी सामाजिक विज्ञान का नियम (अर्थात् सामाजिक नियम) सामाजिक प्रवृत्तियों की व्याख्या है, अर्थात् इस बात का वर्णन है कि कुछ परिस्थितियों में समाज के एक वर्ग का एक विशेष व्यवहार होने की सम्भावना है। आर्थिक नियम या आर्थिक प्रवृत्तियों की व्याख्याएँ सामाजिक नियम के सदश्य हैं और व्यवहार के उस भाव से सम्बन्धित है जिसमें मुख्य प्रेरणाओं को एक मौदिक मूल्य द्वारा मापा जा सकता है।”

मार्शल का कहना है कि प्राकृतिक विज्ञानों की तुलना में तो अर्धशास्त्र के नियम कम निश्चित है किन्तु ‘अन्य सामाजिक विज्ञानों से अधिक निश्चित।’ उनके अनुसार, “अर्थशास्त्र के नियमों की तुलना ज्वार भाटे के नियमों से की जानी चाहिए न कि आकर्षण शक्ति के सरल और निश्चित नियम से। कारण यह है कि मनुष्य के कार्य इतने भिन्न और अनिश्चित होते हैं कि प्रवृत्तियों की श्रेष्ठतम व्याख्याएँ भी जो कि मानवीय विज्ञान में की जा सकती हैं, सदैव दोषपूर्ण एवं गलत होती हैं।”

अनिश्चितता का कारण बताते हुए मार्शल लिखते हैं कि, “आर्थिक नियम भी उसी अर्थ में काल्पनिक है जिस अर्थ में कि प्राकृतिक विज्ञान के नियम । किन्तु अर्थशास्त्र में परिस्थितियों को स्पष्ट रूप से समझाना भौतिक शास्त्र की अपेक्षा अधिक कठिन होता है। अत: इसमें त्रुटि की अधिक आशंका रहती है।”

मार्शल की व्याख्या की कटु आलोचना हुई है और आधुनिक युग में उनके आलोचक प्रो० रॉबिन्स हैं। इनके अनुसार, अर्थशास्त्र के नियमों और प्राकृतिक विज्ञान के नियमों में कोई बुनियादी भेद नहीं हैं। उदाहरणार्थ, वह लिखते हैं कि वैज्ञानिक सामान्यीकरण का लक्षण इसका वास्तविकता से सम्बन्धित होना है। यही बात अर्थशास्त्र की प्रतिज्ञाओं के बारे में है। प्रत्येक वैज्ञानिक नियम कुछ दशाओं में हो सत्य होता है। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति का नियम भी उतना सरल नहीं है जितना कि मार्शल ने समझा है वह भी कुछ दशाओं में ही लागू होता है। यथा, यदि चन्द्रयान कक्ष से बाहर चला जाय, तो पृथ्वी की आकर्षक शक्ति का नियम क्रियाशील नहीं होगा। ज्वार भाटे का नियम भी इतने अनिश्चित नहीं हैं। पानी की मात्रा का घटना बढ़ना किसी नियम से ही संचालित होता है। यथार्थ में सभी प्राकृतिक नियम एक ही तरह के होते हैं। उनमें निश्चितता तथा अनिश्चितता का भेद नहीं होता। यह भेद तो हमारी जानकारी के कारण होता है। कुछ नियमों को हम अधिक जान लेते हैं जिससे हमारी व्याख्याएँ अधिक निश्चित हो जाती हैं किन्तु कुछ नियमों के बारे में हमारा ज्ञान अपर्याप्त होता है इसलिए हमारी व्याख्याएँ कम निश्चित होती हैं। सच तो यह है कि ‘अनिश्चित नियम’ स्वयं में एक विरोधाभास है, क्योंकि नियम तो निश्चित ही होते हैं और जो अनिश्चित हैं वह नियम नहीं हो सकता।

  1. निरन्तरता का सिद्धान्त

निरन्तरता का सिद्धान्त मार्शल के अर्थशास्त्र की एक मुख्य विशेषता है। वह लिखते हैं कि, “प्रकृति छलांग लगाकर नहीं वरन् धीमे-धीमे पगों द्वारा चलती है। (Nature non facit saltum)।” इससे सूचित होता है कि आर्थिक जगत में मनुष्य की विभिन्न क्रियाएँ परस्पर निरन्तरता के सूत्र द्वारा आबद्ध हैं। समझदार और साधारण व्यक्तियों की क्रियाओं के बीच निरन्तरता होती है। भिन्नता के साथ उनमें समानता भी होती है। इसी तरह, बाजार मूल्य और सामान्य मूल्य भी निरन्तरता के सूत्र द्वारा परस्पर जुड़े हुए हैं। एक घण्टे की अवधि के आधार पर जो मूल्य ‘सामान्य मूल्य’ है वही एक शताब्दी की अवधि के आधार पर ‘बाजार मूल्य’ हो जाता है। इस प्रकार बाजार मूल्य और सामान्य मूल्य में अन्तर का आधार समय है किन्तु समय तो स्वयं एक निरन्तर क्रम है। प्रकृति के अनुसार अल्प और दीर्घकाल में कोई निरपेक्ष नहीं है वरन् धीरे-धीरे एक-दूसरे में मिल जाते हैं। जो समय एक घटना के लिए अल्पकाल है वही दूसरी समस्या के लिए दीर्घकाल हो जाता है। इस प्रकार अल्पकाल और दीर्घकाल के बीच कोई बड़ी खाई नहीं होती वरन् ये अर्द्ध दीर्घकाल (Quasi long period) के माध्यम द्वारा परस्पर मिल जाता है। पल-पल मिलकर युग बनता है। युग और पल एक-दूसरे से पृथक् होते हुए भी परस्पर समय की अविच्छिन्न कड़ी द्वारा जुड़े रहते हैं। दोनों में जो अन्तर है वह ‘अंश’ का अन्तर है ‘गुण’ का नहीं। इसी तरह बाजार मूल्य और सामान्य मूल्य में अन्तर केवल अंश का है।

लगान और ब्याज के अन्तर का आधार भी समय है । वह लिखते हैं कि चल पूँजी या पूँजी के नये विनियोगों के सम्बन्ध में जो आय ब्याज कहलाती है वह पूँजी के पुराने विनियोगों के सम्बन्ध में एक प्रकार का लगान आभास लगान होती है। परन्तु चल और अचल पूँजी तथा नये व पुराने विनियोगों के मध्य कोई स्पष्ट विभाजन रेखा नहीं होती है। एक प्रकार की आय दूसरे प्रकार की आय में मिल जाती है। इस प्रकार भूमि का लगान, सैद्धान्तिक और व्यवहारिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ रखते हुए भी, स्वयं एक अलग तत्त्व न होकर एक बड़ी जाति के एक वर्ग के समान है।”

इसी प्रकार, मनुष्य और मनुष्य कृतयन्त्रों में स्पष्ट अन्तर है तथा मनुष्य के श्रम की पूर्ति और माँग में कुछ विशेष गुण होते है जो भौतिक वस्तुओं की पूर्ति और माँग में नहीं होते। किन्तु इसके बावजूद भौतिक वस्तुएं मानव श्रम की ही सूचक है। अत: श्रम के मूल्य के सिद्धान्तों को श्रम-कृत वस्तुओं के मूल्य सिद्धान्तों से अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि दोनों ही एक सम्पूर्ण के भाग हैं। जिस प्रकार कि चिड़ियों और चौपायों में रूप सम्बन्धी अन्तर होते हुए भी सभी भागों में माँग-पूर्ति सन्तुलन का एक मूलभूत विचार विद्यमान है।

आर्थिक शब्दावली के क्षेत्र में भी निरन्तरता के सिद्धान्त का दर्शन होता है। उदाहरणार्थ, आवश्यक-अनावश्यक, उत्पादक अनुत्पादक, पूँजीगत-अपूँजीगत वस्तुओं में भेद केवल अध्ययन की सुविधा के लिए है, व्यवहार में ऐसा स्पष्ट अन्तर नहीं होता।

  1. उपभोग एवं उपभोक्ता की बचत

संस्थापित अर्थशास्त्रियों के असमान मार्शल ने जैसा कि उसने खुद ही बताया, उपभोग के अध्ययन को समुचित स्थान दिया है। यद्यपि उपभोग के अध्ययन का महत्त्व आस्ट्रियन सम्प्रदाय के सदस्यों की रचनाएँ प्रकाशित होने के बाद ही समझा जा सका था तथापि मार्शल ने आवश्यकताओं और उपभोग के अन्य पहलुओं पर अधिक विस्तार के साथ विचार किया। उसके अनुसार, उपभोग समस्त आर्थिक क्रियाओं का प्रारम्भ और अन्त है और इसीलिए उसने अपनी पुस्तक में उपभोग के अध्ययन को एक मुख्य स्थान दिया।

उपभोक्ता की बचत- यद्यपि यह विचार मार्शल से पूर्व भी ज्ञात था (और तब इसे उपभोक्ता के लगान के नाम से जाना जाता था) तथापि इसे व्यवस्थित रूप मार्शल ने ही प्रदान किया। इसी कारण अब वह मार्शल के नाम से ही जुड़ गया है। मार्शल के अनुसार, उपभोक्ता की बचत वह बेशी सन्तोष है जो कि एक उपभोक्ता किसी वस्तु का उससे कम मूल्य पर, जोकि वह वस्तु से वंचित रहने के बजाय देने को तैयार हो जाता खरीद करके प्राप्त करता है। अन्य शब्दों में यह वस्तु की खरीद से प्राप्त मुद्रा की कुल उपयोगिता और मुद्रा को खर्च करने में त्यागी गई मुद्रा को कुल उपयोगिता का अन्तर होती है। स्पष्ट है कि यह धारणा कुल और सीमान्त उपयोगिता के विचार पर निर्भर है।

मार्शल की इस धारणा में अनेक संशोधन हुए हैं और तीव्र आलोचनाएँ भी। उनके समकालीन विद्वान प्रो० निकलसन ने इस धारणा को काल्पनिक, अव्यावहारिक एवं असत्य बताया। उनका कहना था कि इस बात के कहने से क्या लाभ कि 100 पौण्ड वार्षिक आय को उपयोगिता 1000 पौण्ड वार्षिक आय के बराबर है। मार्शल ने इस आलोचना के उत्तर में कहा-“इसमें कोई लाभ नहीं है। किन्तु यदि हम मध्य अफ्रीका और इंग्लैण्ड के जीवन की तुलना करें, तो ऐसा करना उपयोगी हो सकता है। मध्य अफ्रीका में जो चीजें मुद्रा द्वारा खरीदी जायें वे औसतन उतनी सस्ती हो सकती हैं जितनी कि यहाँ (इंग्लैण्ड में), किन्तु अनेक चीजें ऐसी भी हैं जो कि वहाँ कदापि नहीं खरीदी जा सकती हैं, जिस कारण वहाँ 1000 पौण्ड प्रतिवर्ष कमाने वाला व्यक्ति उतना सुखी नहीं हो सकता जितना कि यहाँ 300-400 पौण्ड प्रतिवर्ष कमाने वाला व्यक्ति होता है।”

मार्शल के स्पष्टीकरण को सन्तोषजनक तो नहीं कह सकते किन्तु यह मानना पड़ेगा कि क्रेता को क्रय में लाभ होता है। क्रय में ही क्यों, सभी आर्थिक क्रियाओं में लाभ होता है या होने की आशा है, अन्यथा व्यक्ति उन्हें करे ही क्यों। जब ऐसा है तो केवल क्रेता के नाम से ही सिद्धान्त बनाने की क्या जरूरत थी। फिर यह बेशी (Surplus) एक मानसिक स्थिति है, इसकी कोई ठोस भौतिक सत्ता नहीं है। यदि हम अर्थशास्त्र को विज्ञान की श्रेणी देना चाहते हैं, तो उसमें केवल वास्तविक और वस्तुपरक वस्तुओं को ही स्थान दिया जा सकता है।

आवश्यकताओं के महाल के विषय में मार्शल ने लिखा है कि ये मनुष्य को परिश्रम करने हेतु प्रेरित करती हैं, जिससे फिर उसका भौतिक एवं मानसिक स्वास्थ्य सुधरता है।

  1. मांग की लोच

अर्थशास्त्र को मार्शल ने ‘लोच’ का विचार भी दिया है। जैसा कि केन्ज ने कहा है, “शब्दावली और विश्लेषण में सहायक उपकरण प्रदान करके मार्शल ने अर्थशास्त्रियों की उतनी सेवा नहीं को जितनी किलोच का विचार प्रदान करके की है।

यह सर्वप्रथम मार्शल होघे, जिन्होंने लोच का विचार प्रचलित किया। माँग की लोच का आशय मूल्य में परिवर्तनों के अनुसार किसी वस्तु की माँग में होने वाले परिवर्तन की गति से है। उन्होंने मांग को लोच के पाँच भेद किये-पूर्णतः लोचदार, अत्यन्त लोचदार, लोचदार, कम लोचदार और बेलोच। यथार्थ में लोच के विचार के अन्वेषण (investigation) के लिए एक विस्तृत क्षेत्र खोल दिया। इसके बिना मूल्य या वितरण के प्रगतिशील सिद्धान्तों का प्रस्तुतीकरण कदापि सम्भव न हुआ होता। व्यावहारिक जगत में भी माँग की लोच के विचार का बहुत महत्त्व है। प्रत्येक उत्पादक अपनी वस्तु का मूल्य निर्धारित करते समय वस्तु की माँग की लोच का ध्यान रखता है। वित्त मन्त्री पो कर लगाते समय इसका अध्ययन करते हैं।

  1. आभास लगान

‘आभास लगान’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम मार्शल ने किया। उन्होंने समय के प्रभाव की विवेचना करते हुए बताया है कि एक मशीन भी एक विशेष प्रकार की आय प्राप्त कर सकती है जोकि लगान के समान हो और जिसे लगान कहा जा सकता है किन्तु उसे लगानवत् या आभास लगान कहना अधिक उपयुक्त होगा। अन्य शब्दों में आभास लगान अचल पूँजी पर अल्पकाल में प्राप्त हुई आय है। मजदूरी में भी लगान का अंश पाया जाता है क्योंकि श्रमिक में भी अल्पकाल में दुर्लभता का गुण विद्यमान हो सकता है। मार्शल ने यह सत्य स्पष्ट किया कि सभी उत्पत्ति साधनों में समय-समय पर भूमि को विशेषता अर्थात् (पूर्ति की सीमितता) पाई जा सकती है और इसलिए उन्हें भी भूमि को बेशी आय (लगान) के समय साधारण आय से अधिक होती है। इस प्रकार मार्शल ने लगान को अलग आय न मानकर सामान्य आर्थिक विश्लेषण का एक अंग माना और बताया कि भूमि के लगान का अध्ययन माँग और पूर्ति के सामान्य सिद्धान्त द्वारा किया जा सकता है।

  1. उत्पत्ति के साधन

प्रोफेसर मार्शल के अनुसार, भूमि और श्रम ये दो उत्पत्ति मुख्य साधन हैं। पूँजी के बारे में उसने बताया कि यह भौतिक वस्तुओं के उत्पादन के लिए तथा उन लाभों की प्राप्ति के लिए, जो कि साधारणतः आय का भाग गिने जाते हैं, संचित करके रखी गयी राशि है। इस प्रकार, पूँजी उत्पत्ति का एक गौण या व्युत्पादित (derived) साधन है। संगठन एक प्रकार का श्रम ही है। फलस्वरूप भूमि और श्रम ही उत्पत्ति के प्राथमिक साधन (primary factors) हैं। इनमें भी मनुष्य सक्रिय है जबकि भूमि (प्रकृति) निष्क्रिय। इस पर भी वह (भूमि) उत्पादन में एक महत्त्वपूर्ण भाग लेती है। उत्पादन और उपभोग सम्बन्धी सभी क्रियाओं के पीछे केन्द्रीय शक्तिपुंज मनुष्य है। चूंकि उसकी क्षमताएँ और उसकी परिस्थिति वातावरण द्वारा निर्मित होती हैं, इसलिए प्रकृति की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण होती है।

विभिन उत्पत्ति साधनों द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के सम्बन्ध में मार्शल ने लिखा है यह पूरक (complementary) और प्रतियोगी (competitive) दोनों प्रकार के हैं। कभी-कभी वे उत्पादन को कियाओं में प्रयोग किये जाने के सम्बन्ध में एक-दूसरे से प्रतियोगिता करते हैं (जबकि उत्पादक पतिस्थापना नियम लागू करता है। किन्तु इसका अन्तिम परिणाम बुरा नहीं होता। उदाहरणार्थ, यदि सम को मशीन के प्रयोग द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया जाता है तो जरूरी नहीं है कि श्रम सदा बेकार रह जायगा। उसे मशीन बनाने वाले उद्योगों में काम मिल सकता है। इस प्रकार दीर्घकाल में ये सब उत्पत्ति सापन एक दूसरे के पूरक होते हैं। राष्ट्रीय आय इनके सहयोगपूर्वक कार्य करने का ही परिणाम है। ये एक दूसरे के लिए रोजगार का क्षेत्र उपलब्ध करते हैं। एक अकेले साधन के लिए रोजगार की कोई सम्भावना नहीं हो सकती है, यह तो अन्य साधनों द्वारा उपलब्ध की जाती है। उसने इस बात पर बल दिया कि राष्ट्रीय आय, जो उत्पत्ति साधनों के सहयोग का फल है और जो इनकी वृद्धि के साथ साथ बढ़ती है, प्रत्येक साधन के लिए माँग का एकमात्र सोत भी होती है।

  1. जनसंख्या

जनसंख्या के प्रश्न पर मार्शल प्राय: माल्थस से सहमति रखते हैं। मार्शल के अनुसार, देश की जनसंख्या या तो प्राकृतिक कारणों से बढ़ जाती है या आप्रवसन (immigration) द्वारा। विवाह मुख्यतः जलवायु सम्बन्धी दशाओं और मनुष्य के पारिवारिक भरण-पोषण के साधनों से प्रभावित होते हैं। उसका कहना है कि स्वस्थ और बलवान बच्चों वाले बड़े परिवार देश के लिए एक सम्पत्ति के समान हैं और इसलिए यह कहना सही नहीं है कि जनसंख्या में वृद्धि तथा राष्ट्र की आर्थिक सम्पन्नता के लिए हानिकारक होती है। एक बड़े परिवार के सदस्य एक-दूसरे को शिक्षित कर सकते हैं और एक छोटे परिवार के सदस्यों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान और बलवान हो सकते हैं।

  1. श्रम-विभाजन

प्रोफेसर मार्शल का कहना है कि विशेष वस्तुओं के लिए बढ़ी हुई माँग और बाजार के विस्तार इन दो घटकों ने श्रम विभाजन को जन्म दिया है। श्रम विभाजन और मशीनों में सुधार साथ-साथ चलते हैं। श्रमिकों की निपुणता और मशीनों का सर्वोत्तम ढंग से उपयोग करने के लिए यह आवश्यक प्रतीत हुआ है कि श्रम विभाजन को अपनाया जाय। यही नहीं, उत्पादन में अधिकतम मितव्ययिता प्राप्त करने की दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति को निरन्तर रोजगार इस तरह मिलते रहना चाहिए कि उसकी निपुणता और योग्यता का सर्वोत्तम लाभ उठाया जा सके। स्पष्ट है कि मार्शल ने श्रम-विभाजन के महत्त्व और लाभों को जान लिया था।

  1. उत्पत्ति के नियम

उत्पत्ति के नियमों का मार्शल ने पहली बार वैज्ञानिक वर्णन किया, जो त्रुटिपूर्ण होते हुए भी आधुनिक सिद्धान्त का आधार बना। उन्होंने उत्पत्ति के तीन नियम (हास, वृद्धि एवं समता) बताये। आजकल ये एक ही नियम-परिवर्तनशील अनुपातों के नियम (Law of Variable Proportions) के तीन चरण माने जाते हैं। दूसरा सुधार यह हुआ कि सीमान्त उपज के बजाय औसत उपज को उत्पादन घटने-बढ़ने का आधार माना गया है। मार्शल ने बताया कि रिकार्डो ने उत्पत्ति हास्य नियम की परिभाषा ठीक-ठीक शब्दों में नहीं की थी। उन्होंने नियम को इस तरह परिभाषित किया है-“भूमि की खेती में प्रयुक्त पूँजी और श्रम में वृद्धि सामान्यतः उपज की मात्रा में आनुपातिक रूप से कम वृद्धि सम्भव बनाती है बशर्ते कृषि कला में भी साथ-साथ सुधार न हो जाय।” उसने यह स्वीकार किया कि कृषि कला में सुधार होने पर आनुपातिक वृद्धि सम्भव है किन्तु यह केवल अस्थायी होगी। उसने बार बार सीमान्त इकाई, सीमान्त उपज, कृषि सीमान्त आदि शब्बों का प्रयोग किया है। उसके अनुसार प्रम और पूँजी का सीमान्त इकाई (marginal dose) न्यूमतम हो। जरूरी नहीं है। उनका विश्वास है कि श्रम और पूंजी के प्रति प्रकृति की उर्वरता भूमि से पत्येक खण्ड के लिए और विभिन्न फसलों के लिए अलग-अलग है। भूमि की उर्वरता निरपेक्ष नहीं है। यह स्थान और समय सापेक्षा होती है अर्थात परिस्थितियों के बदलने पर इसमें भी परिवर्तन हो जाया करते हैं। उसके मतानुसार, नियम मछली उत्पादन केन्द्रों, खानों और खदानों में भी उसी प्रकार लागू होता है जैसे कृषि में।

  1. प्रतिनिधि फर्म

प्रोफेसर मार्शल । आर्थिक सिद्धान्त में एक नया विचार-प्रतिनिधि फर्म (representative firm) का विचार प्रचलित किया है। उसके अनुसार, प्रतिनिधि फर्म वह है जिसे चलते हुए काफी समय बीत चुका है, जिसे काफी सफलता मिली है, जिसका प्रबन्ध सामान्य योग्यता से किया जा रहा है और जिसे सामान्य रूप में वह सब आन्तरिक एवं बाह्य मितव्ययिताएँ (internal and enteral economies) प्राप्त हैं जो कि उत्पत्ति की कुल मात्रा के सम्बन्ध में उदय होती हैं। मार्शल की सम्पति में प्रतिनिधि फर्म एक औसत फर्म होती है जो मितव्ययिताओं की दृष्टि से विकास की औसत अवस्था में है। बाह्य मितव्ययिताओं से उसका अभिप्राय उन मितव्ययिताओं से है जो कि उद्योग के सामान्य विकास पर निर्भर होती हैं। आन्तरिक मितव्ययिताएँ वह हैं जो व्यक्तिगत फर्म की प्रबन्ध-कुलशलता, संगठनात्मक निपुणता और प्रसाधनों के कारण खुद संगठन के भीतर से ही मिलती है।

प्रतिनिधि फर्म के सिद्धान्त की भी आलोचना हुई है। प्रो० काल्डर ने इसे काल्पनिक चीज बताया है, जिसका वास्तविक जगत में अस्तित्व नहीं होता। प्रो० रॉबिन्सन ने भी इस विचार को भ्रामक, अनावश्यक और निरर्थक बताया है। इसकी एक बड़ी त्रुटि यह है कि इसका आधार चक्रवत तर्क (circular reasoning) है। प्रतिनिधि फर्म वह है जिसमें लाभ (या हानि) नहीं होते, अर्थात् जिसका निर्माण का औसत व्यय औसत मूल्य के बराबर होता हो। अन्य शब्दों में मूल्य से प्रतिनिधि फर्म का पता चलता है, प्रतिनिधि फर्म से मूल्य का नहीं। प्रतिनिधि फर्म मूल्य को निर्धारित नहीं कर सकती, क्योंकि वह स्वयं ही मूल्य से निर्धारित होती है। बाद में पीग ने इस विचार में संशोधन करके इसे ‘साम्य फर्म’ (equilibrium firm) की संज्ञा दी।

  1. स्थैतिक दशा का विचार

मार्शल के अनुसार, एक स्थैतिक (static) दशा में समय का प्रभाव कम दिखाई देता है। वहाँ उपभोग, उत्पादन, विनिमय और वितरण सम्बन्धी सामान्य दशाएँ प्राय: अपरिवर्तित या गति रहित होती हैं। ऐसी दशा में लोगों की औसत आय एवं प्रति व्यक्ति उत्पादित वस्तुओं की मात्रा पीढ़ियों तक वही रहती है। परिणाम यह होता है कि व्यवसाय में तेजी और मन्दी के बावजूद प्रतिनिधि फर्म का आकार पूर्ववत् रहता है, मितव्ययिताओं एवं कुल उत्पादन में स्थिरता रहती है। ऐसी परिस्थिति में उत्पादन लागत ही मूल्य को निर्धारण करेगी और दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन सामान्य मूल्यों में कोई अन्तर न होगा। किन्तु एक आधुनिक समाज में ऐसा नहीं है। यहाँ उत्पादन में, उत्पादन विधि और लागत में लगातार परिवर्तन होते रहते हैं। ये सदा ही माँग के स्वभाव एवं विस्तार को प्रभावित करते हैं और स्वयं भी उससे प्रभावित होते हैं तथा पारस्परिक समायोजन के लिए उनको समय की आवश्यकता पड़ती है।

  1. प्रतिस्थापन नियम

मार्शल का कहना है कि आधुनिक जगत में उत्पादन बहुत जटिल हो गया है। प्रायः सभी उत्पत्ति साधनों पर विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न व्यवसायियों और सेवायोजकों का अधिकार है। जब सेवायोजन वही उत्पत्ति साधन चुनता है जो कि उसे लाभप्रद जंचता है। जो कीमतें वह उन साधनों के लिए चुकाता है उनका योग एक नियम के तौर पर उन कीमतों के योग से कम होता है जो कि वह साधनों के अन्य सेट के लिए प्रतिस्थापन (substitution) करने पर देता है। इससे पता चलता है कि सेवायोजक सदा ही एक कम महंगे साधन का प्रयोग करता है। यदि उत्पादन के दो ढंग है- एक निपुण और दूसरा अनिपुण, तो इनमें से वही साधन इस सिद्धान्त के अनुसार प्रयोग किया जायेगा जो कि लागत के अनुपात में अधिक कुशल हो और एक सीमान्त एक ऐसा होगा जहाँ वह विभिन्न साधनों के प्रयोग में तटस्थ रहेगा। किन्तु इस नियम के आचरण में कई विघ्न पड़ते हैं, जैसे-वभिक, संघ, नियम, प्रथाएँ, साहस की कमी आदि।

  1. मौद्रिक सिद्धान्त

मौद्रिक समस्याओं के क्षेत्र में मार्शल को मौलिकता के सबसे अधिक वर्णन होते हैं । मुद्रा उसके भाषणों में एक प्रिय विषय रहा है। मौद्रिक सिद्धान्त से सम्बन्धित उसकी मौलिक देन संक्षेप में निम्न प्रकार है-

  1. अन्य वस्तुओं की भाँति मुद्रा का भी मूल्य उसकी राय में मांग और पूर्ति की शक्ति का फलन (function) है। मुद्रा के लिए माँग को उस क्रय शक्ति के स्टाक की औसत मात्रा में मापा जा सकता है जो कि प्रत्येक व्यक्ति सदा अपने पास तरल रूप में रखने का इच्छुक है। व्यक्ति मुद्रा को तरल रूप में रखने के लिए क्यों सोचता है? इस सम्बन्ध में उसका कहना है कि मुद्रा सम्पत्ति के अन्य रूपों की तुलना में अधिक लाभप्रद होती है। उसको राय में ‘चलन-वेग-दृष्टिकोण’ (Velocity-rapidity of circulation approach) की तुलना में मांग एवं पूर्ति दृष्टिकोण (supply and demand approach) कहीं अधिक उत्तम है और मुद्रा-मूल्य की धारणा जटिलताओं से पूर्ण है। मार्शल ने करैन्सी में लोगों के बढ़ते हुए अविश्वास के कारण कीमतों को वृद्धि की समस्या पर भी विचार किया है। वह इस बात को भी जानते थे कि कीमत स्तर उन परिवर्तनों से प्रभावित होता है जोकि लोगों के नगद मुद्रा के स्टाक में होते हैं।
  2. उनकी ब्याज की वास्तविक एवं मौद्रिक दरों (real and monetary rates of interest) से सम्बन्धित स्पष्टीकरण और इसका व्यापार चक्रों (trade cycles) के सन्दर्भ में उपयोग बहुत ही सराहनीय और स्पष्ट है। इतनी स्पष्टता उसके पूर्वाधिकारियों के विचारों में न थी। यह मार्शल ही थे जिन्होंने सर्वप्रथम उस कारण-परिणाम प्रक्रिया को समझाया जिसके द्वारा मुद्रा को अतिरिक्त पूर्ति कीमतों पर प्रभाव डालती है। बट्टा दर (discount) को क्या भूमिका है? इसे भी सर्वप्रथम उन्होंने ही स्पष्ट किया।
  3. क्रय-शक्ति सिद्धान्त (Purchasing Power Parity Theory) को प्रोफेसर कैसल के नाम से सम्बन्धित किया जाता है, क्योंकि उसने इसे रिकार्डो द्वारा प्रारम्भिक रूप में प्रस्तुत करने के बाद आधुनिक दशाओं के अनुरूप पुनर्कथित (restate) किया था। यथार्थ में इस सिद्धान्त का मार्शल द्वारा 1899 में ही भारतीय करैन्सी समिति के समक्ष रखे गये पत्र में अनुमान (andticipate) कर लिया गया था।
  4. सूचकांक बनाने की श्रृंखला पद्धति (Chain Indexing) भी सर्वप्रथम मार्शल ने हो सुझाई।
  5. उसी ने द्विधातुमान के विकल्प के रूप में यह सुझाया कि स्वर्ण-रजत मिश्रित धातुमान (symmetallism) के आधार पर पत्र-मुद्रा प्रचलित की जाय किन्तु अव्यावहारिकता के कारण इस सुझाव की कटु आलोचना हुई।
  6. लम्बी अवधि के अनुबन्धों की दशा में ऐच्छिक प्रयोग के लिए एक सरकारी तालिका वर्द्धमान (official tubular standard) का सुझाव भी मार्शल ने ही दिया।

मार्शल की आलोचनाएँ (Criticism of Marshall)

मार्शल ने आर्थिक सिद्धान्त को जीवन को यथार्थताओं के अनुरूप ही ढालने और उसे एक फलदायक विज्ञान बनाने के लिए जो प्रयास किए उनकी कई आलोचनाएँ हुई हैं। इन आलोचनाओं का सार नीचे दिया गया है-

  1. त्रुटिपूर्ण मान्यताएँ- मार्शल ने अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हुए सदा एक वाक्यांश-“यदि अन्य बातें समान रहें’ का प्रयोग किया है। इस प्रकार, मार्शल यह मानकर चले हैं कि कुछ बातें समान रहने अर्थात् परिवर्तित न होने पर ही उनके सिद्धान्त कार्यशील हो सकेंगे। आलोचकों का कहना है कि जिन बातों के समान रहने की चर्चा मार्शल करते हैं उनमें परिवर्तन होता रहता है। अत: उनको मान्यता गलत है और इसलिए उनके नियम भी त्रुटिपूर्ण हैं।

हमारी सम्मति में यह आलोचना निराधार है। कारण, अर्थशास्त्र का विषय ‘मनुष्य’ है। इसमें सम्बन्धित कुछ ऐसी सीमाएँ हैं, जिन्हें मान्यताओं के रूप में स्वीकार करना ही पड़ेगा।

  1. काल्पनिक विचार- मार्शल द्वारा प्रतिपादित ‘उपभोक्ता की बचत’ और ‘प्रतिनिधि फर्म’ के विचार कोरी कल्पना पर आधारित हैं और व्यावहारिक जगत में क्रियाशील नहीं होते।
  2. वैज्ञानिकता की उपेक्षा- कहा गया है कि मार्शल के विचारों में वैज्ञानिक शुद्धता का अभाव है। जैसा कि हैने ने कहा है. यथार्थवादी बनने की धुन में वह कभी-कभी एक विशुद्ध वैज्ञानिक के उद्देश्यों से दूर चले गये हैं। उन्होंने विवेचन ‘कारण’ और ‘परिणाम’ के नियम पर बल देते हुए शुरू किया किन्तु उसका पालन नहीं कर सके। घटनाओं का एक यथार्थवादी विवरण देने हेतु वे प्रत्येक ‘कारण’ को एक ‘परिणाम के रूप में मान लेते हैं और फिर प्रत्येक परिणाम को एक अन्य ‘परिणाम’ का ‘कारण’ । उदाहरणार्थ, मूल्य निर्धारण के कारण परिणाम के आधार पर स्पष्ट करने हेतु यह सुझाव देने के बाद कि मूल्य का निर्धारण माँग और पूर्ति के द्वारा होता है वह इस बात का विवेचन करने लगते हैं कि माँग और पूर्ति स्वयं भी मूल्य के द्वारा निर्धारित होते हैं। यही नहीं, कीमत के विवेचन में वह बताते हैं कि कीमत ही वस्तु के वैकल्पिक प्रयोगों (alternative uses) को निश्चित करती है। अल्पकाल में मूल्य निर्धारण की समस्या का विवेचन करते हुए उन्होंने एक व्यक्तिगत उपक्रमों का दृष्टिकोण अपनाया है, जिसका दीर्घकालीन प्रवृत्तियों और कारणों से तनिक भी सम्बन्ध नहीं है। अत: वह वास्तविक लागत से मौद्रिक लागतों पर चले जाते हैं और समाज को शुद्ध आय में विभिन्न उत्पत्ति साधनों के हिस्सों को श्रम और पूँजी आदि के लिए भुगतान बताते हैं।
  3. दोषपूर्ण मूल्य सिद्धान्त-अपने मूल्य सिद्धान्त में मार्शल हमें यह बताते हैं कि सामान्य मूल्य उत्पादन लागत के बराबर होता है तथा सभी मूल्य उत्पादन-लागतों के समकक्ष रहने की प्रवृत्ति दिखलाते हैं। इस व्याख्या से स्पष्ट है कि मार्शल ने अपने सिद्धान्त में उपयोगिता को महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं दिया है और अन्ततः वे भी रिकार्डो के समान यह कहने लगते हैं कि उत्पादन लागते मूल्य को निर्धारित करती हैं। “पहिले तो वह अल्पकालीन सन्तुलन को समझाने हेतु सीमान्त उपयोगिता और माँग कीमतों का प्रयोग करते हैं लेकिन बाद में सामान्य मूल्य को समझाने हेतु, लागत का सहारा लेते हैं। इससे प्रकट है कि उनका सीमान्त उपयोगिता सिद्धान्त और लागत सिद्धान्त का समन्वय दोषपूर्ण है।”
  4. स्थैतिक दृष्टिकोण- उनका मूल्य और वितरण सम्बन्धी विवेचन स्थैतिक (Static) है। उनकी प्रावैगिकता केवल यह बताने तक सीमित है कि परिस्थितियाँ एक सामान्य साम्य की ओर मुड़ने की प्रवृत्ति रखती हैं।
  5. समयावधियों का वर्गीकरण ठीक नहीं- उन्होंने समयावधियों का जो वर्गीकरण किया है वह ठीक नहीं है। अल्पकाल कहाँ समाप्त होता है और दीर्घकाल कहाँ प्रारम्भ होता है यह निश्चित रूप से बता सकना कठिन है। बाजार मूल्य और सामान्य मूल्य को वे एक-दूसरे से इतना अधिक पृथक् कर देते हैं कि अव्यावहारिकता और काल्पनिकता की बू आने लगती है। यह दोनों अवधियों के लिए मूल्य निर्धारण के अलग-अलग नियम देते हैं । यथार्थ में दोनों प्रकार के मूल्य इतने भिन्न नहीं है कि एक को निर्धारित करने वाले तत्त्व दूसरे को निर्धारित करने वाले तत्त्वों से बिल्कुल अलग हो जायें।
  6. पूर्ण प्रतियोगिता व एकाधिकार- मार्शल मूल्य निर्धारण की समस्या का विश्लेषण या तो पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत करते हैं या एकाधिकार के अन्तर्गत। किन्तु ये दोनों ही दशाएँ काल्पनिक हैं, जिस कारण उनका मूल्य सिद्धान्त अयथार्थवादी बन जाता है। वे इन दशाओं के मध्य की (अपूर्ण प्रतियोगिता की) परिस्थितियों में मूल्य निर्धारण की समस्या का विश्लेषण नहीं करते। यह कार्य तो श्रीमती जॉन राबिन्सन और चेम्बरलेन द्वारा सम्पन्न हुआ।
  7. साहस की उपेक्षा- वर्तमान युग में ‘साहस’ एक महत्त्वपूर्ण उत्पत्ति साधन है, किन्तु मार्शल ने इसकी उपेक्षा कर दी थी।
  8. मौलिकता का अभाव- मार्शल के विरुद्ध यह भी आरोप लगाया गया है कि उसके विचारों में मौलिकता (originality) का अभाव है। उनका प्रयास ‘नई बोतल में पुरानी शराब’ भरने जैसा है। किन्तु यह आरोप ठीक नहीं है। मार्शल ने पुराने विचारों को नये सन्दर्भ में प्रस्तुत करने के साथ-साथ अनेक नये सिद्धान्त भी प्रस्तुत किये हैं।
  9. अर्थशास्त्र की परिभाषा में दोष- मार्शल ने अर्थशास्त्र को जिस भाँति परिभाषित किया है उसमें एक दोष यह है कि उन्होंने अर्थशास्त्र को अन्य मानवीय क्रियाओं में सर्वथा मुक्त और स्वतन्त्र मान लिया है जबकि वास्तव में ऐसा विभाजन सम्भव नहीं है।
  10. अर्थशास्त्र के क्षेत्र का संकुचन- मार्शल ने अर्थशास्त्र के क्षेत्र को संकुचित कर दिया है, क्योंकि इसमें सामान्य मनुष्य और परिस्थिति के लिए ही स्थान रहने दिया है।
  11. उत्पत्ति के परस्पर विरोधी नियम- मार्शल ने उत्पत्ति के परस्पर विरोधी नियम बताये हैं, जो स्पष्टत: गलत हैं, क्योंकि प्रकृति में परस्पर विरोधी नियम सम्भव नहीं हो सकते।
  12. आर्थिक-वहत भाव का ध्यान नहीं- मार्शल के अर्थशास्त्र में आर्थिक वृहत भाव (macro-economic) को ध्यान में नहीं रखा गया है। सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के संचालन और विशेषत: व्यापार-चक्रों के विश्लेषण को कम महत्त्व दिया गया है। मार्शल स्वयं को आर्थिक अणु भाव (micro-economics) तक ही सीमित रखते हैं। उन्होंने फर्म और व्यक्ति के सन्तुलन को अधिक महत्त्व दिया है।
  13. आधुनिक प्रगतियों का प्रभाव- आलोचकों का कहना है कि मार्शल की पुस्तक ‘अर्थशास्त्र के सिद्धान्त’ का प्रकाशन होने के बाद से आर्थिक सिद्धान्त में बहुत प्रगतियाँ कर ली गई है, जिससे मार्शल द्वारा प्रतिपादित विवार समीचीन नहीं रह गये हैं। किन्तु इस सम्बन्ध में हमको याद रखना चाहिए कि आर्थिक सिद्धान्त में हुई प्रगतियाँ वास्तव में उस ठोस बुनियाद के कारण सम्भव हो सकी हैं जो कि मार्शल ने रखी थी।
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