अर्थशास्त्र / Economics

कार्ल मेंजर के प्रमुख आर्थिक विचार | सीमान्तवादी क्रान्ति में मेंजर का योगदान

कार्ल मेंजर के प्रमुख आर्थिक विचार | सीमान्तवादी क्रान्ति में मेंजर का योगदान

कार्ल मेंजर के प्रमुख आर्थिक विचार

कार्ल मेंजर को आस्ट्रियाई अथवा मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय का प्रवर्तक कहा जा सकता है- क्योंकि उनके मूल सिद्धान्तों की आधारशिला पर आस्ट्रियाई अर्थशास्त्र के भवन का निर्माण हुआ है। मेंजर के प्रमुख आर्थिक विचारों की व्याख्या निम्नलिखित प्रकार से की जा सकती है।

  1. आवश्यकताएँ

मेंजर ने संस्थापित अर्थशास्त्र के दोषों को दूर करके अर्थशास्त्र के कारण तथा परिणाम पर आधारित एक युक्त विज्ञान का रूप प्रदान किया था। मेंजर ने धन के स्थान पर अर्थशास्त्र को मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं का केन्द्र घोषित किया था। मेंजर का कहना था कि वस्तुओं का मूल्य इसलिए होता है क्योंकि उनमें उपयोगिता होती है क्योंकि उनके द्वारा मानव आवश्यकताओं की तुष्टि होती है। इस कारण किसी वस्तु की उपयोगिता उस वस्तु की मानव आवश्यकताओं की तुष्टि करने की शक्ति होती है।

  1. मूल्य निर्धारण का सिद्धान्त

कार्ल मेंजर का मूल्य निर्धारण का सिद्धान्त पूर्णत: व्यक्तिपरक है। उनके मतानुसार वस्तु की उत्पादन लागत का वस्तु के मूल्य पर प्रत्यक्ष कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। अपने इस तर्क को मेंजर ने एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझाया है। यद्यपि नदी के तट पर रेत के ढेर लगाने में काफी मानव श्रम का व्यय होता है परन्तु इसका कुछ भी मूल्य नहीं होता है। परन्तु इसके विपरीत स्वर्ण की अंगूठी, जो सड़क पर पड़ी हुई पाई जाती है, का मूल्य होता है यद्यपि प्राप्तकर्ता व्यक्ति के लिए इसको प्राप्त करने की उत्पादन लागत शून्य होती है। एक ओर अधिक श्रम करके भी मूल्य उत्पन्न नहीं होता है तथा दूसरी ओर बिना किसी श्रम के मूल्य प्राप्त हो जाता है। इसका क्या कारण है? मेंजर को इस प्रश्न का उत्तर देने में कोई कठिनाई नहीं है। इसका सीधा, सरल तथा सच्चा कारण यह है कि जबकि नदी के तट पर रेत के ढेर को कोई उपयोगिता नहीं है, स्वर्ण अंगूठी की भारी उपयोगिता है। मूल्य की परिभाषा करते हुए मेंजर ने लिखा है कि मूल्य “साकार वस्तुओं अथवा साकार वस्तुओं के समूह का हमारे लिए वह महत्त्व है जो इस कारण उत्पन्न होता है कि उनके उपयोग के द्वारा हमको सन्तोष प्राप्त होता है।”

  1. वस्तुओं का वर्गीकरण

कार्ल मेंजर का दूसरा विशेष योगदान वस्तुओं का वर्गीकरण है। दुर्लभता अथवा प्रचुरता के अनुसार वस्तुएँ आर्थिक तथा अनार्थिक दो प्रकार की होती हैं। किसी वस्तु को आर्थिक दृष्टि से वस्तु कहलाने के लिए उसमें निम्नलिखित चार बातों का होना आवश्यक है।

  1. वस्तु के लिये मानव आवश्यकता होनी चाहिए।
  2. वस्तु में ऐसे गुण होने चाहिए कि उसके द्वारा मानव आवश्यकताओं की तुष्टि हो सके।
  3. मनुष्य को यह ज्ञान होना चाहिए कि वस्तु में आवश्यकता की तुष्टि करने का गुण विद्यमान है।
  4. 4. वस्तु पर मनुष्य का पर्याप्त अधिकार अथवा नियंत्रण होना चाहिए जिससे कि मानव आवश्यकता को तुष्टि हो सके।

आर्थिक वस्तुओं के वर्गीकरण का आधार आर्थिक वस्तुओं की उपभोक्ता से समीपता है। प्रथम श्रेणी की वस्तुएँ वे आर्थिक वस्तुएँ होती हैं जो उपभोक्ता के निकटतम होती हैं तथा जिनका उपभोक्ता प्रत्यक्ष रूप से उपभोग करके अपनी आवश्यकताओं की तुष्टि करता है। दूसरी, तीसरी तथा चौथी श्रेणियों की वस्तुएँ उपभोक्ता से दूर होती चली जाती हैं। इस प्रकार आर्थिक वस्तुओं के वर्गीकरण का आधार वस्तुओं की उपभोक्ता के साथ निकटता तथा सम्बन्ध की प्रत्यक्षता है। उदाहरणार्थ, दूध जो उपभोक्ता की आवश्यकता की प्रत्यक्ष रूप से तुष्टि करने के कारण उपभोक्ता के निकटतम है प्रथम श्रेणी की वस्तु कहलायेगा। परन्तु दूध गाय के द्वारा प्राप्त होता है तथा इस कारण गाय दूसरी श्रेणी की वस्तु होगी। क्योंकि यह उपभोक्ता से दूध के द्वारा सम्बन्धित है। परन्तु गाय चारा खा कर दूध देती है। इस कारण चारा तीसरी श्रेणी की आर्थिक वस्तु होगा। परन्तु चारा खेत में उगाया जाता है तथा इस कारण खेत चौथी श्रेणी की आर्थिक वस्तु होगा। इन सब वस्तुओं में दूध उपभोक्ता से निकटतम तथा खेत उपभोक्ता से दूरतम है। वस्तुओं के वर्गीकरण की इस योजना को उपरोक्त चार्ट द्वारा समझा जा सकता है।

वस्तुओं का वर्गीकरण

वस्तुओं के उपरोक्त वर्गीकरण के द्वारा मेंजर के आंकलन सिद्धान्त (theory of imputation) का प्रतिपादन किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार नीची श्रेणी (lower order) की वस्तुओं का मूल्य प्रथम श्रेणी उपभोग वस्तुओं के मूल्य अथवा महत्त्व से प्राप्त होता है। यदि उपभोक्ता दूध का उपभोग करना बन्द कर देंगे तो गाय, चारा तथा खेत का वह गुण समाप्त हो जायेगा जिसके कारण वे आर्थिक वस्तुएँ कहलाती हैं।

  1. अर्थशास्त्र के अध्ययन की रीतियाँ

अर्थशास्त्र के अध्ययन की रीतियों के विषय पर मेंजर ने इतिहासवादी सम्प्रदाय, जिसने रिकार्डोवादी नियमन प्रणाली को समाप्त करके एकमात्र आगमन प्रणाली का प्रयोग करना आरम्भ किया था, कि कडी आलोचना की थी। इस सम्बन्ध में मेंजर शनलोर विवाद ने आर्थिक विचारों के इतिहास काफी परिधि पाप्त कर ली है। 1883 ई० में प्रकाशित अपनी पुस्तक Inquiries into Method of Social Sciences and particularly Political Economy में मेंजर ने निगमन तथा आगमन दोनों सालियों के लाभों की विस्तृत व्याख्या की थी तथा प्रसिद्ध जर्मन अर्थशास्त्री गस्टेव वांन शनलोर तथा अन्य जान इतिहासवादी अर्थशास्त्रियों की निगमन रीति का विरोध करने के लिए कड़ी आलोचना की थी। मेंजर का कहना था कि आर्थिक घटनाओं का सही प्रकार से अध्ययन करने के लिए दोनों अध्ययन रीतियों का प्रयोग समान रूप में आवश्यक था। इस प्रकार मेंज़र निगमन रीति को इसकी खोई हुई प्रतिष्ठिा पुनः प्रदान कराने में काफी महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करने संस्थापित सम्प्रदाय तथा इतिहासवादी सम्प्रदाय की परस्पर पूरक बनाकर एक-दूसरे के निकतम लाने का प्रयास किया था।

  1. वितरण का सिद्धान्त

वितरण के क्षेत्र में मेजर ने आंकलन सिद्धान्त की (theory of imputation) अपनाया था। उसने यह बाया था कि प्रत्येक उत्पादन साधन का मूल्य उसकी सीमान्त उत्पादकता पर निर्भर करता है। मेंजर ने वितरण की समस्या का अनूठे ढंग से अध्ययन किया था। यद्यपि मेंजर ऐसे पहले व्यक्ति नहीं थे जिसने वितरण की समस्या का अध्ययन विभिन्न वर्गों के बीच न करके विभिन्न साधनों की इकाइयों के बीच करने का सुझाव दिया था। उनसे पहले विल्हेम गौसन (Wilhelm Gossen) तथा वॉन थ्यूनन (Von Thunen) ने भी कुछ इसी प्रकार का दृष्टिकोण वितरण के सम्बन्ध में अपनाया था। उनके वितरण सम्बन्धी विचार दोषमुक्त नहीं है। प्रथम, मेंजर ने मजदूरी के निर्धारण में जीविका अर्जित करने की लागत के महत्व को नकार दिया है। दूसरे, मेंजर ने भूमि तथा पुनरुत्पादनीय वस्तुओं के बीच स्पष्ट भेद नहीं किया है।

  1. विनिमय

मेंजर के अनुसार विनिमय की क्रिया के द्वार मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की अधिकतम सन्तुष्टि सुविधापूर्वक कर सकता है। विनिमय के लिए मेंजर निम्नलिखित कुछ बातों को अनिवार्य मानते हैं।

(i) मनुष्य के पास ऐसी वस्तुएँ होनी चाहिए जिनका मूल्य दूसरे व्यक्ति के पास पाई जाने वाली वस्तुओं की अपेक्षा कम हो क्योंकि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की वस्तु के बदले में अपनी वस्तु विनिमय में तभी देगा जब उसे ऐसा करने से लाभ प्राप्त होगा। यह विनिमय के लिए अत्यन्त जरूरी है।

(ii) विनिमय के दोनों पक्षों को इस बात की जानकारी होनी चाहिए।

(iii) विनिमय करने वाले पक्षों को विनिमय करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त होना चाहिए।

(iv) विनिमय करने में उठाई जाने वाली असुविधा विनिमय के द्वारा प्राप्त किए जाने वाले लाभ की अपेक्षा कम होना चाहिए।

विनिमय को उपयुक्त शर्तों को बताने के बाद मेंजर कहते हैं कि विनिमय को शर्ते विनिमयकर्ताओं की संख्या, बाजार की स्थिति तथा विनिमय की जाने वाली वस्तु की पूर्ति तथा माँग के द्वारा निर्धारित की जाती है।

  1. मुद्रा

मुद्रा के विकास तथा उससे सम्बन्धित अन्य पक्षों को मेंजर ने विकसित किया था। मेंजर ने मुद्रा के मूल्य का (i) बाह्य मूल्य, (ii) आन्तरिक मूल्य, दो अर्थों में प्रयोग किया है। मुदा के बाह्य मूल्य का आशय उसने मुद्रा को क्रय शक्ति से लिया है तथा आन्तरिक मूल्य से आशय उसने उस शक्ति से लिया है जिसके द्वारा विनिमय को जाने वाली विभिन्न वस्तुओं का अनुपात निर्धारित किया जाता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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