अस्तित्ववाद की मूलभूत मान्यताएँ | अस्तित्ववादी दर्शन की विशेषताएँ | अस्तित्ववाद के सिद्धान्त

अस्तित्ववाद की मूलभूत मान्यताएँ | अस्तित्ववादी दर्शन की विशेषताएँ | अस्तित्ववाद के सिद्धान्त

अस्तित्ववाद की मूलभूत मान्यताएँ

विभिन्न अस्तित्ववादियों के विचारों से हम उसकी मूलभूत मान्यताएँ प्राप्त करते हैं जिन्हें नीचे दिया जाता है :-

(अ) सारतत्व से पहले अस्तित्व है (सार्त्र)। सारतत्व (एसेन्स) नित्य नहीं है। उसका निर्धारण मानव रुचि और चयन से होता है। उसकी वस्तुपरक सत्ता नहीं होती है।

(ब) अस्तित्व प्रत्यक्ष रूप से पहले अनुभव किया जाता है और सारतत्व उसके उपरान्त खोजा जाता है-(मार्सेल)। इसका तात्पर्य है कि मनुष्य की अनुभूति और खोज ही अस्तित्व को प्रकट करती है।

(स) जीवन की समस्याओं का हल बुद्धि से नहीं पूरे व्यक्तित्व से होता है। व्यक्ति चिन्तन करता है तो समस्याएँ उठती हैं। इस प्रकार इन समस्याओं का सम्बन्ध निजी व्यक्ति से होता है और उनकी सफलताएँ भी उसी प्रकार निर्भर होती हैं। समस्याओं का हल व्यक्ति अपने को भुलाकर नहीं उनमें अपने को डालकर करता है।

(द) अस्तित्व का अर्थ है संसार में मानवीय व्यक्ति की सत्ता को ही महत्व देना अन्य की सत्ता को नहीं। इस प्रकार न तो कोई ईश्वर है और न कोई अन्य मानवेतर शक्ति है। इस संसार में मनुष्य ही द्रष्टा और नियोजक होता है।

(य) व्यक्ति-व्यक्ति में सामंजस्य होता है लेकिन हरेक के अलग-अलग दृष्टिकोण हैं। हरेक रुचि और स्वतन्त्रता के साथ सम्बन्ध एवं सामंजस्य स्थापित करता है और संघर्ष भी करता है। सामाजिक सम्बन्धों पर व्यक्ति को पूर्णता प्राप्त होती है।

(र) धर्म और ईश्वर में विश्वास मनुष्य की निर्बलता है। अतएव इन दोनों से दूर रहना चाहिए। संसार ही सब कुछ है। मानवीय चेतना जगत का निर्माण करती है।

(ल) जीवन-विधि में विवेकपूर्णता और विवेकहीनता दोनों का प्रयोग होता है। जो कुछ व्यक्ति करता है वह ठीक है चाहे वह उचित एवं विवेकपूर्ण हो या अनुचित और विवेकहीन हो। यह इस वाद में मान्य है।

अस्तित्ववादी दर्शन की विशेषताएँ

विभिन्न अस्तित्वादी विचारकों के द्वारा जो कुछ इस सम्बन्ध में कहा गया है उनसे हमें अस्तित्ववाद की कुछ विशेषताएँ मालूम होती हैं। ये विशेषताएँ नीचे दी जा रही हैं :-

(i) केवल मनुष्य का अस्तित्व है, ईश्वर या अन्य का नहीं है- अस्तित्ववादी विचारकों का कहना है कि संसार में सभी प्राणी जीवित हैं परन्तु उनमें आत्मचेतना की मात्रा सबसे अधिक केवल मनुष्य में होती है ऐसी दशा में केवल मनुष्य का ही अस्तित्व माना जावे। मनुष्य के परे ईश्वर या अन्य परम तत्व (Absolute Element) नहीं है। प्रो० हीडेगर ने लिखा है : “यह सत्य है कि ईश्वर के सम्बन्ध में कहा जाता है, जैसा कि नीत्से ने बताया है, लेकिन ईश्वर का अभाव मात्र एक रहस्योद्घाटन है और एक प्रण है।”

(ii) मनुष्य अपने आपके लिए अस्तित्व रखता है- अस्तित्ववाद में विश्वास रखने वाले यह कहते हैं कि “मनुष्य अपने आप के लिए अस्तित्व में आता है (अर्थात् जन्म लेता है और जीवन व्यतीत करता है) और संसार को भी अपने आपके लिए अस्तित्व में लाता है जो अपने आपको निरन्तर अलग रखकर और प्रक्षेपित कर करता है।” ऐसा विचार जीन पॉल सार्च का है।

(iii) मनुष्य निरपेक्षतः नैतिक एकान्तता और उत्तरदायित्व रखता है- मनुष्य यद्यपि संसार में रहता है फिर भी उससे अप्रभावित रहता है। जो कुछ वह उचित-अनुचित समझता है, करता है। इसका उत्तर केवल मनुष्य पर है, समाज पर नहीं, परिस्थिति पर नहीं। अस्तित्ववाद का यह दृष्टिकोण प्रो० सात्र ने ही रखा है और ठीक भी क्योंकि अस्तित्ववाद एक वैयक्तिक मनुष्य के संकल्प का दर्शन होता है।

(iv) वास्तविकता आत्म सृजित होती है- अस्तित्ववाद का विश्वास वैयक्तिक संकल्प (Individual Will) में होता है। मनुष्य जो कुछ चाहता है करता है, जो कुछ करता है उसका उत्तरदायित्व उसी पर होता है, अतएव स्पष्ट है कि जो कुछ वह वास्तविक रूप में सृजन करता है, निर्माण करता है वह उसी के ‘आत्म’ (Self) द्वारा होता है। इसीलिए कहा गया है।

(v) मनुष्य विश्वास और तर्क में समन्वय का प्रयत्न करता है- अस्तित्ववादी एक प्रकार का पूर्णतया वैयक्तिक चिन्तन है । अतएव हरेक परिस्थिति में मनुष्य अपने आप के प्रति सचेतन होते हुए एक ऐसी धारणा बनाने की कोशिश में रहता है कि उसके विश्वास एवं तर्क में समन्वय होता रहे । ऐसा न होने पर उसको अपने अस्तित्व का बोध न होगा क्योंकि अस्तित्ववाद एक तनाव से उत्पन्न विचारधारा है।

(vi) मनुष्य में शिक्षा और पलायन के भाव होते हैं- अस्तित्ववादी विचारधारा में मनुष्य का सारा जीवन एक तनाव में चलता है। जीवन के भौतिक सुख एवं धार्मिक नियंत्रण के कारण मनुष्य के विचारों एवं व्यवहारों में एक संघर्ष होता है। इस संघर्ष का परिणाम आजीवन नैराश्य एवं पलायन होता है। यथार्थ समस्या का सामना अस्तित्ववादी नहीं करता है जिसका परिणाम भयंकर भी होता है। मनुष्य “एक व्यंग्यात्मक युवा”, “एक जीवित संशयवादी” और “एक नकारवादी” हो जाता है।

(vii) मनुष्य में ‘अहं’ की चेतना और पश्चाताप, अपराप, मुक्ति की भावना पाई जाती है- प्रो० कार्ल जैस्पर्स ने लिखा है कि अस्तित्ववादी के सामने यह विचार होता है कि “मैं एक अस्तित्व वाला हूँ’। इतना ही नहीं उसे यह ज्ञात होता है कि “जो केवल अस्तित्व वाला ही नहीं है बल्कि कुछ कर सकता है और उसे कुछ करना भी चाहिए।” मनुष्य अपने मूल तत्व के लिए चेतन रहता है। प्रो० सात्र ने भी लिखा है कि “constitute myself” अर्थात् मैं केवल अपने को शामिल करता हूँ। यह ‘अहं की चेतना ही है।

अहं की चेतना एवं आत्मा नैतिकता के फलस्वरूप मनुष्य में अपने आप किये गये कृत्यों का पश्चाताप होता है और “अपराध” या दोष) से ‘मुक्ति की प्राप्ति के लिए प्रयल मनुष्य करने लगता है। यह मुक्ति जीवन या अस्तित्व समाप्त करने में होता है।

अस्तित्ववाद के सिद्धान्त

ऊपर के विचारों से अब हम इस दर्शन के कुछ सिद्धान्तों को समझने-समझाने का प्रयत्न कर सकते हैं। सभी मतों के निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि इसमें नीचे लिखे सिद्धान्त हमें मिलते हैं-

(i) वैयक्तिकता का सिद्धान्त- अस्तित्ववाद एक प्रकार से वैयक्तिक मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन का दर्शन है। इस कथन के आधार पर हम कह सकते हैं कि इस दर्शन का पहला सिद्धान्त वैयक्तिकता का है इस सम्बन्ध में प्रो० सार्त्र ने लिखा है :-

“I am not only the being I was….and the being I have to be…but also the being I am to another.”

(ii) स्वतन्त्रता का सिद्धान्त- अस्तित्ववाद व्यक्तिगत मनुष्य की स्वतन्त्रता पर भी बल देता है। यह स्वतन्त्रता सीमारहित होती है जैसा कि प्रो० कार्ल जैस्पर्स ने लिखा है:

“My liberty so long as it refuses reality and remains for itself in the realm of possibility encounters no limits.”

स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में प्रो० सात्र ने भी कहा है कि मनुष्य स्वतन्त्र होने से रुकता नहीं है।

प्रो० नीत्से ने लिखा है कि “किसी सामाजिक परम्परा की परिपक्वता के चुने हुए सद्गुण और सौंन्दर्य स्वतः सक्रिय स्वतन्त्र मनुष्यों में ही फूलते-फलते हैं।”

(iii) नैतिकता का सिद्धान्त- यह सिद्धान्त हमें प्रो० गैबिरियल मार्सेल के विचारों में मिलता है। प्रो० मार्सेल ने लिखा है कि ‘यह अपूर्व ‘मैं’ तब तक अस्तित्व नहीं रखता है जब तक कि अपूर्व ‘तू’ न हो; वे दोनों एक दूसरे के साथ हो सकते हैं और एक दूसरे को उपस्थित करते है और एक दूसरे की अपूर्वता, आध्यात्मिक यथार्थता तथा क्रियाशीलता को कायम रखने में सहायता करते हैं।”

प्रो० मार्टिन हीडेगलर ने अपने विचारों में “भय” के सम्बन्ध में कुछ कहा है। इन विचारों में हमें नैतिकता का सिद्धान्त (Principle of Morality) मिलता है। “भय मुझे मेरे पूर्व-व्यवसायों से अलग हटाता है, मुझे एकान्त में बंद रखता है।…भय मनुष्य-प्राणी के अस्तित्व की विधि को प्रकट करता है।” इस भय से मनुष्य को चिन्ता होती है और वह अपने आप तथा संसार की ओर ध्यान देता है। इस प्रकार चिन्ता अस्तित्व की विधि की संरचना है।

इन शब्दों में नैतिकता का सिद्धान्त पाया जाता है।

(iv) अस्तित्व का सिद्धान्त- अस्तित्ववाद अस्तित्व के सिद्धान्त (Principle of Being or Principle of Essence) पर बल देता है। यह अस्तित्व वैयक्तिक रूप से अनुभव किया जाता है। इसका संकेत हमें प्रो० एच० जे० ब्लैकहैम के शब्दों में मिलता है-

“Existentialism also is a philosophy of Being, a philosophy of attestation and acceptance, and a refusal of the attempt to rationalize and to think Being. Being can be experienced in a personal venture to which philosophy is the call.”

Prof. H. J. Blackham.

(v) क्रिया, चुनाव और निर्माण का सिद्धान्त- अस्तित्ववादी अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए विभिन्न तरीकों को अपनाता है। यह अपने शरीर को सुख-दुःख में सहनशीलता के कारण पहचानता है अथवा योगियों की भाँति त्याग करता है अथवा अच्छे गुणों का निर्माण करता है और अपने आपको अपने पिछले जीवन एवं चीजों के साथ सम्बद्ध करता है। इस प्रकार चुनाव के द्वारा वह अपने अस्तित्व का प्रक्षेपण करता है।

(vi) मनोविश्लेषणवादी सिद्धान्त-अस्तित्ववाद में मनोविश्लेषण का भी पुट पाया जाता है। अस्तित्ववादी मनोविश्लेषण इस मूल सिद्धान्त पर आधारित है कि चरित्र के प्रत्येक संकेत व लक्षण की व्याख्या समग्र व्यक्तित्व में गौण एवं मुख्य संरचनाओं के द्वारा प्राप्त उनके एकीकरण से की जावे। उदाहरण के लिये हीनता की भावग्रंथि एक मुख्य संरचना है जो दूसरों के समक्ष अपने को हीनता के साथ प्रकट करने में पायी जाती है। इसी प्रकार से स्वतन्त्रता, भय, चिन्ता, कामुकता आदि भावों की मनोविश्लेषणवादी व्याख्या पाई जाती है।

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