शिक्षाशास्त्र / Education

शिक्षा-दर्शन | शिक्षा का तात्पर्य | दर्शन का तात्पर्य

शिक्षा-दर्शन | शिक्षा का तात्पर्य | दर्शन का तात्पर्य | Education-Philosophy in Hindi | Meaning of education in Hindi | Meaning of philosophy in Hindi

शिक्षा-दर्शन 

शिक्षा और दर्शन मनुष्य मात्र की अपनी निधि है। इसी के कारण वह पशु-वर्ग से भिन्न प्राणी माना जाता है। मनुष्य को जन्म से शरीर और मन मिला है। मन की क्रियाएँ शरीर के सभी अंगों से पूरी होती हैं। शरीर का एक अंग मस्तिष्क है जिसके द्वारा सभी क्रियाएँ संचालित और नियन्त्रित होती हैं। मस्तिष्क की एक बड़ी विशेषता जिज्ञासा है जिसके आधार पर मनुष्य अपने आप, अपने आस-पास की चीजों और अपने से दूर की चीजों व तथ्यों को जानने की कोशिश करता है। यहाँ उसके विचार-चिन्तन का प्रयोग होता है और जब मनुष्य संसार एवं संसार से परे-दूर की चीजों पर चिन्तन करना शुरू करता है तो वह दर्शन बन जाता है, इसलिए मनुष्य का चिन्तन ही उसका दर्शन है। यह एक स्वाभाविक स्थिति है जो वह अपने अनुभव एवं ज्ञान के फलस्वरूप प्राप्त करता है। अनुभव और ज्ञान ग्रहण करने की क्रिया को शिक्षा कहा जाता है जिसके लिए मनुष्य ही क्षम्य है। दर्शन और शिक्षा इस दृष्टि से मनुष्य की अपनी निधि हैं, अपनी विशेषताएँ हैं और इनके बल पर ही मनुष्य आज इतना आगे बढ़ सका है। अतएव हमें भी शिक्षा- दर्शन एवं शिक्षा आदि के बारे में कुछ विस्तार से जानना चाहिए।

शिक्षा का तात्पर्य

शिक्षा शब्द का तात्पर्य सीखना, जानना, अनुभव लेना अथवा ज्ञान प्राप्त करना होता है जिससे मनुष्य का विकास होता है और मनुष्य आगे बढ़ने में समर्थ होता है (The word education means to learn, to know, to get experience or attain knowledge so that man develops and becomes capable of advancement.) ऐसी  स्थिति में विचारकों ने शिक्षा को एक क्रिया अथवा प्रक्रिया (an active or process) कहा है। जो भी समझा जावे शिक्षा लेना-देना वास्तव में मनुष्य की एक क्रिया-प्रक्रिया और उसका एक प्रयास है (Education in fact is man’s activity-process and one of his attempts) | अब हमें कुछ लोगों के विचारों पर भी ध्यान देना चाहिए जिससे यह बात स्पष्ट हो जावे ।

(i) प्रो० एडलर- “शिक्षा मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन से सम्बन्धित क्रिया है। यह तो जन्म से आरम्भ होती है और मृत्यु तक चलती है।”

(ii) प्रो० बैंटॉक- “शिक्षा सभी प्रकार के अनुभवों का कुल योग है जो मनुष्य अपने जीवन काल में प्राप्त करता है और जिसके द्वारा वह जो कुछ है उसका निर्माण होता है।”

शिक्षा की प्रक्रिया की अपनी एक विशेषता विचारकों ने बताई जैसा कि हम प्रो० एडम्स के शब्दों में पाते हैं। प्रो० एडम्स ने लिखा है कि “शिक्षा एक सचेतन और विचारपूर्ण प्रक्रिया है जिसमें एक व्यक्तित्व दूसरे पर इसलिए प्रभाव डालता है कि दूसरे का विकास और परिवर्तन हो सके।”

प्रो० ऐडम्स के शब्दों से हमें मनुष्य की और शिक्षा की एक विशेषता मालूम होती है, वह ‘चिन्तन’ की है। मनुष्य जो कुछ अनुभव ज्ञान ग्रहण करता है वह सोच-विचार के साथ ग्रहण करता है, अतएव ऐसी दशा में शिक्षा चिन्तनयुक्त क्रिया होती है। (Education becomes a reflective activity) और जहाँ चिन्तन होता है वहाँ एक निर्णय भी करना पड़ता है (There is a decision also) । इस चिन्तन और निर्णय में ही ‘दर्शन’ (Philosophy) पाया जाता है जिससे मनुष्य की जिज्ञासा, समस्या सभी का समाधान होता है। अतः दर्शन क्या है। इसे भी समझना चाहिए।

दर्शन का तात्पर्य

दर्शन के लिए अंग्रेजी में Philosophy’ शब्द है। इसमें फिलॉस (Philos) और सोफिया (Sophia) शब्द मिले हैं जिनका अर्थ क्रमशः ‘प्रेम’ और ‘ज्ञान’ होता है। अतएव फिलॉसफी (दर्शन) का अर्थ होता है- ज्ञान के लिए प्रेम या अनुराग (Love for knowledge or wisdom) | हिन्दी में दर्शन का तात्पर्य होता है ‘जो कुछ देखा जावे।’ इसे जीवन के सम्पर्क में ही लिया जाता है यद्यपि संसार और संसार से दूर की चीजों को देखना-जानना भी दर्शन है। दर्शन की दूसरी विशेषता यह है कि इसमें पूर्णता की ओर ही दृष्टि रहती है। अतएव जीवन से सम्बन्धित सभी तथ्यों, सत्यों एवं परिस्थितियों पर पूर्णता के साथ चिन्तन करना और निर्णय लेना दर्शन होता है (Philosophy is thinking about all facts, truths and situation related to life with a wholeness, and to  Make a decision there. N) | इसे स्पष्ट करने के लिए कुछ विद्वानों के कथन पर भी हमें ध्यान देना है-

(i) प्रो० ब्राइटमैन- “दर्शन को ऐसे प्रयास के रूप में पारिभाषित किया जा सकता है जिसके द्वारा मनुष्य की अनुभूतियों के सम्बन्ध में समग्र रूप से सत्यता के साथ विचार किया जा सकता है अथवा जो सम्पूर्ण अनुभूतियों को बोधगम्य बनाता है।”

(ii) प्रो० सेलर्स- “दर्शन एक ऐसा लगातार प्रयास है जिससे कि मनुष्य संसार तथा अपनी प्रकृति के सम्बन्ध में क्रमबद्ध ज्ञान द्वारा एक अन्तर्दृष्टि प्राप्त करने की चेष्टा करता है।”

(iii) प्रो० पैट्रिक- “दर्शन को वस्तुओं के सम्बन्ध में पूर्ण चिन्तन की कला कहा जा सकता है।”

(iv) प्रो० रसेल- “दर्शन अन्तिम प्रश्नों का आलोचनात्मक उत्तर देने का प्रयास है।”

(v) प्रो० लॉग- “दर्शन विशेष रूप से उचित तथ्यों के व्यवस्थित विचार, उनकी व्याख्याओं और जीवन की समस्या के लिए अभिप्रेताओं से विशेषकर सम्बन्धित होता है।”

ऊपर के विचारों का निष्कर्ष निकालने पर हमें ज्ञात होता है कि दर्शन संसार की सभी चीजों, मनुष्य के जीवन के सभी तथ्यों एवं सत्यों पर आलोचनात्मक दृष्टि के साथ विचार करने का व्यावहारिक प्रयत्न है। (Philosophy is a practical attempt to think critically about all things of the world, all facts and truths of human भी इसी कारण यह कहा गया है कि दर्शन तो मनुष्य जीवन की सभी समस्याओं का समाधान करता है। (Philosophy solves all the problems of human life)

भारतीय और पाश्चात्य दृष्टिकोण से ‘दर्शन’ व ‘फिलॉसफी’ का अर्थ- यों तो ‘दर्शन’ और ‘फिलॉसफी’ समानार्थी शब्द हैं फिर भी दोनों के दृष्टिकोण में अन्तर बताया जा सकता है। दोनों में निम्नलिखित अन्तर पाया जाता है :-

भारतीय दृष्टिकोण

(1) ‘दर्शन दृश् धातु से बना है जिसका अर्थ है जो कुछ देखा जाय ।

(2) दर्शन शब्द प्रत्यक्ष ज्ञान का अर्थ देता है। यह प्रत्यक्ष ज्ञान अन्तःकरण के द्वारा प्राप्त किया जाता है। इसमें आत्म- निष्ठता होती है। ऐसा विचार हमें प्राचीन भारतीय शिक्षाशास्त्रियों से मिलता है।

(3) वैयक्तिक घटना पर बल दिया जाता है। दर्शन वास्तव में व्यक्ति विशेष के ज्ञान, अनुभूति, कल्पना और ध्यान पर आधारित होता है।

(4) दर्शन का उपागम अन्तःज्ञानात्मक होता है। इसमें अन्तर्दृष्टि से सब कुछ जानने का प्रयास किया जाता है।

(5) दर्शन ब्रह्म, आत्मा, ईश्वर की प्राप्ति का साधन है। इस दृष्टि से यह एक आध्यात्मिक साधन है। दर्शन- आध्यात्मिकता पर केन्द्रित होता है। यह तथ्य हमें अरविन्द जैसे शिक्षाशास्त्री के विचारों में मिलता है।

(6) भारत में दर्शन का लक्ष्य मानव की मुक्ति है जो ईश्वरानुभूति में पाई जाती है। यह उद्देश्य हमें विवेकानन्द जैसे शिक्षा-शास्त्री के विचारों में मिलता है।

(7) दर्शन का क्षेत्र भारत में धर्म और उच्च जीवन के मूल्यों से सम्बन्धित था और कुछ-कुछ आज भी है। आज के धार्मिक नेता अच्छे दार्शनिक समझे जाते हैं और उनके विचारों में सत्य, ज्ञान, मुक्ति के बारे में गहरी अनुभूति मिलती है।

पाश्चात्य दृष्टिकोण

(1) ‘फिलॉसफी’ फाइलॉस और सोफिया शब्दों के मेल से बना है जिसका अर्थ है ज्ञान के लिए प्रेम या जिज्ञासा ।

(2) फिलॉसफी शब्द विषय-वस्तु की ओर संकेत करता है जिसमें केवल अन्तिम ज्ञान का लक्ष्य होता है। इसमें वस्तुनिष्ठता होती है।

(3) सार्वभौमिक घटना पर बल दिया जाता है। फिलॉसफी समग्र रूप से सार्वभौमिक सत्यों की खोज करता है। कल्पना के साथ तर्क पर बल दिया जाता है।

(4) फिलॉसफी का उपागम प्रयोगात्मक होता है, तार्किक उपागम होता है। इसी के द्वारा सभी की जानकारी की जाती है।

(5) फिलॉसफी यथार्थता की प्राप्ति का साधन है। यथार्थता वैज्ञानिक अधिक है आध्यात्मिक कम। सांसारिक यथार्थता पर आज फिलॉसफी केन्द्रित होता है। प्रायः सभी पाश्चात्य विचार ऐसे हैं।

(6) फिलॉसफी का लक्ष्य ऐसा नहीं होता है।

(7) इस प्रकार का दृष्टिकोण ‘फिलॉसफी में नहीं पाया जाता। धर्म तो बिल्कुल अलग है। हाँ जीवन के मूल्यों पर फिलॉसफी का कुछ ध्यान है।

भारतीय शिक्षा दार्शनिक दर्शन का तात्पर्य आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ढंग से लगाते हैं। प्राचीन काल में आध्यात्मिक तात्पर्य पर बल दिया गया है जैसे शङ्कराचार्य ने लिखा है सा विद्या या विमुक्तये अर्थात् वही विद्या है जिससे मुक्ति होती है। उपनिषदों एवं गीता में श्रेयस एवं प्रेयस् ज्ञान पर बल दिया गया है। आधुनिक भारतीय दार्शनिक डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने लिखा है कि “दर्शन यथार्थतम की प्रकृति का तार्किक अन्वेषण है।” यथार्थता आध्यात्मिक और भौतिक दोनों अर्थों में यहाँ लक्षित है परन्तु समयानुसार भौतिक यथार्थता की ओर ही संकेत है। इसी प्रकार से रवीन्द्रनाथ टैगोर ने दर्शन को सर्वव्यापी सत्य एवं यथार्थ समझा है जो मानव, प्रकृति एवं कला में प्रकट होता है। स्वामी विवेकानन्द एवं महायोगी अरविन्द ने दर्शन को पूर्णतया आध्यात्मिक खोज माना है और दोनों ने इसे आत्मा की अनुभूति घोषित किया है।

पाश्चात्य देशों में दर्शन (फिलॉसफी) वास्तविक यथार्थता तक ही सीमित पाई जाती है। प्लेटो से लेकर डीवी तक में यही विचारधारा पाई गई। डीवी सबसे अधिक वास्तविक या वस्तुनिष्ठ विचारक हुआ है। वह तो हरेक यथार्थता को वैज्ञानिक कसौटी पर कसते हैं। डीवी के पूर्व काण्ट, हीगेल, स्पिनोजा एवं लाइबनिज जैसे दार्शनिक भौतिक यथार्थता की सिद्धि में लगे पाये गये हैं यद्यपि इनका हम शिक्षाशास्त्री के रूप में अध्ययन नहीं करते। हरबर्ट यद्यपि नैतिकता की ओर झुका है फिर भी वस्तुनिष्ठ चिन्तन की रोशनी में ही उसने इसे देखने का प्रयास किया। फ्रोबेल आध्यात्मवादी शिक्षाशास्त्री अवश्य है परन्तु वह भी खेल की वस्तुओं से शिक्षा देने में इतना व्यस्त हो गया कि उसकी आध्यात्मिकता दूर हो गई। उसने दर्शन को ईश्वर के ज्ञान तक ही रखा, पूर्ण आध्यात्मिक अनुभूति उसमें नहीं रही जैसा कि विवेकानन्द या अरविन्द के प्रयासों एवं विचारों में स्पष्ट मिलता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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