अर्थशास्त्र / Economics

नियोजित अर्थव्यवस्था | नियोजित अर्थव्यवस्था के पक्ष में तर्क | नियोजित अर्थव्यवस्था के विपक्ष में तर्क

नियोजित अर्थव्यवस्था | नियोजित अर्थव्यवस्था के पक्ष में तर्क | नियोजित अर्थव्यवस्था के विपक्ष में तर्क | Planned Economy in Hindi | Arguments in favor of a planned economy in Hindi | Arguments Against Planned Economy in Hindi

नियोजित अर्थव्यवस्था

आज का युग नियोजन का युग है। रॉबिन्सन ने स्पष्टतः कहा है, “आज हम भले ही समाजवादी न हों, परन्तु लगभग हम सभी निश्चित रूप से नियोजन के समर्थक हैं।”

डार्विन के शब्दों में, “आज हम सभी योजना-निर्मित हैं। वास्तव में नियोजन उन सभी  विषयों में से एक है जिन पर आज कोई वाद-विवाद नहीं किया जा सकता।” उन्होंने आगे कहा है, “वे लोग केवल समाजवादी ही नहीं जो नियोजन में अटूट विश्वास रखते हैं, बल्कि अधिकांश बुद्धिजीवी इस निष्कर्ष पर पहुँचते जा रहे हैं कि उत्पादन को संगठित व व्यवस्थित करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय केन्द्रीय नियन्त्रण ही है। वे यह भी विश्वास करने लगे हैं कि नियोजन आर्थिक जीवन को संगठित करने की एक अपेक्षाकृत अधिक सुविधाजनक एवं कुशल प्रणाली है।”

अनियोजित अर्थव्यवस्था की अपेक्षा नियोजित अर्थव्यवस्था श्रेष्ठ है, यह अब एक विवाद‌ रहित सत्य हो गया है। एक नियोजित अर्थव्यवस्था पूँजीवाद के दोषों को दूर करने की क्षमता रखती है और स्थिरता के साथ तीव्र प्रगति को सम्भव बनाती है। इसीलिये प्रो० रोबिन्सन ने लिखा है, “नियोजन हमारे युग का एक भव्य रामबाण है।”

नियोजित अर्थव्यवस्था के पक्ष में तर्क

नियोजित अर्थव्यवस्था के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं –

  1. निर्णय एवं कार्य प्रणाली में समुचित समन्वय- एक नियोजित अर्थव्यवस्था में केन्द्रीय नियोजित सत्ता द्वारा जो निर्णय लिये जाते हैं वे विवेकपूर्ण तथा आर्थिक दृष्टि से न्यायसंगत होते हैं। साधनों का आवंटन पूर्ण निश्चित उद्देश्यों एवं प्राथमिकताओं के आधार पर किया जाता है। इसके विपरीत, स्वतन्त्र प्रतियोगिता पर आधारित अनियोजित अर्थव्यवस्था में उत्पादन एवं विनियोग के सम्बन्ध में लिये गये निर्णय आवश्यक रूप से अविवेकपूर्ण होते हैं। जिनका परिणाम होता है – कभी अति उत्पादन और कभी न्यून उत्पादन, इसीलिये अनियोजित अर्थव्यवस्था को ‘बन्द आँखों वाली अर्थव्यवस्था’ कहते हैं। प्रो० लर्नर के अनुसार, “एक अनियोजित अर्थव्यवस्था की तुलना ऐसे वाहन से की जा सकती है जिसमें ड्राइवर नहीं है परन्तु मोटर में बैठा हुआ प्रत्येक यात्री अपनी इच्छा और शक्ति के अनुसार मोटर के हैंडिल को घुमाने का प्रयत्न करता है, भले ही उसके परिणाम कुछ भी क्यों न हो।” प्रो० डर्बिन के अनुसार, “अनियोजित अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत लिये गये निर्णय पूर्णतः भ्रमात्मक, लघुदर्शी, अविवेकपूर्ण तथा सामाजिक पतन के समरूप होते हैं।” नियोजित अर्थव्यवस्था इन सब दोषों से मुक्त होती है। और इसलिये वह अनियोजित अर्थव्यवस्था से श्रेष्ठ है।
  2. आर्थिक साधनों का सन्तुलित एवं सर्वोत्तम उपयोग- नियोजित अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत उपलब्ध आर्थिक साधनों का उपयोग करते समय उनकी माँग और पूर्ति में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। केन्द्रीय नियोजन सत्ता वर्तमान की आवश्यकताओं, भावी माँग का पूर्वानुमान एवं स्त्रोतों की कुल पूर्ति के बीच सदैव समायोजन करती रहती है ताकि उपलब्ध साधनों का प्राथमिकताओं के अनुरूप सर्वोत्तम उपयोग हो सके तथा उनका तनिक भी अपव्यय न हो। इसके विपरीत अनियोजित अर्थव्यवस्था में स्वतन्त्र प्रतियोगिता के कारण आर्थिक साधनों का उपयोग निजी हित में किया जाता है ओर निजी हित के सामने राष्ट्रीय हित की सर्वथा उपेक्षा कर दी जाती है। प्रो. चार्ल्स बैटल हीम के शब्दों में, “एक नियोजित अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत स्त्रोतों के निर्धारण एवं शोषण के संबन्ध में सन्तुलित एवं अविवेकपूर्ण दृष्टिकोण अपनाये रखना नियोजन अधिकारी का प्रमुख कर्त्तव्य माना जाता है।”
  3. व्यापार-चक्रों से मुक्ति- प्रो० मीड के अनुसार, “अनियोजित अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी दुर्बलता व्यापार-चक्रों की पुनरावृत्ति है।” प्रो० डर्बिन के शब्दों में, “शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहाँ अनियोजित अर्थव्यवस्था इतनी असफल रही हो जितनी कि व्यापार-चक्रों के सम्बन्ध में।” अनियोजित अर्थव्यवस्था में इस असन्तुलन के मुख्यतः दो कारण हैं –

(1) बचतकर्ता तथा विनियोगकर्त्ता में किसी प्रकार को कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं पाया जाता, (2) बैंकिंग एवं वित्तीय संस्थाएँ राष्ट्रीय बचत की दर देखे बिना विनियोग की मात्रा में परिवर्तन कर देती हैं। फलतः समाज में एक ओर बेरोजगारी बढ़ने लगती है और दूसरी ओर व्यापर-चक्र जन्म लेने लगते हैं। डार्बिन के अनुसार, “इसका समाधान केन्द्रीकृत योजना है। एक नियोजित अर्थव्यवस्था में उत्पादन और उपभोग, माँग और पूर्ति तथा बचत एवं विनियोग के बीच सन्तुलन स्थापित करने और आर्थिक स्थायित्व को बनाये रखने का प्रयास किया जाता है।”

  1. आर्थिक एवं सामाजिक विषमताओं पर रोक- आर्थिक एवं सामाजिक विषमताओं को कम करने की दृष्टि से भी नियोजित अर्थव्यवस्था अनियोजित अर्थव्यवस्था से श्रेष्ठ है। अनियोजित अर्थव्यवस्था में निजी सम्पत्ति, उत्तराधिकार के नियम एवं मूल्य यन्त्र जैसी महत्त्वपूर्ण संस्थाएँ आर्थिक विषमताओं को बढ़ाने में सक्रिय बनी रहती है। इनके कारण धनी और निर्धनों के बीच खाई बढ़ती जाती है जिसका परिणाम होता है – शोषण एवं संघर्ष। इसके विपरीत, नियोजित अर्थव्यवस्था में आय एवं वन का समान एवं न्यायपूर्ण वितरण होता है जिसके कारण आर्थिक विषमताएँ कम होने लगती हैं। इसके अतिरिक्त सभी को शिक्षा एवं प्रगति के समान अवसर प्रदान किये जाते हैं।
  2. सामाजिक परजीविता का अभाव- अनियोजित अर्थव्यवस्था में सामाजिक परजीविता का दोष पाया जाता है। समाज का एक वर्ग बिना उत्पादन किये उतपादन का एक बड़ा भाग हड़प जाता है। उत्तराधिकार के नियमों के कारण कुछ लोग बिना परिश्रम किये बड़ी मात्रा में धन प्राप्त कर लेते हैं। शोषण की यह प्रवृत्ति सामाजिक न्याय की दृष्टि से उचित नहीं है। इस प्रकार का शोषण एवं परजीविता नियोजित अर्थव्यवस्था में समाप्त हो जाती है।
  3. उत्पत्ति के साधनों का समुचित वितरण- अनियोजित अर्थव्यवस्था में उत्पत्ति के साधनों का वितरण समान की आवश्यकताओं के अनुरूप न होकर निजी लाभ की भावना से प्रेरित होकर जाता है। उत्पादक का हित सर्वोपरि माना जाता है और सामाजिक हित की सर्वथा उपेक्षा की जाती है। इसके विपरीत, एक नियोजित अर्थव्यवस्था में उत्पत्ति के साधनों का वितरण सामाजिक मांग को ध्यान में रखकर किया जाता है और निजी हित के स्थान पर सामाजिक हित का अधिक महत्त्व दिया जाता है।
  4. प्रतियोगिता सम्बन्धी अपव्ययों का अभाव- एक नियोजित अर्थव्यवस्था में प्रतियोगिता के कारण अनेक प्रकार के अपव्यय उत्पन्न होते है। ये अपव्यय हैं – विज्ञापन एवं विक्रय लागतें, डिजाइन, रंग एवं आकार की बहुलता के कारण व्यय, उत्पादन सुविधाओं का दोहराव, साधनों का अल्प उपयोग आदि। इनके कारण बढ़ी हुई लागत को वहन करने का अन्तिम उत्तरदायित्व उपभोक्ताओं पर थोप दिया जाता है। इसीलिये आस्कर लेंगे ने कहा है, “प्रतियोगिता दीर्घकालीन दृष्टि से समाज के हित में नहीं है।” इसके विपरीत, एक नियोजित अर्थव्यवस्था में इस प्रकार के अपव्यय काफी सीमा तक समाप्त हो जाते हैं।

नियोजित अर्थव्यवस्था के विपक्ष में तर्क

सामान्यतः नियोजित अर्थव्यवस्था के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं –

  1. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अभाव- नियोजित अर्थव्यवस्था में सम्पूर्ण आर्थिक ढाँचे पर केन्द्रीय नियन्त्रण होने के कारण लोगों का उपभोग, उत्पादन और व्यवसाय चयन में स्वतन्त्रता का हनन हो जाता है और उन्हें केन्द्रीय नियोजन सत्ता द्वारा निर्धारित कार्यक्रमों के अनुसार कार्य करने को बाध्य होना पड़ता है। प्रो. हायेक ने कहा था, “नियोजन दासता का मार्ग है”। विलियम्स के शब्दों में, “अधिकांश लोग आर्थिक नियोजन के फलस्वरूप स्वतन्त्रता खोने के बजाय मृत्यु को आलिंगन करना अधिक पसन्द करेंगे।”
  2. अस्त-व्यस्त अर्थव्यवस्था – अनियोजित अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार मूल्य यन्त्र है जो कि अर्थव्यवस्था को सन्तुलित बनाये रखता है। आलोचकों का विचार है कि अनियोजित अर्थव्यवस्था में मूल्य यन्त्र के अभाव के कारण अर्थव्यवस्था में साधनों का विवेकपूर्ण बँटवारा सम्भव नहीं होगा जिससे उपभोग व उत्पादन का ढाँचा अव्यवस्थित हो जायगा और देश में विकास की गति रुक जायेगी। यह मान लेना कि मूल्य यन्त्र के अभाव में सम्पूर्ण आर्थिक क्रियाएँ ठप्प हो जायेंगी, सर्वथा गलत है क्योंकि प्रथम, नियोजन अर्थव्यवस्था की अपनी एक निश्चित मूल्य-नीति हो सकती है जिसे बहुत कुछ मूल्य यन्त्र के समरूप बनाया जा सकता है तथा द्वितीय, नियोजन अर्थव्यवस्था में मूल्यों पर नियन्त्रण करना आवश्यक है ताकि निर्धारित विधियों में वांछित उद्देश्यों की पूर्ति की जा सके।
  3. आवश्यक उत्प्रेरणाओं का अभाव- आलोचकों का मत है कि नियोजित अर्थव्यवस्था में उत्पादन के लिये आवश्यक प्रेरणाओं का अभाव रहता है। इसका कारण यह है कि श्रमिकों की मजदूरी, उनका व्यवसाय, कार्य करने की दशाएँ व उन्नति के अवसर सभी पूर्ण निर्धारित होते हैं। अतः श्रमिकों में अधिक परिश्रम करने का उत्साह समाप्त हो जाता है। प्रो० पीगू के अनुसार के मतानुसार, “प्रेरणा व प्रलोभन आर्थिक विकास का मुख्य आधार है।” किन्तु नियोजन अर्थव्यवस्था में परिश्रम व उत्साह, पहले करने की इच्छा, आविष्कार व अनुसन्धान करने की लालसा धीरे-धीरे समाप्त होने लगती है।
  4. प्रबन्धकीय कुशलता एवं योग्य कर्मचारियों का अभाव – एक नियोजित अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्द्धा का अभाव होता है जिससे प्रबन्ध व प्रशासन में शिथिलता आ जाती है। और अकार्यकुशलता बढ़ने लगती है। परिणामस्वरूप अधिकांश योजनाएँ असफल हो जाती है।
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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